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Tuesday, January 21, 2020

अभिनय के  भेद


अभिनय के  भेद


पवन भारती
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
कोचीन विज्ञान एवं तकनीकी                         
विश्वविद्यालय, कोचीन 
 ईमेल-इींतजपण्चंूंद86/हउंपसण्बवउ
 मोबाईल नं0-7456080801



संस्कृत में बतलाये गये अभिनय के चार भेद-अंागिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य इस समय पर विचार हुआ है, सबका समाहार इनमें हो जाता है। यह बात दूसरी है कि उनमें निर्दिष्ट बहुत कुछ बदल गया है। उनके स्वरूप या उनकी संरचना में कोई अन्तर नहीं आया है। संरचना ही अभेद की स्थापना करती है।
आंगिक
शरीर के किसी भी अंग द्वारा या मुद्राओं का निरूपण आंगिक अभिनय के अन्तर्गत आयेगा। मानसिक भावों या संवेगों की अभिव्यक्ति के लिए लोकव्यवहार में भी स्वभावतः अंगों का संचालन हो जाता हैं। स्वभाव से भी इसका सम्बन्ध है। जो बहुत गम्भीर हैं वे अंग-संचालन थोड़ा कम करते हैं। क्रोध के अवसर पर पैर पटकना, मुक्का तानना, विनम्रता के लिए हाथ जोड़ना, प्रेमी या प्रेमिका को देखकर कटाक्ष करना ऐसे ही व्यापार हैं। नाटक या प्रेकिमा को देखकर कटाक्ष करना ऐसे ही व्यापार हैं। नाटक के अभिनय के समय इनका प्रयोग सामान्य से कुछ अधिक करना पड़ता है। भावों के सम्प्रेषण में ये अधिक सहायक होते हैं। अभिनेता को भावों को दर्शक तक प्रेषित करने के लिए यह आवश्यक है कि वह शारीरिक धरातल पर भी प्रयास करे। अभिनय एक कला है और कला को अतिरिक्त साधनों की भी वांछा होती है। आंगिक अभिनय एक स्थूल व्यापार है और रूढि़यों की तरह है। हर अंग-संचालन, प्रत्येक मुद्रा से एक बँधा-बँधाया बोध होता है जिसको दर्शक जानता  है। यदि किसी रमणी को देखकर कोई पुरूष कटाक्ष कर दे और वह रमणी मुस्करा कर ही रह जाय, कुछ कहे नहीं तब भी देखने वाले को उनके गुप्त सम्बन्धों का पता चल ही जायेगा। यह एक बँधी-बँधायी परिपाटी है जो सहज वृत्ति बन गयी है। लोक से ही इसका ज्ञान होता है। हर देश और काल के साथ इसकी संगति बैठती है। भाषा की भित्रता के बाद भी स्त्री-पुरूष इन संकेतों को समझ लेते हैं। कटाक्ष, आलिंगन, चुम्बन आदि की शिक्षा के लिए प्रेमी को किसी स्कूल में नहीं जाना पड़ा है। ये स्वतः स्फूर्त व्यवहार हैं जो तारूण्य के साथ अनायास विकसित होते जाते है, कुछ संसर्गों के आधार पर और कुछ अपने आप। 
