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Tuesday, December 10, 2019

साम्प्रदायिकता का संदर्भ और øशहर में कफ्र्र्यूø          

28 नवम्बर 1950 को जिला आजमगढ़ (उत्तरप्रदेश) में जन्में विभूति नारायण राय 1971 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में एम. ए. किया। इन्होंने1975से भारतीय पुलिस सेवा में वरिष्ठ अधिकारी (आई. पी. एस.) के रूप में कार्य किया।
 विशिष्ट सेवा के लिए इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार तथा पपुलिस मैडल से सम्मानित किया गया श्री विभूति नारायण राय एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी के साथ-साथ उच्चकोटि के कथाकार, व्यंग्यकार के रूप में भी जाने जाते है। इनका उपन्यास 'शहर में कफ्र्यूÓ हिन्दी के अलावा अंग्रेजी, पंजाबी, उर्दू, बंाग्ला, मराठी आदि में भी अनूदित हो चुका है। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमें कफ्र्यू के समय उत्पन्न समस्याओं को देखा जा सकता है। 
विभूति नारायण राय की कृतियों को देखा जाए तो हम इनके चार उपन्यासों को देख सकते है। चारों उपन्यास का अनुभव संसार अलग-अलग है चारों में अनुकूल भाषा और शिल्प के सार्थक प्रयोग उन्होंने किये है साथ ही जन प्रतिबद्धता के साथ-साथ नवीनता और प्रयोग धर्मिता का माणिकांचन योग भी देखा जा सकता है। उनके चारों उपन्यास इस प्रकार है :-घर (1981), शहर में कफ्र्यू (1988), किस्सा लोकतंत्र (1993), तबादला 'शहर में कफ्र्यू' उपन्यास यथार्थ की जटिलताओं के बीच पाठक को ऐसे बिन्दु पर लाकर छोड़ देता है। जहाँ दया और करूणा उत्पन्न नहीं होती, वरन् इस बात की प्रतीती करती है कि जड़ता, नपुंसकता सिखाती है अलगाव पैदा करने वाली व्यवस्था बरकरार है, जो लोगों को नफरत सिखाती है और एक-दूसरे को लड़ाती है। उपन्यास में विभूति नारायण राय ने धार्मिक विद्वेष की भावना, पपुलिस प्रशासन का क्रिया-कलाप और भुक्तभोगी किस प्रकार अपनी भूमिका निभाती है इसका चित्रण किया है।
 धार्मिक विद्वेष की भावना  :- प्राय: देखा गया है कि साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में सबसे बड़ा हाथ धर्म का है। इसी धर्म के कारण हिन्दू और मुस्लिम के बीच में विद्वेष की भावना उत्पन्न होती है। और इसी भावना के कारण आज यह देश दो भागों में विभाजित हो गया है। विभूति नारायाण ने 'शहर में कफ्र्यू' उपन्यास में इसी विद्वेष की भावना को दिखाया गया है। शहर में कफ्र्यू लगता है लेकिन वह कफ्र्यू उन इलाकों में लगाया जाता है जहाँ पर मुस्लमानों की संख्या अधिक है। 
1. 'कफ्र्यू लगने' के साथ ही साथ एक बारगी बहुत सारी चीजें अपने आप आप ही हो गयी। मसलन शहर एक पाकिस्तान बन गया और उसमें रहने वाले पाकिस्तानी।...........चार पांच साल से जब कभी शहर में कफ्र्यू लगता तो उसका मतलब सिर्फ इस इलाके मे कफ्र्यू से था। इसके परे जो शहर था वह इन हादसों से एकदम बेखबर अपने में मस्त डूबा रहता है।ÓÓ 1
