Impact Factor - 7.125

Wednesday, January 8, 2020

‘अपनी गठरी’के अनमोल रत्न

कवियों कासुदृढ़ समाज और देश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। सिर्फ भाषा और छंद गढ़ने से कोई कवि नहीं बनता। कवि का काम लोगों में समसामयिक परिस्थितियों का ज्ञान कराना तथा नयी चेतना भरना होता है। यही कारण है कि कवि-कर्म बहुत कठिन होता है। डॉ. पंकज साहा ने कहा भी है,“लेखन की शुरुआत मैंने कविता से ही की थी, पर जैसे- जैसे कविता की समझ विकसित होती गई, यह बात भी समझ में आने लगी कि कवि-कर्म बहुत आसान नहीं है।”साहाजी जानते हैं कि कवियों का दायरा और दायित्व कितना बड़ा होता है। उसकी दृष्टि कितनी व्यापक होती है। उसका उद्देश्य समष्टि का कल्याण करना होता है।साहाजी की ‘अपनी गठरी’ काव्य-संग्रह इस दृष्टि से एक सफल काव्य संग्रह है। इस काव्य-संग्रह में साहाजी ने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि विषयों को अत्यंत सजगता से अपने काव्यनुमा अंदाज में उठाने की कोशिश की है। इस काव्य-संग्रह की कविता ‘अपनी गठरी’ में वे कहते भी हैं-


“चाहे कोई उपहास करे,


चाहे कोई मारे लंगड़ी।


जीवन-दौड़ में जीत उसी की


जिसने सच की राह न छोड़ी।”1


इस काव्य-संग्रह में 80 कविताएँ हैं। हर कविता साहाजी की लेखनी से निकली यथार्थ की अभिव्यक्ति है। संकलन की पहली कविता ही महान संत एवं समाज सुधारक कबीर से शुरू होती है। इस कविता में साहाजी ने कबीर को शत-शत नमन किया है क्योंकि कबीर ने अंधकार में भटकते भेड़ों (मानव जाति) को रोशनी (ज्ञान) की लकीर दिखाई है।साहाजी की विचारधारा लीक से हटकर है। यही कारण है कि वे बदलाव के पक्षधर हैं। वे अपनी ‘नया पाठ’, और ‘प्रश्न’ कविताओं मेंविद्यार्थियों को नई शिक्षा देने के पक्षधर हैं। इनका मानना है कि आज अगर समाज में बदलाव लाना है, तो ‘अ’ से अनाज,‘आ’ से आवाज, ‘क’ से क्रांति और ‘म’ से मुक्ति का पाठपढ़ना होगा।


 आज के इस भूमंडलीकरण के दौर में यदि सबसे अधिक क्षति किसी को हुई है, तो हमारी संस्कृति को। आज के इस बाजारवाद के दौर में बच्चों का बचपन छिनता जा रहा है। पहले जो बच्चे उन्मुक्त आकाश में विचरण करते थे,वे आज बस्तों का भारी बोझ उठाकर पस्त हैं। यही कारण है कि साहाजी‘हमारी संस्कृति’ कविता में लिखते हैं-


“बचपन की उम्र


 घट रही है


हमारी संस्कृति


 जंगल के पेड़ की तरह


कट रही है।”2


साहाजी गुटबाजी के खिलाफ हैं।  इनका मानना है कि आज सर्वत्र इसका प्रभाव देखने को मिलता है।गुटबाजों के अपने मठ हैं। गुटबाज इन मठों द्वारा मनचाहा फल प्राप्त करते हैं। चाहे उनके कहन में कूड़ा-करकट ही क्यों न हो।अपनी‘जो वे कह दें कूड़ा-करकट’नामक कविता में साहाजी ने इसी यथार्थ को दर्शाया है। आज के इस उत्तर आधुनिक युग मेंसाहाजी निरंतर क्षीण होते पारिवारिक संबंधों से आहत हैं। परिवारों में बुजुर्गों की अनदेखी आज के समाज की सच्चाई है। यही कारण है कि साहाजी अपनी ‘जरूरत’ नामक कविता में परिवार में बुजुर्गों की उपस्थिति की अनिवार्यता को दर्शाने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं-


