हिंदी साहित्य की गद्य विधाओं में व्यंग्य एक सशक्त और गंभीर विधा के रूप में अपनी जगह बना चुका है। व्यंग्य का उद्देश्य समाज को चेतनाशील बनाना है। समाज में बढ़ रही विसंगतियों के प्रति लोगों को जागृत करना है। कहा जाताहै कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहकर अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए तत्पर रहता है। मनुष्य के अस्तित्व एवं उसकी सामाजिक चेतना का संबंध परस्पर उसके सामाजिक जीवन से है। जैसे-जैसे मनुष्य के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होता है वैसे-वैसे उसकी सामाजिक चेतना का भी विकास होता है। व्यंग्यकार समाज का एक संवेदनशील प्राणी होता है, उसकी पैनी दृष्टि सामाजिक जीवन की गहराई में उतरकर समाज की वास्तविकताओं एवं मान्यताओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने का कार्य करती है।
एक व्यंग्यकार अपने समय की सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक स्थितियों का अवलोकन करता है और अपनी सर्जना द्वारा अवांछनीय तथा अशिव का विनाश तथा शिव की स्थापना का प्रयास करता है। समाज में घटित परिवर्तन और उससे उत्पन्न मान्यताएँ उसे प्रभावित करती है। समाज में फैली विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए वह व्यंग्य को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है। वर्तमान समय में जबकि पुरानी मान्यताएँ एवं परम्पराएँ टूट रही हैं, नई परम्पराएँ एवं मान्यताएँ पूरी तरह से स्थापित नहीं हो पाई हैं ऐसे समय में समाज में विसंगतियों, विषमताओं एवं विरोधाभास का आ जाना स्वाभाविक है। आधुनिक समाज में जिस गति से भौतिक उन्नति हो रही है उस गति से वैचारिक प्रगति नहीं हो पाई है फलत: समाज का जिस दिशा में और जिस गति से विकास होना चहिए वह नहीं हो पा रहा है। एक व्यंग्यकार इन सामाजिक विषमताओं को अनदेखा नहीं कर सकता है अत: वह अपने लेखनी के द्वारा इन परिस्थितियों पर तीव्र प्रहार करते हुए समाज को जागृत करने का भरसक प्रयास करता है।
व्यंग्यकार समाज का एक ऐसा सफाईकर्मी है। जो अपने व्यंग्य के द्वारा समाज में फैले वैचारिक कूड़े-कचरे को बाहर निकालकर समाज को स्वच्छ बनाने की कोशिशें करता रहता है। ''समाज ही समूचे साहित्य का मूल उत्स है समाज की जो मान्यताएँ सत्य से परे होती हैं और फिर भी संपूर्ण समाज को अपने अनुसार चलने के लिए बाध्य करती है, वे आलोचना की पात्र होती है। जागरूक एवं संवेदनशील लेखन होने के कारण व्यंग्यकार इन मान्यताओं एवं उनके कारण उत्पन्न परिस्थितियों से सर्वाधिक प्रभावित होता है।ÓÓ गोपाल चतुर्वेदी ने इन स्थितियों से पीडि़त आमजन की दशा को अपने व्यंग्यों के माध्यम से न केवल स्वर दिया है वरन् इसके लिए उत्तरदायी लोगों पर भी प्रहार करने से वे नहीं चूकते। इनकी व्यंग्य रचनाओं में एक ओर जहाँ सामाजिक विसंगतियों के लिए उत्तरदायी लोगों के प्रति प्रहारात्मक आक्रोश व्यक्त हुआ है वहीं दूसरी ओर तरफ व्यंग्य के मूल में सामाजिक हित की कामना मुख्य है।
व्यंग्यकार की दृष्टि समग्र रूप से मानवीय कल्याण से ओत-प्रोत रहती है। जीवन के कटु सत्य एवं यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए व्यंग्य एक सशक्त एवं सफल माध्यम है। व्यंग्य में मारक क्षमता होती है। शब्दों का मितव्ययी प्रयोग करते हुए यथार्थ को समाज के सामने लाने का कार्य व्यंग्य द्वारा ही किया जाता है ताकि समाज का एक-एक व्यक्ति उस पर विचार करने के लिए विवश हो सके।
