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Wednesday, November 13, 2019

रामचरित मानस में ‘किन्नर’ शब्द

प्रकृति ने नर और नारी का सृजन किया जो समाज का आधार स्तम्भ बने। जो प्रकृति निर्माण में सहयोगी हुए। इन दोनों लिंगों के अलावा तीसरा स्तम्भ भी है। उन्हें कोई खास दर्जा नहीं मिला, उन्हें 'किन्नर' अथवा 'तृतीय लिंगी' नाम से सम्बोधित किया जाता है। किन्नर भी सभ्य समाज का एक अंग है जो सभ्य समाज से ही पैदा हुआ है। माँ के गर्भ की खराबी के कारण 'किन्नर' रूप में उत्पन्न हुआ है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार। लेकिन सभ्य समाज के लोग इन्हें हेय या अजीबोगरीब दृष्टि से देखते हैं। हमेशा सभी के जेहन में यह प्रश्न जरूर उठता है 'किन्नर' कहाँ से आये हैं। ये बात अलग है समय और अनुभव के साथ समाज में पता चलता है कि ये नर और नारी से उत्पन्न ही है। फिर भी साहित्य की दृष्टि में इसके भी विभिन्न सर्वनाम मिलते हैं जैसे-पौराणिक ग्रन्थों, वेदों, पुराणों और साहित्य में किन्नरों को हिमालय क्षेत्र में बसने वाली अति प्रतिष्ठित व सम्पूर्ण आदिम जाति माना गया है। इनके वंशज हिमालय क्षेत्र किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा 'किन्नर देश और हिमालय' पुस्तक के अनुसार 'यह किन्नर देश है। जो हिमालय में किन्नर या किंपुरुष देवताओं की एक योनि मानी जाती थी। इस क्षेत्र को आजकल किन्नौर या किन्नौरा कहते हैं। अतएव चनाव नदी के तट पर आज भी किन्नौरी भाषा बोली जाती है। सप्तपटिक के 'विमानवत्थु (ईसा पूर्व द्वितीय तृतीय सदी) में लिखा है-'चन्द्रभागा नदी तीरे अहोसिं किन्नर तदा'- जिससे स्पष्ट है कि पर्वतीय भाग के चनाव तट पर उस समय भी किन्नर रहा करते थे। महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'किरातार्जुनीय' महाकाव्य के हिमालय वर्णन खण्ड (पाँचवाँ सर्ग, श्लोक-17) में किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सरा आदि देव-योनियों के किन्नर देश में निवास होने का वर्णन किया वायुपुराण में महानील पर्वत पर किन्नरों का निवास बताया गया है।
साहित्य में किन्नरों की उत्पत्ति के मिथक सत्य बहुत हैं जो तथ्यों के आधार पर प्रमाणिक भी हैं और मिथक अवधारणाएँ भी हैं। किन्नरों सम्बन्धी एक धारणा यह भी है कि ब्रह्मा जी की छाया से किन्नरों की उत्पत्ति हुई है इसके अतिरिक्त अरिष्टा और कश्यप ऋषि से भी किन्नरों की उत्पत्ति मानी जाती है। वात्स्यायन कृत 'कामसूत्र' में किन्नरों को तृतीय प्रकृति कहा गया है जिसके नवम अध्याय में किंपुरुष एवं किंपुरुष इसका उल्लेख मिलता है-द्विविधा तृतीयाप्रकृतिः स्त्रीरूपिणी पुरुषरूपिणी च। अर्थात् तृतीय प्रकृति दो प्रकार की होती है। एक स्त्री रूप में दूसरी पुरुष रूप में।
भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही किन्नरों की भूमिका रही है। इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। भरतमुनि ने ब्रह्माजी द्वारा नाट्यवेद को जानकर प्रथमतः अपने जिन सौ पुत्रों (105 की कुल संख्या) अथवा शिष्यों को नाट्यकला का अध्ययन कराया तथा अभिनय में पारंगत किया उनमें एक नाम 'रश्ण्ड' भी है। यह शण्ड नामधारी नर्तक व व्यक्ति विशेष नहीं, प्रत्युत तृतीयलिंगी हो सकती है।