आंगिक अभिनय पात्रों, घटनाओं, विचारों और भावों के अनुरूप होना चाहिए। पात्रों की कई कोटियाँ होती हैं - बहिर्मुखी, अन्तर्मुखी, विक्षिप्त, सामान्य, असामान्य, सभ्य, बर्बर, स्त्री, पुरूष आदि। सबकी अपनी सामुदायिक और व्यक्तिगत प्रकृति होती है। बाहरी आचरण पर इसका बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। एक छोडी सी बात पर भी असभय और बर्बर व्यक्ति पैर पटकेगा, शस्त्र उठा लेगा या इसी प्रकार का अवांछित कार्य करेगा। इसी बात पर गम्भीर और सभ्य व्यक्ति मुस्करा एक एक तीखा व्यंग्य कर देगा। बात वही है, लेकिन आंगिक व्यवहार में एक बड़ा अन्तर है। इस प्रकार के आचरण से मनुष्य की पहचान होती है। अभिनय में इनका उपयोग करना पड़ता है। यदि अभिनेता को इसका ज्ञान नहीं है तो विपरीत कार्य कर सकता है जो अभिनय की दृष्टि से त्रुटि होगी। आंगिक अभिनय में स्वाभाविकता पर बल देना चाहिए। इसके अन्तर्गत चलना, फिरना, उठना, बैठना, मुख की मुद्राएँ, नेत्रों के कार्य, पद, हस्त-संचालन सभी आयेंगे। संस्कृत मंे इन पर बड़े विस्तार से विचार किया गया है।
    
वाचिक
वाचिक अभिनय रंगमंच का वाणी-व्यापार है। वाणी अभिनय का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। इसके लिए अभिनेता नाटक के संवादों का उपयोग करता है। संवादो को अभिनेयता नाटककार प्रदान करता है। शब्द, वाक्य, अर्थ आदि का नियमन वही करता  हैं। कथोपकथन वाले अध्याय में संवाद के गुण-दोषों पर विचार हो चुका है। यही संवाद वाचिक अभिनय के माध्यम बनते हैं।
संवाद की रचना नाटककार करता है और अभिनय अभिनेता। वाचिक अभिनय के लिए स्वर के नियमन की आवश्यकता होती है जो अभिनेता के कौशल, प्रतिभा और अभ्यास पर निर्भर है। पात्र कई प्रकार के होते हैं। उनकी वाणी, उनके स्वर भी भित्र-भित्र प्रकार के होते हैं। गम्भीर स्वभाव का व्यक्ति शब्दों का उच्चारण स्पष्ट और नियन्त्रित करेगा। इसके विपरीत विक्षिप्त के स्वर में गम्भीरता और स्पष्टता दोनों का अभाव होगा। हकलाकर बोलने वाले पात्र भी होते हैं। वृद्ध के स्वर में कम्पन होगा। नट को इन तथ्यों का ध्यान रखना होगा। इससे स्वाभाविकता बढ़ेगी। अभिनेता को स्वरों के आरोह-अवरोह का अभ्यास करना चाहिए। तीव्र, मध्यम और सम स्वर का अवसर के अनुकूल प्रयोग होना चाहिए। पारसी रंगमंच के युग में अभिनेता चीख-चीख कर संवादकथन करता था। इसका कारण यह है कि लम्बी रंगशाला में अन्तिम पीठ पर आसीन दर्शक तक संवाद को पहुँचाना आवश्यक था, लेकिन धवनि-विस्तारक यन्त्रों का अभाव था। आज परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। यदि फुसफुसा कर भी संवाद बोला जाता है तो अन्तिम दर्शक को कान रोपन नहीं पड़ता और न उचकना ही पड़ता है। वह सुन लेता हैं।