“उत्तर आधुनिक मुखौटा


और चंचल पैसों की


पोशाक पहनकर जहाँ


 आदमी बेमुरव्वत है


वहाँ ऐसे बूढ़ों की


बहुत जरूरत है।”3


‘अंधड़ में संविधान’ नामक कविता में साहाजी ने संविधान की तुलना उस फकीर से की है, जो सिर्फ कुत्तों (अपराधियों और असामाजिक तत्वों) कोआँखें दिखाने का काम ही कर सकता है लेकिन इन कुत्तों के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठा सकता। निरंतर क्षीण होती मानवीय संवेदनाओंसे साहाजी अत्यंत आहत हैं।वे लिखते हैंआज मनुष्य इतना अधिक असंवेदनशील हो गया है कि वह मृत्यु को भी रंग देने से बाज नहीं आता। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि संवेदना की मौत हो जाती है, जबकि मनुष्य की पहचान ही संवेदनाओं से है।ये संवेदनाएँ ही उसे इस सृष्टि का सबसे महान प्राणी बनाती हैं। परदुखकातरता ही मनुष्य की पहचान है।‘हमारी संवेदनाएँ’ नामक कविता में साहाजी ने इसी तथ्य को उजागर किया है।


 आज के अधिकांश साहित्यकार साहित्य के नाम पर कूड़ा-करकट लिख रहे हैं।वे समसामयिक विषयों से अछूते नजर आते हैं। उनका काम सिर्फ अपने साहित्य की वृद्धि करना है। समाज को उस साहित्य से क्या मिला इसकी उसे तनिक भी परवाह और चिंता नहीं है। इसी कारण साहाजी ने‘साहित्य और साहित्यकार’ नामक कविता में साहित्य की तुलना सागर और साहित्यकार की तुलना “नदी से कर बताया है कि


“नदी का काम केवल


 सागर भरना ही नहीं


 प्यास बुझाना भी है।”4


साहाजी अपनी‘गांव और शहर’ कविता में ग्रामीण लोगों और शहरी लोगों के बीच के पार्थक्य को बताया है। गांव के लोग शहरी लोगों की तुलना में ज्यादा आत्मीय होते हैं। उनका दिल निश्छल होता है;वे मिलनसार होते हैं, वहीं शहरी लोगों में धूर्तता और छल-कपट बढ़ता जा रहा है। शहरी लोगों की अपने को शरीफ और दूसरे को चोर कहनेकी फितरत हो गई है।‘चाँद! सच बतलाना’साहाजी की एक व्यंग्यात्मक कविता है। इस कविता में साहाजी ने चाँद के माध्यम से संसद और  खद्दरधारियों पर व्यंग्य किया है। इस कविता में साहाजी कहते हैं कि जिस प्रकार चाँद शांत भाव से सब विसंगतियों और घटनाओं कोनिहारता और मुस्कुराता रहता है, उसी प्रकार हमारे देश की संसद एवं खद्दरधारी भी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को देखकर भी चुप्पी साध लेते हैं। वे खुलकर इन विसंगतियों का विरोध नहीं कर पाते हैं, बस चांद की तरह मुस्कुराने की अदा सीख लेते हैं।‘कुछ बात है’ कविता में भी साहाजी ने खद्दरधारियों पर कटाक्ष किया है।साहाजी लिखते हैं-


