माँ सरस्वती
माँ सरस्वती हँसवाहिनी ।
माँ तू श्वेत वस्त्र धारीणी।।
माँ तू कमल पुष्प पदमासिनि।
माँ तू रिद्धी सिद्धी दायिनी।
मातेश्वरी माँ शारदे वर दे...
माँ तू करुणामई ।
माँ तू ममतामयी।।
माँ ज्ञान प्रकाश प्रदायिनी।
माँ हर तिमिर, भर ज्योति वैभवशालिनि।
मातेश्वरी माँ शारदे वर दे...
माँ शारदा तेरी कृपा हो
माँ आपकी दया हो
हर प्राणियों के ह्रदय में बसों माँ
हर मनुष्य को संस्कार से भरो माँ
मातेश्वरी माँ शारदे वर दे ...
माँ हर हाँथ में कलम हो
हर हस्त में पुस्तक हो
माँ हर प्राणी साक्षर हो
हर वाणी में वीणा बसे माँ
वर दे मातेश्वरी माँ शारदे ....
स्नेह,एकता भक्ति वरदे माँ
विधा -बुद्धि का ज्ञान दे माँ
हर दिशा में रंग भर दे माँ
ज्योति प्रकाशित पथ दे माँ
मातेश्वरी माँ शारदे वर दे...
सर्व देव पूजित हैं तू माँ
सर्व वेदों की ज्ञानी माँ
पुस्तक हाँथों में शोभित
कर बद्ध करूँ नतमस्तक
माँ शारदा वर दे माँ ...|
सविता गुप्ता
राँची (झारखंड)
(Peer Reviewed, Refereed, Indexed, Multidisciplinary, Bilingual, High Impact Factor, ISSN, RNI, MSME), Email - aksharwartajournal@gmail.com, Whatsapp/calling: +91 8989547427, Editor - Dr. Mohan Bairagi, Chief Editor - Dr. Shailendrakumar Sharma IMPACT FACTOR - 8.0
Thursday, January 30, 2020
माँ सरस्वती (कविता)
मुक्तक
Tuesday, January 28, 2020
‘‘भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में महिलायें’’
संतोष कुमार मौर्य,शोधार्थी
नेट,जे.आर.एफ.समाजशास्त्र
पी.जी.कॉलेज गाजीपुर
भारतीय समाज दुनिया भर के मानवशास्त्रीयों और समाजशास्त्रीयों की पहली पसंद रही है उसका कारण भारत की भौगोलिक सीमा के साथ-साथ उसका सामाजिक परिदृश्य भी है। जहां दुनिया आदिकाल से चलकर उत्तर आधुनिक काल तक का सफर तय कर लिया है भारत में भी परिवर्तन के इस कदम में बहुत आगे तक का सफर तय कर लिया है परंतु आज भी अनेक समाजशास्त्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। आज भी भारत में जाति,धर्म,वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक असमानता को बल दे रही है। यह सत्य है कि भारत के लोगों में परिस्थिति में परिवर्तन आया है परंतु वैचारिक मे नहीं,यह दशा आज भी अधिकांश लोगों में देखने को मिलती है। भारत में आज भी आरक्षण को लेकर विभिन्न समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा और आंदोलन हो रहे हैं आरक्षण महिला और पुरुष में भी असमान है इतने परिवर्तन के बाद भी भारत में सेवा के क्षेत्र या कृषि,अभी भी बहुत ऐसे स्थान है जहां पर महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है और कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पर महिलाओं को वरीयता दी जाती है।
भारतीय समाज में स्त्रियों की विविधता अनन्य है और स्त्री नाम पर सभी स्त्रियों को एक ही तराजू में तोलना ठीक नहीं है। हमारा यह तर्क है कि जब हम समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति का मूल्यांकन करें तब हमें इस विविधता को समझना चाहिए। निश्चित रूप से जो समस्या महानगरों में रहने वाली स्त्रियों की है, वे गाँवों की स्त्रियों की नहीं,जहां महानगरों में महिलाओं की सुरक्षात्मक, पारिवारिक, सामाजिक और संवेगात्मक समस्या महत्वपूर्ण है वहीं पर ग्रामीण महिलाएं के सामने शैक्षणिक, आर्थिक एवं शारीरिक समस्या प्रमुख है और दूसरी ओर मातृसत्तात्मक खासी, जनजाति स्त्रियों की जो कठिनाई है, वह बहु-पति वाली टोडा जनजाति की नहीं। समस्याएँ भिन्न हैं, चुनौतियाँ विविध हैं और सभी का विश्लेषण एकसमान नहीं है।
स्त्रियों की प्रस्थिति में विविधिता होते हुए भी उनके बारे में हमारी एक निश्चित विचारधारा है। यह समझा जाता है कि भारतीय स्त्रियाँ पवित्र और ईश्वरीय हैं। इस विचारधारा के ठीक विपरीत हमारी यह भी धारणा है कि रजस्वला के कारण स्त्रियाँ अशुद्ध और प्रदूषित हैं। कुछ लोगों का विचार है कि उच्च जाति की स्त्रियाँ पतिव्रता और श्रद्धालु होती हैं। उनमें दया, ममता कूट-कूट कर भरे होते हैं। ठीक इसके विपरीत यह भी धारणा है कि निम्न जाति की स्त्रियाँ भ्रष्ट चरित्र की होती हैं और उन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। एक सामान्य धारणा यह भी है कि काम-वासना की दृष्टि से स्त्रियाँ खतरनाक हो सकती हैं। आम धारणा यह भी है कि स्त्रियाँ कमजोर हैं और पुरूषों पर निर्भर हैं। भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति बराबर विवादास्पद रही हैं। एक तरफ उसे महिमामण्डित किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ उसे ‘‘ढ़ोर, गंवार, शूद्र और पशु’’ समझा जाता है। जब कभी स्त्रियाँ रोती हैं, आँसू टपकाती हैं या दहेज की यातना के कारण आत्महत्या करने जाती हैं, तब उन्हें दिलासा दिया जाता है। कहा जाता है कि भारतीय समाज में उनका स्थान हमेशा गौरवपूर्ण रहा है। ऐसी स्थिति में यह बहुत आवश्यक है कि हम स्त्रियों की प्रस्थिति को इतिहास की आँख से देखें। वैदिक काल में वास्तव में स्त्रियों की स्थिति कोई बहुत खराब नहीं थी। इस काल में गार्गी, मेत्रयी, लोपामुद्रा, अपाला जैसी साध्वी स्त्रियाँ इस देश में थी। इन स्त्रियों का वैदिक संहिताओं के निर्माण में बड़ा हाथ था। लेकिन इस काल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था अवश्य थी। जन्म के बाद वैदिक काल में पुरूष और स्त्री में कोई भेदभाव नहीं था। बौद्ध धर्म के काल में स्त्रियों की स्थिति में खराबी आने लगी। धर्म के क्षेत्र में तो स्त्रियाँ पुरूष के बराबर थीं, यहां तक कि वेश्याओं को भी बौद्ध धर्म स्वीकार करने का अधिकार था लेकिन बाद में चलकर स्त्रियों की प्रस्थिति में गिरावट आने लगी। स्वतंत्रता प्राप्ति और भारतीय संविधान में स्त्रियों के अधिकारों के लिए एक नया इतिहास प्रारम्भ किया। अब कम से कम सिद्धान्त रूप में तो स्त्रियों को पुरूषों के बराबर अधिकार मिल गये, पिछले दस-पन्द्रह वर्षां में स्त्रियाँ हर क्षेत्र में आगे आयी हैं। वे घर से बाहर निकली हैं। उनमें नया आत्मविश्वास आया है और उन्होंने हर काम को प्रायः एक चुनौती की तरह स्वीकार किया है। क्षेत्र चाहे उद्योगों के प्रबन्धन का हो, या होटल मैनेजमेंट का, डाक्टरी-इंजीनियरी का, चाहे प्रशासनिक पदों का, पुलिस या वकालत का, पत्रकारिता या विज्ञापन एजेंसी का, हर जगह अब स्त्रियाँ कामकाज करती हुई दिखाई पड़ती हैं। ऐसे किसी मुकाम पर, जहां पहले केवल पुरूषों का वर्चस्व था, अब स्त्रियों को तैनात देखकर हम चौंकते नहीं हैं। कामकाजी स्त्री प्रायः बेझिझक बात करती हैं, अपनी जिम्मेदारी को समझती हैं और स्त्री होने के नाते अपने लिए प्रायः कोई छूट नहीं चाहती।
भारतीय समाज के लिए यह निश्चय ही एक बड़ी घटना है। लगभग एक ‘क्रान्ति’ जो धीरे-धीरे और चुपचाप घटित हुई है। यह सचमुच गौर करने वाली बात है कि यह क्रान्ति एलानिया तौर पर नहीं हुई, वास्तव में स्त्री की दुनिया बहुत बदली है- खास तौर पर मध्यवर्गीय स्त्री की बदलाव कुछ और भी हुए हैं, कई रूढ़ियाँ टूटी है और अच्छे के लिए भी टूटी हैं। मसलन पहनने-ओढ़ने की दुनिया को ही लें इस दुनिया में विकल्प बढ़े हैं। इन्हीं 10-15 वर्षां में सलवार-कमीज का चलन प्रायः पूरे देश में बढ़ा है। भारतीय परम्परा अपनी प्रारम्भिक अवस्था में नारी-विकास में बाधक के रूप में रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात् समाज-सुधारकों के प्रयास के फलस्वरूप नारी-जीवन शिक्षा को प्राप्त कर उर्ध्वगामी होता चला गया। बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों तक आते-आते नारी-विमर्श पाश्चात्य नारीवादी विचार के प्रभाव को ग्रहण करता हुआ एक प्रगतिशील विचार के रूप में उभर कर आया है। अर्थात यह कहना सही लगता है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी-विमर्श अब इतना आदर्शवादी नहीं रहा कि स्त्री को मात्र देवी और समाज में अच्छाई के फरिश्ते के रूप में ही चित्रित करते रहें। अन्ततः यह कहना सही होगा कि पाश्चात्य देश में स्त्री जहां पुरूष के साथ समान अधिकार रखने की स्पर्धा करती है, वह सहधर्मी नहीं, बल्कि प्रतिद्वन्द्धी समझी जाती है, वही भारत में भी अब यह विचार अपना स्थान बनाने लगा है। यहाँ की नारी भी अब पुरूष की संगिनी के साथ-साथ उसकी समान धर्मी बन रही है। आधुनिक काल में अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण भी यह भावना अधिक बलवती हो उठी है। कहना सही लगता है कि आज भारतीय भूमि पर नारी-विमर्श की सोच अधिक गतिशील, व्यावहारिक एवं चेतनशील है। हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि एक बेटी दस बेटों के बराबर है। वे लड़कियों के समाज में होने की महत्ता का उल्लेख कर रहे थे एक प्रधानमंत्री का लड़कियों के महत्व को हर बार रेखांकित करना महत्वपूर्ण है। लड़कियों को अपने समाज में दुहिता नाम से भी पुकारा जाता है, यानी कि वे दो परिवारों का हित करने वाली होती हैं, अपना मायका और ससुराल। इन दिनों जब लड़कियों को अधिक से अधिक आत्मकेन्द्रित, निष्ठुर और स्वार्थी बनाने की कवायद जारी हैं, ऐसे में यह परिभाषा गये जमाने की बात लगती है। यह हल्ला भी चारों ओर मचा है कि चूंकि लड़कियों को पुरूष सत्ता ने बहुत सताया है, इसलिए जब तक पुरूषों का सिर कलम न करा दिया जाय और मातृसत्ता न आ जाए, तब तक लड़कियों का भला नहीं हो सकता। हालांकि यह भी सच है कि अपने ही देश में जिन समाजों में मातृ सत्ताएं हैं, वहां भी न केवल औरतें बल्कि पुरूषों को भारी शोषण का सामना करना पड़ता हैं।
आज भारतीय समाज सबसे ज्यादा फिक्रमन्द है बलात्कार को लेकर, समाज में आ रहे बदलाव को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हम आधी आबादी को वह सब दे पा रहे हैं जो उसे मिलना चाहिए था। कुछ घटनाएं भारतीय मानस को झकझोर रही हैं। हाल ही में हैदराबाद में डॉ० प्रियंका रेड्डी की घटना ने, उन्नाव रेप काण्ड ने सम्पूर्ण समाज को झकझोर दिया। साल 2019 में बलात्कार के आंकड़ें बताते हैं कि हर घंटे 4 बलात्कार, हर दिन 89 बलात्कार तथा हर साल 32,559 बलात्कार हो रहे हैं, ये आंकड़े किसी भी समाज की दृष्टि से ठीक नहीं हैं। समाज आए दिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों, बलात्कारों व हिंसा से व्यथित है।
लोगों का कानून से भरोसा उठता जा रहा है। समाज कठोर कानून की मांग भी कर रहा है और उसे उन कानूनों के दुरूपयोग का भय भी सता रहा है। भारतीय समाज में महिलाओं को देवी कहा गया है, लेकिन वह उस देवी का प्रयोग किसी वस्तु की तरह से करता आ रहा है।
भारतीय समाज, स्त्री को क्या दिया गया, क्या दिया जाय,क्या मिलना चाहिए पर विमर्श में ही उलझा रहता है, जबकि वास्तव में स्त्री को क्या चाहिए वह समाज उसे दे नहीं सकता है। अगर उसे कुछ देना ही है तो उसे शिक्षा दे देनी चाहिए। फिर उसे जो चाहिए व खुद उसे ले लेगी तब जो सत्ता स्थापित होगी वह नारी की स्वतंत्र सत्ता होगी। लेकिन हमें यह ध्यान देना होगा कि नारी की स्वतंत्र सत्ता हो, लेकिन ध्यान रखा जाय कि स्वतंत्र सत्ता का अर्थ नारी की सेक्स इमेज से न जुड़े बल्कि उसका अर्थ हो- समान अधिकार, समान दायित्व।
महिलाओं के साथ हो रहे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक परिवर्तन संक्रमण काल से गुजर रहे हैं यह काल महिलाओं के लिए दुष्कर अवश्य है आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महिलाओं के नजरिए से इनका आने वाला कल निश्चित ही उज्जवल होगा। भारत में महिलाओं का ऐतिहासिक काल प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है। भारतीय महिलाओं का मध्यकाल अत्यंत ही दयनीय दशा में महिलाओं को पहुंचा दिया मध्यकाल में महिलाओं ने अपनी दुर्दशा का निम्नतम स्तर को छुआ, परंतु आज की भारतीय महिलाएं अपनी दुर्दशा का पर आंसू नहीं बहाती बल्कि इन आंसुओं के सहारे इस संक्रमण काल से निकलने का रास्ता बना रही है भारत में बदलती राजनीतिक व्यवस्था ने महिलाओं को अनेक ऐसे अधिकार एवं सम्मान दिया है इससे इनका जीवन निरंतर बेहतर हो रहा है। गांव हो या शहर नगर हो या महानगर महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर, सामाजिक विधानओं की स्वतंत्रता इनको अधिकांश क्षेत्रों में स्वतंत्रता पूर्वक आगे बढ़ने के रास्ते बना रहा है आज अधिक से अधिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी देखी जा सकती है जो इनके उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ने का संकेत है।
संदर्भ सूची -
भारतीय समाज पृ0- 323,324
स्त्री के लिए जगह पृ0-149
समकालीन स्त्री विमर्श पृ0-11
‘निराला’ के काव्य में सामाजिक यथार्थ
ज्योति वर्मा
शोधार्थी
मो. ला. सु. वि.उदयपुर (राज.)
