शहरी ग्रामीण तथा कस्बाई स्त्रियाँ अमरकांत के उपन्यासों के केंद्र में हैं। उनके उपन्यासों की स्त्रियाँ सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक गुलामी से मुक्ति की छटपटाहट को महसूस करती हैं। वह अपने स्वावलंबी व्यक्तित्व का परिचय देना जानती हैं। सदियों से चली आ रही सामाजिक मान्यताएं जो उसके शोषण का आधार हैं, अब उन्हें मान्य नहीं है। वे स्त्री को दासी तथा गुलाम समझने वाली व्यवस्था के विरुद्ध खड़ी दिखाई देती हैं। वह अपने अधिकारों से परिचित हैं। उन्हें अपमान का जीवन अब मंजूर नहीं है। वह व्यवस्था के साथ स्वयं में बदलाव की स्थिति महसूस करती हैं। उदाहरण स्वरूप 'लहरें' उपन्यास की स्त्री-पात्र सुमित्रा के कथनों को देखा जा सकता है 'दुनिया की स्त्रियों में बदलाव हो रहा है, हम अब भी जहालत में पड़ी हुयी निष्क्रिय हैं और रोज अपमान और मार सह रही हैं। हमको आपस में मिलना-जुलना चाहिए, संगठित होना चाहिए। अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए। इस आजाद और लोकतांत्रिक देश में अपने जनतांत्रिक अधिकारों की मांग करनी चाहिए, उसके लिए कोशिश करनी चाहिए। जब स्त्रियां खुद अपनी मानसिकता बदलेंगी तभी कुछ हो सकता है। जरुरत पडऩे पर एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। और अपने तरीकों से गलत बात का जबाब देना चाहिए।'1
नारी जागरण तथा नारी स्वतंत्रता संबंधी आन्दोलनों ने स्त्रियों में 'स्व' की भावना को जगाया है। उन्हें चेतनाशील बनाया है। सदियों से उनके स्वाभिमान का दलन करने वाली सामाजिक बुराइयों से उनका परिचय कराया है। दहेज प्रथा एक सामाजिक बुराई है। इसका खामियाजा आज भी स्त्रियों को भुगतना पड़ रहा है। यह एक ऐसी सामाजिक बुराई है जो स्त्रियों के लिए कई तरह की समस्याएं उत्पन्न करती है। कई बार उसे इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। 'ग्रामसेविका' उपन्यास की नायिका दहेज जैसी कुप्रथा के कारण अपने प्रेमी द्वारा ठुकरा दी जाती है। उसका प्रेमी अतुल उसे छोड़ कर उस लड़की से शादी करता है जिसके माता-पिता उसके परिवार को मोटी रकम दहेज के रूप में अदा करते हैं। संघर्षशील एवं आत्मसजग दमयंती प्रेमी अतुल के फैसले से दु:खी अवश्य होती है, लेकिन अपना आत्मविश्वास नहीं खोती। उसे स्वयं पर विश्वास है उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। आत्मविश्वास से युक्त दमयंती अपनी लड़ाई स्वयं लडऩा जानती है। वह प्रण लेती है की स्वंय के साथ परिवार की जिम्मेदारियों का भी निर्वहन करेगी। वह बीमार पिता को आश्वासन देते हुए कहती है 'बाबूजी आप फिक्र ना करें..., मैं नौकरी करूँगी। आप जरुर अच्छे हो जायेंगे। मैं विनय को अधिक से अधिक पड़ाऊँगी ।'2
अतुल के विश्वासघात से दमयंती टूटती नहीं है। वह और अधिक चेतनाशील हो जाती है। उसके अन्दर सदैव एक आग जलते रहती है। वह उन समस्त सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध दिखाई देती है जो स्त्रियों को गुलामी का एहसास कराती हैं। दहेज जैसी कुप्रथा की शिकार दमयंती निराश नहीं होती 'वह साहस, संघर्ष और कर्मठता का जीवन अपनाकर अपने दु:ख निराशा तथा अपमान का बदला चुकाएगी।'3
