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Tuesday, January 28, 2020

‘‘भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में महिलायें’’

संतोष कुमार मौर्य,शोधार्थी
नेट,जे.आर.एफ.समाजशास्त्र
पी.जी.कॉलेज गाजीपुर  


भारतीय समाज दुनिया भर के मानवशास्त्रीयों और समाजशास्त्रीयों की पहली पसंद रही है उसका कारण भारत की भौगोलिक सीमा के साथ-साथ उसका सामाजिक परिदृश्य भी है। जहां दुनिया आदिकाल से चलकर उत्तर आधुनिक काल तक का सफर तय कर लिया है भारत में भी परिवर्तन के इस कदम में बहुत आगे तक का सफर तय कर लिया है परंतु आज भी अनेक समाजशास्त्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। आज भी भारत में जाति,धर्म,वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक असमानता को बल दे रही है। यह सत्य है कि भारत के लोगों में परिस्थिति में परिवर्तन आया है परंतु वैचारिक मे नहीं,यह दशा आज भी अधिकांश लोगों में देखने को मिलती है। भारत में आज भी आरक्षण को लेकर विभिन्न समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा और आंदोलन हो रहे हैं आरक्षण महिला और पुरुष में भी असमान है इतने परिवर्तन के बाद भी भारत में सेवा के क्षेत्र या कृषि,अभी भी बहुत ऐसे स्थान है जहां पर महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है और कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पर महिलाओं को वरीयता दी जाती है।
भारतीय समाज में स्त्रियों की विविधता अनन्य है और स्त्री नाम पर सभी स्त्रियों को एक ही तराजू में तोलना ठीक नहीं है। हमारा यह तर्क है कि जब हम समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति का मूल्यांकन करें तब हमें इस विविधता को समझना चाहिए। निश्चित रूप से जो समस्या महानगरों में रहने वाली स्त्रियों की है, वे गाँवों की स्त्रियों की नहीं,जहां महानगरों में महिलाओं की सुरक्षात्मक, पारिवारिक, सामाजिक और संवेगात्मक समस्या महत्वपूर्ण है वहीं पर ग्रामीण महिलाएं के सामने शैक्षणिक, आर्थिक एवं शारीरिक समस्या प्रमुख है और दूसरी ओर मातृसत्तात्मक खासी, जनजाति स्त्रियों की जो कठिनाई है, वह बहु-पति वाली टोडा जनजाति की नहीं। समस्याएँ भिन्न हैं, चुनौतियाँ विविध हैं और सभी का विश्लेषण एकसमान नहीं है। 
स्त्रियों की प्रस्थिति में विविधिता होते हुए भी उनके बारे में हमारी एक निश्चित विचारधारा है। यह समझा जाता है कि भारतीय स्त्रियाँ पवित्र और ईश्वरीय हैं। इस विचारधारा के ठीक विपरीत हमारी यह भी धारणा है कि रजस्वला के कारण स्त्रियाँ अशुद्ध और प्रदूषित हैं। कुछ लोगों का विचार है कि उच्च जाति की स्त्रियाँ पतिव्रता और श्रद्धालु होती हैं। उनमें दया, ममता कूट-कूट कर भरे होते हैं। ठीक इसके विपरीत यह भी धारणा है कि निम्न जाति की स्त्रियाँ भ्रष्ट चरित्र की होती हैं और उन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। एक सामान्य धारणा यह भी है कि काम-वासना की दृष्टि से स्त्रियाँ खतरनाक हो सकती हैं। आम धारणा यह भी है कि स्त्रियाँ कमजोर हैं और पुरूषों पर निर्भर हैं। भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति बराबर विवादास्पद रही हैं। एक तरफ उसे महिमामण्डित किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ उसे ‘‘ढ़ोर, गंवार, शूद्र और पशु’’ समझा जाता है। जब कभी स्त्रियाँ रोती हैं, आँसू टपकाती हैं या दहेज की यातना के कारण आत्महत्या करने जाती हैं, तब उन्हें दिलासा दिया जाता है। कहा जाता है कि भारतीय समाज में उनका स्थान हमेशा गौरवपूर्ण रहा है। ऐसी स्थिति में यह बहुत आवश्यक है कि हम स्त्रियों की प्रस्थिति को इतिहास की आँख से देखें। वैदिक काल में वास्तव में स्त्रियों की स्थिति कोई बहुत खराब नहीं थी। इस