 वाणी की स्वाभाविकता बनाये रखने के लिए स्वरों का तीव्र, मध्यम और सम प्रयोग किया जा सकता है। ऊपर के अनुच्छेद में यह बात कही जा चुकी है। कभी-कभी विराम भी आवश्यक होता है। संवाद-कथन करते-करते अभिनेता मौन हो जाता है। इसका भी महत्व है। यह नहीं कि जहाँ चुप होने की आवश्यकता है, वहाँ अभिनेता भाषण करता चला जाय। यह अवश्य है कि विराम के बाद मंच पर एक रिक्ति या शून्यता आ जायेगी। इस शून्य को भरने के लिए कोई आंगिक व्यापार किया जा सकता है। मौन खड़ा पात्र कोई पुस्तक उलट कर देख सकता है, किसी चित्र को देख सकता है या इस तरह का दूसरा कार्य कर सकता है। देश-काल में भित्रता होने पर शब्दों का उच्चारण भी बदल जाता है। अहिन्दीभाषी पात्र के उच्चारण में अन्तर होता है। बंगाली, तमिल, तेलगू, अंग्रेजी जिनकी मातृभाषा है, वे अपनी भाषा की प्रकृति के अनुकूल ही हिन्दी शब्दों का उच्चारण करेंगे। प्रत्येक स्थिति में प्रत्येक पात्र द्वारा एक ही समान उच्चारण दोष माना जायेगा। समान देश-काल, विचारधारा के पात्रों के लिए यह दोष नहीं होगा, लेकिन भित्र-भित्र प्रकार के पात्र जिनकी शिक्षा, देशकाल, मानसिकता, सामाजिक स्थिति, संस्कार आदि समान न हों, उन पर यह लागू होगा।
    
सात्विक
स्वतः प्रकट होने वाला शारीरिक अंग-विकार सात्विक भाव है और जब अभिनेता इसी भाव का अनुकरण करता है तब उस अभिनय को सात्विक अभिनय कहते हैं। मन में भय उत्पत्र होने पर चेहरा पीला पड़ जाता है, पसीना छूटने लगता है, शरीर काँपने लगता है। दुःख या पीड़ा के समय आँखों से आँसू बहने लगते हैं। अधिक भावावेग में स्वरभंग हो जाता है, वाणी अवरूद्ध हो जाती है। अभिनेता मंच पर अभिनय के समय दुःख, भय, पीड़ा, प्रसत्रता, शोक आदि का अवसर उत्पत्र होने पर इन भावों के अनुरूप अंग-विकारों का अभिनय करने लगता है। भरत ने सात्विक अभिनय वाले नाटक को ही उत्तम कोटि का माना है। पच्श्रिम में आरम्भ में इस प्रकार का विधान नहीं था। यूनानी अभिनेता अनिवार्य रूप से मुखौटे धारण करता था। ये मुखौटे ही उसकी स्थिति के बोधक थे। भारतवर्ष में मुखौटा-विहीन नाटक होते थे। पशु, पक्षी, जानवर के मुखौटे प्रयोग में लाये जाते थे, लेकिन मनुष्य या देवता के लिए इनका विधान नही था। मुखौटे, ऊँचे-ऊँचे और लम्बे-लम्बे लबादे पहन लेने से सात्विक अभिनय के लिए अवकाश नहीं रह जाता। इसीलिए यहाँ इसका प्रचलन नहीं था। छोटी-छोटी रंगशालाओं की रचना का यही उद्देश्य था कि प्रत्येक दर्शक सात्विक अभिनय का आस्वादन कर सके।
 हिन्दी नाटकों के अभिनय में आज भी इनका उतना ही महत्व है। भय के अभिनय में जितना चिल्लाने और भागने का दर्शक पर प्रभाव पड़ेगा उससे अधिक विवर्ण और थरथर काँपते हुए को देखकर। ये ऐसी क्रियाएँ है जो स्वतः होेने लगती हैं। सामान्य जीवन में भी ऐसा होता है, इसलिए स्वाभाविक लगती हैं। दूसरी बात यह है कि एक स्थान पर जड़ या स्तम्भित होकर काँपने लगना और मुख का पीला पड़ जाना उसकी विवशता की पराकाष्ठा है। भागते या चीखते हुए व्यक्ति में चेतना का संचार है और वह इस प्रयास में लगा है कि उसकी रक्षा हो जाय और दर्शक भी आशावान रहता है कि उसके इस प्रयास का फल मिलेेगा या मिल सकता है। जड़ हो जाने में इस प्रकार की कोई आशा नहीं रहती और दर्शक भी दुःखद अप्रिय परिणाम का निच्श्रय कर लेता है। सात्विक अभिनय का महतव इसीलिए है कि यह दर्शक को बड़ी गहराई तक छूता है।