“पर खद्दरधारियों की आंखों से


टपक रही मक्कारी


 उनका चेहरा मानों कह रहा है-


 कुछ बात है कि


हस्ती मिटती नहीं हमारी।”5


 आज का मनुष्य इतना स्वार्थी और संवेदनाविहीन हो गया है कि वह रिश्तों का सम्मान करना भी भूल गया है।माँ, बाप, भाई, बहन जैसे बड़े एवं पवित्र रिश्ते भी उसके लिए बेमानीहैं। मृत्यु जैसी बड़ी घटना पर भी परिवार के सदस्यों की असंवेदनशीलता एवं लालच का अत्यंत मर्मभेदी चित्र साहाजी ने अपनी ‘शोक’ कविता में खींचा है, जहां पिता की मृत्यु के पश्चात उनके बेटों में संपत्ति को लेकर झगड़े शुरू हो जाते हैं। पिता की लाश एक ओर पड़ी रहती है औरबेटे संपत्ति के बँटवारे के लिए आपस में झगड़ रहे हैं वे इस चिंता में मरे जा रहे हैंकि दाह-कर्म का खर्चा कौन उठाएगा? रिश्तों की हत्या का ऐसा मर्मस्पर्शी चित्रण निश्चय ही आज कीपारिवारिक व्यवस्था पर चोट करता है। ऐसे अनगिनत साहित्यकार हैं, जो अपना कर्तव्य भूलकर सिर्फ चाटूकारिताकरते और अपना राग अलापते नजर आते हैं। ऐसे लोग वाणी के छल से कविता लिखते हैं। जनता के कष्टों से सरोकार न रखनेवाले ये साहित्यकार सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते नजर आते हैं।‘शब्दों के जादूगर’नामक कविता में साहाजीने इन्हीं तथाकथित साहित्यकारों पर अपनी लेखनी चलाई है। अपनी कविता में साहाजी ने उस विडंबना की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है,जहाँ एक पढ़ा-लिखा बेरोजगार कवि-ह्रदय लिए काबिलियत के बावजूद रोजगार के लिए दर-दर भटक रहा है, वहीं उसका कोई साथी पैसे देकर, तो कोई सिफारिश-जुगाड़ लगाकर नौकरी प्राप्त कर लेता है।इसे देखकर साहाजी समाज और देश से यह प्रश्न करते हैं कि वह बेरोजगार किसके द्वारा छला गया?‘अपनी अभिशाप या वरदान’ नामक कविता में भी साहाजी ने इसी विडंबना की ओर इशारा किया है, जहाँ एक दुर्घटना से दोनों पैर गंवा चुका बेरोजगार युवक इसलिए खुश है कि उसकी इसी विकलांगता में उसे रोजगार का अवसर दिखाई दे रहा है।


 जनता की आवाज आज मर चुकी है। वह आज इन्क्लाब जिंदाबाद नहीं,बल्किइन्क्लाब दाल- भात ही कह सकती है। इस सत्य को साहाजी अपनी कविता ‘मरी आवाज’ में दर्शाते हैं।‘हिंदी दिवस की आवश्यकता’ शीर्षक कविता में साहाजी हिंदी दिवस की प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करते हैं।साहाजी का कहना है कि आज व्यक्ति तथा समाज अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनता जा रहा है। अंग्रेजी बोलने और लिखने में लोगों को गर्व की अनुभूति होती है, वहीं हिंदी का प्रयोग करने में लोगों को संकोच और हीनता का अनुभव होता है। यही कारण है कि आज हिंदी का विकासजिस तेजी से होना चाहिए था, उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है। जब तक हम दृढ़ संकल्प और ईमानदार मानसिकता के साथ हिंदी के विकास की ओर आगे नहीं बढ़ेंगे, तब- तक हिंदी दिवस का यह खेल जारी रहेगा। अपनी ‘माँ’शीर्षक कविता में साहाजी ने माँ की ममतामयी छवि को दिखाया है, जो कभी पिताजी के क्रोध से रक्षा करती है, तो कभी छुपाकर पैसे देती है। यही कारण है कि साहाजी कहते हैं–


“इत्र की खाली शीशी में


सुगंध जैसी


मेरे मन में


बसी है माँ।”6


‘चंपा अब शहर में रहती है’साहाजी की अत्यंत प्रौढ़ कविता है। इस कविता में साहाजी ने स्त्री-चेतना और जागरूकता का चित्र उपस्थित किया है। यही कारण है कि वे कहते हैं-


“चंपा अब काले अक्षरों


और काले मन वाले


 सफेद लोगों को


चिन्हने लगी है।”7


मनुष्य आजइतना अधिक आत्म-केंद्रित हो गया है कि उसे अब सगा- संबंधी, पुरानी मित्रता, अतीत केउपकार से कोई सरोकार नहीं है; वह सिर्फ अपने वर्तमान के लाभ की ओर निहारता है। इसलिए साहाजी अपनी कविता ‘आज का जीवन’ में लिखते हैं-


“ईमानदार को पड़ता है


अपमान का घूंट पीना।


असहज हो गया है आज


सहज होकर जीना।”8


‘अरसा हो गया’ कविता में भी मनुष्य की इसी आत्म-केंद्रीयता  को दर्शाया गया है।साहाजी कहते हैं-