समाज में फैली विभिन्न विसंगतियाँ चाहे वह शिक्षा से संबंधित हो, धर्म से हो, न्यायालय या पुलिस से हो या फिर पूँजीपति और मजदूर वर्ग से हो, व्यंग्य के तीव्र प्रहार से बच नहीं सकी हैं। व्यंग्य ने सामाजिक जीवन के प्रत्येक पक्ष, पारिवारिक जीवन की प्रत्येक स्थिति का पर्दाफाश किया है। हमारे बनावटी शिष्टाचार भी व्यंग्यकार की लेखनी से बच नहीं सके हैं। आज सभ्यता और संस्कृति के नाम पर हमारे भारतीय समाज में फैशन की एक अंधी दौड़ चल रही है। जिसने समाज को खोखला कर दिया है। गोपाल चतुर्वेदी ने इस स्थिति को देखा और अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में चेतना लाने का प्रयास किया।
समाज में मनुष्य तीन वर्गों में बंटा है उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग। इन तीनों ही वर्गों में आपस में इतना अंतर और मतभेद है कि उसे किसी भी स्थिति में समाप्त करना असंभव सी बात है। इन वर्ग विशेष में फैली असमानताओं विसंगतियों को गोपाल चतुर्वेदी ने बखूबी अपने व्यंग्यों में उकेरा है। हमारे समाज में उच्च वर्ग अपनी धन संपदा वैभव के कारण समाज मेें श्रेष्ठ समझा जाता है। अत: सामाजिक दृष्टि से उसे ऊँचा माना जाता है टॉम बाटमोर के अनुसार, ''यदि व्यक्तियों का वर्गीकरण उनके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव अथवा सत्ता के आधार पर किया जाए तो अधिकांश समाजों में यह स्थिति आएगी कि जिन व्यक्तियों की संपत्ति के वितरण संबंधी अनुक्रम में जो स्थान था वही स्थान उन्हें इस अनुक्रम में भी मिलेगा तथाकथित उच्च वर्ग आमतौर पर सबसे अधिक मालादार भी होते हैं। ये वर्ग अभिजन अथवा कुलीन वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।ÓÓ उच्च वर्ग के लोगों के रहन-सहन में काफी अंतर होता है स्वयं के मनोरंजन के लिए वह फिजूल खर्च करने से भी नहीं पीछे हटते। गोपाल चतुर्वेदी ने 'फ ार्म हाउस के लोगÓ में इस तरह के मनुष्यों बारे में व्यंग्य करते हुए कहा है ''पहले उन्होंने सोचा कि एक गेस्ट हाउस बना लें। विदेशी मेहमान वहीं ठहरें वहीं उनके खाने-पाने तथा अन्य मनोरंजन का आयोजन हो उनके एक समृद्ध दोस्त ने उन्हें समझाया कि बिना फार्म हाउस के शहर के बड़ो में उनका नाम नहीं होगा। सफल सम्पादक, नेता, उद्योगपति व्यापारी वाकई बड़े तभी बनते हैं जब उनका फार्म हाउस बने।ÓÓ हम कह सकते हैं कि यदि किसी व्यक्ति के पास अत्यधिक धन संपदा है और उसे उसका दिखावा करना भी आता है तो वह व्यक्ति इलीट क्लास का माना जाता है भले ही उसमें संस्कार अंश मात्र भी न हो।
मानव समाज के इतिहास में इस उच्चवर्ग की भूमिका को देखकर ऐसा लगता है कि प्रारम्भ से ही यह अपने हित और स्वार्थ के प्रति अत्यधिक जागरुक रहा है। उसने अपनी कार्य कुशलता एवं चतुराई से समाज में स्वयं के अस्तित्व को महत्वपूर्ण बनाए रखा है। इस वर्ग के लोग यह मानते हैं कि उनका चरित्र, नेतृत्व, जीवनशैली, आचरण, व्यवहार, संस्कृति उन्हें समाज में एक अलग ही दर्जा देते हैं, किन्तु इतिहास साक्षी है कि स्वयं को उच्च आदर्शों का पुंज घोषित करने वाला उच्च वर्ग हिंसा, क्रूरता निर्दयता और छलकपट से समाज के दूसरे वर्गों का शोषण करता आया है प्रारम्भिक काल में इसने मानवता के एक बहुत बड़े भाग को स्वयं का दास बनाकर अमानवीयता के परिचय के साथ अपने जीवन की शुरूआत की। सामंती काल में इसने किसानों से लगान वसूल कर उन्हें उनकी ही भूमि से बेदखल किया। आज के युग में यह लोग मील मजदूरों का शोषण कर रहे हैं और पहले की तरह आज भी पुलिस, सरकार, मंत्री आदि इनकी सेवा में सदैव तत्पर रहती है।