एक ही अवसर पर लोग भित्र-भित्र प्रकार के अभिनय कर सकते हैं। एक व्यक्ति के निधन पर मंच पर उपस्थित लोगों में से कोई रो सकता है, कोई विक्षिप्तावस्था में उट्ठहास कर सकता है, कोई भीतर ही भीतर प्रसन्न हो सकता है जिसकी अभिव्यक्ति नेत्रों की चमक आदि आंगिक विकारों से हो सकती हैं। एक ही घटना से कई लोगांे के मन में कई तरह के भाव उठ सकते हैं और उनका प्रकटीकरण भी होगा ही। मूल बात उनके संयोजन की है। मंच पर उनकी योजना अस्वाभाविक और अप्रत्याशित नहीं होनी चाहिए। कोई न कोई संकेत पहले ही मिल जाता चाहिए। आवेगों को स्वतः प्रस्फुटित होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं कि अभिनेता व्यक्तिगत धरातल पर भी मूल पात्र बन जाय। उसे मूल पात्र की प्रतीति करानी होती है। इसके लिए सात्विक अभिनय का अभ्यास करना होगा। इसके बिना वह सफल अभिनय नहीं कर सकेगा।
      
आहार्य
अभिनेता की रूपसज्जा ही आहार्य है। आहार्य अभिनय का सर्वाधिक स्थूल प्रकार है। इससे पात्र के देश, काल और स्थिति का पता चलता हैं। अलग-अलग देश, काल और परिस्थिति में अलग-अलग रूपसज्जा होती हैं। विभिन्न देशों, जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों, कालों और परिस्थितियों में एक तरह के पहनावे, अलंकरण और अंगरचना नहीं होती। भारतवर्ष में ही यह विभिन्नता दिखलायी देती है। यही नहीं, हिन्दी प्रदेश में भी यह देखने को मिलेगा। लोग अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्र धारण करते हैं। धर्मों, सम्प्रदायों, लिंग, शिक्षित, अशिक्षित, धनी, निर्धन की अपनी-अपनी पहचान होती है। कई सरकारी नौकरियों और शिक्षण-संस्थाओं की भी ये विशेषताएँ हैं। मंच पर इन्हीं भेदों के आधार पर पहली ही दृष्टि मंे पात्र निर्दिष्ट होते हैं। भरत का आहार्य आज भी उतना ही अभिप्रेत है। अन्तर है तो केवल प्रसाधनों, उपकरणों में। अभिनय कितना भी सादा और प्रतीकात्मक हो जाय, आहार्य से विरत नहीं हो सकता। नंगा अभिनेता मंच पर खड़ा नहीं किया जा सकता। यदि किसी समय यह सम्भव हो भी जायेगा तो एकाधिक की पहचान का कोई-न-कोई साधन होगा ही जो आहार्य ही होगा। सामान्य रूप से यह तीन प्रकार का है-वेशसज्जा, अंगसज्जा और अलंकरण। ये तीनो एक दूसरे पर इस प्रकार आश्रित हैं कि इन्हें अलग-अलग देखा नहीं जा सकता, लेकिन सामान्य अध्येता की सुविधा के लिए इन पर अलग-अलग विचार करना ही होगा।
