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Sunday, January 12, 2020

अज्ञेय के उपन्यासों में पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण


  अज्ञेय के उपन्यासों में पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण


   डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा


अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग, केंद्रिय हिंदी संस्थान, आगरा


 


 हिंदी साहित्य में मनोविज्ञान का संबंध आधुनिक युग से समझा जाने लगा क्योंकि आधुनिक काल में फ्रायड ने मनोविज्ञान को अचेतन मन की भूमिका पर कामवासना (लिबिडो) नामक ग्रंथियों का विश्लेषण द्वारा मनोविज्ञान का मागज़् प्रशस्त किया है। फ्रायड के अनुसार - 'चाहे प्रभाव की मात्रा से या उत्तेजना के योग से अलग करके ही इसे समझा जा सकता है, जिसमें मात्रा के सभी लक्षण विद्यमान हैं। भले ही उसे नापने का कोई साधन हमारे पास न हो लेकिन ऐसा कुछ है जो सहज घट-बढ़ सकता है। स्थानांतरित निर्धारित हो सकता है तथा किसी भी विचार बिंब के स्मृति अवशेषों पर उसी प्रकार फैल सकता है, जिस प्रकार विद्युत शक्ति किसी पदार्थ की सतह पर फैलती है।'1 फ्रायड के अतिरिक्त एडलर और युंग ने भी अपने मनोविज्ञान के सिद्धांतों का विवेचन करते हुए साहित्य को प्रभावित किया है। एडलर ने हीनता तथा मैकहम ने मनोविज्ञान जिजीविषा पर जोर देते हुए यह स्वीकार किया है कि प्रत्येक व्यक्ति जीने की प्रबल इच्छा रखता है। इसलिए उसमें एक ऐसी शक्ति विद्यमान रहती है जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
 पाश्चात्य विद्वानों में विश्लेषण की प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है। वजीनय वुल्फ, जेम्स ज्वारस, डी.एच. लॉरेंस, कोनार्ड जैसे उपन्यासकारों ने फ्रायड, युंग, एडलर के सिद्धांतों को अपनाते हुए मनोविश्लेषण का समावेश किया है। भारतीय उपन्यासों में सर्वप्रथम बांग्ला उपन्यासकारों में मनोविश्लेषण दिखाई देता है। बंकिमचंद्र के 'विष वृक्ष', रविंद्रनाथ के 'चोखेरबाली' में कलात्मक मार्मिकता के साथ मनोविश्लेषण का आश्रय ग्रहण किया है।
 हिंदी में मनोवैज्ञानिक उपन्यास का उद्देश्य उन उपन्यासों से है, जिनमें मनोविश्लेषण और आधुनिक मनोविज्ञान का प्रभाव एकदम दिखाई पड़ता है- 'यदि किसी उपन्यास में घटना की अनुभूति - के आमनिष्ठ रूप की अभिव्यक्ति पर आग्रह पाएँगे तो उसे मनोवैज्ञानिक उपन्यास कहेंगे।'2
 बात आती है अज्ञेय की तो इनकी गणना हिंदी के सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों में की जाती है, लेकिन कुछ लेखकों ने अज्ञेय को मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार न मानकर व्यक्तिवादी उपन्यासकार माना है। जोशी जी ने 'शेखर एक जीवनी' को एक मनोवैज्ञानिक आधार का स्वरूप दिया है। डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार 'शेखर एक जीवनी' में सोचने की प्रक्रिया है उसमें मानव जीवन संचालित करने वाली अहं, भय और काम तीनों प्रवृत्तियों का प्रत्यक्ष विश्लेषण किया है। शेखर के जीवन की विभिन्न घटनाएँ और मन में बैठी उन घटनाओं की विभिन्न प्रतिक्रियाएँ ही इस उपन्यास का शरीर तैयार करती हैं।'3