हिन्दी साहित्य में छायावादयुग को दूसरा ‘स्वर्णकाल’ के नाम से भी जाना जाता है।छायावादी युग के चार प्रमुख कवियों में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जो कि छायावाद के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख कवि माने जाते हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में रहस्यवाद, परम्परावादी व स्वच्छंदता, यथार्थवाद एवं प्रगतिवाद आदि पर विभिन्न प्रकार से अपनी लेखनी को सुशोभित किया है।इनकी साहित्यिक प्रतिभा बहुमुखी थी। इन्होंने विभिन्न साहित्य–रूपों में उत्कृष्ट रचनाएँ प्रदान की हैं। काव्य, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, आलोचना आदि विविध क्षेत्रों में इनकी लेखनी गतिशील रही। इनको सर्वाधिक प्रसिद्धि कविताओं से प्राप्त हुई। इनका जन्म बसंत पंचमी को 21 फरवरी 1899 को मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) में हुआ। इनके बचपन का नाम सूर्यकुमार था। पंडित रामसहाय तिवारी जो महिषादल में सिपाही की नौकरी किया करते थे। इनकी आयु जब तीन वर्ष की हुई तब इनकी माँ का देहांत हो गया। महायुद्ध के समय महामारी अत्यंत रूप से चारों ओर फैली हुई थी।उसमें पहले इनकी पत्नी (मनोहरा) की, फिर एक–एक करके चाचा, भाई, भाभी की मृत्यु हो गई।इनका जीवन अत्यंत उथल–पुथल एवं संघर्षों का जीवन रहा है।इनका व्यक्तिगत संघर्ष इनके युग संघर्ष का अंग रहा है। अंततः इस महान कवि का देहांत 25 अक्टूबर 1961 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में हुआ।‘‘निराला ने अपनी स्वतंत्र काव्यदृष्टि से भारतीय मानसिकता की गहरी जड़ों कोसमझकर युग–जीवन की विभिन्न समस्याओं कोअपनी लम्बी कविताओं में संकेतित और ध्वनित किया है।’’[1]
कवि व्यक्ति–सत्य के आधार पर सामंती रूढ़ियों के प्रति विद्रोह करते हैं और साथ ही सामाजिक व्यंग्य के स्वर को भी उभारते हैं। इनकी व्यक्तिमूलक, विद्रोहात्मकऔरद्वंद्वग्रस्त जीवन दृष्टि, इनकी सौंदर्यपरक कविताओं, करुणात्मक रचनाओं तथा रहस्यात्मक अनुभूतियां काव्य के मूल में हैं।जिस समाज में वो रहते थे उस समाज के वास्तविक जीवन का चित्रण अपनी विभिन्न कविताओं बखूबी किया है। अपनी कविताओं में समाज का वास्तविक दर्पण झलकाया है। समाज में हो रहे अत्याचार, शोषक का शोषित के प्रति दृष्टिकोण एवं विसंगतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के लोगों को अवगत कराया है।
‘‘निराला की अपनी साहित्य चिंता बिल्कुल दूसरे स्तर और धरातल की वस्तु थी।रूप को भेदकर सत्य को देखने की आदी उनकी दृष्टि इस बदसूरती के बावजूद उसके भीतरजीवित जन की आत्मा का सौंदर्य परखने से नहीं चूक सकती थी।’’[2]
‘विधवा’,‘भिक्षुक’,‘दीन’,‘वहतोड़तीपत्थर’,‘कुकुरमुत्ता’,‘सरोज–स्मृति’,‘रामकीशक्तिपूजा’,‘रानी और कानी’ एवं ‘डिप्टी साहब आए’इन सभी रचनाओं में सामाजिक संदर्भों में उभरे नए यथार्थ की समस्याओं को नई दृष्टिसे चित्रण किया गया है जिसमें गतानुगत सामाजिक मान्यताओं के परिवर्तन की प्रक्रिया स्पष्ट हो उठती है।
‘परिमल’काव्य में विधवा, भिक्षुक, दीन जैसी कविताओं में सामाजिक यथार्थ को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।भारतीय हिन्दू समाज ने यहां की विधवाओं के साथ जो अत्याचार किया है वह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय विधवाएँ ही हैं जो अपनी समस्त आकांक्षाओं को अपनेमें समेट सिसकी भरती हुई अपने शरीर को अतृप्ति की अग्नि में झोंक देती हैं–
‘‘वह इष्टदेव के मंदिर की पूजा–सी
वह दीप–शिखा–सी शांतभाव में लीन
वह क्रूर काल–तांडव की स्मृति–रेखा सी
वह टूटे तरु की छूटी लता–सी दीन
दलित भारत की ही विधवा है...।’’[3]
यहां विरोध न केवल अनिष्ट यथार्थ और इष्ट देव के मंदिर की पूजा का है बल्कि एक जीवित स्त्री का अनुपस्थित इष्ट देवता के मंदिर में पूजा की तरह समर्पित होना पवित्र, उज्ज्वल किन्तु निरर्थक होने की अभिव्यक्ति है।
निराला ने अपने आसपास के जगत् को खुली आँखों से देखा इनकी ‘भिक्षुक’ कविता वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार व्यवस्था के प्रति एक गहरा सक्रिय आक्रोश व्यक्त करती है–
‘‘वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलाकर है एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठीभर दाने को–भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता
दो टूक कलेजे...।’’[4]
‘दीन’ नाम की कविता निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। वह निम्न वर्ग का व्यक्ति मूक भाव से अनेक कष्टों को झेलते हुए सब कुछ सह जाता है–
‘‘सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न,
अंतिम आशा के कानों में
स्पंदित हम सबसे प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ
क्षीण कंठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो...।’’[5]
कवि ने अनामिका काव्य में ‘वह तोड़ती पत्थरʼ कविता में सामाजिक विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया। सामाजिक शोषण का पर्दाफाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसमें सामान्य श्रमशील जनता का प्रतीक महिला के माध्यम से समाज की यथार्थ स्थिति को सामने रख दिया है–
‘‘कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन भरा बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय–कर्म–रत–मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार–बार प्रहार
सामने तरु–मलिका अट्टालिका, प्राकार...।’’[6]
वह बार–बार प्रहार की चोट सिर्फ पत्थर पर ही नहीं करती, तरु–मलिका अट्टालिका पर भी करती है। पूरी कविता में मूक मजदूरनी का कंठ अंत में ‘वह तोड़ती पत्थर’ सारी विषमताओं कटुताओं के बावज़ूद कर्म की निरन्तरता जीवन के यथार्थता को उभारता है।
‘कुकुरमुत्ता‘ कविता में उच्च वर्ग के द्वारा निम्न वर्ग के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया जाता है।इस कविता के माध्यम से साम्यवादी सिद्धांतों पर घातक प्रहार किया गया है। निम्न वर्ग की बस्ती का यथार्थवादी चित्र उपस्थित करते हुए गोली और बहार की कथा बताई गई है। गोली बाग़ की मालिनकी लड़की थी और बहार नवाब की नवाबज़ादी। दोनों में साहचर्य–जन्य प्रेम उत्पन्न हो गया था–
‘‘साथ–साथ ही रहती दोनों,
अपनी–अपनी कहती दोनों
दोनों के थे दिल मिले,
आँखों के तारे खिले...।’’[7]
साम्यवादी विचारधारा के अनुसार दो विरोधी वर्ग में पैदा होकर इनकी मैत्रीकी सम्भावना नहीं हो सकती किन्तु मानवता के अनुसार मनुष्य–मनुष्य का हृदय सामीप्य और एक दूसरे के प्रति बराबरी का व्यवहार करना चाहता है चाहे वह किसी भी वर्ग में पैदा क्यों न हो। कुकुरमुत्ता निराला के सामाजिक यथार्थ का वह केंद्र बिंदु है जिसमे तत्कालीन वर्गीय दृष्टियां अपने सही रूप का इज़हार करती हैं।
‘सरोज–स्मृति’ इनकी महत्वपूर्ण कविता है। यह कविता दुखों के पहाड़ के विस्फोट में क्षत–विक्षत निराला की आत्मकरुणा का चित्र है जिसके रंगों को गहराई देने का काम अनेकानेक विषम सामाजिक सन्दर्भों ने किया है। ‘‘निराला ने आत्मकरुण कथा को सार्वजानिक व्यथा–कथा बना दिया जो व्यक्तिगत संवेदन कोसामाजिकसंवेदन से जोड़ने की निराला की अद्भुत क्षमता का परिचय देती है।’’[8] उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति में एक सरोज की ही नहीं अपितु हज़ारों लाखों सरोजों की कहानी कही है। जिनके अभाववश उनकी चिकित्सा का थोड़ा सा भी प्रबंध नहीं करा पाते वे अपने जीवन की असहाय एवं निरर्थकता पर गहरा शोक व्यक्त करते हैं–
‘‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित–काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ–समर...।’’[9]
‘राम की शक्ति पूजा’ राम और रावण की कथा के बहाने जहां एक और आधुनिक जीवन और समाज में व्याप्त द्वंद्व एवं अंतर्विरोधों को गहराई और व्यापकता के साथ चित्रित करती है। ‘‘असहाय, थके हुए, निराश और संशयग्रस्त राम के जो भी चित्र हम कविता में देखते हैं उनमें निराला की ही प्रतिछाया दिखाई देती है। अन्याय और विरोधों से जूझते हुए निराला न जाने कितनी ही बार आहत हुए।’’[10]इसलिए कविता पढ़ते–पढ़ते कभी राम के रूप में स्वयं निराला हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं–
‘‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।’’[11]
‘नए पत्ते’काव्यकी पहली रचना ‘रानी और कानी’कुरूपता यथार्थ की विषमता के चित्रण की वजह से कविता के स्तर पर बहुत विश्वसनीय लगती है। यह कविताहमारी संवेदनाओं को झकझोरने वाली है–
‘‘माँ उसको कहती है रानी
आदर से, जैसा है नाम,
लेकिन उसका उल्टा रूप,
चेचक के दाग, काली, नक–चिप्टी
गंजा सर, एक आंख कानी...।’’[12]
अपनी एक आँख कानी, चेचक के दाग वाली कन्या को आदर से रानी कहना यथार्थ को देखकर भी अनदेखा करती माँ की ममता का सूचक है। पड़ोस की औरत के ताने से विचलित माँ अपनी ‘कानी रानी’ के ब्याह न होने की बात सुन मन मसोस कर रह जाती है।कुरूप रानी की पीड़ा और शारीरिक कमी दोनों ही सजीव हो उठती है। इससे उसकीजो प्रतिक्रिया होती हैवह यहाँ व्यक्त होती है। –
‘‘सुनकर कानी का दिल हिल गया,
कांपे कुल अंग
दाई आँख से
आंसू भी बह चले माँ के दुःख से...।’’[13]
उस समय समाज के जमींदारों के द्वारा निम्नवर्ग का शोषण किया जाता था। कवि नेउस सामाजिक यथार्थ को अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया हैऔर उन पर व्यंग्य भर्त्सना की है। जमींदारों के हथकंडे और भी निराले होते हैं।लगान लेकर किसी दूसरी वस्तु का प्रतिशोध लेने के लिए दावा कर देना, नज़राना लेना साधारण बात थी। वे अनेक प्रकार के हथकंडे भी काम में लाते थे, इसलिए कवि नेयहां तक लिख दिया है–
‘‘जमींदार की बनी,
महाजन धनी हुए हैं
जग के मूर्ति पिशाच
धूर्त गण गनी हुए हैं...।’’[14]
‘‘डिप्टी साहब आए कविता में डिप्टी, जमींदार, दारोगा मिलकर शोषण करने वाले हैं। ये लोग गांव के किसानों से छलएवं झूठे गवाहों से किसानों के बाग़–खेत जमींदार के पक्ष में ले लेते हैं।’’[15] इस कविता में निराला ने वर्ग–चरित्र को उभारते हुएएवं वर्ग–संघर्ष का भी आभास देते हुए समाज की वास्तविक स्थिति को दर्शाया है।
सार संग्रह:–
कवि का प्रमुख ध्येय यही होता है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से सभी को समाज की वास्तविक स्थिति से अवगत करवाएं। कवि ने समाज में हो रही जातिगत संकीर्णता, ऊंच-नीच का भेद-भाव, निम्नवर्ग की अक्षमता, ज़मींदारों के अत्याचार, महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण आदि सभी गंभीर सामाजिक मुद्दों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। कवि ने अपनी आँखों से जो देखा, अनुभव किया, साथ ही स्वयं भी जिन परिस्थितियोंसे गुजरे उन्हें हमारे समक्ष प्रदर्शित किया है। विधवा, भिक्षुक, दीन, वह तोड़ती पत्थर, कुकुरमुत्ता सरोज-स्मृति, रानी और कानी सभी में किसी न किसी समस्या से जूझ रहे उन निम्न-वर्ग के लोगों का चित्रण किया है। सभ्य समझाजानेवाला आज का ये समाज अपने ही निम्न-वर्ग के साथ अनुचित व्यवहार करता है तथा आज भीनिम्न-वर्गकोउपेक्षित व्यवहार का सामना करना पड़ता है।आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में उच्च-वर्ग द्वारा निम्न-वर्ग को प्रताड़ित किया जाता रहाहै। अतः आज हमें इन सभी से ऊपर उठकर सभी के साथ समान व्यवहार एवं सही दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है।
सन्दर्भग्रन्थ: –
[1]विनोदकुमारजायसवाल : निरालाकीलम्बीकविताएँएकअध्ययन,भारतीय ग्रन्थ
निकेतन, नई दिल्ली, 1992,पृ. 66
[2]अर्चना वर्मा: निराला के सृजन–सीमान्त विहग और मीन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट
लिमिटेड, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005, पृ.236
[3]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पांचवां संस्करण
2003, पृ.34
[4]वही, पृ.35
[5]वही,पृ.36
[6]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण 2003,
पृ.94
[7]वही,पृ.66
[8]विनोदकुमारजायसवाल: निरालाकीलम्बीकविताएँएकअध्ययन,भारतीय ग्रन्थ निकेतन,
नई दिल्ली,1992,पृ.128
[9]वही, पृ.128
[10]वही, पृ.162
[11]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण
2003,पृ.152
[12]रेखा खरे:निराला की कविताएँ और काव्यभाषा,लोकभारती प्रकाशन,दूसरा संस्करण
2015,पृ.289
[13]वही, पृ.290
[14]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण
2003,पृ.168
[15]रेखा खरे:निराला की कविताएँ और काव्यभाषा,लोकभारती प्रकाशन,दूसरा संस्करण
2015,पृ.55
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद स्वयं में बड़ा गहरा और व्यापक शब्द है, जो भारत के भूत को वर्तमान को और भविष्य को समाहित कर देश को आगे बढ़ाने की एक वैचारिक आधारशिला है, जिसमें सम्प्रदाय का अंश कहीं लेशमात्र भी नहीं है, जो सभी को एक साथ लेकर चलने वाली विचारधारा है। इस शब्द का सबसे पहले अपने लेखों में प्रयोग पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने किया और इसकी नींव वीर सावरकर ने रखी तथा इसकी विवेचना गुरू गोलवलकर ने की थी। इसमें एक राष्ट्र-राज्य की तमाम बुनावटें हैं जिसमें वेश, भाषा, बोली, संस्कृति इत्यादि सभी तत्व मिलते हैं। मूल राष्ट्रवाद में संस्कृत, पालि, प्राकृत सभी के आधारतत्व समाहित हैं एक प्रकार से कहें तो मूल राष्ट्रवाद के यही आधार हैं।
प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से सम्बद्ध होता है। साहित्यकार उन राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है जिसमें वह अपने देश के अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, भविष्य के सपने बुनता है और वर्तमान का मूल्यांकन करता है। अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुतः राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है, तब अज्ञेय का यह कथन बड़ा युक्तियुक्त लगता है, ‘‘संस्कृतियों का सम्बन्ध अपनी देशभूमि से होता है।’’
- वर्तमान साहित्य में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ
सुशील कुमार शर्मा
प्रारम्भिक विश्लेषण के पश्चात सर्वप्रथम संस्कृति को समझना आवश्यक है। सामान्य शब्दों में संस्कृति को समझने की कोशिश करें तो, ‘‘किसी समाज में निहित उच्चतम मूल्यों की चेतना, जिसके अनुसार वह समाज अपने जीवन को ढालना चाहता है।’’
- भारत की राष्ट्रीय संस्कृति
एस0 आबिद हुसैन
‘‘संस्कृति किसी एक समाज में पायी जाने वाली उच्चतम मूल्यों की वह चेतना है, जो सामाजिक प्रथाओं, व्यक्तियों की चित्तवृत्तियों, भावनाओं, मनोवृत्तियों, आचरण के साथ-साथ उसके द्वारा भातिक पदार्थों का विशिष्ट स्वरूप दिए जाने में अभिव्यक्त होती है।’’ (वही-2)
संस्कृति मनुष्यों के समुदाय में रहती है, जिसे समाज कहा जाता है। ऐसे जिस भी समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता पायी जाती है या वह समाज ऐसी एकता का इच्छुक होता है, तो उसे राष्ट्र कहते हैं।
राष्ट्रवाद ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म, पंथ और सम्प्रदाय को समान दृष्टि से देखा जाता है, उसमें ऐसा कोई भी विचार नहीं है जिससे समाज में संघर्ष या टकराव की स्थिति उत्पन्न हो। हम सब एक हैं यह भावना धरती से जुड़ी संस्कृति में निहित है। हमारे देश की शक्ति एकात्मकता, समानता, समरसता में समाहित है। सभी धर्मों का समान आदर, समभाव ही राष्ट्रवाद की कसौटी है। साहित्य में अन्य रूपों से अधिक कविता मानव-समाज के अन्तर्द्वन्द्वों का अधिक सच्चा प्रतिबिम्ब होती है, इसके विपरीत मुस्लिम राष्ट्रीय कवियों की कविताओं में जो भाव उतरे हैं वे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक करने वाले भाव हैं। ये अत्यन्त सरल और सुस्पष्ट है। दिनकर ऐसी ही उपलब्धि को भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट उपलब्धि मानते हैं। उनके अनुसार, ‘‘भारत भू को ऊपर ले जाने वाला एक स्वप्न है, स्वर्ग को भू पर लाने वाला एक विचार है, भारत एक जलज है, जिस पर जल का दाग नहीं लगता, भारत उज्ज्वल आत्मोदय की तथा वैराग्य की संज्ञा है, भारत मनुज को रोगमुक्त करने की कल्पना है, संसार में जहाँ कहीं भी अखण्डित एकता तथा प्रेम के स्वर की विद्यमानता है वहीं यह समझ लेना चाहिए कि भारत अपने जीवित और भास्कर स्वरूप में खड़ा है, भारत वहाँ है जहाँ जीवन साधना के प्रति भ्रम नहीं है, जहाँ संगम में धाराओं को समाधान मिला हुआ है, जहाँ माधुर्यपूर्ण त्याग हो, जहाँ निष्काम भोग हो, जहाँ कामना समरस हो, वहीं भारत है और इस रूप में वह प्रणम्य है।
- दिनकर का समाज दर्शन और राष्ट्र दर्शन
डा0 प्रेम प्रकाश रस्तोगी