वेशसज्जाः- वेशसज्जा के विशेषज्ञ को वेशकार कहते हैं। किस पात्र की भूमिका में उतरने वाले अभिनेता को किस अवसर पर क्या धारण करना चाहिए, अभिनेता की स्थिति और वय के अनुसार वह निर्धारित करता है। पात्र के काल का भी ध्यान रखना होगा। पात्र जिस काल का है, उस काल में प्रचलित वेश ही उसे धारण करना होगा। राम, बुद्ध, रावण या इस प्रकार के दूसरे प्रसिद्ध चरित्रों की छवि हमारे मानस पर अंकित है। उसमंे किसी प्रकार का व्यवधान प्रश्नचिहृ खड़ा कर देगा। स्त्रियों का वेश पुरूष धारण नही कर सकता। ऐसा वह तभी करेगा, जब उसे स्त्री रूप ग्रहण करना होगा। हाथ की बन्दूक से सैनिक, दस्यु या इस प्रकार की वृत्ति वाले का बोध होगा। बूढ़े के हाथ में छड़ी उसकी पहचान हो सकती है। यदि वही व्यक्ति गँवार है तो सोटा लेकर चलेगा। आज के युग में साधु, संन्यासी भी घड़ी पहनते है, कार में चलते हैं। ऐसे-ऐेसे धर्माधिकारी हैं  जो हीरे लगी डायल वाली घडि़याँ पहनते हैं, वातानुकूलित कक्षों में रहते हैं। इनकी प्रसिद्धि भी विव्श्रस्तर की है और बड़े-बड़े सम्राटों तक ख्याति पहँुच चुकी हैं। लोकप्रियता शिखर पर है। मंच पर साधुओं का अभिनय करते समय इस प्रकार का स्वरूप प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। पाखण्डियों-छùवेशियों के लिए ठीक है, लेकिन जो सचमुच साधु-संन्यासी या इस कोटि का व्यक्ति हो, वह इस रूप में नहीं आ सकता। दर्शक इसे स्वीकार ही नहीं कर सकेगा। उसका संस्कारित मन इसका तिरस्कार कर देगा और नाटक की पूरी रंगधर्मिता हास्यास्पद हो जायेगी। वेशभूषा के प्रति किंचित् असावधानी प्रभाव को नष्ट कर देगी। 
आधुनिक भारत की वेशभूषा पच्श्रिम के निकट है। पैण्ट, शर्ट या इस प्रकार के दूसरे पहनावों का सामान्य प्रचलन है। यह अंग्रेजी की दासता का प्रतिफल हैं। शिक्षितों का बड़ा समुदाय इसी तरह के लिवास में रहता है। इस काल का पात्र इन वस्त्रों को पहन सकता है। कभी-कभी तो यह अपरिहार्य हो जायेगा। इस सन्दर्भ में इसको अनुचित नहीं कहा जायेगा।
इस प्रकार नाटक में वस्त्रों का चयन बड़ा महत्व रखता है। प्रस्तुति के आरम्भ में अभिनेता जब मंच पर आता है, तब उसे अपरिचय की अवस्था में उसकी वेशभूषा ही उसकी पृष्ठभूमि की ओर संकेत करती हैं। इसके लिए कुशल वेशकार की सहायता लेनी चाहिए। यह विशेषीकरण का युग हैं। हर विषय इतना अधिक वैज्ञानिक हो गया है कि एक ही व्यक्ति विविध क्षेत्रों में दक्ष नहीं हो सकता। वेशभूषा नेपथ्यकर्म है। किसी विशेष अवस्था में मंच पर भी यह कार्य किया जा सकता है।