किन्नर समाज को भले ही आधुनिक युग में हेय और अपमानजनक दृष्टि से देखा जाता हो। आदिकाल, मध्यकाल और भक्तिकाल में इनका स्थान विशेष रहा है। इनकी बुद्धि और शक्ति को दर्शाया गया है। महाभारत में किन्नर रूप में शिखंडी और ब्रह्नल्ला का स्थान विशेष है। शिखंडी एक किन्नर थी, जो विद्या, बुद्धि और बल में अपराजिता थी उसके जन्म के बारे में महाभारत में लिखा है-
शिखंडिनं तमासाद्य भरतानां पितामह।
अवर्यतज्ज संग्राम स्त्रीत्वं तस्यसात्रुसंस्मरन्।।
महाभारत महाकाव्य में भीष्म ने स्वयं कहा है कि मुझे शिखंडी ही हरा सकता है-
'शिखंडी समरारामर्षी सूरश्व स्रमितिअजयः।
यथा भवत्स्त्री पूर्व पश्चात् पुंस्तवं समागत।।'
शिखंडी रूपी किन्नर को भीष्म ने बार-बार प्रणाम किया।
वाल्मीकि कृत रामायण के उत्तरकांड में वर्णित किन्नरों की प्रत्यक्ष उपस्थिति मिलती है। इसमें राजा प्रजापति वर्दभ के पुत्र इल की कथा के माध्यम से किन्नरों की उत्पत्ति के मिथकीय प्रमाण मिलते हैं और किन्नरों को देव की सन्तान कहा है-
'अत्र किंपुरुषीभूत्वा शैलीरोधसी वत्स्यथ आवामस्तु
गिरावस्मिन मीनाक्षी शीघ्रमेव विधीयताम्।'
भीष्म ने स्वयं पांडव सेना को कहा है कि तुम्हारी सेना में जो महारथी द्रुपद पुत्र प्रायः शत्रुओं को जीता करता है, वह पहले स्त्री था और पीछे से पुरुष हो गया। 
किन्नरों का वर्णन बुद्धि, विद्या और बल में सामथ्र्य रखते हुए चित्रित किया है। आदिकवि वाल्मीकि जी रामायण के सृजनकर्ता हैं। मध्यकाल में रामचरित मानस के सृजनकर्ता के रूप में गोस्वामी तुलसीदास जी धरा पर प्रकट हुये। जिन्होंने राम के शील, सौन्दर्य और शक्ति रूप को जन-जन के आगे रखा। रामचरित मानस में तुलसी के राम का शान्तिमय और सुखमय राम को चित्रित किया है जो रामचरितमानस में राम का आदर करते हैं, राज का सम्मान करते हैं, राम के मित्र हैं, राम के जो आस-पास भी हैं उनहें भी राम की तरह रामचरित मानस में आदर और सम्मान मिला है। राम की भक्ति में जो किसी न किसी तरह से लीन है, राम का सूक्ष्म से सूक्ष्म सहयोगी भी है।  गोस्वामी तुलसीदास के लिए वो आदर और सम्मान का अधिकारी है। तभी तो तुलसीदास कृत रामचरित मानस में किन्नर शब्द का छब्बीस बार प्रयोग हुआ है। किन्नरों की भक्ति को दर्शाया है। इस प्रसंग का उल्लेख मानस में तुलसी करते हैं-
'जथा जोगु करि विनय प्रणाम।
विदा किए तब सानुज रामा।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे,
सब सनमामि कृपानिधि फेरे।।'
उत्तरकाण्ड में तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरे रघुनाथ की भक्ति में लीन नारी निस्वार्थ और निश्चल भक्ति देख मेरे अन्दर भी भाव विभोर हो गये। करुणासागर के मन में तरंगें उठने लगी। तब श्रीराम ने उनको वरदान किया कि कलयुग में तुम्हारा राज्य होगा और तुम लोग जिसको भी आशीर्वाद दोगे उसका कभी अनिष्ट नहीं होगा। रामचरित मानस में ही राम की भक्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि-
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई
सर्व भाव नाज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई।
(उत्तरकाण्ड, 87 (क))