लेखक इसके माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि किसी स्थिति के कारण आज भी भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच तनाव दिखाई पड़ता है। देश में साम्प्रदायिक दंगे कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि दोनों ही धर्म वाले एक दूसरे से बदला लेने के लिए उतारू रहते हैं। लेखक ने उपन्यास में दिखाया है कि द्वेष के कारण अपनी बहन जैसी लड़की की इज्जत की उन्हें कोई परवाह नहीं रहती और उसकी आबरू छीन ली जाती है। 
''मैं तुम्हारी बहन हूँ भैया', मुझे चले जाने दो।, चुप साली! .............है।
लेखक ने लड़की का नाम बताया और न धर्म की चर्चा की। इससे यह बताना चाहते है। कि सम्प्रदायिक दंगे के होने के कारण केवल एक ही धर्म को नहीं ठहराया जा सकता। दोनों धर्म के विद्वेष के कारण उत्पन्न होती है यह समस्या।
 पुलिस प्रशासन का क्रियाकलाप :-साम्प्रदायिक दंगे पिछले सात आठ दशकों के भारतीय सामाजिक फलक के सबसे दुखद और अमानवीय अंग है लेखक 'विभूति नारायण राय' ने इन दंगों को पुलिस अधिकारी की हैसियत से, निकट से देखा और इसके प्रामाणिक चित्र उपन्यास में खींचे। कफ्र्यू के समय रात को घरों की तलाशी होती है। इसी तलाशी के दौरान 'सईदाÓ की घर की भी तलाशी होती है। घर में एक छोटी बच्ची की लाश पड़ी रहती है लेकिन उस लाश की परवाह न करते हुए पुलिस अधिकारी वस्तुओं की तलाशी में मशगुुल रहते हैं। उन्हें इस परिवार के दुख से कोई मतलब नहीं रहता।
2.  इस बक्से में क्या है? खोल.......................खोल उसे भी।
हुजूर भाई-बाप.................... लड़की के जेवर गुरिया है। इस जाड़े में शादी करनी है। सीधे से नहीं खोलेगा तो मुँह भी तोड़ देंगे और ताला भी2। इसके माध्यम से लेखक पुलिस वालों के अमानवीय व्यवहार को प्रस्तुत करते हैं कि वह भी पैसों और भौतिक जीवन के आगे झुक जाते है। उपन्यासकार ने दरोगा की बातचीत के माध्यम से 'हाजी' के उभारने का भी प्रयास किया है। 
3. साला कैसी भोली बात कर रहा है। पूरा शहर जानता है कि यही दोनों दंगा करा रहे। पर इनकों पकड़ेगा कौन3ÓÓ
इस प्रकार लेखक अपने उपन्यास में पपुलिस प्रशासन व्यवस्था को स्पष्ट करना चाहता है कि पपुलिस के इस क्रिया-कलाप अमानवीय व्यवहार और मुसलमानों पर अनाचारी व्यवहार करना उनके मन में द्वेष की भावना को जगाते हैं। जो देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। इस प्रकार 'शहर में कफ्र्यूÓ उपन्यास में पुलिस प्रशासन की संवेदनहीनता और क्रुर स्वभाव को देखा जा सकता है। 
 भुक्तभोगी आम आदमी :-भुक्तभोगी आदमी समाज में किसी भी कोने में मिल जाएगा। चाहे वह किसी भी धर्म में हो या किसी भी जाति में। ऐसे ही आदमी का चित्रण विभूति नारायण राय ने 'शहर में कफ्र्यूÓ उपन्यास में उभारने की कोशिश की है। कफ्र्यू के समय दुकान, हॉस्पीटल, बाजार आदि बन्द पड़ा रहता है। इस समय घर से बाहर भी निकलना मना होता है, चाहे वह क्यों न स्टेशन के लिए हो, कोई मर जाए या घर पर पानी न हो लेकिन पानी भरने तक के लिए बाहर नहीं निकल सकते। इस सब के लिए पास बनवाना पड़ता है तभी वह घर से बाहर निकल सकता है। इस पास का फायदा अमीर आदमी, राजनीतिक नेतागण आदि उठाते हैं। 