अंगसज्जाः- वैज्ञानिक प्रविधियों ने अंग-रचना के भरतकालीन प्रसाधनों को विस्मृत कर दिया है। क्रीम, पाउडर, लोशन, पफ आदि इतनी रासायनिक प्रसाधन-सामग्रियाँ आ गयी हैं कि उनकी चमक-दमक, सुलभता और अल्पव्ययता के आगे प्राचीन सामग्रियाँ की भूमिका गौण पड़ गयी है। अभिनेताओं को इनके प्रयोग में कोताही नहीं करनी चाहिए। आहार्य अभिनय में अंगरचना प्रमुख है। मंच पर अवतरित होने वाले पात्रों मंे तरूण, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, गोरे, काले, स्वस्थ, विकृत सभी प्रकार के होते हैं। अभिनेताओं को भूमिका के अनुरूप अंग-रचना करनी पड़ती है। तरूण का व्यक्तित्व तेज से दीप्त रहेगा, वृद्ध का चेहरा झुर्रीदार होगा, आदिवासी का रंग काला होगा, कश्मीरी गोरा होगा। इनकी भूमिकाओं में उतरने वाले पात्रों को इसी प्रकार का रंग और आकृति बनानी होगी। सपाट, चौकोर, अण्डाकार चेहरे, तीखे नाक-कान के लिए अंगरचना या मेकअप की आवश्यकता होती है। सामान्य व्यक्ति को दीन, तेजस्वी, क्रोधी, दास, अन्धा, दन्तहीन आदि के रूप में उपस्थित किया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं हैं कि अन्धे व्यक्ति की भूमिका का निर्वाह अन्धा व्यक्ति ही करे अथवा क्रोधी की भूमिका के लिए वैसे ही व्यक्ति की तलाश की जाय। संस्थाओं में सामान्य व्यक्ति ही होते हैं और उनकी रूपसज्जा से वांछित भूमिका में उतारा जाता है।
अंगसज्जा में दक्षता के लिए रंगों और उनके प्रभाव का ज्ञान तो होना ही चाहिए, शरीर-विध्न और मनोविज्ञान की भी जानकारी होनी चाहिए। रंगों के मिश्रण और उन पर पड़ने वाले सादे, रंगीन प्रकाश की प्रतिक्रिया को भी जानना आवश्यक है। आज अनेक प्रकार के पाउडर, लेप, रंगों की संख्यानुसार छडि़याँ उपलब्ध हैं। रंग नम्बरों में मिलते हैं। इन नम्बरों का ज्ञान होना चाहिए। उन पर इनके सम्बन्ध में अंकित भी रहता है। उसका लाभ उठाया जा सकता है। 
अंगरचना के लिए ग्रीज पेंट अधिक उपयोगी हैं। इन रंगों की छडि़याँ (स्टीक्स) मिलती हैं। इनकी अलग-अलग संख्या होती है और इसके अनुसार ही उनका प्रयोग होता हैं। उदाहरण के लिए स्त्रियों के मुख के लिए गुलाबी रंग संख्या 1, 2, और 3 निर्धारित हैं। पुरूष 3 से 20 तक लाल, गुलाबी, व्श्रेत, ग्रे, भूरे रंगों का प्रयोग करते हैं। गालों के लिए रूज, रेखाओं को उभारने के लिए लाइनर, भौंहों, ओठों के लिए पेंसिलों का प्रयोग करते हैं।
रंगों के प्रयोग से पहले आधार रंगों का लेप आवश्यक है। इससे पहले मुख को भलीभाँति साफ कर लेना चाहिए। मुख को साफ करने के लिए पहले क्रीम मल लेना चाहिए। उसके बाद गर्म पानी से धोना चाहिए। इसके बाद उसे पोंछकर रूज लगाना चाहिए। रूज को ठीक से मिलना आवश्यक होता है। ऐसा नहीं करने से चेहरे पर भद्दापन आ जाता है। इतना कर लेने के बाद चेहरे का रंग, त्वचा की प्रकृति और भूमिका की माँग को देखकर रंगों का प्रयोग करना चाहिए। अन्त में हल्का पाउडर लगाकर चेहरे को सँवार लेना चाहिए। इसके बाद लाइनर और पेंसिल से भौंहों, होठों और बरौनियों को चेहरे के रंग से मिला देना चाहिए।