हम सांस्कृतिक और भाषायी रूप से अलग-अलग हैं लेकिन एक ध्वज, राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय प्रतीक के तहत एक रूप में एक साथ खड़े हैं। एक राष्ट्र का तभी जन्म होता है जब इसकी सीमा में रहने वाले सभी नागरिक सांस्कृतिक विरासत एवं एक-दूसरे के साथ भागीदारी में एकता के साथ बंधे रहते हैं। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परम्परा में अनेक मनीषी विद्वानों, ऋषियों, मुनियों के जीवन अनुभव के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं तब हमारा ध्यान उन जीवन मूल्यों की ओर जाता है जिसमें राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर ले जाता है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता के भाव ही सांस्कृतिक मूल्य हैं। जब तक राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक परम्परा के शाश्वत के साथ जुड़ा रहता है तब तक वह जीवंत रहता है। इकबाल जी की पंक्तियाँ इस ओर ही इशारा कर रही हैं कि यद्यपि सांस्कृतिक स्खलन के कारण विश्व के कई राष्ट्र मिट गये परन्तु हम अभी भी गर्व से अपने राष्ट्र की रक्षा में तत्पर और संलग्न दिखाई पड़ते हैं-
‘‘यूनान मिस्र रोमां सब मिट गये जहाँ से अब तक मगर है बाकी नामोनिशा।
हमारा कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।’’
- तराना-ए-हिन्दी
(अल्लामा इकबाल)
अब बात करते हैं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यद्यपि स्वतंत्रता के पश्चात महत्वपूर्ण राजनैतिक समस्याओं का समाधान हुआ परन्तु सांस्कृतिक गुत्थी ऐसी उलझती चली गई मानो सुलझने का नाम ही न ले रही हो। ऐसा प्रकट हुआ कि हमारी राष्ट्रीय एकता मजबूत होने की अपेक्षा कमजोर होने के खतरे में पहुँच गयी। क्षेत्रीय या समूह संस्कृतियों के समाज राष्ट्रीय संस्कृति में संश्लेषण भारतीय इतिहास में पहले ही तीन बार हो चुका है। आर्य और द्रविड़ संस्कृति का विलयन, हिन्दू और बौद्ध तथा अन्त में हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों का विलयन। अब जब राष्ट्रीय एकता और सांस्कृति राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा चली तो एक-दूसरे की संस्कृति से सम्पर्क की आवश्यकता हुई। ऐसे में कई महत्वपूर्ण कदम भी उठाए गए। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ने युवा महोत्सव प्रारम्भ किए। तीन अकादमी स्थापित की गईं एक प्रतिनिधि कलाओं के विकास के लिए, दूसरी संगीत, नृत्य और नाटक के लिए और तीसरी साहित्य के लिए। यद्यपि पाश्चात्य संस्कृति से हमारे मतभेद हैं फिर भी हमने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता का वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाया है जो हमारे लिए वास्तविक उपयोग और मूल्य की वस्तु है।
यदि विगत वर्षों में विकास की समीक्षा करें तो हम पायेंगे कि सभी तीन बुनियादी उद्देश्य जो राष्ट्र निर्माण के लिए हमारे समक्ष हैं- धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राज्य, समाजवादी समाज व्यवस्था, औद्योगिक विकास पर हम खरे उतरते नजर आयेंगे। हम शहरी और ग्रामीण संस्कृति का समन्वय और संश्लेषण कर रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं हमारी संस्कृति जो इतनी समृद्धशाली है उसकी जड़ें ग्रामीण भूमि में गहरायी से पायी जाती हैं। स्वतंत्रता और समानता के संतुलन पर आधारित हमारी संस्कृति स्वयं में विशिष्ट है। हम पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक हाथ थामे बंधे हुए हैं। जो हमारी समान संस्कृति का विशिष्ट उदाहरण है। इसी एकता के फलस्वरूप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा जन्म लेती है। यदि उत्तर भारत की संस्कृति में अपने से बड़ों का सम्मान पैर स्पर्श करके होता है तो वह भारत के सम्पूर्ण भाग है। जब देश की रक्षा की बात आती है तो सम्पूर्ण देश राष्ट्रहित में एक साथ खड़ा नजर आता है, यही तो है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। फिर भी जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई का भी कुछ प्रतिशत हमेशा दृष्टिगत होता है। इसी राष्ट्र में कुछ अराजक तत्व राष्ट्र के खण्डित होने की बात करते हैं, राष्ट्र के विरोध में बोलकर जनता को भड़काने का काम करते हैं, संस्कृति की उपेक्षा करते हैं तब इसी राष्ट्र उनको जवाब देने के लिए राष्ट्र और संस्कृति के समर्थक उठ खड़े होते हैं-
‘‘एक राष्ट्र हो एक धर्म हो एक हमारी भाषा हो,
राष्ट्रधर्म का पालन करना जीवन की परिभाषा हो।’’
(प्रो0 अर्जुन प्रसाद सिंह (प्रभात), राष्ट्रीय गीतमाला)
जहाँ एक ओर देश के वे सपूत जो अपनी धरती माँ की रक्षा हेतु सीमाओं पर डटकर खड़े हुए हैं वहीं दूसरी ओर देश के कुछ दबाव समूह और कुछ संगठन उन्हीं पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर देते हैं लेकिन तब भी देश के जाबांज अभिनन्दन जैसे नायक अपने प्राणों को दांव पर लगाकर देश की रक्षा में निरन्तर डटे रहते हैं। स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता के आगमन से समाज सुधार को गति मिली और सरकार तथा निजी प्रतिष्ठानों के संयुक्त प्रयास से उसकी प्रगति को गतिशील बनाया गया। जहाँ तक वैधानिक प्रावधानों का सम्बन्ध है, हमारे संविधान ने पुरुष और स्त्री आदि को समान अधिकार दिए हैं और व्यवहार में इन पर कार्य भी हो रहा है। सभी वर्गों के लिए प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य की गई क्योंकि शिक्षा देश का वह महत्वपूर्ण अवयव है जो देश के विकास में और देश को गतिशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। देशवासी के रूप में भारतीयों ने दृढ़ता से समयबद्ध परम्पराओं पर आश्रित, जीवन की एक पद्धति बनायी है। एक राष्ट्र के रूप में वे आधुनिक युग के प्रवाह और झोंकों, तूफान और दबाव से प्रभावित होते हैं। वे अपना नौबंध छोड़ना और उसके द्वारा बह जाना नहीं चाहते, जो उन्हें निर्मम और उद्देश्यहीन वर्तमान का उफनता प्रचंड ज्वार मालूम पड़ता है, किंतु वे महसूस करते हैं कि स्वतंत्र प्रजातांत्रिक राज्य को चुनने के बाद, पैसिफिक में प्राचीनता के स्थिर और छिछले जल में चिपके नहीं रह सकते। इसलिए उन्हें स्थिर और गतिशील, प्राचीन और नये के बीच संतुलन बनाना है।’’
- भारत की राष्ट्रीय संस्कृति
(एस0 आबिद, हुसैन)
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीयों के जीवन की सतत प्रेरणा है, उनमें स्फूर्ति जगाता है और साथ-ही साथ संघर्ष तथा बलिदान के लिए भी प्रेरित करता है। राष्ट्रवाद कोई भौगोलिक इकाई नहीं है अर्थात् इसकी कोई निश्चित भौगोलिक अवधारणा नहीं है और न ही यह कोई काल्पनिक समुदाय है, यह एक अनुभूति है जो हमें राष्ट्र के विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों से जोड़ती है। दीनदयाल जी मानते थे कि, ‘‘राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंतःकरण में अपनी भूमि के प्रति श्रद्धा की भावना होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है।’’
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
(प्रभात झा)
और उन्होंने कहा, ‘‘स्वराष्ट्र के प्रति पुलक स्वाभाविक है, क्योंकि स्व हमारा स्वभाव है। हमारे स्व का आदर्श हमारी संस्कृति है। स्वदेश और विदेश में आधारभूत फर्क है। स्वदेश में आत्मीयता है, विदेश में परायापन है। यह तत्व राष्ट्रजीवन के अंतस में सहज प्रवाहित रहते हैं। त्याग, प्रेम, बंधुत्व हमारा स्वभाव है। यह स्वसंस्कृति से आया है।’’
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
(प्रभात झा)
हमारी संस्कृति हमेशा से विशिष्ट रही है, इस देश में जो भी आया वह भारत की माटी में समा गया और भारतीय हो गया। यह राष्ट्र कोई छोटा सा टुकड़ा नहीं है अति विशाल और विराट है जो अपनी विशिष्ट संस्कृति के कारण विश्वपटल अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वर्तमान संदर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तेजी से अपनी विचारधारा को दृढ़ता प्रदान कर रहा है और जो इसको खण्डित करने वाले तत्व हैं उनको मुँहतोड़ जवाब भी दे रहा है। आज का युवा जागरूक है जो स्वामी विवेकानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहा है और अन्ततः कहीं न कहीं सफल भी हो रहा है। अतः वर्तमान में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीज गहरे होते जा रहे हैं।
सन्दर्भ सूची-
1. भारत की राष्ट्रीय संस्कृति - एस0 आविद हुसैन
2. दिनकर का समाजदर्शन और राष्ट्र दर्शन - डा0 प्रेम प्रकाश रस्तोगी
3. संस्कृति के चार अध्याय - रामधारी सिंह ‘दिनकर’
4. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद - प्रभात झा
5. आज के आईने में राष्ट्रवाद - रविकान्त
6. वर्तमान साहित्य में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ - सुशील कुमार शर्मा
7 राष्ट्रीय गीत माला - प्रो0 अजु्रन प्रसाद सिंह (प्रभात)
प्रियंका सिंह
शोध छात्रा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
पता-हॉल ऑफ रेजीडेन्स, महिला छात्रावास
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज-211002
हिन्दी ग़ज़ल :शिल्प और संवेदना
डॉ.रहमान मुसव्विर
हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली-25
जब भी हिन्दी ग़ज़ल पर चर्चा होती है तो एक स्वाभाविक प्रश्न से सामना होता है कि क्या हिन्दी ग़ज़ल जैसी कोई चीज है या ग़ज़ल केवल ग़ज़ल है । इस विषय में ग़ज़ल के चाहने वालों में ही स्पष्ट रूप से दो ख़ेमे दिखाई देते हैं। एक का मानना है कि ग़ज़ल केवल ग़ज़ल होती है । इसे हिन्दी उर्दू के दायरे में बाँधना उचित नहीं है । जबकि दूसरे ‘हिन्दी ग़ज़ल’ कहे जाने के पक्षधर हैं । इस बहस से पूर्व हिन्दी उर्दू भाषा के स्वरूप पर दृष्टिपात करना उचित रहेगा ।
एक भाषा दूसरी भाषा से व्याकरण के आधार पर भिन्न होती है । किसी भाषा का शब्द भंडार भी उसे दूसरी भाषा से अलग करता है । क्योंकि शब्द केवल ध्वनियों का समुच्च्य नहीं है बल्कि एक विशिष्ट संस्कृति और अवधारणा का वाहक भी होता है । व्याकरण की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई भेद नहीं है । मोटे तौर पर इन दोनों को दो बिंदुओं के आधार पर अलग किया जा सकता है । एक तो लिपि, दूसरे शब्दों का आयात । संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों के बहुतायत वाली भाषा जो नागरी लिपि में लिखी जाए हिन्दी कहलाती है जबकि अरबी-फारसी शब्दों की अधिकता वाली भाषा जो अरबी लिपि में लिखी जाए, उर्दू के नाम से जानी जाती है । (प्रायः उर्दू की लिपि को फ़ारसी लिपि कहा जाता है परंतु वह मूलतः अरबी लिपि है जिसमें भारतीय ध्वनियों के अनुसार कुछ परिवर्तन कर लिए गए हैं) यह एक सर्वमान्य सत्य है कि बहुत सारी समानताएं होते हुए भी हिन्दी और उर्दू दो भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त हैं । इन दोनों भाषाओं की अपनी अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपराएं हैं । अतः दोनों भाषाओं के मिले जुले रूप को अब हिन्दुस्तानी भाषा कहना भी उचित नहीं है । भाषा की मान्यता न केवल उसके बोलने वालों से बल्कि उसमें रचे गए साहित्य के आधार पर होती है । ‘हिन्दुस्तानी’ में कोई भी साहित्य अभी तक नहीं रचा गया है । गाँधी जी ने जिस ‘हिन्दुस्तानी’ की परिकल्पना की थी वह मात्र परिकल्पना ही रह गई । इसके क्या कारण रहे यह अलग बहस और शोध का विषय है । तो यह स्पष्ट है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग अलग भाषाओं के रूप में स्वीकृत और स्थापित हैं । किन्तु दोनों के संबंध में यह भी रोचक तथ्य है कि दोनों भाषाओं के बीच आवाजाही के लिए कुछ सुरंगें भी हैं और पुल भी । इस आवाजाही से दोनों भाषाएं अपने अपने स्वरूप में समृद्ध तो होती रही हैं लेकिन एक हो जाना बहुत दूर की कौड़ी है । इसलिए इन दोनों भाषाओं में लिखी जा रही ग़ज़ल को एक ही मानने का क्या औचित्य है ? दोनों भाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व के आधार पर ‘हिन्दी ग़ज़ल’ का प्रयोग सर्वथा उपयुक्त है । उर्दू में भी ‘उर्दू ग़ज़ल’ शब्द प्रचलित है।
हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से अलग रखकर देखने के कई वाजिब कारण हो सकते हैं । उर्दू ग़ज़ल की परंपरा कई सौ साल पुरानी है । फारसी ग़ज़ल की भूमि में उसकी जड़ें अवश्य हैं लेकिन उसका विशाल वृक्ष अपने आप में हिन्दुस्तानी तहज़ीब को अंगीकार किए हुए है । दूसरी ओर हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा मात्र पचास साल पुरानी है । प्रायः हिन्दी ग़ज़ल के उद्भव के सूत्र ढ़ूंढ़ते हुए अमीर खुसरो और कबीर तक से नाता जोड़ने की कोशिश की जाती है । किंतु सत्यता यही है कि हिन्दी ग़ज़ल अपेक्षाकृत नई विधा है । अतः हिन्दी ग़ज़ल का मुकाबला उर्दू से करना या उसके साथ रखना न तो तर्क संगत है न न्याय संगत ।
ग़ज़ल वस्तुतः अपने शिल्प और अनुशासन के वैशिष्ट्य के आधार पर ही ग़ज़ल है । हिन्दी ग़ज़ल ने यह शिल्प और अनुशासन उर्दू ग़ज़ल से लिया है । लेकिन संवेदना और अनुभव के स्तर पर हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से पर्याप्त भिन्न है । इधर हिन्दी में ग़ज़ल लिखने वाले कुछ ग़ज़लकार उर्दू ग़ज़ल की शब्दावली, समास और रूढ़ियों का प्रयोग कर रहे हैं । (हालांकि नई उर्दू ग़ज़ल स्वयं इनसे काफ़ी हद तक मुक्त हो चुकी है ) उनके तेवर भी उर्दू वाले ही हैं । यहाँ संकट यह है कि उन्हें हिन्दी ग़ज़लकार कहें या उर्दू ग़ज़लकार । एक हिन्दी ग़ज़लकार मित्र ने एक चर्चा के दौरान कहा कि हम उसे हिन्दी ग़ज़ल मानते हैं जो नागरी लिपि में लिखी गई हो । तो क्या इस आधार पर मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मामत’ को अवधी काव्य न मानकर उर्दू काव्य माना जाए क्योंकि इसकी मूल प्रति उर्दू ( यानी अरबी लिपि) में है ।
विख्यात आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी अपनी पुस्तक ‘उर्दू ग़ज़ल के एहम मोड़’ में लिखते हैं कि “क्लासिकी उर्दू ग़ज़ल की शे‘रयात जिन तसव्वुरात (अवधारणाओं) पर क़ायम हैं उन्हें मोटे तौर पर दो अन्वाअ (प्रकार) में तक़सीम किया जा सकता है । एक वो जिनकी नोइयत (प्रकार) इल्मियाती (ज्ञान संबंधी) है । यानी वो तसव्वुरात इस सवाल पर मब्नी हैं कि शे‘र से हमें क्या हासिल होता है । दूसरी नोअ (प्रकार) के तसव्वुरात वो हैं जिनका तआल्लुक़ इस सवाल से है कि शे’र का वजूद किन चीजों पर मुन्हसिर (निर्भर) है ।1 अर्थात शे’र की बाहरी संरचना के तत्व कौन कौन से हैं । फ़ारूक़ी साहब आगे चलकर ग़ज़ल के इन दो प्रमुख आधारों की विवेचना करते हुए इनके तत्वों के विषय में विस्तार से लिखते हैं । संरचनात्मक्ता के विषय में उन्होंने सार्थक शब्द, वज़्न और बहर, क़ाफ़िया और रब्त का उल्लेख किया है । अतःग़ज़ल में प्रयुक्त शब्द अपनी संपूर्ण अर्थवत्ता के साथ उपस्थित होने चाहिए । बहर ग़ज़ल की पहली शर्त है । रदीफ़ और क़ाफ़िए का निर्वाह ग़ज़ल को ग़ज़ल बनाता है । इस संबंध में अंतिम बात है रब्त या पूर्वापर संबंध । ग़ज़ल के दोनों मिसरों में कही गई बात या विचार परस्पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबद्ध होने चाहिए । एक में कोई ख़याल हो तो दूसरे में उसकी दलील । ज्ञानात्मकता संबंधी अवधारणा के विषय में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कथ्य की उत्कृष्टता, अर्थवत्ता, विचार गांभीर्य, प्रभावशीलता और गहनता को आवश्यक माना है । यह चर्चा उन्होंने उर्दू ग़ज़ल के संबंध में की है। हिन्दी ग़ज़ल पर विचार करते हुए उपरोक्त तत्वों को ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि ग़ज़ल उर्दू में लिखी (कही) जाए या हिन्दी में, उसका ‘ग़ज़ल’ होना पहली शर्त है । ग़ज़ल को ग़ज़ल बनाए रखने के लिए उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखना अनिवार्य होगा । ग़ज़ल-आलोचना की दृष्टि से मुख्यतः दो बातों पर ध्यान देना होगा। पहली; शे’र की बाहरी बनावट और बुनावट यानी शिल्प, तथा दूसरी; शे’र की विषय वस्तु या कथ्य।
हिन्दी ग़ज़ल के शिल्प के संबंध में अभी यह असमंजस बरकरार है कि बहर में मात्राओं की गणना का आधार क्या होना चाहिए । क्या उर्दू की भाँति आवश्यकतानुसार दीर्घ को ह््रस्व करके पढ़ा जाए या दीर्घ को दीर्घ ही रखा जाए । अनेक हिन्दी ग़ज़लकार दीर्घ को दीर्घ ही लिखने और पढ़ने के पक्षधर हैं तथा इसके निर्वाह का प्रयास भी कर रहे हैं । लेकिन अधिकांश हिन्दी ग़ज़लकार जहाँ जैसी ज़रूरत हो वहाँ वैसा कर लेते हैं । वस्तुतः यह ग़ज़ल के शिल्प और अनुशासन की मजबूरी है । ज़्यातर हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल की बहर और गणना पद्धति को ही अपनाकर चल रही है-
मेरी तो पोल पट्टी खोलता फिरता है तू जग में