आत्मविश्वास से युक्त दमयंती ग्रामसेविका की नौकरी प्राप्त कर अपने साथ-साथ भोले-भाले तथा अशिक्षित ग्रामीणों में भी चेतना का संचार करती है। उनके साथ हो रहे शोषण के प्रति उन्हें जागरुक करती है। दमयंती के कारण ही यह संभव हो पाया था कि गाँव के लोग ग्राम-प्रधान के गलत नीतियों का विरोध करने लगे थेद्य ग्राम-प्रधान की धमकियों से डरे हुए ग्रामीणों को हरचरण समझाते हुए कहता है 'हमें शांति और धैर्य से काम लेना चाहिए' प्रधान हम लोगों से इसलिए नाराज है क्योंकि हम अपनी गरीबी और अज्ञानता को दूर करना चाहते हैं' उसको डर है कि अगर गाँव के लोग तरक्की कर गए तो वह शोषण कैसे कर सकेंगे। गरीबों का शोषण कर के ही तो वह मोटे हुए हैं। वह समझते हैं की डरा धमका कर मारपीट कर वह जनता को दबा लेंगे। लेकिन यह असंभव है..... गाँव के लोगों को अब अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। उनको पडऩा लिखना चाहिए, अपने खेतों पर डट के मेहनत करनी चाहिए। मिलजुल कर गाँव के तरक्की के काम करना चाहिए।'4
यह नारी चेतना का ही परिणाम है कि आज स्त्री सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यवसायिक तथा वैज्ञानिक हर क्षेत्र में पुरुषों से आगे है। वह हर क्षेत्र में बड़ चड़ कर अपनी सेवाएँ प्रदान कर रही है। आत्मबोध तथा आत्मनिर्भरता ने नारी को सर्वाधिक सशक्त बनाया हैद्य वह रूडिय़ों एवं परम्पराओं को खुलकर चुनौती दे रही है। वह समाज के बन्धनों की परवाह न करते हुए अपने स्वाभिमान की रक्षा कर रही है। यह नारी चेतना के कारण ही संभव हुआ है, जहाँ वह ये कहती है कि 'इसमें दोष हमारी सामाजिक व्यवस्था का है, जिसमें स्त्री को मन पसंद पति और पुरूष को मनपसन्द पत्नी चुनने का अधिकार नहीं। त्याग एक बहुत बडा गुण है, पर स्त्री को.... अपने कर्तव्यों के साथ अपने अधिकारों की भी चिंता करनी चाहिए। जो स्त्री अपने को पुरूष की दासी मानती है, वह मुझे जरा भी नहीं जँचती।'5
मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति तथा उनमें उत्पन्न चेतना को अमरकांत 'विदा की रात'उपन्यास में दर्शाते हैं। जहाँगीर बेगम डरी सहमी नई नवेली दुल्हन नईमा बेगम को समझाते हुए कहती है 'मैं हवा और रोशनी के बगैर नहीं रह सकती। और न किसी की टेडी-तिरछी बात ही बरदाश्त कर सकती हूँ। मर्द के बेकारए वाहियात शकों-सुबहा पर लानत भेजती हूँ। मुस्लिम खातून हूँ तो अल्लाह ने जो कानून बनाए हैं, उन्हीं पर चलूंगी, मगर अल्लाह ने यह कहाँ कहा है कि औरत जानवर की तरह रहे, ताने, मारपीट और जुल्म सहे... डरना-दबना छोड़ कर हँसो और मुस्कुराओ। लड़के हैं, लडकियां हैं, उनसे बोलो बतिआओ, याद रखो, तुम मुस्लिम खातून हो, भेड़-बकरी नहीं, अल्लाह ने तुम्हारी इज्जत-आबरू और सेहत के लिए बहुत कुछ कहा है। तहजीब और पर्दगी का यह मतलब तो नहीं की बिना हवा और रोशनी के मकान में बंद कर गन्दी? बान के ढेला-पत्थर मारे जाएँ।'6
किसी भी समाज की उन्नति-अवनति का कारण वहां की सामाजिक व्यवस्था होती है। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन कर हम समाज और लोगों की सोच बदल सकते हैं। अगर समाज की सोच बदलेगी तो स्त्रियों की दशा भी बदलेगी। किसी देश के वास्तविक विकास से परिचित होने के लिए सर्वप्रथम वहां की स्त्रियों की स्थिति का आकलन करना आवश्यक है, क्योंकि स्त्रियों के विकास की उपेक्षा कर कोई भी समाज आगे नहीं बड़ सकता। अमरकांत के उपन्यासों की स्त्री पात्र इस बात से अवगत है तभी तो वह समस्त सामाजिक रीतियों को धता बता कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने में विश्वास रखती है और कहती है 'स्त्री कोई काठ की लकड़ी, रेत, पाई नहीं है, उसमें सुन्दर इच्छाएं हैं, स्वाभिमान है विवेक है, अत्याचार और उत्पीडन के विरुद्ध घृणा के भाव हैं, राष्ट्र प्रेम और साहित्य प्रेम है.... खूब पड़-लिखकर,नए ज्ञान-विज्ञान अपनाकर... स्त्री को अपना स्वाभिमान, अपना कद खडा करना होगा, रूडियों... का विरोध करना होगा।'7