“कभी संसार कभी व्यापार में फंसते देखा ।


अरसा हो गया आदमी को हंसते देखा।”9


‘गाँधी तेरे देश में’,‘नया संविधान लिखें’,‘सबको बहलाये रखिए’,‘भाट सभी बादशे हो गये’,‘विचित्र मंजर’,‘चंद सायों ने सूरज को घेरा है’,‘कौन- सा मुकाम है’,‘चोट खाकर भी मुस्कुराये जाते हैं’,‘मैं और तुम’ आदि कविताओं में साहाजी ने वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण अत्यंत ही शायराना अंदाज में किया है। इन कविताओं में कहीं हास्य तो कहीं व्यंग्य के माध्यम इन्होंने समसामयिक समस्याओं का चित्र खींचा है और उन समस्याओं के चिंतन के लिए लोगों को उत्साहित किया है।‘फर्क’,‘नेता’,‘सलाह’,‘निरामिष दिवस’, आदि कविताओं के माध्यम से जहाँ एक ओरसाहाजी ने देश के नेताओं की पोल खोली है, तो वहीं‘चुनाव’ कविता में चुनावी हथकंडे को दिखाया गया है।‘अनशन समारोह’ कविता में साहाजी ने वर्तमान समय में अनशनकेनाम पर हो रहे दिखावे की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है और यह बताने का प्रयास किया है यह आज अनशन फंक्शन नजर आने लगा है।‘विरोधाभास’ कविता सर्वथासाहाजी की नवीन दृष्टि है। इस कविता में साहाजी ने विरोधाभासों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि आज लोगों की कथनी और करनी में कितना अंतर हो गया है। वह कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ। यही स्थिति विरोधाभास के रूप में प्रकट होती है।साहाजी लिखते हैं-


“देश की राजधानी में


 एक अजीब वाकया नजर आया


कुछ पर्यावरण प्रेमियों ने


पर्यावरण प्रदूषण के विरोध में


टायर जलाया।”10


 भ्रष्टाचार किसी भी देश के विकास में बाधक होता है। इसका उन्मूलन करके देश प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकता है। लेकिन इसके लिए लोगों को ईमानदार बनना होगा।‘भ्रष्टाचार’ कविता में साहाजी लिखते हैं-


“व्यापारी, अधिकारी, नेता, सरकार


 नहीं होंगे ईमानदार


तब- तक चलता ही रहेगा


 मेरा कारोबार।”11


‘अपनी गठरी’ शीर्षक काव्य- संग्रह में ‘हाइकू’ का भी प्रयोग साहाजी ने किया है। इस ‘हाइकू’ में साहाजी ने वर्तमान सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियों का चित्र उपस्थित किया है,जैसे-


“फँसते पंक्षी


 मायाजाल में


अरे! बिग बाजार!”12


 साहाजी ने ‘मुक्तक’ कविता में अपने मुक्तकों के माध्यम से कहीं तथाकथित बुद्धिजीवियों पर तंज कसा है, तो कहीं सियासतदानों के मुख़ौटे के भीतर की असली तसवीर दिखाने का प्रयास किया है।


अतः हम कह सकते हैं कि पंकज साहाजी का काव्य-संग्रह ‘अपनी गठरी’ चेतना परक यथार्थ से परिपूर्ण एक उपयोगी काव्य संग्रह है। साहित्य की थाती इसकाव्य-संग्रह में श्रद्धेय रेणु के शब्दों में हम कह सकते हैं कि “इसमें फूल भी है,शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी।”


 सरल जीवन और महान व्यक्तित्व के धनी साहाजी का‘अपनी गठरी’ काव्य-संग्रह निश्चय ही उनकी प्रतिभा और गहन अनुभूतियों की परिचायक है। साहाजी के शब्दों में,


“सच्चा सुख सरल जीवन में,


भले न सीखी दुनियादारी।


लुभाये भलेचाँदी की चमक


 प्रेम सदा पैसे पर भारी।”13


संदर्भ-ग्रंथ:-



  1. ‘अपनी गठरी’, डॉ. पंकज साहा, पृ.35

  2. वही,पृ.16

  3. वही,पृ.19

  4. वही,पृ.27

  5. वही,पृ.41

  6. वही,पृ.62

  7. वही,पृ.54

  8. वही,पृ.60

  9. वही,पृ.67

  10. वही,पृ.92

  11. वही,पृ.97

  12. वही,पृ.108

  13. वही,पृ.35


 


डॉ. प्रकाश कुमार अग्रवाल


असिस्टेंट प्रोफेसर,हिंदी-विभाग, खड़गपुर कॉलेज, खड़गपुर-721301, प.बं


मो.- 9932937094


 


 


No comments:

Post a Comment

Aksharwarta's PDF

Aksharwarta International Research Journal, January - 2025 Issue