बता ऐ वक़्त तूने मुझसे कितना धन कमाया है2
जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाशभी है
एक पहेली सी दुनिया में गल्प भी है, इतिहास भी है3
इन शे’रों में मेरी के स्थान पर ‘मरी/मिरी’, मुझसे के स्थान पर ‘मुस्से’ और भी के स्थान पर ‘भि’ पढ़ने पर ही शे’र बहर में रहेगा अन्यथा बहर से ख़ारिज हो जाएगा।
हिन्दी ग़ज़ल की भाषा पर भी विचार करना परमावश्यक है ।भाषा केवल विचारों का वाहक मात्र नहीं होती है अपितु स्वयं भी एक विचार होती है । ग़ज़ल के संदर्भ में तो यह और भी महत्वपूर्ण है । कई बार केवल भाषा का खेल ही शे’र को ऊँचाई प्रदान कर देता है । डा. अनीसुन्निसा बेगम लिखती हैं कि “ग़ज़ल की ज़बान का भी ग़ज़ल के फ़न के साथ गहरा तआल्लुक होता है । ग़ज़ल की ज़बान में नर्मी, मिठास, सादगी और बेतकल्लुफ़ी का होना ज़रूरी है ।”4हिन्दी ग़ज़ल की भाषा की विवेचना करते हुए ही यह निश्चित हो जाता है कि हिन्दी ग़ज़ल क्या है । इसके लिए सावधानीपूर्वक अवलोकन आवश्यक है । हिन्दी ग़ज़ल मेंकिस भाषा के शब्द अधिक प्रयुक्त हुए है यह देखना भी रोचक हो सकता है । कभी कभी लिपि धोखा दे जाती है, भ्रम में डाल देती है । नागरी लिपि में लिखे हुए असंख्य शे’र मिल जाएंगे जो कहीं से भी हिन्दी ग़ज़ल के शे’र प्रतीत नहीं होते हैं-
एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल
मशरिक़ी फ़न में नई तामीर है मेरी ग़ज़ल
दिल लिए शीशे का देखो संग से टकरा गई
बर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल5
ख़्वाब में मेरे न जाने क्या फ़ुसूँ चलता रहा
इक अजब सा शोर था मैं रातभर डरता रहा
तेरी बातें तेरे क़िस्से, और तेरी गुफ़्तगू
बज़्म में कल तू नहीं था पर तेरा चर्चा रहा 6
उपर्युक्त शे’रों को पढ़ते समय तनिक भी यह एहसास नहीं होता है कि ये हिन्दी ग़ज़ल के शे’र हैं, भले ही ये नागरीलिपि में बद्ध हैं । मशरिक़ी फ़न, तामीर, संग, बर्गे-गुल, फुसूँ, बज़्म शब्द किसी दृष्टि से भी हिन्दी या हिन्दी की प्रकृति के नहीं हैं । बर्गे-गुल तो ख़ालिस फ़ारस़ी की तरकीब है । ‘चर्चा’ शब्द के विषय में तो सर्वविदित है कि यह उर्दू में पुल्लिंग और हिन्दी में स्त्रीलिंग है । प्रस्तुत शे’र में यह पुल्लिंग प्रयुक्त हुआ है । अतः इस शे’र को हिन्दी ग़ज़ल का शे’र कैसे कहा जाए ! हिन्दी ग़ज़ल में यह शब्द स्त्रीलिंग रूप में बहुत सुंदरता से प्रयुक्त हुआ है -
आग की चर्चा न हो अंगार की चर्चा न हो
और जहरीली नदी से प्यार की चर्चा न हो 7
यह शे’र अपनी संपूर्णता के साथ हिन्दी ग़ज़ल का शे’र सिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि हिन्दी ग़ज़लकारों को उर्दू शब्दों के अनावश्यक मोह से बचना चाहिए । केवल नागरी लिपि में लिखे जाने से ही कोई ग़ज़ल हिन्दी ग़ज़ल नहीं मान ली जानी चाहिए । हिन्दी शब्दों का सहज प्रयोग और उसका अपना भाषायी संस्कार उसे हिन्दी ग़ज़ल बनाएगा । हिन्दी भाषा स्वयं इतनी आकर्षक, संप्रेषणीय और ‘खूबसूरत’ है कि अगर ग़ज़लकार की पकड़ उस पर है तो वह कमाल कर सकता है । कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं-
मुक्ति कामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की8
दिलों में घाव माथे पर तिलक है
वही जो कल तलक था आज तक है
अलंकृत दर्द हैं इस जिंदगी के
कोईहै श्लेष तो कोई यमक है9
बाहें मिली न नींद मिली, दर्द ही मिला
परिहास की तरह कभी उपहास की तरह10
कुछ दिनों से व्यक्त होने को विकल थी वेदना
पीर को कल आसुँओं का रास्ता मिल ही गया 11
भाषा विचार का यह एक स्तर है। दूसरे स्तर पर भाषा अपने व्यापक स्वरूप का साक्षात्कार कराती है। ग़ज़ल की भाषा मुहावरों, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से अर्थों के विस्तृत संसार को उद्घाटित करती है। शब्दमैत्री, पदबंधों की कसावट और प्रवाहमयता ग़ज़ल की भाषा को विशिष्ट बनाते हैं। हिन्दी ग़ज़ल का शिल्प उर्दू ग़ज़ल से अवश्य लिया गया है लेकिन भाषा का कलेवर उसका अपना है । उसमें एक ठसक है और खरापन है । उसमें माधुर्य भी है और प्रसाद भी। हिन्दी कविता की सुदीर्घ परंपरा से विकसित और पल्लवित भाषा ही हिन्दी ग़ज़ल की भाषा है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उर्दू भाषा ( अरबी, फारसी, तुर्की आदि ) के शब्दों से परहेज़ किया जाए । आशय यह है कि अनावश्यक ठूसम ठांसी से बचा जाए । फ़ारसी इज़ाफ़त से बचते हुए हिन्दी सामासिक शब्दावली का प्रयोग हिन्दी ग़ज़ल की गरिमा में वृद्धि करेगा । हिन्दी ग़ज़लकार इस ओर पर्याप्त ध्यान दे रहे हैं । सुरेंद्र सिंघल, रामकुमार‘कृषक‘, बल्ली सिंह चीमा, कृष्ण शलभ, ज़हीर कुरेशी और विज्ञान व्रत ने इस ओर सावधानी बरती है।
ग़ज़ल के संदर्भ में भाषा पर मंथन करते समय शब्द चयन, भाव और विचार के साथ उसकी अन्विति तथा शब्द स्थिति स्वयं ही चर्चा के केन्द्र में आ जाते हैं । ग़ज़ल एक ऐसी काव्य विधा है जो एक भी अतिरिक्त शब्द का बोझ सहन नहीं कर पाती है । यदि उसके साथ ज़बरदस्ती की भी जाती है तो ग़ज़ल का शे’र लड़खड़ाने लगता है । न एक शब्द कम, न एक शब्द ज़्यादा । कौन सा शब्द कहाँ और किस शब्द के साथ आना है, यह भी महत्वपूर्ण है । हर शब्द अपने स्थान पर नगीने की तरह जड़ा होना चाहिए। शब्द जरा सा इधर उधर हुआ तो सारा सौंदर्य भरभरा कर गिर पड़ेगा। हिन्दी ग़ज़लकारों ने शब्द की इस मांग को पूरा करने का भरसक प्रयास किया है । लेकिन हिन्दी ग़ज़लों में शब्द चयन और उसकी स्थिति को लेकर प्रायः एक ढीलापन दिखाई देता है । भर्ती के शब्द भी एक समस्या है। ये ग़ज़ल की प्रभावोत्पादकता को न्यून करते हैं-
आकाश चुराऊँ तो चुराने नहीं देता
वो शख़्स पतंगों को उड़ाने नहीं देता12
उमीदों काये बादल दे रहा हूँ
तेरी आँखों को काजल दे रहा हूँ 13
तूफ़ान होंतो उनको भी कुछ आजमाइये
लेकिन किसी के सामने मत सर झुकाइये14
पहले शे’र में ‘को’ शब्द का चयन ठीक नहीं है । यह मिसरा किंचित परिवर्तन के साथ “वो शख़्स पतंगें ही उड़ाने नहीं देता” हो सकता था । दूसरे शे’र में ‘ये’ शब्द अतिरिक्त है । ग़ज़लकार कहना चाहता है कि मैं तुझे उम्मीदों का बादल दे रहा हूँ । एक अच्छा रूपक बनाने के प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए लेकिन बहर की मजबूरी है कि ‘ये’ के वज़्न का शब्द दरकार है । परतु ‘ये’ का औचित्य नहीं बन रहा है क्योंकि जिसके लिए ‘ये’ है, वह है क्या ? “मैं उम्मीदों का बादल दे रहा हूँ” कर लेते तो संभवतः यह दोष दूर हो जाता । तीसरे शे’र के दूसरे मिसरे में ‘मत’ और ‘सर’ शब्दों के परस्पर स्थान बदल देने से शे’र में प्रवाह और सहजता आ जाती । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि हिन्दी में ‘सर’ का अर्थ तालाब (मंजन करि सर सखिन समेता : रामचरित मानस) और तीर/बाण (तब रघुपतिनिज सर संधाना : रामचरित मानस) होते हैं।15 हिन्दी ग़ज़ल में ‘सिर’ शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त रहता।
सांकेतिकता ग़ज़ल की विशिष्टता है। प्रतीकों का प्रयोग और नवीन बिंबों का सृजन हिन्दी ग़ज़लको अलग पहचान दे रहेहैं।प्रतीक ग़ज़ल के प्राण हैं। ग़ज़ल की विशेषता ही है कि उसमें कम से कम शब्दों का प्रयोग करके अधिकाधिक प्रभावशाली कथ्य प्रस्तुत किया जाता है। यानी शब्दों की मितव्ययता ग़ज़ल की विशेषता है। प्रतीक यही कार्य करते हैं। प्रतीक में अर्थों की कई सतहें समाहित रहती हैं। प्रतीकों में संष्लिश्ट निहितार्थ सांस्कृतिक मूल्यों से निर्धारित होते हैं। ये मूल्य परंपरा से भी हो सकते हैं और आधुनिक बोध से भी। हिन्दी ग़ज़लकार अपने प्रतीक मिथकीय संदर्भों से भी चुन रहा है और दैनिक जीवन की विद्रूपताओं के जंगल से भी। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
लव-कुश का राम अंधा, सीता का राम पागल
दशरथ का राम भावुक किसकी समझ में आया 16
राधा भी उसकी चाह में पगलाई सी रही
मीरा भी बावली सी थी उसकी तलाश में 17
जिनके आकाश पेड़ से नीचे
उनके डैनों में बल नहीं होगा18
सभी की एक दूजे से ठनी है
सभी के पास कोई छावनी है
ये जो इक कील है जूते के अंदर
मेरे पाँव की अब इससे ठनी है19
ग़ज़ल की प्रभावशीलता का आवश्यक तत्व बिंब भी है।बिंब कविता को उत्कृष्ट और जीवंत बनाता है। बिंब एक प्रकार का भाव चित्र होता है। भाव में चित्रात्मकता बिंब विधान द्वारा ही संभव है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि चित्र चाहे कितना भी सुन्दर क्यों न हो यदि वह समुचित और वांछित भाव संप्रेषित नहीं कर पा रहा है तो वह असफल ही माना जाएगा। बिंब निर्माण कवि की मानसिक संरचना और उसके रचनात्मक परिवेश पर भी निर्भर करता है। हिन्दी ग़ज़ल का बिंब विधान हिन्दी कविता के बिंब विधान का ही अनुसरण करता प्रतीत होता है-
दुर्दिन बिना बुलाए आते, घर आँगन देहरी द्वारों पर
आँखों में किरकिरी सरीखे खटक रहे हैं जाने कब से20
फूल को देखा झुलसते धूप में जब ‘अश्वघोष’
तितलियों ने फूल पर पंखों की चादर तान ली 21
ग़ज़ल के शिल्प की चर्चा करते समय रब्त की ओर भी ध्यान जाता है। सुंदर शब्द चयन, बहर का निर्वाह और भावों की उत्कृष्टता के बावजूद यदि शे’र के मिसरों में रब्त अर्थात पूर्वापर संबंध नहीं है तो शे’र बे-मानी हो जाएगा। दोनों मिसरों में कुछ न कुछ संबंध अवश्य बनना चाहिए। निम्नलिखित शे’र रब्त के निर्वाह के अच्छे उदाहरण हैं-
उड़ा देती हैं छप्पर जानता हूँ
हवाओं को मैं बेहतर जानता हूँ 22
यूँ तेरे मेरे बीच कोई दूरी तो नहीं ज़्यादा लेकिन
मैं प्यार की बातें करता हूँ,तू ज्ञान की बातें करता है 23
जब भी आकाश हो गया बहरा
ख़ुद में ख़ुद को पुकार कर देखा 24
उपर्युक्त पहले शे’र में छप्पर और हवा का पारस्परिक संबंध बन रहा है । दूसरे शे’र में रब्त को बहुत कलात्मकता के साथ निबाहा गया है । दोनों लोगों के बीच एक दूरी है भी और नहीं भी । इस बात का संकेत दूसरे मिसरे में दे दिया गया है । “जब भी आकाश हो गया बहरा /ख़ुद में ख़ुद को पुकार कर देखा” शे’र में ‘बहरा होना’ और ‘खुद में पुकारना’ के मध्य जो रब्त कायम किया गया है वह प्रशंसनीय है । कलात्मक दृष्टि से यह एक बेहतरीन शे’र माना जाएगा । लेकिन हिन्दी की बहुत सी ग़ज़लों में इस रब्त का अभाव है। इसलिए बात बनते बनते रह जाती है-
जरा सा मुस्कुराया और समूचा थरथराया है
वो अपनी सारी यादें मेरे भीतर छोड़ आया है 25
घेर कर आकाश उनको पर दिए होंगे
राहतों पर दस्तखत यों कर दिए होंगे 26
पहले शे’र का दूसरा मिसरा ग़ौर करने लायक़ है । ‘वो अपनी सारी यादें मेरे भीतर छोड़ आया है’ में अगर उसने यादें मेरे भीतर छोड़ी हैं तो वह गया है या आया है ! अगर कोई अपनी यादें मेरे भीतर छोड़ रहा है तो वह जाएगा, न कि आएगा। अगर आया है तो यादें कहीं और छोड़ी होंगी। इस मिसरे में शब्द चयन और शाइर के आशय के बीच कोई रब्त नहीं बन पा रहा है। अतः शे’र में ऐब पैदा हो गया है। दूसरे शे’र का पहला मिसरा बहुत सुगठित और संभावनाओं से भरा हुआ है। आकाश को घेर कर ‘पर‘ बना देने की कल्पना बहुत उत्कृष्ट और उदात्त है। किन्तु दूसरा मिसरा ‘राहतों पर दस्तख़त यों कर दिए होंगे’ का आशय समझ से बाहर है। कौन सी राहतों पर दस्तख़त किए होंगे ? राहतों पर दस्तख़त होते हैं क्या? होते हैं तो उसका सुबूत क्या है? ‘यों’ शब्द का भी क्या औचित्य है? सबसे मुख्य बात यह कि दोनों मिसरों में दूर तक कुछ भी परस्पर संबंध दिखाई नहीं देता।
ग़ज़ल की एक विशेषता इब्हाम भी है। शे’र में बात को इस ढ़ंग से कहना कि सीधे सीधे स्पष्ट न हो या अर्थों की अनेक छवियाँ का उद्भूत होना इब्हाम कहलाता है। ग़ालिब के शे’र “नक़्श फ़र्यादी है किसकी शोख़ि-ए-तहरीर का/काग़ज़ी है पैरहन हर पैकरे-तस्वीर का” से इसे समझा जा सकता है। इस शे’र से इतने अर्थों का बोध होता है कि निश्चित तौर पर कह पाना कठिन है कि वास्तव में शाइर का मंतव्य क्या है । शाइर इब्हाम की ओर तब बढ़ता है जब वह खुद भी असमंजस में होता है। बहुत कुछ उसकी कल्पना और विचार प्रक्रिया में उमड़ घुमड़ रहा है। वह स्वयं नहीं समझ पा रहा कि उसके भीतर क्या है। कई रंगों और चित्रों का एक कोलाज़ सा बन रहा है। हिन्दी ग़ज़लों में भी यह अस्पष्टता दिखाई देती है । एक शे’र में अर्थों की कई परतें खुलती जाती हैं-
कोई बोला कोई है
मैं ये समझा कोई है 27
ऐसे जिया अगर तो, क्या खाक फिर जिया मैं
सोचा थाक्या, जिया क्या, ये क्या से क्या हुआ मैं 28
रात का वक़्त है और पैदल हूँ मैं, एक सुनसान रस्ता है क़दमों तले
एक भुतहा हवेली है जिसकी तरफ़ जा रहा हूँ मैं, कोई मुझे रोक ले29
ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ स्त्रियों से बातें करना है। सर्वविदित है कि आरंभ में ग़ज़ल इश्क और हुस्न के दायरे में बंधी थी। समय के साथ इसका स्वरूप परिवर्तित होता गया। आज ग़ज़ल अपने समय के साथ आँखें दो चार कर रही है।लेकिन यह भी सत्य है कि उसने तग़ज़्ज़ुल का दामन अब भी नहीं छोड़ा है। “तग़ज़्ज़ुल को समुचित शब्द देना संभव नहीं है। एहसास की शिद्दत, दर्दमंदी, सोज़ो-गुदाज़, ख़लिश और कसक, एहसासे-जमाल, जज़्बाए-इश्क, लोच और घुलावट, नग़्मगी, हृदयस्पर्शी कैफ़ीयत, सौंदर्यात्मक रचाव” यह सब तग़ज़्ज़ुल है।30 हिन्दी ग़ज़ल का तग़ज़्ज़ुल उर्दू ग़ज़ल से तनिक भिन्न है। हिन्दी ग़ज़ल के तग़ज़्ज़ुल में हिन्दी कविता का सौंदर्य और ठेठपन उपस्थित है-
आँखों से उंगलियों की जिन्हें देखते थे हम
कपड़े पहन लिए तो उन्हें आ रही है लाज31
अजीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वोमेरी मेज पे अपनी किताब छोड़ गया 32
धूप आँगन में आ गई होगी
अब वो गेसू सुखा रही होगी 33
जब भी झरने में नहाती है पहाड़ी लड़की
सोये जंगल को जगाती है पहाड़ी लड़की 34
हिन्दी ग़ज़ल अपने समय से साक्षात्कार करती है। समाज में दिन प्रति दिन जो कुछ घटित हो रहा है उस पर हिन्दी ग़ज़लकारों की सूक्ष्म दृष्टि है। वे उन परिवर्तनों को भी देख लेते हैं जो सामान्यजन की नज़रों से ओझल रहता है। उन्होंने बदलते हुए समाज की छवियों और विसंगतियों को अपनी ग़ज़लों का कथ्य बनाया है-
बरगद की छाँव और ये करुणा के शिलालेख
कटकर खड़ा अतीत से अपना नया समाज35
खेतों सेकुछ दाने लेकर घर को दीना निकलेगा
लेकिन बेचारे का पहले खून पसीना निकलेगा
तनखा तो पूरी की पूरी सूद बही ने कब्जा ली
सोच रहा हूँ कैसे पूरा एक महीना निकलेगा 36
जब से महानगर में आया,आकर ऐसा उलझा मैं
भूल गया हूँ घर ही अपना,घर की ज़िम्मेदारी में 37
घर के अंदर शोर था, हाँ इसलिए
साब जी दफ्तर में आकर सो गए 38
मनुष्य केवल सामाजिक ही नहीं राजनैतिक प्राणी भी है। जहाँ मनुष्य है, वहाँ राजनीति है। कोई रचनाकार, यदि वह वास्तव में सच्चा रचनाकार है, राजनीति से निरपेक्ष नहीं रह सकता है। साहित्य, समाज और राजनीति का बहुत गहरा संबंध है। साहित्य समाज और राजनीति का प्रतिबिंबन ही नहीं करता बल्कि उससे प्रश्न करने का साहस भी करता है। हिन्दी ग़ज़ल अपने बाह्य जगत से साक्षात्कार करती है। अतः वह राजनीति और उसकी विद्रूप चालों से उत्पन्न स्थितियों का चित्रांकन बड़ी कुशलता से करती है-
लोग जिंदा जल गए जिनकी लगाई आग में
वो बताते हैंहमेंअच्छा बुरा क्या चीज है39
मुफ़लिसों की हाथ ठेली और चक्का जाम है
आज भी ऐ करफ़्यू, ये दिन तुम्हारे नाम है 40
नापने थे यूँ तो सप्ताकाश उड़कर ही हमें
बाज़ की नज़रों में आए और फिर बेपर हुए 41
हमारा समय और समाज विचित्र विरोधाभासों की संधियों पर खड़ा है। अतीत, वर्तमान और भविष्य में कोई तर्क संगत संबंध शेष नहीं बचा है, लघुमानव महानगरीय कुंठाओं के संजाल में घिरा है, विसंगतियाँ और विड़म्बनाएं मनुष्य के आगे मुंह बाए खड़ी हैं।लेकिन तमाम तरह की निराशा और हताशा के बीच भी हिन्दी ग़ज़ल ने आशा का दामन नहीं छोड़ा है-
जिस सदी में लोग मिलते हों मशीनों की तरह
कोई मुझको भावनाओं की तरह मिल ही गया 42
कहीं से बीज इमली के, कहीं से पर उठा लाई
ये बच्ची है बहुत खुश, एक दुनिया घर उठा लाई43
कटे हैं पंख तो भीतर उड़ान जिं़दा है
मेरी ज़मीन मेराआसमान ज़िंदा है 44
हिन्दी ग़ज़ल अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण अन्य काव्य विधाओं में दूर से पहचानी जाती है। ये प्रयोग भाषा, शब्द चयन, शिल्प, बिंब निर्माण तथा प्रतीक से लेकर कथ्य की नवीनता तक में दृष्टिगोचर होते हैं। छोटी बहर हिन्दी ग़ज़लकारों द्वारा विशेष रूप से अपनाई गई है। अधिकांश ग़ज़लकारों ने छोटी बहर में अपने हुनर दिखाए है । कुछ उदाहरण लिए जा सकते हैं-
मैं सूरज सा जलता हूँ
पर क्या रौशन लगता हूँ 45
उसका चेहराअपना था
एक बड़ी दुर्घटना था 46
लौटकर जा रहे गुफाओं में
दूर जाने की बात करते हैं 47
चेहरे पर चेहरा मत रखना
तू ख़ुद को ऐसा मत रखना48
जता कर प्यार करता है
अरेव्यापार करता है
उसे पीने की ख़्वाहिश है
मगरइनकार करता है49
पीड़ा का अनुवाद हैं आँसू
एक मौन संवाद हैं आँसू