रंगों के साथ प्रकाश की क्रिया महत्वपूर्ण होती है। लाल रंग पर नीला प्रकाश डालने से काला रंग दिखलायी पड़ता है। अन्य रंगों के साथ भी यही बात है। रंगों के इस संयोग को जानना चाहिए। मंच पर इसी प्रकार विभिन्न रंग के प्रकाशों और रंगों के योग का क्रम चलता रहता हैं। रूपसज्जा से तात्पर्य अपेक्षित प्रभाव से है। प्रभाव और अन्विति को सदैव दृष्टि में रखना चाहिए। रंग का अर्थ चेहरे पर रंग पोतना नहीं है। चेहरे को भूमिका के अनुरूप स्वरूप प्रदान करना है।
बाल का रंग भी चेहरे के समानुपातिक होता है। तरूण के बाल काले और झुर्रीदार चेहरे पर सफेद शोभा देते हैं। इनको रंगने के लिए भी रंगों का प्रयोग होता है दाढ़ी, मँूछ, सिर के लिए कृत्रिम बाल भी बने बनाये बाजार में मिलते हैं। समयानूसार इनकी उपयोगिता भी है। समय पर लम्बे-लम्बे जटाजूट बढ़ाये नहीं जा सकते। कृत्रिम बाल ही इस परिस्थिति को सँभाल सकते हैं।
इस प्रकार अभिनय में अंगसज्जा का बड़ा महत्व होता हैं। अभिनेता को अनेक रूपों में आना पड़ता है। कुशलतापूर्वक की गयी अंगरचना अभिनेता को भूमिका के अनुरूप बना देती हैं। चलचित्र जगत् में इसके लिए दक्ष लोग होते हैं। नाटकों में उतनी सुविधाएँ तो उपलब्ध नहीं हैं और न यह निकट भविष्य में सम्भव ही प्रतीत होता है। वहाँ हर कार्य के लिए उच्च श्रेणी के विशेषज्ञ होते हैं। नाटकसंस्थाओं के लिए इतनी व्यवस्था सम्भव नहीं है। एक सीमा के अन्तर्गत ही सब कुछ करना होता है। यदि निर्देशक सूझबूझ वाला हो तो किसी प्रकार की कठिनाई आड़े नहीं आती।
संदर्भ-सूची


1. भरत: नाट्यशास्त्र: 1/117
2. उद्धृत: डॉ0 अज्ञात: भारतीय रंगमंच का विवेचनात्मक इतिहास:पृ0 27।
3. डॉ0 नगेन्द्र: हिन्दी नाट्य दर्पण, पृ0 5।
4. डॉ0 लक्ष्मीनारायण लाल: रंगमंच और नाटक की भूमिका: पृ0 5।
5. डॉ0 अज्ञात: भारतीय रंगमंच का विवेचनात्मक इतिहास, पृ0 27।
6. डॉ0 नगेन्द्र: हिन्दी अभिनव भारती, पृ0 292।
7. जयशंकर प्रसाद: काव्यकला और अन्य निबन्ध ; पृ0 92।
8. डॉ0 अज्ञात: भारतीय रंगमंच का विवेचनात्मक इतिहास ; पृ0 27।
9. नाट्यशास्त्र, 2/8।
10. वही, 2/8
11. वही, 2/11
12. हिन्दी विव्श्रकोश, प्रथम भाग
13. सीताराम चतुर्वेदी-भारतीय तथा पाच्श्रात्य रंगमंच, पृ0 490
14. सीताराम चतुर्वेदी-भारतीय और पाच्श्रात्य रंगमंच, पृ0 492
15. पं0 सीताराम चतुर्वेदी: भारतीय और पाच्श्रात्य रंगमंच, पृ0 557
16. डॉ0 राय गोविन्दचन्द्र: भरत नाट्यशास्त्र में नाट्यशालाओं के रूप, पृ0 21
17. डॉ0 अज्ञात: भारतीय रंगमंच का विकासात्मक अध्ययन, पृ0 50
18. नाट्यशास्त्र, 3/91
19. नाट्यशास्त्र, 27/90-93
20. पं0 सीताराम चतुर्वेदी: भारतीय और पाच्श्रात्य रंगमंच, पृ0 618


 


 


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