काल में गार्गी, मेत्रयी, लोपामुद्रा, अपाला जैसी साध्वी स्त्रियाँ इस देश में थी। इन स्त्रियों का वैदिक संहिताओं के निर्माण में बड़ा हाथ था। लेकिन इस काल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था अवश्य थी। जन्म के बाद वैदिक काल में पुरूष और स्त्री में कोई भेदभाव नहीं था। बौद्ध धर्म के काल में स्त्रियों की स्थिति में खराबी आने लगी। धर्म के क्षेत्र में तो स्त्रियाँ पुरूष के बराबर थीं, यहां तक कि वेश्याओं को भी बौद्ध धर्म स्वीकार करने का अधिकार था लेकिन बाद में चलकर स्त्रियों की प्रस्थिति में गिरावट आने लगी। स्वतंत्रता प्राप्ति और भारतीय संविधान में स्त्रियों के अधिकारों के लिए एक नया इतिहास प्रारम्भ किया। अब कम से कम सिद्धान्त रूप में तो स्त्रियों को पुरूषों के बराबर अधिकार मिल गये, पिछले दस-पन्द्रह वर्षां में स्त्रियाँ हर क्षेत्र में आगे आयी हैं। वे घर से बाहर निकली हैं। उनमें नया आत्मविश्वास आया है और उन्होंने हर काम को प्रायः एक चुनौती की तरह स्वीकार किया है। क्षेत्र चाहे उद्योगों के प्रबन्धन का हो, या होटल मैनेजमेंट का, डाक्टरी-इंजीनियरी का, चाहे प्रशासनिक पदों का, पुलिस या वकालत का, पत्रकारिता या विज्ञापन एजेंसी का, हर जगह अब स्त्रियाँ कामकाज करती हुई दिखाई पड़ती हैं। ऐसे किसी मुकाम पर, जहां पहले केवल पुरूषों का वर्चस्व था, अब स्त्रियों को तैनात देखकर हम चौंकते नहीं हैं। कामकाजी स्त्री प्रायः बेझिझक बात करती हैं, अपनी जिम्मेदारी को समझती हैं और स्त्री होने के नाते अपने लिए प्रायः कोई छूट नहीं चाहती। 
भारतीय समाज के लिए यह निश्चय ही एक बड़ी घटना है। लगभग एक ‘क्रान्ति’ जो धीरे-धीरे और चुपचाप घटित हुई है। यह सचमुच गौर करने वाली बात है कि यह क्रान्ति एलानिया तौर पर नहीं हुई, वास्तव में स्त्री की दुनिया बहुत बदली है- खास तौर पर मध्यवर्गीय स्त्री की बदलाव कुछ और भी हुए हैं, कई रूढ़ियाँ टूटी है और अच्छे के लिए भी टूटी हैं। मसलन पहनने-ओढ़ने की दुनिया को ही लें इस दुनिया में विकल्प बढ़े हैं। इन्हीं 10-15 वर्षां में सलवार-कमीज का चलन प्रायः पूरे देश में बढ़ा है। भारतीय परम्परा अपनी प्रारम्भिक अवस्था में नारी-विकास में बाधक के रूप में रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात् समाज-सुधारकों के प्रयास के फलस्वरूप नारी-जीवन शिक्षा को प्राप्त कर उर्ध्वगामी होता चला गया। बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों तक आते-आते नारी-विमर्श पाश्चात्य नारीवादी विचार के प्रभाव को ग्रहण करता हुआ एक प्रगतिशील विचार के रूप में उभर कर आया है। अर्थात यह कहना सही लगता है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी-विमर्श अब इतना आदर्शवादी नहीं रहा कि स्त्री को मात्र देवी और समाज में अच्छाई के फरिश्ते के रूप में ही चित्रित करते रहें। अन्ततः यह कहना सही होगा कि पाश्चात्य देश में स्त्री जहां पुरूष के साथ समान अधिकार रखने की स्पर्धा करती है, वह सहधर्मी नहीं, बल्कि प्रतिद्वन्द्धी समझी जाती है, वही भारत में भी अब यह विचार अपना स्थान बनाने लगा है। यहाँ की नारी भी अब पुरूष की संगिनी के साथ-साथ उसकी समान धर्मी बन रही है। आधुनिक काल में अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण भी यह भावना अधिक बलवती हो उठी है। कहना सही लगता है कि आज भारतीय भूमि पर नारी-विमर्श की सोच अधिक गतिशील, व्यावहारिक एवं चेतनशील है। हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि एक बेटी दस बेटों के बराबर है। वे लड़कियों के समाज में होने की महत्ता का उल्लेख कर रहे थे एक प्रधानमंत्री का लड़कियों के महत्व को हर बार रेखांकित करना महत्वपूर्ण है। लड़कियों को अपने समाज में दुहिता नाम से भी पुकारा