 उपन्यास में उपन्यासकार ने दिखाया है कि कोतवाली में आम जनता पास बनवाने के लिए जाते हैं तो इसका फायदा एक राजनीतिक नेता उठाता है। नेता को आम जनता में अपना वोट नजर आता है, वह उन वोटों को बटोरता है और पास बनवाता है। 
4. शांति कमेटी में आए हुए लोगों में कुछ राजनीतिक नेता भी थे। म्यूनिसिपल्टी के चुनाव करीब थे। बाहर आने पर उन्हें पास बनवाने वालों में अपने वोट नजर आ गये। उन्होंने वोटों को पकड़ा और उनके पास बनवाने के लिए पिल पड़े।4 लेखक ने इसके माध्यम से राजनीतिक नेतागणों के चरित्र को उभारने की कोशिश की है। इसके साथ ही व्यापारी और बड़े-बड़े मील मालिकों के भी वास्तविक रूप को सामने लाने की कोशिश की है 5" ठीक है दंगे में अनाज की कीमतें बढ़ेगी तो मेरा फायदा हो जाएगा। लेकिन फायदा किसे काटता है। मैं इतना पतित तो नहीं हूँ कि अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए खुद दंगा करा दूँ।......... लेकिन गुरू 'दंगा शुरू होने पर फायदा तो तुम्ही कमाओगे।5 इस प्रकार विभूति नारायण राय उपन्यास में इन उदाहरणों के माध्यम से पूरे देश के भुक्त भोगी आम आदमी के चरित्रों को पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। 
 मुस्लिमों का अमानवीय जीवन :- विभूति नारायण राय ने 'शहर में कफ्र्यूÓ उपन्यास में मुस्लिमों के अमानवीय जीवन को उभारने की कोशिश की है। इसके लिए उपन्यास में एक ऐसे मुहल्ले का चित्र प्रस्तुत किया है जो मुख्य रूप से मुसलमानों का था। उस मोहल्ले का नाम था 'मिनहाजपुरÓ जो अन्य मुस्लिम मोहल्लों की तरह यह मोहल्ला भी गरीबी, गन्दगी और जहालत से बजबजाता रहता था। इसी मोहल्ले में ही 'सईदा' का घर भी था। जो तेरह गुणा आठ-फुट के कमरे और आठ गुणा पांच फुट के बरामदे में सास, ससुर, देवर, ननद का बेटा, और खुद की दो बेटियाँ सब इस छोटे से कमरे में कैद थे। यही कमरा ही इन लोगों की दुनिया थी। इसी कमरे के पीछे की तरफ एक छोटा सा बरामदा था जिससे सटा हुआ छोटा सा पखाना था। जिस पर टाट का पर्दा टंगा रहता था और उठाऊ होने के कारण कभी भी यह पूरी तरह से साफ नहीं हो पाता था। जिसके कारण बदबू हमेशा कमरे तक फैली रहती थी। 
उपन्यासकार बताते है कि 'सईदा' के विवाहित जीवन की शुरूआत इसी कमरे बरामदे से हुई थी। शुरू-शुरू में सईदा को इस बदबू भरे कमरे में रहना बहुत मुश्किल था। लेकिन धीरे-धीरे वह इसकी आदि हो गई और इसी बदबू भरे कमरे को स्वर्ग मानने लगी। इस प्रकार 'सईदा' की जिन्दगी आगे बढऩे लगी और उसके दो बेटियाँ हुई। जिसके कारण सास उससे नफरत करने लगी थी। एक दिन उसकी छोटी बेटी बीमार पड़ जाती है लेकिन कफ्र्यू लगने के कारण वह बाहर जाकर दवाईयाँ नहीं ला सकती थी। वह पति से भी कहती है दवा लाने के लिए लेकिन उसका पति जानता था कि कफ्र्यू के समय घर से बाहर निकलना यानि मौत को गले लगाना है। इसलिए वह सुन कर भी अनसुना कर देता है और बच्ची की मौत हो जाती है।  'बच्ची की मौतÓ दिन छिपने के थोड़ी पहले हुई थी। बच्ची की मौत के बाद उनके सामने दफनाने की परेशानी आती है क्योंकि कफ्र्यू के समय तो घर के बाहर मना होता है। इसलिए बच्ची को दफनाने के लिए पास की आवश्यकता होती है। सईदा का पति बाहर निकलने के लिए मना कर देता है तो उसके ससुर जी हिम्मत करके पास बनवाने के लिए कोतवाली जाते है। जो रास्ते में पपुलिस के हाथों मार खाता है। 