इनकी भाषा पढ़ना ‘अंजुम‘
मुफ़लिस की फ़र्याद हैं आँसू50
छोटी बहर के इन शे’रों में जीवन के रंग भी हैं, बेतरतीब उलझ्र हुए पेंच भी, सादगी भी है जटिलता भी, नाद सौंदर्य भी है संगीतात्मकता भी। इन छोटी बहरों में जीवन का विराट फलक समाहित है।छोटी बहर बहुत साधना की माँग करती है। भाषा की कसावट के बिना छोटी बहर में शे’र कहना मुमकिन नहीं है वरना मात्राएं छिटक कर बेकाबू हो जाती हैं और मुँह चिढ़ाने लगती हैं। हिन्दी ग़ज़लकारों ने इस दिशा में प्रयाप्त सफलता अर्जित की है।
रामकुमार कृषक के शब्दों में “कोई भी अच्छी ग़ज़ल रूप और वस्तु के संतुलन का परिणाम है । इनमें अगर बेहतर संतुलन होगा तो ग़ज़ल मुग्ध भी करेगी और वैचारिक या भावनात्मक उद्वेलन तक भी ले जाएगी। कोई भी कला माध्यम अंततः अपने समय और समाज से जुड़कर ही संवाद करता है। उसके बग़ैर उसकी कोई गति नहीं। कोई भी रचना अगर अपने समय का पता नहीं देगी तो देर सवेर वह भी लापता हो जाएगी। दूसरे, कविता का काम, चाहे वह किसी भी विधा में लिखी गई हो, हमारे संवेदन और विचार को अमूर्त करना नहीं है बल्कि उन्हें अपने सहज संप्रेषण से देशकाल में घटित करना है।’’51हिन्दी ग़ज़ल अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद आमजन की परेशानी, संत्रास, कुंठा, संघर्ष और शोषण को स्वर दे रही है। आम आदमी की पीड़ा को संवेदनात्मक गहराई के साथ अभिव्यक्त करने में सक्षम, विशिष्ट चेतनासम्पन्न हिन्दी ग़ज़ल अपनी संघर्षशीलता और जिजीविषा के लिए जानी जाएगी।
संदर्भः
1. शम्सुर्रहमान फारूकी, उर्दू ग़ज़ल के एहम मोड़, गालिब अकेडमी, दिल्ली-13, पृ-13
2. देवेंद्रआर्य, अष्टछाप, फ़ोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-160
3. अदमगोंड़वी, अष्टछाप,फोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-63
4. डा.अनीसुन्निसा बेगम, हिन्दी ग़ज़लःतारीख़ो-तनकीद, एजुकेशनल पब्लीशिंग हाउस, दिल्ली-06, पृ-30
5. अदम गोंड़वी, अष्टछाप,फ़ोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-54
6. जगमोहन राय, अनभैसाँचा 23, (सं-द्वारिका प्रसाद चारुमित्र),पृ-88
7. डा.वीरेन्द्रशर्मा, ग़ज़लोंकापहलगाँव, अनुराधा प्रकाशन मेरठ, पृ-73
8. अदम गोंड़वी, अष्टछाप,फ़ोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-57
9. विनय मिश्र, सचऔरहै, मेधा बुक्स, दिल्ली-32,पृ-42
10. डा.वीरेन्द्रशर्मा, ग़ज़लों का पहलगाँव,अनुराधा प्रकाशन मेरठ, पृ-19
11. जहीर कुरेशी, नया पथ, अप्रैल-सितंबर, 2014, पृ-120
12. ज्ञानप्रकाश विवेक, अष्टछाप, फ़ोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-112
13. विनय मिश्र, सच और है,मेधा बुक्स, दिल्ली-32 पृ-92
14. डा. वीरेन्द्र शर्मा, ग़ज़लों का पहलगांव,अनुराधा प्रकाशन मेरठ, पृ-70
15. भाषा शब्द कोष, रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’, रामनारायण लाल प्रकाशक, इलाहाबाद, 1951, पृ-1818
16. डा. वीरेन्द्र शर्मा, ग़ज़लों का पहलगांव,अनुराधा प्रकाशन मेरठ, पृ-43
17. नरेश शांडिल्य, अपनी तलाश में, अयन प्रकाशन, दिल्ली-30, पृ-24
18. नईम, आदमकद नहीं रहे लोग, मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-41
19. ज्ञान प्रकाश विवेक, हिन्दी ग़ज़ल़तारीखो-तनकीद, (सं- डा.अनीसुन्निसा बेगम), पृ-87
20. नईम, आदमकद नहीं रहे लोग, मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-47
21. अश्वघोष, अलाव, (सं-रामकुमार कृषक) जनवरी-अप्रैल 2016, पृ-79
22. विनय मिश्र, सच और है,मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-95
23. ज्ञानप्रकाश विवेक, अष्टछाप, फ़ोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-119
24. रामकुमार कृषक, कविता कोश (ीजजचरूध्धंअपजांवे.वतहधाध्)
25. देवेंद्र आर्य, अष्टछाप, फोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-160
26. रामकुमार कृषक, कविता कोश,(ीजजचरूध्धंअपजांवेण्वतहधाध्ःम्0)
27. विज्ञान व्रत, जैसे कोई लौटेगा, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-30,पृ-27
28. नरेश शांडिल्य, अपनी तलाश में, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-30, पृ-71
29. सुरेंद्र सिंघल, सवाल ये है, मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-96
30. डा. अनीसुन्निसा बेगम, हिन्दी ग़ज़ल :तारीख़ो-तनकीद, एजुकेशनल पब्लीशिंग हाउस, दिल्ली-06, पृ-29
31. नईम, आदमकद नहीं रहे लोग,मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-75
32. श्रद्धा जैन, अनभै साँचा, अक्टूबर-नवंबर 2010,(सं-द्वारिका प्रसाद चारुमित्र), पृ-104
33. बल्ली सिंह चीमा, हादसा क्या चीज़ है, समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून, पृ-63
34. इंदु श्रीवास्तव, अष्ट्छाप, फोनीम पब्लीशर्स, दिल्ली-92, पृ-191
35. नईम, आदमकद नहीं रहे लोग,मेधा बुक्स, दिल्ली-32, पृ-75
36. मधुवेश, अलाव, (सं-रामकुमार कृषक), मई-अगस्त, 2015, पृ-470
37. हरेराम समीप, अलाव, (सं-रामकुमार कृषक), मई-अगस्त, 2015, पृ-455
38. अशोक अंजुम, कविता कोश (ीजजचरूध्ध्ूू.ांअपजांवे.वतहधाध्)
39. बल्ली सिंह चीमा, हादसा क्या चीज है, समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून, पृ-81
40. सुरेश सपन, तल में हलचल जारी है, समन्वय, सहारनपुर, पृ-35
41. रामकुमार कृषक, अलाव,(सं-रामकुमार कृषक), ग़ज़ल आलोचना विशेषांक, मई-अगस्त, 2015, पृ-495
42. जहीर कुरेशी, नया पथ, अप्रैल-सितंबर,2014, पृ-120
43. कृष्ण शलभ, कविता कोश ;ीजजचरूध्धंअपजांवे.वतहधाध्ः द्ध
44. हरेराम समीप, आलोचना की यात्रा में हिन्दी ग़ज़ल (सं-डा.जीवन सिंह), बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृ-178
45. विज्ञान व्रत, बाहर धूप खड़ी है, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-30, पृ-22
46. विज्ञान व्रत, बाहर धूप खड़ी है, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-30, पृ-44
47. रामकुमार कृषक, कविता कोश ;ीजजचरूध्धंअपजांवे.वतहधाद्ध
48. कृषण शलभ, कविता कोश ;ीजजचरूध्धंअपजांवे.वतहधाध्ः )
49. रमेश मिश्र, अनभै साँचा, 31,(सं-द्वारिका प्रसाद चारुमित्र), पृ-95
50. अशोक अंजुम, कविता कोश, (ीजजचरूध्ध्ूू.ांअपजांवे.वतहधा)
51. रामकुमार कृषक, अलाव,(सं-रामकुमार कृषक), ग़ज़ल आलोचना विशेषांक,मई-अगस्त, 2015, पृ-495
लिबरल शिक्षा की तरफ कुछ कदम
डॉ. मोनिका बाबेल
सहायक आचार्य, शिक्षा संकाय,
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
प्रस्तावना
‘लिबरल कलाओं’ से आशय यह है कि हम विभिन्न कला क्षेत्रों को एक अधिक व्यापक नजरिये और अर्थ में देखें। यह विचार कि इंसानी सृजन के सभी क्षेत्रो) को कलाओं के रूप में ही देखा जाना चाहिए, भारतीय चिंतन की देन है। बीतें 2000 सालों में कई प्राचीन भारतीय पुस्तकें (जिसमें बाणभट्ट की कादम्बरी शामिल है जो लगभग 1400 साल पहले लिखी गयी थी और दुनियाँ के सबसे पहले उपन्यासों में जिसकी गिनती होती हैं) 64 कलाओं की विस्तार से व्याख्या करती हैं। इनमें बताया गया है कि सही मायनों में शिक्षित व्यक्ति वो है जो इन 64 कलाओं में पारंगत हो। इन 64 कलाओं में संगीत, नृत्य, पेंटिंग, मूर्तिकला, भाषाएं और साहित्य शामिल है। इनके अलावा इनमें विभिन्न विषय जैसे इंजीनियरिंग और गणित और व्यावसायिक विषय जैसे कारपेंट्री आदि भी शामिल है। आज जब हम ‘लिबरल कलाओं’ की बात करते हैं तो बहुत कुछ वेसा ही कहते हैं जैसा कि ऊपर कहा गया हैं समय के साथ इन कलाओं में बढ़ोतरी हुई, ललिताविस्तार सूत्र में ऐसी 86 कलाओं का जिक्र है, जबकि 13वीं शताब्दी में यसोधरा के जयमंगल में ऐसी 512 कलाओं का वर्णन मिलता है। जैसे-जैसे अलग-अलग विषयों जैसे कलाओं और विज्ञानों के बीच एकीकरण (पदजमहतंजपवद) बढ़ा वैसे-वैसे भारतीय साहित्य अधिक समृद्ध और परिपूर्ण हुआ। भरत मुनि (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) का नाटयशास्त्र इस एकीकरण का बेहतरीन उदाहरण है जिसमें ना केवल संगीत और नृत्य पर गहरा चिंतन किया गया है बल्कि इनका गणित और भोतिकी के सिद्धांतों के साथ सूक्षम संबंधों पर भी विमर्श किया गया है।
भारतीय विश्वविद्यालय जैसे तक्षशिला और नालंदा दुनियाँ के सबसे पुराने और बेहतरीन विश्वविद्य़ालय थे। इन सबस विश्वविद्यालयों ने ‘लिबरल कलाओं’ और ‘लिबरल शिक्षा’ परम्परा पर ही जोर दिया। दुनियाँ भर से विद्यार्थी व्याकारण, दर्शन, चिकित्सा, राजनीति, खगोलशास्त्र, गणित, वाणिज्य,संगीत, और अन्य कई विषयों का अध्ययन करने यहाँ आते थे। प्रसिद्ध दर्शशास्त्री और अर्थशास्त्री चाणक्य; संस्कृत व्याकरण-विशेषज्ञ, गणितज्ञ पाणिनि; राजनीतिज्ञ चन्द्रगुप्त मौर्य; और गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट आदि तमाम ऐसे लोग हैं जो इन विश्वविद्यालय में पढ़े थे।
लिबरल कला शिक्षा का यह भारतीय विचार आज 21वीं शताब्दी में रोजगार के सन्दर्भ में भी काफी महत्वपूर्ण हो चला है, और इस तरह की लिबरल कला शिक्षा आज विश्व भर में खूब प्रचलित है।( उदाहरण के लिए अमेरिका में (प्अल समंहनम ैबीववस) यही समय है जब भारत अपनी इस महान परंपरा को फिर से इसका समुचित स्थान दिलाए।
आज लिबरल कला शिक्षा का महत्व और उद्देश्य इस बात में निहित है कि यह विद्यार्थियों को विज्ञान और मानविकी, गणित और कला, चिकित्सा और भौतिकी आदि के बीच महत्वपूर्ण रिश्तों को समझने और तमाम ज्ञान के क्षेत्रों में अंतर्निहित एकात्मकता के प्रति जागरूकता विकसित करने में काबिल बनाए।
एक लिबरल शिक्षा की सार्थकता इस बात में है कि वह एक इंसान में सभी काबिलयतों- बौद्धिक, सामाजिक, भावानात्मक, नैतिक, सौन्दर्यबोध, शारीरिक- को एक संतुलित और समन्वित रूप में विकसित करती हो। ऐसी शिक्षा जो लोगों में उनके व्यक्तित्व के हर आयाम को विकसित करने का प्रयास करती हो, एक अच्छा इंसान बनाने की कोशिश करती हो, वही शिक्षा सही अर्थों में एक लिबरल शिक्षा है।
हालांकि, कोई व्यक्ति यह पूछ ही सकता है कि, “मैं इन सब चीज़ों को क्यों सीखूं जिनका मेरे उस रोजगार या करियर से कोई संबंध नहीं जिसमें मैं भविष्य में जाना चाहता हूँ?” इस तरह के सवाल के कई जवाब दिए जा सकते है। पहला और शायद सबसे महत्वपूर्ण जवाब यह है कि लिबरल कला शिक्षा एक व्यक्ति के अंदर इंसानी जीवन को देखने और समझने के विभिन्न नज़रियों और सैद्धांतिक दृष्टिकोणों को विकसित करने में मदद करती है। इसके चलते व्यक्ति अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर ढंग से और इसकी जटिलताओं को व्यापक अर्थों में समझ पाता है।
दूसरा, जिस तेजी से अर्थव्यवस्थाएँ बदल रही है, कौन जानता हैं कि हम भविष्य में किस तरह के काम कर रहे होंगे। और तो और हम यह भी नहीं कह सकते कि नौकरियों के वर्तमान स्वरुप भी ऐसे ही बने रहेंगे। जो काम और जिम्मेदारियाँ इनमें आज है वो कल भी वैसी ही रहेगी यह पक्का-पक्का नहीं कहा जा सकता। पत्रकार फरीद ज़कारिया ने सही कहा है कि लिबरल कला शिक्षा का उद्देश्य लोगों को केवल उनके पहले रोजगार के लिए तेयार करना भर नहीं है; बल्कि दूसरे, तीसरे, चौथे और आगे के कामों के लिए भी तैयार करती है। चौथी औद्योगिक क्रांति के आगाज़ के साथ, जहाँ रोजगार के स्वरूप और इनकी उपलब्धता की स्थिति तेजी से बदल रही है, लिबरल कला शिक्षा की प्रासंगिकता पहले से कई अधिक बढ़़ी है।
तीसरा,यदि कोई यह जानता भी है कि वह भविष्य में किस तरह के रोजगार में जाना चाहता है और हमेशा वही काम करते रहना चाहता है; फिर भी यह आज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि दूसरे विषयों और क्षेत्रों में होने वाले सैद्धांतिक और तकनिकी विकास केसे हमारे काम को प्रभावित करेंगे। हो सकता है कि ये सभी बदलाव हमारे काम को भी बदल दे या इन्हें और बेहतर बनाए। दुनियँ भर में ऐसा हुआ है। और इस तरह के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे आज (ग्.त्ंलण् ब्।ज् ैबंदेए डत्प्) चिकित्सा के कई में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं लेकिन वास्तव में इनका भौतिकिशास्त्रियों ने किया था कमाल की बात है कि वें इन चीज़ों का अध्ययन किसी दूसरे ही उद्देश्य के लिए कर रहे थे। रेडियोकार्बन डेटिंग एक दूसरा उदाहरण हैं यह तकनीक आज आर्कियोलोजी, एन्थ्रोपोलोजी और इतिहास में खूब प्रयोग होती है। जबकि इसका विकास केमिस्ट्री और भौतिकी के क्षेत्रों में हुआ था। संगीत भी इसी तरह का एक उदाहरण हैं आज संगीत मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इंजीनियरिंग, भौतिकी, और गणित जैसे क्षेत्रों में हुए विकसित तकनीको का खूब इस्तेमाल कर रहा है।
एक लिबरल कला शिक्षा व्यक्ति के दोनों आयामों- सृजनात्मक/कलात्मक और विश्लेषणात्मक-को विकसित करने में सक्षम बनाती हैं किसी भी व्यक्ति की सामाजिक, नैतिक और कलात्मक मूल्य और दक्षताएं मिलकर उसकी वैानिक दक्षताओं को बेहतर बनाती हैं और इससे प्रभावित होकर खुद भी बेहतर होती जाती है। इन सभी क्षेत्रों में यदि किसी व्यक्ति को शिक्षित किया जाता हैं तो यह इन सभी क्षेत्रों में उसकी दक्षताओं और रुझानों को विकसित करने में काफी मदद करेगा। इसके चलते उसकी सजनात्मकता, कुछ नया करने के प्रति रुझान, संवाद के कौशल, मूल्य, सामाजिक सरोकार, स्वतंत्र और तार्किक चिंतन, सहयोग का भाव आदि तमाम आयामों के विकास में मदद करेगा। औद्योगिक दुनियाँ में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जहाँ ऐसे टीम-सदस्य उपलब्ध थे जो अलग-अलग क्षेत्रों में एकसाथ रूचि रखते थे बल्कि खुद भी उनमें पारंगत थे। उदाहरण के लिए स्टीव जॉब्स इस बात के लिए खासे प्रसिद्ध है। उन्होंने बहुत खूबसूरती के साथ इंजीनियरिंग और कला को उपयोग किया और (डंबपदजवे ब्वउचनजमत) को दुनियाँ भर में बेहतरीन बनाया। वो खुद कहते हैं, “यदि (डंबपदजवे) दुनियाँ का बेहतरीन कम्प्यूटर बना तो यह इसलिए संभव हो पाया क्योंकि इसे बनानेवाले लोग एक तरफ तो संगीतज्ञ, कवि, कलाकार, जीवविज्ञानी, इतिहासकार थे और दूसरी ओर वे दुनियाँ के बेहतरीन कम्प्यूटर वैज्ञानिक भी थे।”
अवलोकन यह बताते हैं कि जिन स्नातक कक्षाओं में मानविकी कला क्षेत्रों के साथ (ैज्म्ड) क्षेत्रों को समन्वित किया गया वहां विद्यार्थियों का बेहतर और सकारात्मक सीखना हुआ-यहाँ इनकी सृजनात्मकता, तार्किक चिंतन, हल ढूँढने की क्षमता, सहयोग का भाव टीम में काम करने की क्षमता, सामाजिक जागरुकता, शिक्षाक्रम के विभिन्न दायरों पर समान पकड़ सीखने में आनंद लेना आदि तमाम चीज़े हैं जो यहाँ बेहतर विकसित हुए। एक सर्वे के अनुसार यह पाया गया है कि नोबेल पुरूस्कार से सम्मिनत वैज्ञानिक एक आम वैज्ञानिक से तीन गुना ज्यादा कला में अभिरूचि रखते हैं।
भारत के अतीत में लिबरल शिक्षा को जिस तरह एक समग्रता और खूबसूरती के साथ परिभाषित किया गया है वह आज 21वी शताब्दी के आधुनिक युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है। यहाँ तक कि (प्प्ज्) जैसे इंजीनियरिंग संस्थाओं को भी मानविकी और कला शिक्षा को विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के साथ समन्वित करना चाहिए। वैसे भी भारत की कला और विज्ञान के क्षेत्र में अपनी एक समृद्ध विरासत रही हैं इसलिए लिबरल शिक्षा की ओर जाना इसका एक स्वाभाविक कदम ही कहलायेगा।
उदार शिक्षा मध्ययुग के उदार कलाओं की संकल्पना पर आधारित शिक्षा को कहते है। वर्तमान समय में ज्ञान युग (।हम वि म्दसपुजमउमदज) के उदारतावाद पर आधारित शिक्षा के उदार शिक्षा कहते हैं। वस्तुतः उदार शिक्षा शिक्षा का दर्शन है जो व्यक्ति को विस्तृत ज्ञान प्रदान करती है तथा इसके साथ मूल्य, आचरण, नागरिक दायित्वों का निर्वहन आदि सिखाती है। उदार शिक्षा प्रायः वैश्विक एवं बहुलतावादी दृष्टिकोण देती है।
उदार शिक्षा विशेषताएँ
यह जिम्मेदार नागरिक बनाती है।
यह सामान्य शिक्षा का आधार बनाती है।
यह सच और झूठ में अन्तर करने की क्षमता को पोषित करती है।
जिसका महत्व दिया जाता है उसे मापने में विद्यार्थी की सहायता करती है। लेकिन जिसे महत्व दिया जा रहा है उसका सब कुछ मापा नहीं जा सकता।
यह जानकारी के रूप में उदार हैं
यह तकनीक और दृष्टि में निर्देश और अनुाव प्रस्तुत करती हैं
इससे विद्यार्थी में पहल करने, समस्या समाधान करने व विचार विकसित करने का आत्मविश्वास आता है।
इससे विद्यार्थी में भाषा, अधिगम, नेतृत्व के कौशल विकसित होते है।
इससे विद्यार्थी देशी व विदेशी संस्कृति, इतिहास, गणित, विज्ञान व तकनीकों के बारे में सीखते है।
वस्तुत उदार शिक्षा शिक्षा का दर्श है जो व्यकित को विस्तृत ज्ञान प्रदान करती है। तथा इसके साथ मूल्य, आचरण, नागरिक दायित्वों का निर्वहन आदि सिखाती है। उदार शिक्षा प्रायः वैश्विक एवं बहुतावादी दृष्टिकोण देती है।
लिबरल आर्टस एजुकेशन देने का सबसे अच्छा तरीका क्या हो?