उच्च वर्ग के बाद स्थान आता है मध्यम वर्ग का, भारत में मध्यम वर्ग का उदय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आने के बाद हुआ। अंग्रेजों को भारत में अपनी हुकूमत चलाने के लिए प्रशासन में दूसरी व तीसरी श्रेणी के ऐसे शिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ी जो राज-काज का काम देख सकें। ब्रिटिश शासन की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए देश में मध्यवर्ग का उदय हुआ। मध्यमवर्ग का तीव्र विकास उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटेन की महारानी द्वारा भारत का शासन अपने हाथ में ले लेने के बाद से माना जा सकता है। शिक्षा के प्रसार एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में इस वर्ग का आकार बढ़ा और आजादी के बाद तो यह वर्ग समुद्र की तरह फैलता गया।
समाज में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच मध्यमवर्ग की स्थिति त्रिशंकु की तरह है। उसकी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ तो उच्च वर्ग से जुड़ी हैं लेकिन उसके पैर निम्नवर्ग की यथार्थ जमीन की ऊपरी सतह पर टिके हैं। यही कारण है कि उसमें एक गहरा अंतर्विरोध पलता है जो उसके चरित्र में अस्थिरता एवं दो मुंहेपन के रूप में दिखाई पड़ताहै। यह मध्यवर्ग एक ओर तो निम्नवर्ग के जीवन स्तर को अपनाने में शर्म महसूस करता है और दूसरी ओर वह उच्च वर्ग के जीवन स्तर को अपनाना चाहता है किंतु आर्थिक विवशता के कारण उसे अपना नहीं पाता है। गोपाल चतुर्वेदी मध्यम वर्ग की इसी आर्थिक दुर्बलता को बताते हुए कहते हैं ''बोलने-चलने वाले विदेशी खिलौनों के मुकाबले कम कीमत होने के बावजूद अपनी जेब की हैसियत इन्हें खरीदने की नहीं थी।ÓÓ अत: मध्यमवर्ग उच्च वर्ग और निम्नवर्ग के बीच झूलता रहता है। समाज में उसे संघर्ष करना पड़ता है तभी वह अपने अस्तित्व को बचा पाता है। किंतु यह वर्ग समाज के हर क्षेत्र में अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन भी करता है।
ऐतिहासिक दौर में निम्नवर्ग कभी दास, भूदास, कृषिदास, श्रमिक सर्वहारा तथा भारतीय समाज में शूद्र आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। निर्धनता, पिछड़ापन, अशिक्षा इस वर्ग की पहचान है। यह वर्ग समाज का वह भाग है जो आर्थिक आधार पर ऊपर से नीचे की ओर आते हुए अंतिम स्तर पर होता है। इस वर्ग की आर्थिक दशा इतनी खराब होती है कि दो वक्त की रोटी के इंतजाम के लिए जहाँ एक ओर वह चोरी करने का प्रयास करता है वहीं दूसरी ओर बिना किसी आरोप के जेल जाने को भी तैयार हो जाता है। इन गरीबों की रोटी के इंतजाम पर व्यंग्य करते हुए गोपाल चतुर्वेदी कहते हैं- ''हमारे देश की पुलिस और जाँच एजेंसियाँ इनके प्रशंसक है। दोनों के मानसिक रोगी मिलकर लाखों गरीबों को फ्री की रोटी का इंतजाम करते हैं। कई गरीब तो पुलिसवालों के पास बड़े अपराधियों की सिफारिशें लेकर आते हैं। मालिक, हमारे मोहल्ले में दो दिन पहले डकैती की वारदात में लाखों लुटे हैं। आपने एफ.आई.आर. दर्ज कर दी है। अपनी तो एक ही विनती है, हमारा नाम उसमें डाल दो। आपकी तफ्तीश की किल्लत बचेगी अपनी दाल-रोटी बनेगी।ÓÓ