रामचरित मानस में किन्नरों द्वारा कुम्भ में स्नान की परंपरा के सूत्र मिलते हैं जिसमें माघ मास में जब सूर्य का स्थान मकर राशि में होता है तब एक तीर्थराग प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्य के समूह सब त्रिवेणी में स्नान करते हैं।
माघ मकरगति रवि जब होई,
तीरथपति आव सब कोई।
देव, दनुज, किन्नर, नर, श्रेणी,
सादरमज्जहिं सकल त्रिवेणी।।
रामचरित मानस एक वृहद महाकाव्य है। गोस्वामी जी द्वारा रचित रामचरित मानस भारतीय संस्कृति के अधिकांश पक्षों को समाहित किया हुआ महाग्रन्थ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ''गोस्वामी जी की रामचरित मानस वह दिव्य कृति है जिससे जीवन में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता सब कुछ प्राप्त हो सकता है।''
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ''तुलसीदास का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, 'रामचरित मानस' शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।''
प्रेमशंकर तुलसी और रामचरित मानस से प्रभावित होकर लिखते हैं कि 'राम तो मूल्यों का महापुंज है ही, पर तुलसी की राम कथा के सभी पात्र स्वयं को प्रमाणित करते हैं। भरत की भक्ति, लक्ष्मण की सेवा, हनुमान का समर्पण अन्य सभी पात्रों का विवेकपूर्ण निष्ठा, उनकी कार्य प्रक्रिया में चरितार्थ होती है।''
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 'मानस' के महत्व को दर्शाते हुए लिखते हैं ''रामचरित मानस वह अक्षय विभूति है, जिसके कारण भारत केवल सम्पन्न ही नहीं है, गर्व से अपना सिर भी ऊपर उठाये हुए है। इस मानस के गर्भ में छिपे मोतियों की ज्योति से कितने ही मन-मन्दिर दैदीप्यमान हुआ करते हैं, वह ज्योति दीन-हीन के झोंपड़े में ही नहीं, महाराजाओं के प्रदीप्त प्रसादों में भी अपनी हवलिया से तमराशि को धोया करती है। हम मानस की लोल-लहरियों में कितने ही हंस, बक, काक आदि अच्छे व बुरे, डुबकियाँ लगाया करते हैं। जो भले हैं, उनकी सात्विकता का विकास होता है और बुरे हैं उनका बाह्य और अभ्यन्तर दोनों का मालिन्य हट जाने से स्वच्छ हो जाते हैं।''
उपरोक्त सभी परिभाषाएँ बताती हैं कि रामचरित मानस एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें भारत के संस्कारों और संस्कृति की गौरव-गाथा का वर्णन है। रामचरित मानस एक अथाह सागर है और विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, प्रदेशों और राष्ट्रों ने अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमें से अमूल्य रत्न ग्रहण किया है और यह प्रक्रिया सदैव जारी भी रहेगी। रामचरित मानस में हर जाति, हर सम्प्रदाय, हर धर्म की बात है। संसार की हर चीज का वर्णन रामकाव्य में मिलता है। चाहे वो दलित विमर्श हो या आदिवासी विमर्श, पर्यावरण हो या सौन्दर्य वर्णन, सभ्यता हो या संस्कृति हर चीज का पुंज, महापुंज है रामकाव्य। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी किन्नर विमर्श मिलता है या रामचरित मानस में 'किन्नर' शब्द का प्रयोग किया। गोस्वामी तुलसीदास ने कुल मिलाकर छब्बीस बार किन्नर-समाज को साधु हृदय से याद किया है।
सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिवृंद।
(बा. कां.-105)