भारत में लिबरल आर्टस शिक्षा बढ़े और हमारें युवा 21वी शताब्दी की चुनौतियों का सामना करने के लिए समुचित रूप से तैयार हों इसके लिए हमें कुछ आवश्यक कदम उठाने होंगेः
बहु-अनुशासनिक माहौल और संस्थानः
जैसा कि हमने देखा कि एक अच्छी लिबरल शिक्षा की प्रकृति ही यह है कि इसमें बहु-अनुशासनिकता पर जोर रहता है। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि लिबरल शिक्षा का प्रसार हो यह फले-फूलें तो हमारी उच्च शिक्षा को बहु-अनुशासनिकता की ओर जाना ही होगा। हमें अब केवल एक ही स्ट्रीम में शैक्षिक कार्यक्रम चलाने के बजाय अपने कॉलेज और विश्वविद्यालयों में एकीकृत बहु-अनुशासनिक कार्यक्रमों को शुरू करना होगा।
विश्वविद्यालयों में विषयों के बीच बढ़ती खाई को पाटनाः
देखने में आया है कि ऐसे विश्वविद्यालय जहाँ बहु-अनुशासनिक कार्यक्रम चलाये भी जा रहे हैं वहां भी विद्यार्थी अपने स्ट्रीम के अन्दर ही या तो सभी विषयों को पढ़ने के लिए बाध्य हैं या फिर परंपरागत संकुचित स्ट्रीम (जैसे विज्ञान या मानविकी या इंजीनियरिंग) में ही बंटे हुए हैं। यह चीज़ फायदे के बजाय नुकसान अधिक करती है। क्योंकि इस व्यवस्था में विद्यार्थियों को किसी प्रकार की आज़ादी नहीं हैं कि वे अपनी रूचि और प्रतिभा के अनुसार अलग-अलग स्ट्रीम के विषय भी चुन सकें। इसके चलते उनमें बहु-अनुशासनिक रुझान और क्षमताओं का विकास भी नहीं हो पाता, और ना ही रचनातमक और विश्लेषणात्मक क्षमताएं विकसित हो पाती। इसलिए जरूरी है कि अलग-अलग स्ट्रीम के बीच इन खाईयों को जल्द ही पाटा जाना चाहिए।
बहु-अनुशासनिकता और अंतर-अनुशासनिकता के लिए आवश्यक विभागों को स्थापित करना और इन्हें सशक्त बनानाः
भाषाओं/(खासतौर पर भारतीय भाषाओं), साहित्य (खासतौर पर भारतीय साहित्य) संगीत (जिसमें हिन्दुस्तानी, करनाटिक, लोकसंगीत, सिनेमा शामिल है), दर्शन (खासतौर पर भारतीय दर्शन जिसमें बौद्ध और जैन दर्शन भी शामिल है), इंडोलोजी और अन्य अध्ययन-क्षेत्र जिमें कला, नृत्य थिएटर, शिक्षा, सांख्यिकी, सैद्धांतिक और व्यावहारिक विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र खेल आदि विभागों की किसी भी विश्वविद्यालय के अंदर एक बहु-अनुशासनिक और विचारोत्तेजक माहौल का निर्माण करने में एक महत्ती भूमिका है। इन विभागों या संकायों की स्थापना हमारे उच्च शिक्षा संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को देशभर में सुदृढ़ बनाने में मदद करेगा।
लिबरल शिक्षा के साथ गहन विशेषज्ञता पर जोर
एक व्यापक और लचीली शिक्षा के साथ-साथ कुछ चुने गए विषयों और क्षेत्रों में गहन विशेषज्ञता भी ज़रूरी है। ताकि चुने गए क्षेत्रों और विष्यों में खास विशेषज्ञता हासिल की जा सके। एक व्यापक और बहु-अनुशासनिक शिक्षा अपने चुने गए क्षेत्र या विषय की समझ, पारंगतता और सृजनात्मकता हासिल करने में मदद करेगी। इसलिए स्नातक स्तर की शिक्षा में समुचित लचीलापन होना चाहिए और आजादी होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी विभिन्न क्षेत्रों को अध्ययन के लिए चुन सकें। साथ ही साथ वे अपने कोर विषयों (मेजर, डुअल मेजर या माईनर की भी गहरी समझ और समुचित पारंगतता भी हासिल कर सकें। इसके चलते हमारे युवा अपने समग्र विकास में और विषय-विशेष में पारंगतता हासिल करने में सक्षम बन पायेंगे।
लिबलरल एजुकेशन में सेवा का भाव और इसके प्रति प्रतिबद्धता का समावेश
हम अपने द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान, दृष्टिकोणों और विशेष कौशलों का इस्तेमाल अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर बनाने में कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को आगे आना होगा और सामुदायिक सेवामें नेतृत्व ही बागडोर संभालनी होगी। इन्हें अपने द्वारा विकसित ज्ञान, कौशलों, रिसर्च और संकाय सदस्यों और विद्यार्थियों की प्रतिभा और क्षमताओं का इस्तेमाल समुदाय की स्थानीय जरूरतों और चुनौतियों जैसे साफ़ पानी, ऊर्जा, प्रौढ़शिक्षा, स्कूली शिक्षा के मुद्दे आदि को हल करने के लिए किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को कुछ ऐसे सवालों के बारे में सोचना चाहिए कि ‘कैसे कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग फ्रोफेशलन या व्यवसायिक हस्त-शिलप आदि जो कुछ भी मै सीख रहा हूँ या जिसका मैं अध्ययन कर रहा हूँ, यह कैसे दूसरों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद करता हैं? इसके लिए कार्यक्रमों को कुछ इस तरह निर्मित करना होगा कि सामुदायिक सेवा इनके शिक्षाक्रम का एक अहम हिस्सा बन पाए और जहाँ कही भी संभव हो (विश्वविद्यालय के अन्दर या बाहर) विद्यार्थी स्थानीय समुदायों से जुड़े और इनकी जरूरतों और चुनौतियों को समझे, इन पर काम करें। इस तरह के जुड़ाव ही विद्यार्थियों को एक संजीदा और सामाजिक सरोकार रखने वाला व्यक्ति बनने में मदद करेंगे। और साथ ही वे अपने विषयगत ज्ञान और जीवन से इसके जुड़ाव को महसूस कर पाएंगे, इससे वास्तविक परिस्थितियों में रू-ब-रू हो पाएंगे।
इंटर्नशिप और शोध अवसरों की उपलब्धता
लिबरल एजुकेशन में विद्यार्थियों को स्थानीय उद्योगों में इंटर्नशिप के अवसर करवाने होंगे। और साथ ही साथ ही उन्हें अपने और अन्य (भ्म्स्े) में संकाय सदस्यों और शोध-कर्ताओं के साथ शोध करने के अवसर देने होंगे। लिबरल आर्टस डिग्रियों का यह एक हिस्सा होगा और इसे मान्यता दी जाएगी। और जब वें स्नातकोत्तर शिक्षा या रोजगार के लिए आवेदन कर रहे होंगे तब अपने स्नातक कार्यक्रम में इस तरह की गतिविधियों में भागीदारी के अनुसार विद्यार्थियों को क्रेडिट मिलेंगे।
स्नातक डिग्रियों के विकल्पों में लचीलापनः
लिबरल आर्टस एजुकेशन के जिन आदर्शां और खासियतों का ऊपर जिक्र किया गया हैं उनको प्राप्त करने के लिए एक चार-वर्षीय बैचलर ऑफ लिबरल आर्टस (ठस्।) या बैचलर ऑफ़ लिबरल एजुकेशन (ठस्म्) डिग्री (या ठस्।ध्ठस्म् ूपजी त्मेमंतबीद्ध शुरु की जाएँगी- इनमें व्यापक लिबरल एजुकेशन के साथ-साथ विषय-विशेष में गहन विशेषज्ञता पर जोर होगा। जो संस्थान ऐस कार्यक्रम चलाने के लिए सक्षम हैं वहां ऐसे कार्यक्रम शुरु किये जायेगे। तीन-वर्षीय परम्परागत (ठण्।ण्ए ठण्ैबण् ठण् टवबण्) जैसे कार्यक्रम भी चलते रहेंगे यदि संस्थान इन्हें चलाते रखना चाहते हैं। लेकिन ऐसे सभी स्नातक कार्यक्रमों को लिबरल एजुकेशन एप्रोच को अपनाना होगा और इसके मुताबिक इन कार्यक्रमों को चलाना होगा।
(भ्म्स्े) में स्नातकोत्तर और शोध कार्यक्रमों को समृद्ध बनाने के लिए लिबरल एजुकेशन एप्रोच
एक बहु-अनुशासनिक और लिबरल एजुकेशन एप्रोच ना केवल स्नातक कार्यक्रमों को समृद्ध बनाएगा बल्कि स्नातकोत्तर और शोध कार्यक्रमों को भी समृद्ध करेगा। एक बहु-अनुशासनिक माहौल, जहाँ विषयों और स्ट्रीम के बीच कोई खाई ना हो, ओर जहाँ स्थानीय समुदायों और उद्योगों से गहरा जुड़ाव हों वह अवश्य ही कुछ संकाय सदस्यों और विद्याथियों द्वारा सार्थक और प्रासंगिक शोध करने में सहायक होगा। यह अलग-अलग संकायों और विभागों को स्थानीय कलाओं आदि को संरक्षित करना, आदि को मिलकर अध्ययन करने और इनके हल ढूँढने को प्रेरित करेगा। इस तरह लिबरल आदर्शों के मुताबिक यदि विश्वविद्यालय शोध स्नातकोŸार संचालित किए जाए तो उच्च शिक्षा और शोध बेहतरी की ओर जाऐंगे और अधिक प्रासंगिक होंगे।
लिबरल एजुकेशन एप्रोच के ज़रिये पेशेवर शिक्षा को समृद्ध बनाना
पेशेवर शिक्षा और एकल क्षेत्र (ैपदहसम. थ्पमसक) कार्यक्रमों को बदलनाः देश भर में पेशेवर (जिसमें तकनीकी शिक्षा भी शामिल है) और एकल- क्षेत्र शिक्षा के ऐसे ढेरों कार्यक्रमों हैं जिन्हें लिबरल एजुकेशन कार्यक्रमों में बदलना होगा जहाँ मेजर और माइनर कोर्स चलाये जा सकें। बदलाव की इस प्रक्रिया में, और ऐसे संस्थान जो पेशेवर कार्यक्रमों को चलाते रहना चाहते हैं, शिक्षा क्रमों को दुबारा से गढ़ना होगा ताकि इनमें अन्य विषयों जेस मानविकी, कला, सामाजिक, विज्ञान आदि को शामिल करना होगा ताकि बेहतर वैज्ञानिक चिंतन और सृजनात्मक और नवाचारी चिंतन को विकसित करने में मदद मिलें। ये कार्यक्रम व्यापाक सामाजिक सरोकार रखते हो और जन सेवा और सांस्कृतिक जागरण के उद्देश्य के साथ चलाये जाने चाहिए। इस तरह ये कार्यक्रम लिबरल एजुकेशन कार्यक्रमों की तरह ही एक व्यापक और प्रासंगिक हुनर, रुझान और समझ को विकसित करेंगेः और केवल कुछ तकनीकी कौशलों पर ही संकुचित रूप से केन्द्रित नहीं रहेंगे।
अभी जो संस्िान किसी एक या कुछ अध्ययन क्षेत्रों में ही कोर्स चलाते हैं उनहें अपने आप को अब 1, 2, या 3 टाइप के बहु-अनुशासनिक संस्थानों के रूप में विकसित करना होगा। अब उन्हें अपने यहाँ ऐसे अंडरग्रेजुएट औ ग्रेजुएट कार्यक्रम चलाने होंगे जो बहु-अनुशासनिक होंगे। कई पेशेवर क्षेत्रों में ऐसा करना एक महत्वपूर्ण कदम होगा, खास तौर पर उन क्षेत्रों में- जैसे इंजीनियरिंग, चिकित्सा/स्वास्थ्य, कानून, कृषि- जिनकी शिक्षा के लिए पहले से ही ऐसे संस्थान उपलब्ध हैं जो पर्याप्त संसाधनों से परिपूर्ण हैं। इसमें शिक्षक-शिक्षा संस्थान की भी अच्छी-खासी संख्या होगी।
ऐसे संस्थानों में लिबरल एजुकेशन की संस्कृति को पोषित करने और विकसित करने के लिए कुछ खास किस्म के प्रयासों को कल्पित करना और प्रभावी रूप से लागू करना होगा- जैसे ‘आर्टिस्ट-इन-रेजिडेंस’ और ‘राइटर-इन-रेजिडेंस,
संदर्भ ग्रंथ
- net
- //m m wikipedia. org
- // mimir book.com
- //www.live hindustan.com
- //www.thehidu.comlead
- In defense of a liberal Education- TA Reed- Zakarla liberal arts education Book
ख़ाली गोद (कहानी)
**************************
अंशिका का आज ख़ुशी का ठीकाना न
डॉ इंदिरा के सुझाव ने हमारे जी
आज पूर्णिमा का चाँद आसमान में
सविता गुप्ता
माई - बाप
माई - बाप
रॉय विला आज दुल्हन की तरह सजी हुई थी. हर तरफ कृतिम प्रकाश की जगमगाहट थी. वैसे भी हमारा जीवन कृतिम प्रकाश में ही जगमगाता है. सूरज के तेज के सामने टिकने की हमारी न औकात बची है न क्षमता. गार्डेन का पोर-पोर रोशनी से जगमग कर रहा था. फूलों के पौधों पर फूल की जगह लाइट के बल्ब खिले थे और घर के कोने- कोने में फूल खुशबू बिखेर रहे थे. जैसे जीते जी इंसान पर लानत भेजने के हम आदी हैं लेकिन मरने के बाद ही कहते हैं फलां बहुत अच्छा था. अपनी इच्छाई को साबित करने के लिए हमें मरना पड़ता है. हमें डाली पर खिला फूल कहां भाता है, जब तक उसे तोड़कर उसकी खुशबू न सूंघ लें, हमें उसकी खुशबू नहीं समझ आती और उस खुशबू के लिए हम उसे तोड़ ही लेते हैं. अक्सर ही डाली पर खिले फूलों की खुशबू हमें महसूस नहीं होती. रॉय विला में भी हर तरफ चंपा की बगिया खिली थी. भगत चाचा भी चहक - चहककर काम करवा रहे थे. विला को सजाने की जिम्मेवारी उन्हीं की थी. वो अपने उत्साह के दोगुने जोश से काम में लगे थे और लगें भी क्यों न ? चार साल बाद जो घर का लाडला विदेश से वापस आ रहा था. वैसे वो आठवीं क्लास से ही घर से बाहर रहा. वो दिल्ली में पढ़ा –लिखा. फिर उसे कैंब्रिज भेजा गया, एमबीए करने के लिए और फिर वो वहां से वापस नहीं आना चाहता था लेकिन बहुत कहने- सुनने के बाद वो भारत वापस आने के लिए राजी हो गया. इस कारण घर के सभी लोग खुश थे कि इकलौता वारिस वापस आ रहा था और भगत चाचा भी बहुत खुश थे क्योंकि उनका अवि बाबा जो आ रहा था. भगत चाचा ने उसे गोदी में खिलाया था. उसके लिए रोज घोड़ा वही बनते थे. जब भी अवि यानी अविनाश गुस्सा होता, बस भगत चाचा के घोड़ा बनते ही वो खिलखिलाने लगता. भगत बीच की लॉबी में खड़े होकर यही सोच रहा था कि अवि बाबा यहीं तो उसकी पीठ पर चढ़ा करते थे और यही वो तीन- तीन घंटे घोड़ा बनकर उसे घुमाया करता था. तभी आवाज आई.