अमरकांत के उपन्यासों की कुछ स्त्री चरित्र अशिक्षित, घरेलू कामकाजी, तथा अन्तर्मुखी हैं। इसके बावजूद उनमें नारी चेतना के भाव को परिलक्षित किया जा सकता है। 'सुन्नर पांडे की पतोह' उपन्यास की राजलक्ष्मी अशिक्षित होते हुए भी सामाजिक बुराईयों का विरोध करते हुए अपने व्यक्तित्व को प्रमुखता देती है। पति द्वारा त्याग दिए जाने के बावजूद वह किसी के सामने झुकती नहीं है वह अपने अस्मिता और स्वाभिमान की सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती है। जीविकोपार्जन के लिए वह घर-घर खाना बनाने का कार्य करती है। वह जिस भी घर में काम करती वहां उसको हर पुरुष की नियति और नजर में एक ही भाव दिखाई देता, हवस का भावद्य वह राजलक्ष्मी को अकेली एवं असहाय समझ नोच खाने को सदैव तत्पर रहते। वे केवल हैसियत से बड़े थे लेकिन स्त्रियों के सन्दर्भ में उनकी सोच बहुत छोटी थी वह स्त्रियों को केवल दासी और भोगविलास की वस्तु समझते थे। राजलक्ष्मी ऐसे लोगो की वास्तविकता को उजागर करते हुए कहती है 'अनेक तरह के लोगों के वहां उसने काम किया। कोई नेता था कोई अफसर, कोई व्यवसायी, कोई अध्यापक और कोई क्लर्क हर जगह लगभग एक ही दृश्य था। जो कुछ ऊपर से दिखाई देता उसका दूसरा रूप भीतर से देखने में आताद्य बाहर से जो सभी प्रतिष्ठित और साफ-सुथरे नजर आते, वे भीतर बेहद चीखते चिल्लाते थे। लगभग सभी अपनी सीधी-सादी आज्ञाकारी और दिन रात खटने वाली बीबियों को चौबीस घंटे कोसते रहतेए उन्हें अन्य तरीकों से प्रताडि़त करते और दूसरे की बहू-बेटियों को अपने जाल में फंसाने की चाल चलते। घरों के अन्दर औरतों की हालत दरबे में बंद मुर्गियों की तरह थी, जहाँ वे आपस में लड़ती, भुनभुनाती खिजतीं, रोतीं कलपती और कराहती।'8 इस उपन्यास में राजलक्ष्मी का सामाजिक-व्यवस्था के प्रति विद्रोही रूप उभर कर सामने आया है। वह आत्मबोध से परिपूर्ण, कठिन से कठिन परिस्थियों एवं चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए सदैव तैयार रहती है। राजलक्ष्मी के विद्रोही बनने में उसकी परिस्थितियां और परिवेश महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
विवाह के बाद किस तरह स्त्री का 'स्व'तिरोहित हो जाता है, इस प्रश्न को अमरकांत 'लहरें' उपन्यास में बच्ची देवी, विमला तथा सुमित्रा के माध्यम से उठाने का प्रयास करते हैं। विवाह के बाद स्त्री का अपना क्या है। उसका अस्तित्व है की नहीं? आदि सवालों से अमरकांत की स्त्री पात्र टकराते हुए दिखाई देती हैं। विमला द्वारा बच्ची देवी का परिचय और नाम पूछने पर वह कहती है 'खूब कहती हो बहिनी, तुम्ही बताओ, कहीं सुहागिन स्त्री का नाम पुछता है कोई? नाम लेकर बुलाता है कोई भला?'9 बच्ची देवी के सवाल ने विमला को सोचने पर मजबूर कर दिया और वह अपने स्वंय के अस्तित्व के विषय में सोचने लगती है 'उसे कालोनी की सभी औरतें 'बहनजी' या अ_ाईस नंबर वाली कहती हैं। उसके पति 'लल्लू की मम्मी' कहते हैं। सास जेठानी दुल्हन और देवरानी भाभी कहती हैं। अपने ही विवाहित जीवन में उसका नाम कैसे गायब हो गया। उसका अपना शौक संगीत छूट गया घर गृहस्थी के चक्कर में, फिर उसका अपना क्या बच रहा है। अवश्य उसके दो बच्चे हैं पर वे अपने कहाँ? बड़ा गोपाल स्कूल जाता है और वहां वह अपने बाप का लडका है। यह गोद का लडका लल्लू भी बडा होकर अपने बाप का ही लडका कहलाएगा। क्या इन्हीं कारणों से सुहागिन स्त्री का कोई नाम नहीं पूछता। यह कोई सामाजिक सम्मान है या स्त्री के निजी अस्तित्व को दूसरों के जीवन में घुला.पचा देने का कोई तरीका।'10