6. 'पता नहीं बुढ़ापा था या आतंक, बूढ़ा गिरा तो फिर देर तक नहीं उठा'6
जैसे तैसे सईदा के ससुर जी को पास तो मिल जाता है लेकिन केवल दो जनों का। सईदा अन्त: अपनी बेटी को मिट्टी देने से चूक जाती है। इस प्रकार उपन्यास में उपन्यासकार ने सईदा के परिवार के माध्यम से मुस्लिमों के अमानवीय जीवन को लोगों के सामने रखने का प्रयास किया गया है। 
 पत्रकारों की भूमिका :-पत्रकारिता अभिव्यक्ति का सम्पूर्ण विज्ञान, दैनिक जीवन और मानव जिज्ञासा का सूत्रधार माना जाता है। उपन्यास में उपन्यासकार ने उन पत्रकारों की सामने लाने की कोशिश की है। जो अपनी पत्रिकाओं को अधिक मशहूर बनाने के लिए बढ़ चढ़ कर खबरों को छापते है। उपन्यास पत्रकारों की लापरवाही की ओर संकेत करते है जिनकी लापरवाही के कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के तनाव को और अधिक बढ़ावा देता है जो समाज के लिए पतन का कारण बन सकता है। 
इसके साथ ही उपन्यास में लेखक ने राजधानी प्रेस और लोकल प्रेस में अन्तर को भी बताया है। जहाँ राजधानी प्रेस बड़ा-बड़ा गदर करते हैं वहीं पर लोकल प्रेस कम। कामरेड़ सूरजभान एक जगह पर कहता है कि- 
7. ''अगर मुसलमान पपुलिस पी.ए.सी. ज्यादती की शिकायत करती है तो आप को देशद्रोही नजर आने लगता है। लोकल प्रेस वाले आपके छोटे भाई है।ÓÓ7 इस प्रकार पत्रकारों की इस वास्तविक रूप को उभारने में विभूति नारायण राय इस उपन्यास में सफल रहें है। 
निष्कर्ष :-
वस्तुत: उपन्यासकार ने इस उपन्यास में 'कफ्र्यूÓ के माध्यम से राजनीतिज्ञों की साम्प्रदायिक मानसिकता, सरकारी, उदासीनता, पपुलिस अफसरों की निष्क्रियता और संवेदनहीनता तथा पत्रकारों की स्वार्थी अकर्मण्यता प्रवृन्ति को जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया है। विभूति नारायण जी के अपने उपन्यासों में प्रत्येक उस पक्ष को उजागर करने का प्रयास किया है जो जनता के हित में न होकर राजनीतिज्ञों ओर पुलिस अफसरों आदि की अवसरवादिता के प्रकोप तथा सामाजिक जीवन की विसंगतियों से जूझ रही जनता का चित्रण किया है। उन्होंने निरन्तर शोषण के हथकंडों से पद्दलित निम्न वर्ग के सामाजिक जीवन को उभारने का प्रयास किया है। 
सहायक ग्रंथ सूची :-
1. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.सं.  24
2. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 98
3. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 79
4. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 78
5. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 68
6. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 80
7. विभूति नारायण राय: शहर में कफ्र्यू, वाणी प्रकाशन 1988 पृ.   सं. 75


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