‘भगत... ओ भगत...’ भगत की तंद्रा टूटी और वो बोला
‘जी मालकिन आया...’
‘ये क्या !!! तू यहां खड़े- खड़े क्या सोच रहा है ? अभी तक सीढ़ियों की रेलिंग पर चंपा की लड़ियां नहीं लगीं.’
‘जी मालकिन, बस यही बाकी है. दस मिनट में लग जाएगी.’
‘तू जानता है फ्लाइट आ चुकी है. अवि आधा- पौन घंटे में ही घर आ जाएगा.’
‘बस मालकिन दस मिनट में सब काम खत्म हो जाएगा.’ कहकर भगत काम में लग गया. जैसे ही वो सीढ़ी पर चढ़ा उसे फिर याद आया कि कैसे अवि बाबा एक बार सीढ़ी से गिरे थे. उस समय वो सात साल का था और भगत उसे बचाने के लिए भागा था. अवि को बचाते – बचाते उसकी अपनी चार साल की बेटी को चोट लग गई थी. उसके माथे पर तीन टांके आए थे लेकिन भगत ने अवि को बचा लिया था. इस बात को बीस बरस हो गए लेकिन उसकी बेटी के माथे पर वो निशान आज भी बना हुआ है जो एक गड्ढे की तरह दिखाई देता है. उस गड्ढे को देखकर भगत कहता कि चांद में कितने सारे गड्ढे हैं फिर भी वो खूबसूरत है तो मेरी बेटी के माथे पर तो एक ही है. देखना इसके गड्ढे में धन – दौलत और ढेर सारी खुशियां ही भरेंगी. भगत के न जाने कितने दुख- सुख इस विला से जुड़े थे. भगत ने कुछ सोचा, मन ही मन कुछ कहा और फिर काम में लग गया. 10 मिनट में वाकई फूलों की सजावट का खत्म हो गया था और वो बाहर आकर अवि बाबा का इंतज़ार करने लगा. वैसे तो अवि विदेश से चार साल बाद लौट रहा था लेकिन वो आठवीं से दिल्ली में पढ़ा और हॉस्टल में रहता था. कभी- कभार ही रामपुर आता था. जब –जब वो घर आता, घर में उत्सवी माहौल हो जाता. उसकी पसंद का खाना, मिठाई और कचौड़ी की महक घर में भरी रहती. तभी उसे याद आया कि अवि को जलेबी और गुलाबजामुन बहुत पसंद हैं. उसने आकर मालती से कहा...
‘मालकिन क्या मैं गुलाबजामुन ले जाऊं ? अवि बाबा को मैं अपने हाथों से खिलाऊंगा.’
‘क्यों ? मैं करूंगी न उसको तिलक. तो मैं ही मुंह मीठा कराऊंगी.’
भगत मुंह लटकाकर जाने लगा तो मालती ने कहा
‘अच्छा, मुंह मत बना, तू भी उसको खिला देना ठीक ? खुश ?’
‘जी मालकिन...’ भगत खुश होकर फिर बाहर आ गया. जैसे ही बाहर आया. गाड़ियों का काफिला अंदर आने लगा. तीसरी गाड़ी में अविनाश और गुप्ता भाई थे. अविनाश गाड़ी से उतरा. बालों में बरगेंडी कलर का हल्का- सा टच, काला बड़ा- सा चश्मा, ग्रे कलर का पैंट और काला कोट चमचमाते जूते और चेहरे पर चमक. मेन गेट पर पहुंचते ही मालती ने उसको टीका लगाया और जैसे ही आरती उतारने लगी वो बोला-
‘क्या मां, ये सब क्या है ? मैं मंदिर की मूर्ति नहीं हूं जो आरती उतार रही हो. आरती छोड़ो और गले लगो.’ उसने आरती की थाली किसी और को पकड़ा दी और मां को गले लगा लिया. तब मालती का मुंह उतर गया. फिर भी उसने कहा अच्छा मुंह तो मीठा कर ले. मालती ने जैसे ही उसे गुलाबजामुन खिलाया उसने कहा ‘बस थोड़ा- सा.’ तभी भगत आगे आया और एक गुलाब जामुन उठाया और बोला
अवि बाबा,
‘एक मेरी तरफ से...’
और झट से उसने गुलाबजामुन उसके मुंह में डालने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. अवि ने डांटते हुए कहा-
‘क्या है अविनाश ? देख नहीं रहे हो कि अभी मां ने खिलाया, मुझे नहीं पसंद ये सब और तुम फिर मुंह में डाले दे रहे हो.’
जैसे ही अविनाश ने हाथ झटका गुलाबजामुन का रस उसके कोट पर गिर गया. उसने गुस्से से कहा-
‘कर दिया न खराब कोट ? पता है कितना महंगा है ? 25 हजार का है. कभी देखे हैं इतने रुपए ? और ये अवि बाबा- अवि बाबा लगा रखा है. अब मैं छोटा नहीं रहा. अवि साहब कहो, समझे ?’
ये कहना था कि भगत उसे देखता रहा. उसके मुंह से ‘साहब गलती हो गई’, ये भी नहीं निकला... बस आंखे नम हो गईं. सब अंदर चले गए. भगत वहीं जड़ हो गया था. उसके सामने न जाने कितने मंज़र नाचने लगे. कुछ खुशी के और कुछ दुखों के. उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसका दुलारा अवि बाबा उससे इस तरह बात करेगा. उसका नाम लेगा. वो बड़- बड़ाने लगा कि भगत तेरी ही गलती है. अवि बाबा बड़े हो गए. विदेश से पढ़कर आये हैं. अब वो बहुत पढ़ गए हैं, अब भला वो उन्हें चाचा क्यूं कहेंगे ? बड़े घरवाले तो ऐसे ही होते हैं. वो धीरे- धीरे अपने घर की तरफ लौटने लगा. बाहर आकर उसने एक पेड़ के नीचे गुलाबजामुन रख दिया. उसका घर पास ही में था. उसे इतनी जल्दी घर आया देख उसकी पत्नी सुखमनी ने कहा -
क्यों जी, इत्ती जल्दी काहे को आ गए ? अभी तो अवि बाबा आएं होंगे और तुम घर आ गए ? भगत ने भावशून्य चेहरे से कहा-
‘अवि बाबा नहीं, अवि साहब बोल. अब अवि बाबा बड़े हो गए. बिदेस से पढ़कर आए हैं...’
‘क्यों क्या हुआ ?’ सुखमनी ने थोड़ा घबराते हुए पूछा...
‘कुछ नहीं, अभी मुझे परेसान मत कर’ और अंदर जाकर लेट गया.
नमस्कार, दोस्तों मैं हूं आपकी सूत्रधार. आपको भूतकाल में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी दे दूं, यानी पार्श्व ने (तबके वर्तमान ने भविष्य को) वर्तमान को कैसे बदला ताकि आपको सब कुछ स्पष्ट नज़र आए. यहां इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अवि बाबा की एक डांट ने भगत के पूरे जीवन को सामने लाकर खड़ा कर दिया. दोस्तों ज़िंदगी जितना सरल दिखाई देती है, दरअसल उतनी सरल होती नहीं. ज़िंदगी की एक ख़ासियत यह भी है कि आपके सामने वही सब आता है जिसकी आपने कल्पना नहीं की होती. वो चाहे भले को लेकर हो या बुरे को लेकर. जन्म लेने के साथ ही इंसानी जीवन की कठिनाई शुरु हो जाती है. नन्हे शिशु को भी छाती चूसकर दूध पीना पड़ता है. यानी जीवन जीना है तो काम करना है. फिर पढ़ाई की मार. एक बार मेरे साहबज़ादे ने भी खीझकर कहा था कि ये क्या ज़िंदगी है... पढ़ो, पढ़ो- पढ़ते रहो. ये करो, वो करो. इससे अच्छा तो जीवन होता ही नहीं. फिर बच्चा किशोर वय में आता है. स्वप्नलोक में वो घर बनाता है. जिसमें वो सुंदर परियों से घिरा रहता है. लड़कियों में लड़के और लड़कों में लड़कियां रमने लगती हैं. इसके साथ ही किशोर बच्चे सदाचार, ईमानदारी, निष्ठा, सच्चाई, प्रेम के गीत गाते हैं. हर बुराई पर वो शपथ खाते हैं कि उसको वो जड़ से मिटाएंगे, रिश्वत, घूस, झूठ- मक्कारी सबको ख़त्मकर नया समाज बनाएंगे. वो काफ़ी हद तक प्रयास भी करते हैं लेकिन जैसे –जैसे उम्र बढ़ती है ये सारी अच्छाइयां कहीं पीछे छूटती जाती हैं और वो बच्चा इस झूठे समाज का एक हिस्सा बन जाता है.
भगत भी कभी ऐसा ही था. बहुत जोश- हिम्मत वाला. समाज को सुधारने वाला. वो अपने गुस्से की वजह से घर में अक्सर डांट खाता था. वो तमाम सामाजिक बुराईयों के खिलाफ़ था. दहेज का धुर विरोधी. रिश्वतखोरी के खिलाफ, झूठ से नफ़रत करने वाला, धोखा और बेईमानी उसने कभी बर्दाश्त नहीं की. रामपुर शहर की एक बस्ती में वो रहता था. बस्ती में उसका कोई दोस्त नहीं था. कोई अपने बच्चे को उसके साथ नहीं बैठने देता था क्योंकि सबको उसी समाज में रहना है, उसी के साथ चलना है. उन्हीं साहूकारों से उधार लेना है जिनकी वो ख़िलाफ़त करता था. वो सबको खुलकर चोर कहता. रिश्वतखोर कहता. किसी तरह उसने दसवीं पास की और उसे फिर उसे बस्ती की ही एक दुकान पर लगा दिया गया. वहां उसने धनिया पाऊडर में मिलावट होते देखी और तभी उसने जाकर बस्तीवालों को बता दिया कि लाला तो धनिया में मिलावट करता है. उसे तत्काल दुकान से निकाल दिया गया और लाला ने ये भी कहा कि भगत ने रुपए उधार मांगे थे, उसने नहीं दिये तभी उसे बदनाम कर रहा है. लाला को दोबारा धंधा जमाने में वक्त लगा. फिर उसके पिता ने उसे एक गत्ते का डिब्बा बनाने वाली फैक्ट्री में लगवाया. एक बार उसकी रात की ड्यूटी लगी. वो फैक्ट्री के गेट पर तैनात था. उस दिन फैक्ट्री से तीन ट्रक गत्ते जाने थे लेकिन जैसे ही चौथा ट्रक निकला भगत ने उसे रोक दिया और मैनेजर से कहा कि-
‘ये ट्रक नहीं जाएगा. आर्डर तो तीन ट्रक का ही है’. मैंनेजर ने कहा
‘तुम्हें गलत जानकारी है, चार ट्रक जाने की बात हुई है. गेट खोलो’ लेकिन उसने गेट नहीं खोला और कहा
‘तुम गलत काम कर रहे हो. मालिक का नुकसान कर रहे हो’.
‘नफ़ा- नुकसान मुझे मत बता. मैं वही कर रहा हूं जो कहा गया. बरसों से काम संभाल रहा हूं’.
‘अच्छा !! तो बरसों से ही मालिक को धोखा दे रहे हो आप ?’
‘अपनी ज़बान संभालकर बात कर. कल का आया छोकरा मुझे नसीहत दे रहा है ?’
‘नसीहत नहीं मैनेजर बाबू, जो सही है, वही कर रहा हूं.’ फिर उसने धमकी दी कि
‘मैं मालिक को आपकी सारी बात बताऊंगा. आपकी पोल खोलूंगा. अब तक जो आपने मालिक को धोखा देकर बेईमानी की उसकी ख़बर दूंगा मालिक को’.
मैनेजर ने कहा
‘जब तू यहां रहेगा तब न पोल खोलेगा ? अभी तेरा हिसाब बनाता हूं.’ उसने उसे तुरंत बर्ख़ास्त कर दिया और सेठ को फोन कर कहा कि भगत गत्ता चुरा रहा था इसलिए उसे निकाल दिया. जब अगली सुबह वो सेठ से मिलने फैक्ट्री पहुंचा तो सेठ ने कहला दिया कि चोरों को फैक्ट्री में जगह नहीं दी जाएगी और न ही वो मिलेंगे. तब भगत ने हल्ला मचाया था कि सेठ जी मैं चोर नहीं, ये मैंनेजर चोर है जो आपके गत्ते बाहर ले जा रहा था. न यकीन हो तो दूसरे गार्ड से पूछ लीजिए लेकिन सेठ ने कोई बात नहीं की. भगत ने कहा कि मैं आपके सामने उस गार्ड से गवाही दिलवाऊंगा जिसके सामने कल ये सब हुआ. जब वो चीख़ने लगा तो सेठ ने उसे बाहर निकलवा दिया. वो नाइट ड्यूटी वाले गार्ड के घर पहुंचा और उससे कहा, भाई सेठ के सामने चलकर सच बताओ तो उस गार्ड ने मनाकर दिया. उसने कहा-
‘भगत भाई मेरा परिवार है. दो छोटे बच्चे हैं. बूढ़े माता- पिता हैं. तुमको नौकरी से निकाल दिया तो तुम्हें काहे का फरक पड़ेगा ? तुम्हारा बाप जो है कमाने वाला. फिर तुम्हारा ब्याह भी नहीं हुआ जो जोरू और बच्चों की जिम्मेवारी हो. मेरे ऊपर तो पूरे परिवार की जिम्मेवारी है. मुझे नैकरी से निकाल दिया तो कैसे चलाऊंगा परिवार का खरच ? इसलिए भाई मुझे माफ़ करो. मुझे तुम्हारे साथ हमदर्दी है पर भाई तुम्हारे लिए गवाही न दे सकूंगा.’
’भाई, मुझे हमदर्दी नहीं, तुम्हारी गवाही चाहिए’
‘न भाई गवाही तो न दे सकूंगा’
‘तो तुम्हारे सामने एक निर्दोष को निकाल दिया गया, झूठा इलज़ाम लगाकर, तुम्हारा कोई फरज नहीं है कि उसका साथ दो, सच का साथ दो’
‘भाई, सच का साथ देकर मेरे घर का पेट नहीं भरेगा, मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. तब कैसे गुज़ारा करूंगा. मैं अकेला होता तो कर भी लेता. मेरा फरज पहले घर का पेट भरना है या मेरी दूसरी नौकरी का जुगाड़ कर दो पहले, तो बोल भी दूं सच. गवाही दे दूं जाकर. अभी मैं गवाही दे दूं, तो साहब मुझे भी नौकरी से निकाल देंगे. फिर घर- परिवार का क्या होगा ?. ईमानदारी, गवाही का तब मतलब है जब टेंट में रुपए हों.
भगत गुस्से से बाहर निकल आया. घर पहुंचा और बाहर बैठकर लकड़ी से जमीन खुरचने लगा. वो गुस्से से बड़बड़ाने लगा कि मैनेजर क्या समझता है खुद को ? उसको न मजा चख़ाया तो मेरा नाम भगत नहीं. तभी उसकी मां ने कहा
‘अरे, करमजले, खुद तो कुछ करता न है, तेरे बापू का जो काम है, वो भी छुड़वा देगा क्या ? खुद तो आज तक धेला न कमाया. अरे, अब किसको मजा चख़ाएगा, उस मैनेजर को ? रात में उठवा के फिकवा देगा तुझको और हम सबको.’
‘अरे ऐसे- कैसे फिकवा देंगे ? कोई जबरदस्ती है क्या ?’
‘हां, यही समझ ले. तू किस- किससे लड़ेगा ?’
‘अम्मा तू ही कहती थी न कि चोरी बुरी बात है. चोरी करने वाला भी गुनहगार है और उसका साथ देने वाला और जो उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता, वो भी तो दोषी ही होता है न ?’
‘हां, कहती थी, लेकिन हम गरीब हैं. किससे लड़ेंगे जाकर ? जब पेट भूखा रहेगा तो सारी ईमानदारी और सच्चाई धरी रह जाएगी. खाली पेट तो बेईमानों से भी न लड़ा जाएगा. हम दोनों की तो उम्र हो चली. हम तो पैंतालिस की उमर में ही साठ के लगने लगे. ऐसे ही रहा तो न तू कमाएगा और न तेरे बापू को आराम मिलेगा. अरे तेइस बरस का हो गया. कल को तेरा घर बसेगा तो क्या खिलाएगा अपनी जोरू को ? रमनी के बापू तुझे रमनी का हाथ भी न देंगे.’
‘ठीक है न दें हाथ लेकिन मुझे गलत का साथ नहीं देना. क्यूं तूने मुझे सही राह पे चलना सिखाया ? तुझे तो सिखाना चाहिए था कि बेटा जा- जुआ खेल, चोरी- मक्कारी कर, जिस पत्तल में खाना उसमें छेद जरूर करना.’