चेतनाशील नारी अपने स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए समाज से दया नहीं अपने अधिकारों की मांग कर रही है। स्त्रियों को जागरुक होते देख कुछ शिक्षित युवा भी स्त्री चेतना और विकास की जरुरत को अपनी सहमति प्रदान कर रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों की मात्रा हमारे समाज में अभी बहुत कम है। अमरकांत के उपन्यास 'आकाश पक्षी' का पुरूष पात्र रवि स्त्रियों की प्रगति और चेतना पर चर्चा करते हुए कहता है 'जमाना तेजी से बदल रहा है आप देख रही हैं, आज औरतें अधिक से अधिक पड़ रही हैं, ऊँचे-ऊँचे पदों पर काम कर रही हैं। भाषण दे रही हैं, कॉलेज यूनिवर्सिटी में पड़ा रही हैं। औरत मर्द में कोई उंचा नीचा थोडे है।् सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं और करते हैं वही औरत भी कर सकती है और करती है।'11 रवि के माध्यम से अमरकांत स्त्री संबंधी अपने प्रगतिशील विचारों को सामने रखते हैं।
अंत में स्पष्ट है कि अमरकांत के उपन्यासों की स्त्री पात्र वैविध्यपूर्ण हैं। उनमें शहरी, ग्रामीण, कस्बाई, शिक्षित-अशिक्षित, पत्नी, प्रेमिका, सहेली, पडोसन आदि अनेक प्रकार की स्त्रियाँ हैं। उनकी दृष्टि सजग एवं सकारात्मक है। वह अपना सबल पक्ष रखने से पीछे नहीं हटतीं। उनके उपन्यासों में नारी जीवन की व्यथा, संघर्ष, आशा तथा आकांक्षा सबकुछ है। अमरकांत के उपन्यासों में स्त्रियाँ अपनी समस्याओं को व्यक्त करते हुए शोषण एवं उत्पीडन का पुरजोर विरोध करने की क्षमता रखती हैं। स्त्री जाति की करुणा, विवशता उसके संघर्ष विद्रोहए जीत-हार हर्ष-विवाद सभी बातें अमरकांत के उपन्यासों में देखने को मिलती हैं। उनके उपन्यासों के स्त्री पात्रों में कहीं विवशता जन्य आकुलता है तो कहीं दृड साहस एवं बुधिमत्ता। उनमें सीधे-सीधे विरोध के तेवर भी देखने को मिलते हैं। वे शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक उत्पीडन को झेलते हुए इन सबसे मुक्ति का मार्ग भी तलाशती नजर आती हैं। सदियों से शोषण एवं उत्पीडन की शिकार स्त्री में आई चेतना स्वाभाविक सामाजिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि परिस्थितियों की देन है। यह अधिकारों को प्राप्त करने की यात्रा है। यह विद्रोह की यात्रा है। इसमें परिवर्तन के बीज हैं, उम्मीद है, आशा है। इस बात में कोई दो मत नहीं कि आने वाले समय में नए समाज की कल्पना चेतनाशील नारी समुदाय के आभाव में असंभव एवं अकल्पनीय है।
सन्दर्भ सूचि :-
1. अमरकांत, 'लहरें', अमर कृतित्व प्रकाशन, इलाहाबाद, पहला संस्करण 2008, पृ. 27
2. अमरकांत, 'ग्रामसेविका', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2008,पृ. 19
3. अमरकांत, 'ग्रामसेविका', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2008, पृ. 19
4. अमरकांत, 'ग्रामसेविका',राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2008, पृ. 131
5. अमरकांत, 'काले-उजले दिन', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2003, पृ. 162
6. अमरकांत, 'विदा की रात', अमर कृतित्व प्रकाशन, इलाहाबाद, पहला संस्करण 2008, पृ. 57
7. अमरकांत,'इन्हीं हथियारों से', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2008, पृ. 72
8. अमरकांतए 'सुन्नर पांडे की पतोह', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2005, पृ. 106
9. अमरकांत, 'लहरें', अमर कृतित्व प्रकाशन, इलाहाबाद, पहला संस्करण 2008, पृ. 29
10. अमरकांत, 'लहरें', अमर कृतित्व प्रकाशन, इलहाबाद, पहला संस्करण 2008, पृ. 29,30
11. अमरकांत, 'आकाश पक्षी', राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2003, पृ. 79
सहायक ग्रन्थ:-
1. बहादुर सिंह परमार, अमरकांत का कथा साहित्य, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2009
2. गोपाल राय, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण 2005
3. लमही पत्रिका, अंक 3, जनवरी-मार्च 2014,
संपादक- ऋत्विक राय
4. पक्षधर पत्रिका, अंक 13, जुलाई 2012,
संपादक- विनोद तिवारी
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