तुलसीदास जी कहते हैं कि किन्नर महादेव के भक्त हैं, किन्नर शिव की स्तुति के सबसे बड़े गायक हैं। 'किन्नरै स्तुयमान'। ग्रन्थों में किन्नर समाज को देवताओं का एक भाग माना है। किन्नर देव जाति है जिसको अंग्रेजी में 'सेमीगाॅड' कहते हैं। तो रामभक्त तुलसीदास ने भी किन्नरों की वंदना की, किन्नर शब्द का प्रयोग करके तुलसीदास जी ने समन्वय के अर्थ को पूर्ण से सम्पूर्ण कर दिया। रामचरित मानस और गोस्वामी तुलसीदास जी के बारे में 'समन्वय की विराट चेष्टा' खूब कही लेकिन सही अर्थों में रामचरित मानस के गहन अध्ययन से यह जरूर पता चलता है कि तुलसीदास जी का मन रामभक्ति में रमा हुआ था। तुलसी के राम और रामचरित मानस सम्पूर्ण लोक और प्रकृति में रचे-बसे थे। रामचरित मानस में जिस प्रकार राम वन्दनीय है उसी तरह हर पात्र को वन्दनीय बनाया हुआ है जो रामभक्त है। जो तुलसी के राम को आशीष देते हैं, तुलसी के राम को आशीर्वाद देते हैं तो तुलसी के लिए वो तुलसी हृदय वासी बन जाते हैं। इसी तरह जब सीता स्वयंवर होता है जानकी जी का विवाह रघुनाथ से होता है। जानकी ने राम के कण्ठ में जयमाला पहनायी, तब किन्नरों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और गायन किया। राम को ब्रह्मा रूप माना है, ईश्वर माना है। तीनों लोकों के पालनकर्ता की जब पृथ्वी पर माता सीता से विवाह गठबन्धन होता है, उस समय किन्नर उन्हें आशीष देते हैं यानि देवों के देव को किन्नर आशीर्वाद देते हैं। तभी गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
'राम ब्रह्म परमारथ रूपा।'
जयमाला के समय किन्नर राम के लिए शुभगीत गाते हैं। खूब आशीष देते हैं। इसका वर्णन रामचरित मानस की इन दो पंक्तियों में मिलता है। तुलसी जी बाल-काण्ड 71 (घ) में कहते हैं-
देव दनुज नर खग प्रेत पितर गंधर्व,
बंदउॅ किंनर रजनिचर कृपा करतु अब सर्व।।
तुलसीदास जी जब रामचरित मानस की रचना करते समय शुरुआत में भी 'बंदऊँ किंनर' कहकर किन्नर समाज की वंदना करते हैं। कहते हैं कि मैं जो रामचरित मानस लिख रहा हूँ आप मुझे अपना आशीर्वाद दो ताकि मैं अपने कार्य में सफल हो जाऊँ। गोस्वामी तुलसी दास जी ने 'किन्नर समाज' की बहुत शालीनता, मर्यादा से देवतुल्य, देव संतान मानकर 'किन्नर समाज' की वंदना की। गोस्वामी तुलसीदास जी के लिए 'किन्नर समाज' भी श्रीराम की तरह प्रिय था। क्योंकि उन्होंने भी राम वंदना की है वो भी रामभक्त थे। चित्रकूट में रामप्रसंग में 'किन्नर समाज' का वर्णन है।
भक्ति की पावनता एक कसौटी है, पवित्र कसौटी है। जब राम का वनवास हुआ था, तब राम वन में गये, तमसा नदी को पार किया, भगवान राम के वनवास से पूरी अयोध्या विकल हो उठी थी, उनके पीछे चलने लगी तो सबको प्रभु ने कहा, आप लौट जाओ। चैदह साल के बाद मैं आऊँगा। हे नर समाज! आप लौट जाओ। हे नारी समाज आप भी लौट जाओ। आप चैदह साल अवध में रहो। सबको सँभालो।
सभी लोग चले गये, चैदह साल की यात्रा पूरी कर, रघुनाथ राम आये तो तमसा के तट पर जब प्रभु राम उतरे तो एक समाज वहीं बैठा था। उन्होंने प्रभु राम के आते ही हर्ष-उल्लास से उनका स्वागत किया। तब श्रीराम ने पूछा आपको कैसे पता, हम आने वाले हैं, आप कब आये। तब किन्नर समाज ने कहा, 'प्रभु आप जब ये तट छोड़कर गये थे तो आपने नर और नारी को जाने के लिए कह दिया था। लेकिन हम न नर हैं न नारी, आपने हमें जाने के लिए नहीं कहा, इसलिए हम आपकी राह देखते थे कि आप कब आओगे। प्रभु राम का मन भावुक हो उठा। 