 अज्ञेय के उपन्यासों में पाश्चात्य मनोविज्ञान की गहरी छाप दिखाई देती है। इनकी रचनाओं में काम-कुंठाओं का विश्लेषण एवं मानसिक विकृतियों का वर्णन एवं अवचेतन की भूमिका का वर्णन किया है। डॉ. नगेंद्र के अनुसार- 'अज्ञेय जैसे एक आध ही कलाकार द्वारा फ्रायड कुछ व्यवस्थित ढंग से हिंदी उपन्यास में आए हैं।'4
 अज्ञेय ने जैनेंद्र की मनोविश्लेषण शैली को अपनी प्रतिभा का योगदान माना है लेकिन कहीं-कहीं अज्ञेय के उपन्यासों में जैनेंद्र और जोशी की कला का मिलाजुला रूप भी दिखाई देता है। अज्ञेय का मनोविश्लेषण चाहे सैद्धांतिक हो या व्यावहारिक वह अपने आप में श्रेष्ठ है। युंग के अनुसार- 'साधारण अवस्था में सचेत मन को उन पुरानी प्रवृत्तियों का पता नहीं चलता जो असाधारण व्यवस्था में पूरे वेग से उभरती है। मन में हलचल उत्पन्न कर देती हैं।'5
 मनोवैज्ञानिक तत्व: पुरुष और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है, इसलिए उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता लेकिन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अज्ञेय की मान्यता है कि समाज में नैतिक व्यवस्था और सामाजिक संस्थाओं को बनाए रखना होगा, साथ ही मनोवैज्ञानिक उपचार के द्वारा उन्हें निरोग बनाकर समाज को स्वस्थ बनाने का प्रयास पुरुष से करना पड़ेगा लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में कामदेव को पुरुषों का मनोवैज्ञानिक तत्व माना है, तो कुछ अहं, कुछ हीनता, कुछ कुंठा को पुरुष का मनोवैज्ञानिक तत्व मानते हैं। लेकिन अज्ञेय के अनुसार-'भय, सेक्स तथा अहं पुरुष पात्रों के जीवन विकास की धुरी है। पुरुष पात्रों के जीवन विकास में इन तीनों का योगदान रहता है।'6
 पुरुषों के व्यक्तित्व के कार्य कारक तत्वों का विवेचन मनोविज्ञान के आलोक में करना मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों के द्वारा पात्रों को समझने में सहायक हो सकता है इसलिए पुरुषों का महत्व है कि- 'पुरुष के अंदर की उन मनोभौतिकी प्रणालियों का गत्यात्मक संगठन जो उसकी परिस्थितियों तथा उसके वातावरण से उसके विशिष्ट समायोजनों को निर्धारित करता है।'7 इन सभी बिंदुओं पर मनोवैज्ञानिक तत्वों का विवेचन किया गया है।
काम : मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों ने 'लिबिडो' का प्रयोग 'काम' के अर्थ में किया है। जब इसका असाधारण तरीके से दमन होता है तो व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है और उसका स्वभाव बदल जाता है इसलिए काम एक मानसिक शक्ति है। इसी के द्वारा व्यक्ति प्रत्येक वर्ग की क्रियाएँ करता है। डॉ. पद्मा अग्रवाल के अनुसार- 'काम एक ऐसी शक्ति है जिसका प्रवाह कई दिशाओं में हो सकता है, उसी दिशा में उसकी मानसिक शक्ति का विशेष प्रवाह है। किसी व्यक्ति की मानसिक शक्ति के प्रवाह का रुख किस तरफ है, इससे उसके चरित्र और व्यक्तित्व के प्रकार का निर्धारण होता है।'8
 फ्रायड यौन शक्ति को मनुष्य मन की मूल परिपालक शक्ति मानते हैंए लेकिन अन्य उपन्यासकार इस मत से सहमत नहीं है क्योंकि फ्रायड तो सुसंस्कृत एवं समुन्नत प्रवृत्तियों को ही यौन वृत्ति का परिणाम मानते हैं लेकिन अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में काम के शारीरिक या यौन पक्ष के प्रति वर्जना का एक तीव्र भाव रखा है। फ्रायड के अनुसार- 'उस वर्जना की उत्पत्ति का स्पष्ट कारण करने से उसे रचना की अभिव्यक्तियों में खोजने पर उपलब्धि नहीं होती किंतु इस वर्जना की उत्पत्ति, विकास तथा तुझसे उत्पन्न अंतद्र्वंद्व का उसकी रचनाओं की व्याख्या द्वारा समझा जा सकता है।'9 'शेखर एक जीवनी' में जब शेखर को ज्ञात होता है कि स्त्री-पुरुष के परस्पराकर्ष का वास्तविक आधार क्या है, तो उसकी प्रतिक्रिया द्रष्टव्य है-तब होता है गभाधज़न।10 यही- मानव मन की अतल गहराई में एक ऐसा रहस्य लोक छिपा है जिसकी अपनी स्वतंत्रता है।