जाता है, यानी कि वे दो परिवारों का हित करने वाली होती हैं, अपना मायका और ससुराल। इन दिनों जब लड़कियों को अधिक से अधिक आत्मकेन्द्रित, निष्ठुर और स्वार्थी बनाने की कवायद जारी हैं, ऐसे में यह परिभाषा गये जमाने की बात लगती है। यह हल्ला भी चारों ओर मचा है कि चूंकि लड़कियों को पुरूष सत्ता ने बहुत सताया है, इसलिए जब तक पुरूषों का सिर कलम न करा दिया जाय और मातृसत्ता न आ जाए, तब तक लड़कियों का भला नहीं हो सकता। हालांकि यह भी सच है कि अपने ही देश में जिन समाजों में मातृ सत्ताएं हैं, वहां भी न केवल औरतें बल्कि पुरूषों को भारी शोषण का सामना करना पड़ता हैं।
आज भारतीय समाज सबसे ज्यादा फिक्रमन्द है बलात्कार को लेकर, समाज में आ रहे बदलाव को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हम आधी आबादी को वह सब दे पा रहे हैं जो उसे मिलना चाहिए था। कुछ घटनाएं भारतीय मानस को झकझोर रही हैं। हाल ही में हैदराबाद में डॉ० प्रियंका रेड्डी की घटना ने, उन्नाव रेप काण्ड ने सम्पूर्ण समाज को झकझोर दिया। साल 2019 में बलात्कार के आंकड़ें बताते हैं कि हर घंटे 4 बलात्कार, हर दिन 89 बलात्कार तथा हर साल 32,559 बलात्कार हो रहे हैं, ये आंकड़े किसी भी समाज की दृष्टि से ठीक नहीं हैं। समाज आए दिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों, बलात्कारों व हिंसा से व्यथित है।
लोगों का कानून से भरोसा उठता जा रहा है। समाज कठोर कानून की मांग भी कर रहा है और उसे उन कानूनों के दुरूपयोग का भय भी सता रहा है। भारतीय समाज में महिलाओं को देवी कहा गया है, लेकिन वह उस देवी का प्रयोग किसी वस्तु की तरह से करता आ रहा है।
 भारतीय समाज, स्त्री को क्या दिया गया, क्या दिया जाय,क्या मिलना चाहिए पर विमर्श में ही उलझा रहता है, जबकि वास्तव में स्त्री को क्या चाहिए वह समाज उसे दे नहीं सकता है। अगर उसे कुछ देना ही है तो उसे शिक्षा दे देनी चाहिए। फिर उसे जो चाहिए व खुद उसे ले लेगी तब जो सत्ता स्थापित होगी वह नारी की स्वतंत्र सत्ता होगी। लेकिन हमें यह ध्यान देना होगा कि नारी की स्वतंत्र सत्ता हो, लेकिन ध्यान रखा जाय कि स्वतंत्र सत्ता का अर्थ नारी की सेक्स इमेज से न जुड़े बल्कि उसका अर्थ हो- समान अधिकार, समान दायित्व।
महिलाओं के साथ हो रहे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक परिवर्तन संक्रमण काल से गुजर रहे हैं यह काल महिलाओं के लिए दुष्कर अवश्य है आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महिलाओं के नजरिए से इनका आने वाला कल निश्चित ही उज्जवल होगा। भारत में महिलाओं का ऐतिहासिक काल प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है। भारतीय महिलाओं का मध्यकाल अत्यंत ही दयनीय दशा में महिलाओं को पहुंचा दिया मध्यकाल में महिलाओं ने अपनी दुर्दशा का निम्नतम स्तर को छुआ, परंतु आज की भारतीय महिलाएं अपनी दुर्दशा का पर आंसू नहीं बहाती बल्कि इन आंसुओं के सहारे इस संक्रमण काल से निकलने का रास्ता बना रही है भारत में बदलती राजनीतिक व्यवस्था ने महिलाओं को अनेक ऐसे अधिकार एवं सम्मान दिया है इससे इनका जीवन निरंतर बेहतर हो रहा है। गांव हो या शहर नगर हो या महानगर महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर, सामाजिक विधानओं की स्वतंत्रता इनको अधिकांश क्षेत्रों में स्वतंत्रता पूर्वक आगे बढ़ने के रास्ते बना रहा है आज अधिक से अधिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी देखी जा सकती है जो इनके उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ने का संकेत है।



संदर्भ सूची -
भारतीय समाज पृ0- 323,324 
स्त्री के लिए जगह पृ0-149
समकालीन स्त्री विमर्श पृ0-11


 


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