'किन्नर समाज' ने प्रभु की राह देखने के लिए नींद भी नहीं ली। उनकी आँखें नींद से उभरी हुई और प्रभु की याद में रो-रोकर भी भरी हुई थी। चैदह साल तक 'किन्नर समाज' प्रभु राम की विरह वेदना में ऐसे ही बैठा रहा। श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनकी वंदना कर, उन्हें गले से लगा लिया। भगवान राम ने किन्नर समाज का स्वागत किया और अपने साथ चलने का आग्रह किया। तुलसी ने रामचरित मानस में इस समाज को प्रेम दिया है। भगवान राम ने इस समाज को प्रेम किया है। रामचरित मानस ने इस समाज को स्नेह, आदर, प्रेम दिया है। तुलसी जी ने लिखा है-
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई
सर्व भाव नाज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई।
(उत्तरकाण्ड, 87 (क))
जब चित्रकूट में राम जी वनवास के समय आये तो सभी देवता, पाताल के नाग सभी स्वर्ग और पाताल के निवासी राम के दर्शन के लिए आये तब किन्नरदेव भी आये यानि 'किन्नर समाज' को (किन्नर देव) कहा गया। रघुनाथ राम ने सभी स्वर्ग, पाताल के नाग देवों, अन्य दिशाओं से आये देवताओं के साथ 'किन्नर समाज' को भी प्रणाम किया। यानि पौराणिक काल में किन्नर समाज को देवो तुल्य माना जाता था। आज समय परिवर्तन होते-होते, इस समाज की दशा और दिशा विचारणीय हो गई। जिन्हें देवों की सन्तान माना गया, जिन्हें लोकनायक राम प्रणाम कर वंदना करते हैं। आज उसी 'किन्नर समाज' को हमारे सभ्य समाज में हीन माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस, पौराणिक ग्रन्थों का आधार ग्रन्थ है, जिसमें 'किन्नर समाज' का भी संवाद मिला है। तभी रामचरित मानस में बहुत सुंदरता से, वंदनीय, मर्यादा से 'किन्नर समाज' को दर्शाया है।
आज हमें अपनी पौराणिक ग्रन्थों को जानने की आवश्यकता है कि हम तकनीकी युग में तो आधुनिक हो गये लेकिन पता नहीं कि मानसिक ग्रन्थि का शिकार है जो ऐसे समाज या वर्गों की संवेदनाओं, भावनाओं को देखकर भी नहीं देख पाते। जो गोस्वामी तुलसीदास जी ने देखी। किन्नर समाज का या किंनर शब्द का जहाँ भी प्रयोग हुआ वहीं रामभक्ति और उस समाज का सुखद रूप दिखाया। ये ही गोस्वामी तुलसीदास जी की विशेषता है और रामचरित मानस की समन्वयवादी, सुखमय दृष्टि और दृष्टिकोण है। जो समाज के हर मानस का सुख चाहता है। समाज के हर मानस की उन्नति और विकास चाहता है। सच में तुलसीकृत रामचरित मानस समाज के हर मानस को सुंदर सृष्टि का अनुभव कराता हुआ, हर मानस को विकास की ओर अग्रसर होने की दशा व दिशा प्रदान करता है।


संदर्भ
1. राहुल सांकृत्यायन-किन्नर देश में, पृ. 346
2. महाभारत भीष्म पर्व (उनहत्तरवाँ सर्ग), पृ. 453, श्लोक 29 भाषानुवाद सहित, ऋषि कुमार (सनातन ध्यार्म यंत्रालय)
3. वाल्मीकि कृत रामायण, 99वाँ सर्ग, श्लोक-22
4. तुलसीदास, रामचरित मानस, अयोध्याकाण्ड-398/4
5. वही, उत्तरकाण्ड-87 (क)
6. वही, पृ. सं. 87(क)
7. तुलसीकृत रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड-134/1
8. वही, पृ. 134/2
9. मोरारी बापू कृत 'मानस किन्नर', पृ. 4, 5


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Aksharwarta International Research Journal, January - 2025 Issue