 अहं: मनुष्य ने अपने विचारों से 'अहं' शब्द का उपयोग मनुष्य के विकास व उसके वातावरण के संपर्क में आने पर होता है। फ्रायड ने 'ईगो'का नाम दिया है जो मानव चेतना का अंश है जो चेतन व बाहरी जगत के संपर्क में रहता है इसलिए अज्ञात मन की इच्छाओं पर कि इसका बंधन लगाया जाता है। साथ ही बाह्य और वास्तविक जीवन के नियमों के आधार पर 'अहं' को रखा जाता है। मनोवैज्ञानिक के मन से 'अह' स्वार्थ का सिद्धांत है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति ऐच्छिक क्रिया का निश्चय रूप देकर प्रेरक अप्रत्यक्ष रूप में अपने लाभ के इच्छानुसार कार्य करता है।
 फ्रायड ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा है कि- 'अचेतन मानव मन का वह आयाम है जो कभी भी सीधे चेतना में नहीं आ सकता। अहं की तुलना में अचेतन एक अत्यंत विशाल शक्ति ोित है। वह किसी-न-किसी रूप में मानव शरीर के अवयवी गतिविधि से भी संबंध रखता है।'11 अज्ञेय के 'शेखर एक जीवनी' में शेखर के अहं भाव का ही चित्रण किया है। जोशी जी ने प्रारंभ से लेकर अंत तक शेखर के चरित्र का विकास एक ही मूलगत आधार को लेकर किया है और वह आधार है अत्यंत गहन और तीव,सर्वगामी, अहं भाव। इसी कारण व्यक्ति के अंदर अहं भाव चरम सीमा पर उत्पन्न हो जाता है। उसके विचार में कोई संदेह नहीं रह जाता। उसका अपना दृष्टिकोण भी यही है। इस अहं भाव की उत्तेजना से मनुष्य आत्मविनाश करता है, लेकिन पूर्व में वह अपने आसपास के संसार के विनाश की योजनाएँ बनाने लगता है, वह उसकी क्रिया के विनाश का शिकार बन जाती है।
कुंठा :  साधारण भाषा में कुंठा का अर्थ मन की क्षुब्ध अवस्था से लिया गया है जिसका कारण उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण है-'अबोध के कारण किसी भी तीव्र प्रेरक इच्छा की पूर्ति अथवा ध्येय की प्राप्ति न होने पर मन की एक विचित्र क्षुब्धावस्था कुंठा कहलाती है।'12
 अज्ञेय ने अपने उपन्यासों में कुंठाग्रस्त जिन पात्रों को लिया है उनका मुख्य कारण कभी-कभी शारीरिक दुर्बलता अथवा इंद्रिय दोष के कारण लक्ष्य प्राप्ति नहीं कर पाता है। वही 'नदी के द्वीप'की नायिका रेखा सुंदर होते हुए भी उसके साँवले रंग और उंगलियों के जोड़ों का वर्णन किया और पति के द्वारा त्याग देने पर वह कुंठाग्रस्त हो जाती हैए जिससे वह भुवन से विवाह नहीं कर पाती। 'अपने-अपने अजनबी' की नायिका सेल्मा जो गरडयि़े की माँ है साथ वृद्धा होने के कारण अपने को कुंठाग्रस्त पाती है।
हीनता: प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एडलर ने मनुष्य व्यवहार का विश्लेषण कर हीनता ग्रंथियों को स्पष्ट किया है कि- 'हीनता ग्रंथि का मूल कारण स्वाग्रह की प्रवृत्ति का संतोष न हो सकना है, तभी व्यक्ति में हीनता का भाव उठता है, हीनत्व भाव एक प्रकार से अपनी ही आलोचना है।'