गोपाल चतुर्वेदी ने जहाँ तीनों वर्गों में मध्यम तथा निम्न वर्ग में विद्यमान समस्याओं संघर्षों को जनता के सामने अपने व्यंग्यों के माध्यम से बखूबी पेश किया है। वहीं उच्चवर्ग के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन, धर्म के दुरुपयोग, विलासिता भाव आदि को भी सामान्य जन के समक्ष प्रस्तुत किया है।
वर्ग विषमता के साथ-साथ सामाजिक संबंधों आए बदलाव की गंभीरता को भी गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्यों में देखा जा सकता है। सामाजिक संरचना में आए बदलाव के साथ-साथ पारिवारिक संरचना का विघटन उनकी चिंता के केन्द्र में है। सामाजिक विकृतियों का प्रभाव हमारे सामाजिक संबंधों पर भी पड़ता है स्वार्थपरता और अहं की टकराहटों ने सामाजिक संबंधों की नवीन व्याख्या ही नहीं की वरन् संबंधों के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिए है। संबंधों की अहमियत खत्म सी हो गई है। आजादी के बाद पिता-पुत्र के संबंधों में बहुत परिवर्तन आया है। पहले जहाँ पुत्र, माता-पिता की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझते थे, माता-पिता नियंत्रण में रहते थे, वहीं अब पुत्र पिता के अनुशासन और नियंत्रण से दूर रहकर अपना जीवन अपने हिसाब से जीना चाहता है- अपने जीवन में किसी भी तरह की रोक टोक उसे बर्दाश्त नहीं है इसी पर व्यंग्य करते हुए गोपाल चतुर्वेदी कहते हैं- ''पप्पू ने हमें ज्ञान दिया आजकल हमारी छुट्टी है। हम शाम को खेलने जाते हैं तब मम्मी टोकती हैं, सुबह जाएँ तो आप, प्लीज याद रखिए आप हमारे फादर हैं जेलर नहीं।ÓÓ आज के बच्चे को पिता की रोक-टोक अच्छी नहीं लगती। वह अपना जीवन अपने हिसाब से जीने की इच्छा रखता है।
आजकल समाज में रीति-रिवाजों का निर्माण भी आवश्यकता के अनुरूप किया जाता है। दहेज की समस्या आज के समाज में विकराल रूप धारण किए हुए हैं। आज बेटी का पिता होना एक अभिशाप है। स्त्री को कानूनी रूप से समानता का अधिकार है किन्तु अभी भी वह केवल कागज तक ही सिमट कर रह गया है, व्यवहार में नहीं आ पाया है। अभी भी समाज में पुरुष का स्थान स्त्री से ऊँचा है। दहेज के कारण ही आज पुत्री पिता पर बोझ बनती जा रही है। गोपाल चतुर्वेदी के अनुसार ''हिया से डॉक्टर ब्लड प्रेशर नापते हैं। पिया दहेज में बिकते हैं।ÓÓ अर्थात विवाह के बाजार में लड़कों की बोली लगाई जाती है। जो लड़का जितना पढ़ा-लिखा होता है उसे दहेज में उतना अधिक रूपया और समान मिलता है।
भारतीय समाज में दहेज के अलावा बाल विवाह, अनमेल विवाह आदि अनेक ऐसी पारम्परिक रूढिय़ाँ हैं जो आधुनिक युग में भी समाज में अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित किए हुए हैं। जिन्हें जड़ से मिटाना सचमुच बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। विज्ञान ने आज अत्यधिक प्रगति कर ली है जिसके कई दुष्परिणाम भी समाज में देखने को मिल रहे हैं। जैसे कि गर्भ मेें पल रहा शिशु लड़का है या लड़की इसका पता लगाना बहुत ही आसान हो गया है। गर्भ में पल रहे शिशु की जांच कराकर कन्या भू्रण की हत्या करा देना भी समाज में आज आम बात है। समाज की इस असंवेदनशीलता पर व्यंग्य करते हुए गोपाल चतुर्वेदी कहते हैं- ''यह जो हमारा सभ्य संवेदनशील समाज है कन्या भू्रण की असमय हत्या तक पर ऊँगली नहीं उठाता है।