तभी भगत के बापू ने आकर उसको थप्पड़ मारा. उसने चिल्लाते हुए कहा
‘अगर शांति से नहीं रहना तो निकल जा घर से. हमारे बस में नहीं कि तुझ जैसे सांड को बिठाकर खिलाएं. दस जगह काम पर रखाया मगर कहीं टिकता ही नहीं.’
भगत ने भी उसी तरह चिल्लाकर कहा...
‘तो क्या करूं ? मेरी क्या गलती ? कैसे गलत काम को सही कहूं ? वो चोरी कर रहा था तो क्यूं न कहूं ? लाला ने घोड़े की लीद मिलाई धनिया पाऊडर में, तो क्यों न बताता सबको ? मेरी क्या गलती ? यही कि सच बोला ?’
‘हां, यही गलती तेरी कि तूने सच बोला. अरे, इस दुनिया में जीना है तो इसी तरह से जीना होगा. ये बड़े लोग हैं. जाने कैसे – कैसे धंधे करते हैं लेकिन हमें क्या करना. कमाना तो इन्हीं के घरों से है. बस अपना काम ईमानदारी से कर. दूसरों के पचड़े में मत पड़ और अगर नहीं सुधरना तो घर से निकल जा. कुछ दिन भूखा- प्यासा रहेगा तो सारा इंकलाब भूख के आगे दम तोड़ देगा और रमनी की बात भी मत करना. तेरा ब्याह उससे नहीं होगा. हमारे बस में नहीं कि तुझे खिलाएं और उसको भी खिलाएं. फिर बाल- बच्चे हो जाएंगे तो क्या करेंगे हम बुड्ढ़े- बुड्ढी ? ऐसे ही जीना सीख या फिर जा सड़क पर सच का झंडा लेकर नारे लगा. कोई नहीं आएगा तेरे साथ. हम मेहनत मजूरी करने वाले. जिंदाबाद- मुर्दाबाद करेंगे तो हम ही मुर्दा हो जाएंगे. अब सोच ले कि क्या करना है.’
भगत घर से निकल गया. वो मुरादाबाद चला गया. हाथ में 20 रुपए थे. अब उसे लगा कि क्या करे ? कहां रुके ? वो कई दुकानों पर गया कि कोई काम मिल जाए लेकिन कुछ नहीं मिला. उसने एक रिक्शावाले से बात की कि किराये पर रिक्शा ही चला ले. उस रिक्शेवाले ने उसे रिक्शा मालिक से मिलवा दिया. उसके बीस रिक्शे चलते थे. उसने उसके लिए भी एक रिक्शे का इंतजाम किया और तय किया कि या तो जो कमाओगे उसका आधा देना होगा या रोज सौ रुपए देने होंगे. उसने कहा जितना कमाऊंगा आधा दूंगा. बात पक्की हो गयी. पहले दिन उसने केवल चालीस रुपए कमाए और बीस रुपए उसे मालिक को देने पड़े. अब आज के समय में लोग टेम्पो से जाने लगे तो रिक्शा कौन पूछे ? फिर उसने अपने साथियों से पूछा कि तुम सब कैसे गुजारा करते हो ? तो उन्होंने बताया कि हम ज़्यादा मेहनत करते हैं. अक्सर डेढ़ सौ रुपए तक कमा लेते हैं, कभी- कभी कम रुपए में भी सवारी उठाते हैं लेकिन मालिक को बताते हैं कि साठ रुपए मिले, पचास मिले और आधा देकर बाकी बचा लेते हैं. इस पर भगत उखड़ गया और कहा तुम लोग चोरी करते हो. क्या फरक है तुममे और लाला में ? मैं चोरों का साथ नहीं दूंगा और नही चोरी करूंगा. इस पर उसके साथियों ने आपस में बात की और तय किया कि इसे हटा दिया जाए. कहीं किसी दिन ये मुसीबत न खड़ी कर दे और मालिक को बताया कि वो ठीक नहीं लगता. रिक्शा तो उसने पूरे दिन चलाया मगर आपको कम रुपए बताए. आप देख लीजिए. फिर आप न कहना कि हमें बताया नहीं. मालिक ने उससे रिक्शा रखा लिया. अब बिना काम के वो कब तक रहता. उसे रमनी और मां की याद भी आने लगी. वो रामपुर वापस आया तो देखा कि मां उसके जाने के बाद बीमार हो गई थी. जैसे ही वो आया तो मां ने उसे सीने से लगा लिया लेकिन उसके बापू ने उसी तेवर से कहा-
‘क्यों सच्चाई का भूत उतर गया ? जग को सुधारने का बीड़ा अभी भी कंधे पर चढ़ा है कि पांव तले रौंद दिया उसे.’
भगत ने धीरे से कहा कि
‘अब आप जैसा कहोगे वैसा ही करूंगा.’
इस पर उसके बापू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा
‘बेटा, मैं तेरा दुसमन नहीं हूं. तू पांच बच्चों में अकेला जिंदा बचा. तेरी फिकर रहती है मुझे. तेरी मां ने भी तुझमें अच्छे संस्कार डाले. मैंने कभी बेईमानी नहीं की. हमेशा सच्चाई और ईमानदारी से मेहनत करके ही खाया. अरे, हम मेहनत मजूरी करने वाले क्या धोखाधड़ी करेंगे ? और किसके खिलाफ बोलेंगे ? और खिलाफत करने लगे तो फिर जियेंगे कैसे ? बस एक ही रास्ता है कि कर लें खत्म अपना जीवन. आत्महत्या कर लें. तेरी मां को जहर दे दूं, तुझे खिला दूं फिर खुद भी जहर खा लूं क्योंकि क्या पता फिर तेरी मां का क्या हो, किसके दरवाजे भटकेगी वो. हमारे पास जमीन जायदाद कहां हैं ? हम तो काम करने वाले ठहरे. कुछ गलत भी देखें तो... हमें तो बस चुप ही लगा जाना है, नहीं तो कहां से खाएंगे ? और किस- किसका विरोध करेंगे ? अगर सबके बारे में बोलना शुरू कर दूं तो कोई भी काम नहीं देगा. हां, हम इतना जरूर कर सकते हैं कि अपना काम ईमानदारी से करें.’
‘हां, बापू समझ गया. मैंने भी कुछ दिन में दुनिया देख ली. सभी बेईमानी कर रहे हैं लेकिन मैं बेईमानी नहीं करूंगा. अपना काम पूरी ईमानदारी से करूंगा. दूसरों के बारे में आंख, कान बंद रखूंगा.’
अगले दिन वो रमनी से मिलने गया. रमनी उसे देखकर रो पड़ी. रोते- रोते बोली. इतने दिन कहां रहा ? तुझे मेरी याद भी नहीं आई.’
भगत ने कहा ‘बहुत आई तभी तो वापस आ गया सब छोड़कर.’
‘क्या छोड़कर आया ?’
‘दूसरों को सुधारने और झूठ के खिलाफ अपनी आवाज को वहीं दफन कर आया. मैं तेरे बिना नहीं रह सकता. क्या फायदा ऐसी जिंदगी का जिसमें प्यार न हो, जोरू न हो ? हमने सपने देखे थे हमारे बच्चे होंगे पर मैं तो इस काबिल भी नहीं कि तुझे खिला सकूं. फिर सादी करके कैसे निभाऊंगा जिम्मेवारी ? तू जानती है न, कि घर – परिवार के लिए आदमी को कैसे- कैसे गलत धंधे करने पड़ते हैं.’
‘तू हिम्मत न हार भगत. मैं हूं न तेरे साथ. तू सच्चाई का साथ मत छोड़ना लेकिन जो जैसे जी रहा है, उसको जीने दे. हम क्या कर लेंगे ? अपने पास रुपए – पैसे हों, अपना घर- द्वार हो, अपना काम हो तो हम किसी के खिलाफ लड़ भी सकते हैं. तू नहीं जानता, तेरे जाने के बाद चाची कितना बीमार हो गई थीं. तेरा उनके लिये भी तो कोई फरज है कि नहीं ?’
‘हां है, सबके लिए है फरज’ भगत ने कहा.
‘मैं तुझे सिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी.’ रमनी ने कहा.
‘रमनी, मां ने मुझे सदाचार की शिक्षा दी. वो पढ़ी- लिखी नहीं है. फिर भी यही कहते- कहते बड़ा किया कि गलत राह पर, झूठ की राह पर मत चलना. तो क्या परिवार के लिए मुझे भी झूठ की राह चलना होगा.’
‘नहीं भगत, तू कोई बुरा काम मत करना. मैं भी कोई बेजा फरमाइस नहीं करूंगी. जितना भी लाएगा, उसी में खुस रहूंगी. हम खेत पर तो काम कर सकते हैं. तेरे साथ खेत पर भी काम करूंगी और हम प्यार से रहेंगे. अरे... मरने दे, इन बड़े लोगों को. इनके पास जितना भी पैसा आता है, इनकी भूख उतनी ही बढ़ती रहती है. बस हम प्यार से रहेंगे और हमारा एक ही बच्चा होगा. उसको खूब पढ़ाएंगे जिससे वो बड़ा आदमी बने.’
‘लेकिन रमनी क्या खेत पर काम करने से हमें इतना रुपया मिल जाएगा कि हम अपने बच्चे को अच्छी तरह से पढ़ा सकेंगे.’
‘हां भगत, फिर मैंने सिलाई का काम सीखा है. मैं सिलाई भी करूंगी. तेरा हाथ बटाऊंगी. हम प्यार से रहेंगे और प्यार साथ हो तो सारी मुसकिलों से हम निपट लेंगे.’
आज वो भगत से मिलकर बहुत खुश थी. उसने अपने बापू से कहा कि जहां वो माली का काम करते हैं, कोसिस करके वहीं भगत को भी लगवा दें.
अगले दिन रमनी के पिता उसे लेकर रॉय विला पहुंचे और रास्ते भर डांटते रहे. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जिस दिन बेटी को रोते देखा और अगर विला जाकर कोई गड़बड़ी की तो रमनी को तुरंत घर वापस बुला लेगा. रमनी के पिता ने उसे रतनलाल रॉय से मिलवाया और कहा कि साहब ये मेरा होने वाला दामाद है. इसे कोई नौकरी दे दीजिए. बहुत मेहनती और ईमानदार है सरकार.
रतनलाल जी ने उसे बच्चे को संभालने की जिम्मेदारी दे दी.
रतनलाल के बाबा अंग्रेजों के यहां काम करते थे. उनसे खुश होकर अंग्रेजों ने उन्हें रॉय की उपाधि दी और आलीशान कोठी भी दी थी. अब भी रॉय परिवार की वही शान- शौकत थी. काफ़ी सारी ज़मीन –जायदाद थी जिससे रॉय परिवार ऐश का जीवन गुज़ार रहा था.
कुछ समय बाद भगत- रमनी की शादी हो गई. जब भगत ने उनके घर में काम करना शुरू किया तब अवि दो साल का था. तबसे वो हर वक्त अवि के साथ रहता. डेढ़ साल बाद रमनी ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया. उसने कहा- ‘हे ईश्वर हम तो एक ही बच्चा चाहते थे और तुमने दो- दो दे दिये. अब तो दोनों को पढ़ाना- लिखाना होगा. कैसे पूरे होंगे खर्च?’ वो कभी- कभी अपने बच्चों को वहां ले जाता. रतनलाल जी नहीं रहे. उनके बाद उनके बेटे रमनलाल ने भी भगत को नहीं हटाया और अवि के हॉस्टल जाने के बाद भी वो घर के अन्य कामों की देख- रेख करता रहा. वहां भी वो मन मारकर जीता रहा. जब भी वो रॉय विला की कोई बात करता तो रमनी उसे अम्मा – बापू और अपने बच्चों छिमिया और गन्नू का वास्ता देकर रोक लेती. भगत मन मारकर अपने परिवार के लिए काम करता रहा. रतनलाल जी की बात और थी मगर रमनलाल अय्याश था. लड़कियां उसकी कमजोरी थीं. विला में अलग से एक ऑफिस बना हुआ था, वहीं से रमनलाल अपना कामकाज संभालता और उसी में अलग से एक गेस्ट हाउस बना था जिसमें अक्सर बिजनेस के संबंध में आने वाले मेहमान ठहरते. वहां अक्सर ही नई- नई लड़कियां आतीं और कुछ देर बाद चली जातीं. एक बार भगत ने अपने ससुर को इस बारे में बताया तो उसके ससुर ने कहा अपने काम से काम रखो. बड़े लोग हैं. अपना व्यापार कैसे करते हैं, इसे जानने की ज़रूरत नहीं और कोसिस भी मत करना. उसने कई बार मालकिन को रोते हुए देखा था. जब भी रमनलाल मालती के लिए फूलों का गुलदस्ता और चॉकलेट भिजवाते तो मालती उदास हो जाती और आंखें नम. शुरू में भगत ने पूछा कि मालिक तो आपके लिए फूल और चाकलेट भेजते हैं तो आप उदास क्यों हो जाती हैं. मालती ने उदास होकर कहा था- तू नहीं समझेगा. फिर सहसा गुस्से से बोली ‘अपने काम से काम रख. फालतू बातों में दिमाग मत लगाया कर.’ धीरे- धीरे उसे समझ आने लगा कि जिस दिन मालिक फूल और चॉकलेट भिजवाते हैं, वो घर नहीं आते और उनकी रात गेस्ट हाउस में ही गुजरती है. उसे ये मालूम करने में देर नहीं लगी कि वो ऑफिस के गेस्ट हाउस में काम के लिए नहीं बल्कि रंग- रलियां मनाने के लिए रुकते हैं. उस रात गेस्ट हाउस में कवाब और शबाब की महफिल जमती. एक बार फिर जब उसने मालती से कहा कि मालकिन आपको पता है कि पीछे ऑफिस में अक्सर नई- नई लड़कियां आती हैं ? आप जानती हैं वो क्यूं आती हैं ?
मालती ने गुस्से से एक थप्पड़ लगाया था और चेतावनी दी थी. अगर नौकरी प्यारी है तो अपनी आंख, नाक, कान और जुबान बंद रख और दिमाग को ताला लगा दे, वर्ना निकाल दिया जाएगा यहां से. समझे ? उस दिन के बाद से उसने अपनी सभी इंद्रियां निष्क्रिय कर दी थीं. वो केवल अपने काम करता और परिवार के साथ खुश रहता.
अवि बाबा के गुस्सा होने वाले एक पल के कारण भगत पिछले बरसों के कई हिस्सों से गुजर गया. कितना क्रोधी, जुनूनी और समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ने वाला आज अपने परिवार की खातिर सब कुछ अनदेखा कर रहा था. उसके आदर्श समाज से टकराकर चूर हो चुके थे. वास्तविकता की धरती पर वो घर- परिवार की ख़ातिर सच, ईमानदारी और उसूलों की फ़सल नहीं उगा सका. ईमानदारी और सच की राह पर चलने वाला चोरी- मक्कारी और झूठ के खिलाफ आवाज उठाने वाला भगत अपनी जबान पर खामोशी का ताला जड़ चुका था और बड़े लोगों ने उसकी भी कदर नहीं की. जिसकी खातिर अपनी बेटी की परवाह नहीं की, उसके माथे पर हमेशा के लिए निशान रह गया, आज उसने भी कुत्ते की तरह दुत्कार दिया. उसे खुद से नफ़रत होने लगी थी. उसका दिल टूट गया था. आज वो अपनी पूरी हिम्मत हार गया था. जिस बच्चे को गोदी खिलाया, पीठ पर बिठाकर दौड़ता रहा, उसी ने आज सबके सामने उसकी इस कदर बेइज्जती की कि वो वहां रुक भी न पाया. वो कितना प्रेम करता था अवि बाबा से. मगर नौकरों को प्रेम का हक कहां ? वो तो नौकर ही होते हैं. जिन बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, वहीं हाथ बड़े होने पर थप्पड़ मारते हैं. अपने बच्चों को चाहे गोदी लेकर न टहलाएं लेकिन मालिक के बच्चों को एक मिनट भी रोने नहीं देते और वही बच्चे बूढ़ी आंखों की कोरों में आंसुओं का कुआं खोद देते है. भगत की आंखों से आंसू बह रहे थे. परिवार के लिए क्या- क्या नहीं करना पड़ा. उसने वो जीवन जिया, जो उसके सपनों, आदर्शों और सिद्धांतों के एकदम विपरीत था. उसने बहुत चाहा मगर सच की राह नहीं चल पाया. आंखें होते हुए भी उसने पट्टी बांध ली थी.
तभी उसका बेटा खुश होते हुए अंदर आकर कहता है कि मां – पापा देखो मेरा रिज़ल्ट आ गया. मैं मैजिस्ट्रेट बन गया. गन्नू ने पीसीएस जे की परीक्षा दी थी.
परेशान और सुबकते भगत ने आश्चर्य से कहा- ‘क्या...’
‘हां पापा, सच. मैं अब मजिस्ट्रेट बन जाऊंगा.’ जो आंसू अभी तक शांत दरिया थे वो झरने की तरह गिरने लगे. उसने गन्नू को गले से लगा लिया और बोला-
मेरे बच्चे मैं तो सच की राह तो चला लेकिन अपने आदर्शों, सिद्धांतों को दफन करके. जमाने की ठोकर खाकर, दर- दर भटककर तेरे बाबा- दादी और मां के प्रेम के आगे झुककर ईमानदारी की राह पर तो चला मगर बुराईयों को देखकर भी खामोश रहा क्योंकि मैं ज्यादा पढ़ नहीं सका. मालिक को ही माई – बाप मानकर चुप रहा. मगर अब तेरा कोई माई- बाप न है. तू कभी रुपए लेकर मत बिकियो. जो आदर्श मैं नहीं बचा सका तू जरूर बचइयो वर्ना दुनिया से अच्छाई उठ जाएगी. वो जिंदा रहनी चाहिए, हमारे लिए लेकिन तू गलत करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देना बेटा. आंखें मत मूंदियो.
वीना श्रीवास्तव
(साहित्यकार व स्तंभकार)
सी-201, श्रीराम गार्डेन, कांके रोड
रिलायंस स्मार्ट के सामने, रांची-834008 (झारखंड)
मो. 9771431900
Aksharwarta's PDF
-
मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | पुस्तक समीक्षा: डॉ श्वेता पंड्या | मालवी भाषा एवं साहित्य के इतिहास की नई भूमिका : लोक ...
-
सारांश - भारत मेे हजारों वर्षो से जंगलो और पहाड़ी इलाको रहने वाले आदिवासियों की अपनी संस्कृति रीति-रिवाज रहन-सहन के कारण अपनी अलग ही पहचान ...
-
हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र भारतेंदु हरिश्चंद्र “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल” अर्थात अपनी भाषा की प्रगति ही हर...