13 इसके सामान्यत: कई कारण हो सकते हैं- जैसे शारीरिक दोष, निर्धनता, सामाजिकहीनता, आध्यात्मिक एक धार्मिकता, चरित्र एवं नैतिक पतन आदि सब प्रकार से मानसिक रोग का मूल कारण हीनत्व ग्रंथि है। कभी-कभी व्यक्ति में निराशा या असफलता और अवसाद जैसे कई कारणों से हीनता की भावना उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति साधारण से असाधारण व्यवहार करने लगता है। अज्ञेय के उपन्यासों में हीनता ग्रंथ से ग्रस्त पात्रों का मनोविश्लेषण किया गया है। शेखर एक जीवनी में शेखर धन के अभाव में हीन ग्रंथि का शिकार हो जाता है क्योंकि निर्धनता की वजह से उसकी पुस्तकें प्रेस वाला नहीं छापता। एक स्थान पर माता-पिता के लिए भी उपहास का कारण बनता है। उपन्यास की नायिका शेखर के साथ रहने लगती है तो ससुराल वाले उसे कलंकिनी कहकर निकाल देते हैं और वह सभी नारियों के प्रति क्षुब्ध होकर प्रतिहिंसा की भावना से उसका मन भर उठता है और अंत में उसका जीवन समाप्त हो जाता है।
मृत्युबोध: अनेक उपन्यासकार अपने पात्रों के माध्यम से मृत्युबोध की तथा मृत्यु संबंधी विचारों की अभिव्यक्ति करते है। वे यह प्रभावित करने का प्रयास करते हैं कि पूर्व में मृत्यु में ही जीवन की रसमयता तथा सार्थकता का जीवन में होना अनिवार्य है। साँस की बाधा ही जीवन का बोध है, उसी से मनुष्य के व्यवहार और उसके मन की पहचान होती है। मृत्यु की वजह से ही मनुष्य जीवन से प्यार करता है। मनुष्य जीवन और मृत्यु के दो छोरों से बँधा हुआ है, व्यक्ति जीवन से मृत्यु की ओर निरंतर गतिशील रहता है जो जीवन यात्रा का अंश मनुष्य ने स्वयं मानव जाति के लिए तय किया है। उसे वह मृत्यु की संज्ञा देता है। अज्ञेय के अनुसार- 'समय और समययुक्त काल और काल निर्पेक्ष अमित्य और सनातन की सीमा और रेखा क्या है, सिर्फ हमारी साँसों की चेतना में होने वाला जीवन बोध? साँस से ही जीवन का बोध हो ऐसा नहीं, क्योंकि उसी में हमारा चित्र पहचाना जाता है।'14
 अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में मृत्यु गंध का प्रश्न तथा उसके प्रति जिज्ञासा की आवाज बार-बार उठाई है। 'शेखर एक जीवनी' का आरंभ फाँसी से होता है, लेकिन 'नदी के द्वीप' में मृत्यु की छाया मात्र ही दिखाई देती है। इसी कारण क्षण की महत्ता का उद्घोष मृत्यु की ओर निरंतर अग्रसर हो रहे जीवन की विद्रोह चेष्टा भी मानी जा सकती है। अज्ञेय से पूछा गया कि- 'आप बताइए, मृत्यु से आप क्यों डरते हैं? अज्ञेय का उत्तर था - दो एक बार यह प्रश्न अपने आप से पूछने का यह अवसर मुझे मिला-बौद्धिक जिज्ञासा के स्तर पर नहीं जीवन भरण के संधि स्थल पर खड़े होकर और मैं कह सकता हूँ कि - मैं समझता हूँ कि बिना झूठ के, बिना मिश्रण के कह सकता हूँ कि मृत्यु से डर मुझे नहीं है।'15 'अपने-अपने अजनबी' में थोके के और सेल्मा दोनों ही मृत्यु का इंतजार करती हैं, दोनों ही मृत्यु से बचना चाहती है। इसलिए मृत्यु को ईश्वर या मसीहा बनाती है। अज्ञेय स्वयं कहते हैं- 'मृत्यु को सामने पाकर कैसे प्रियजन भी अजनबी हो जाते हैं और अजनबी एक-दूसरे को पहचानते हुए कैसे इस परिस्थिति में मानव का सच्चा चरित्र उभरकर आता है। उसका प्रत्यय उसका अदम्य साहस और उसका विगल अलौकिक प्रेम की वैसे ही और उतने ही अप्रत्याशित ढंग से क्रियाशील हो उठते हैं।'16 यही हमें मृत्यु का बोध कराती है।