ÓÓ पहले कन्या के जन्म लेने पर उसे जिंदा ही जमीन में गाड़ दिया जाता था या फिर गला दबाकर उसे मार दिया जाता था, किंतु आज तो मां के गर्भ में ही उसे समाप्त कर दिया जाता है जो अत्यंत ही अमानवीय कार्य है।
समकालीन भारतीय समाज पाश्चात्य के प्रभाव से पूरी तरह प्रभावित हो चुका है। भारतीय समाज का खान-पान, पहनावा, रहन-सहन सभी पाश्चात्य संस्कृति की देन है। इसके कारण हम अपनी संस्कृति अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति के भारतीय समाज पर पढ़ते इस प्रभाव पर व्यंग्य की चोट करते हुए गोपाल जी कहते हैं- ''हम उनको बताते हैं कि यह सब वैश्विक संस्कृति का हिस्सा है। इससे हम क्यों खौफ खाएं। बाबूजी कहते हैं कि उन्हें इस सबसे न डर है, न परहेज। पर जैसे एक पीढ़ी बाहर गई तो वापस नहीं आती है। धीरे-धीरे रहन-सहन, भाषा-पोषाक, तौर-तरीकों में पराई हो जाती है। वह वैसे ही बिना प्रयोग पहचान और कार्यक्रमों के संगीत, नृत्य और कला भी अपने खुद के घर में अजनबी हो जाएँगें।ÓÓ पाश्चात्य का प्रभाव हमारी संस्कृति पर इतना अधिक पड़ चुका है कि हम अपनी कला अपने लोकगीतों, लोकनृत्यों, लोकगाथाओं आदि को लगभग भूल गए हैं। बाजार का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि हम एक साथ रहकर भी एक-दूसरे से अनजान रहते हैं। समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के लोगों में संवादहीनता की स्थिति पैदा होने लगी है। गोपाल चतुर्वेदी अपने व्यंग्य की चोट के माध्यम से भारतीय समाज से मिटती जा रही हमारी संस्कृति को हमसे अवगत कराना चाहते हैं क्योंकि पाश्चात्य का प्रभाव, बाजारवाद और वैश्वीकरण इन सबकी चाह हमें और हमारी आने वाली पीढ़ी को भारतीय परंपरा, सभ्यता, संस्कृति आदि से अजनबी करती जा रही है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गोपाल चतुर्वेदी की पैनी दृष्टि ने समाज के कोने-कोने में व्याप्त विसंगतियों को देखा और अपने व्यंग्य की गहरी चोट के माध्यम से सामाजिक चेतना लाने का प्रयास किया।
संदर्भ सूची :-
01. वागीश सारस्वत, व्यंग्यर्षि शरद जोशी, शिल्पायन प्रकाशन, संस्करण 2013, पृष्ठ 155
02. टाम बाटमोर, अभिजन और समाज, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण, 1977, पृष्ठ 4
03. गोपाल चतुर्वेदी, फार्म हाउस के लोग, ग्रंथ अकादमी, संस्करण, 2011, पृष्ठ 151
04. गोपाल चतुर्वेदी, जुगाड़पुर के जुगाड़ू, प्रतिभा प्रकाशन, संस्करण 2005, पृष्ठ 43
05. गोपाल चतुर्वेदी, राम झरोखे बैठ के, ज्ञान गंगा प्रकाशन, संस्करण, 2001, पृष्ठ 22
06. गोपाल चतुर्वेदी, भारत और भैंस, सत्साहित्य प्रकाशन संस्करण, 2002, पृष्ठ 10
07. गोपाल चतुर्वेदी, धांधलेश्वर, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण 2008, पृष्ठ 68
08. कुरसीपुर का कबीर, ज्ञान गंगा प्रकाशन, संस्करण, 2010, पृष्ठ 28
09. गोपाल चतुर्वेदी, कुर्सीपुर का कबीर, ज्ञानगंगा प्रकाशन, पृष्ठ 55
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