पलायनवाद: अज्ञेय ने अपने उपन्यासों में मृत्यु, कुंठा हीनता, अहं, काम आदि मनोवैज्ञानिक तत्वों के साथ-साथ पलायनवाद पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। कभी-कभी मनुष्य को सबकुछ मिलने पर भी वह संसार से पलायन कर जाता है अर्थात उसके अंदर वैराग्य के भाव उत्पन्न हो जाते हैं और उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि मनुष्य किशोरावस्था से प्रेम की तात्विक अनुभूति करता है। उसके पास भोगवाद की सभी सामग्री उपलब्ध होती है। वह भोगवादी प्रक्रियावादी है लेकिन सब जीवन में संघर्ष आते हैं तो वह पलायन कर प्रेम के आंचल में पनाह लेना चाहता है। 'शेखर एक जीवनी' में शेखर प्रगतिशील आंदोलनकारी युद्ध, प्रेम, घृणा, हिंसा-अहिंसा मनोभाव, प्रेम और घृणा के संबंध से जुड़ा हुआ है परंतु उसकी पीड़ा, वेदना और उसकी विवशता ने उसे पौरुषहीन बना दिया है।17
 'अपने-अपने अजनबी' में संसार में लिप्त सेल्मा और थोके कहती हैं- 'किसके लिए क्या करना है यह तय करना व्यर्थ है, इसका निश्चय अपने आप करके चलना क्या भगवान के रूप को अपने ऊपर ओढ़ लेना, पलायनवादी है। मैंने कोशिश की कि मेरे मन में व्यंग्य का भाव जितना तीखा था उतना प्रकट न हो सका।'18
 अत: निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अज्ञेय ने अपने उपन्यासों में जितना अधिक अपने पात्रों के माध्यम से मनोविश्लेषणात्मक समावेश, काम, कुंठा, प्रेम, अहं, हीनता, नियतिवाद जैसे मूल्यों का प्रयोग किया है, उन सबकी उपेक्षा में कम ही पलायनवाद को लिया है क्योंकि इनके सभी पात्र संसार के भोग-विलास में ज्यादा रुचिकर लगते हैं, लेकिन जिन पात्रों को सामाजिक नियम और संसार के कष्ट सहने में परेशानी हुई उन्होंने या तो मृत्यु को स्वीकार किया या फिर वे संसार को ही व्यर्थ बताकर उससे पलायन कर गए हैं। ऐसा इनके उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण देखने को मिलता है, जो साहित्य और समाज में एक अलग स्थान रखते हैं।


संदर्भ सुची :-
01.  डॉ. ज्वाला प्रसाद खेतान, अज्ञेय एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन,   पृ.91
02.  डॉ. देवराज उपाध्याय, आधुनिक हिंदी कथा साहित्य और    मनोविज्ञान, पृ.14
03.  डॉ. दुगार्शंकर मिश्र, अज्ञेय का उपन्यास साहित्य, पृ.42 
04.  डॉ. नगेंद्र, विचार और विश्लेषण, पृ.63 
05.  डॉ. ज्वाला प्रसाद खेतान, अज्ञेय एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन,   पृ.10 
06.  डॉ. कृष्णदेव मौर्य, अज्ञेय का कथा साहित्य, पृ.119 
07.  डॉ. पद्मा अग्रवाल, मानविकी पारिभाषिकी कोश (मनो.खण्ड),   पृ.212
08.   पूर्व, - - - पृ.162
09.  डॉ. ज्वाला प्रसाद खेतान, अज्ञेय एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन,   पृ.41
10.  डॉ. पद्मा अग्रवाल, मानविकी पारिभाषिकी कोश (मनो.खण्ड),   पृ.98
11.  डॉ. ज्वाला प्रसाद खेतान, अज्ञेय एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन,   पृ.07
12.  डॉ. पद्मा अग्रवाल, मानविकी पारिभाषिकी कोश (मनो.खण्ड),   पृ.121
13.  पूर्व, - - - पृ.148
14.  डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, अज्ञेय का उपन्यास साहित्य, पृ.136
15.  डॉ. ब्रह्मदेव मिश्र, अज्ञेय और उनका उपन्यास संसार, पृ.138
16.  डॉ. दुर्गाशकर मिश्र, अज्ञेय का उपन्यास साहित्य, पृ.12 
17.  डॉ. ब्रह्मदेव मिश्र, अज्ञेय और उनका उपन्यास संसार, पृ.121
18.  डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, अज्ञेय का उपन्यास साहित्य, पृ.35


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