लिखते-लखते उसकी पीठ पर अक्सर कुछ रेंगने लगता और उसके हाथ कलम को झटक कर पीछे की ओर उस रेंगने वाले कुलबुलाते कीड़े को मसलने के लिए मुड़ते पर फिर अचानक शरीर में कुछ कंपकपीं-सी, एक झुरझुरी-सी लगती और वह सहसा कुर्सी से उठ जाती..... बीप-बीप मोबाइल हरहरा उठता | डॉक्टर वीर सिंह ठाकुर का मैसेज था उसके लिए |
अगर यही होना था तो क्यों उसने शुरुआत की थी ? क्या जरूरत थी उसे पी.एच.डी. होने की ? क्या छूटा जा रहा था बिना पी.एच.डी. के ? पर एक अनिवार्यता थी... वही रोज़ रोज़ कॉलेज जाना.. लगातार तैयार किए हुए नोट्स के मुताबिक पढ़ाना, .... हर साल बहुत कुछ बदल जाता है और तनख्वाह.... ??? ऊपर से प्रिंसिपल की आशाएं “इंप्रूव योर क्वालिफिकेशनज़... ओनली फाइव पी.एच.डीज़ आर हियर | आय फेल टू अंडरस्टैंड, व्हाट माय प्रीडिसेसर्ज़ हैड डन और आप ? मिसिज़ रॉय? यू हैव लॉट ऑफ पोटेंशियल... यू कैन डू...”
और वह चली आई थी ऑफिस के बाहर... जब आदेश एकतरफा था तो बहस की जरुरत ही नहीं बची थी... मिसिज़ रॉय... मिसिज़ अलका रॉय... मिसिज़ अलका रॉय से डॉ. अलका रॉय होने की शुरुआत करनी थी उसे |
21 दिन का रिफ्रेशर कोर्स संपन्न करने के लिए वह विश्वविद्यालय पहुंच गई थीं | तीन वर्ष पूर्व भी यहीं आई थी रिफ्रेशर कोर्स सम्पन्न करने | बच्चे छोटे थे तब अम्मा को साथ लाना पड़ा था बच्चों की देखभाल के लिए | मौसम भा गया मन को | 21 दिन बहुत जल्दी निकल गये थे |
इस बार... कितना ज़ोर लगाया, कितनी मिन्नतें की थीं... “क्या ज़रूरत है, रिफ्रेशर के लिए इतनी दूर जाने की?... यहां लोकल भी तो जा सकती हो | फिर क्यों... ?”
“कब समझोगे तुम? ... यूनिवर्सिटी-यूनिवर्सिटी में अंतर होता है:... तुम... तुम नहीं समझ सकते | यह मेरी प्राथमिकता नहीं है | मेरे नौकरी की अनिवार्यता है यह... वहां जाने से... बड़े-बड़े लोगों से मुलाकात होगी... आगे बढ़ने के अवसर...”
क्या मिलेगा इन सो कॉल्ड बड़े-बड़े लोगों से मिलकर? चिढ़कर कहा था उसने | “और कितना बढ़ना है तुम्हें आगे?” कठोर आवाज़ चीरती हुई उसे चीर गई |.... “कॉलेज में प्रोफेसर तो हो गई हो | अब और क्या बनना है तुम्हें” ???
एक अप्रत्याशित क्रोध मुख पर छा गया | तड़पते हुए कहा; “तुम क्या समझोगे? तुम्हारी शिक्षा तो शुरू होते ही खत्म हो गई थी...” वह आहत थी और हाथ में आए सिरे को छोड़ देना नहीं चाहती थी वह |
“तो जाओ चली जाओ... कोई फर्क नहीं पड़ता मुझे तुम्हारे यहां न रहने से | संभाल सकता हूं बच्चों को ...तुमसे अच्छा संभाल सकता हूँ | बट वन थिंग... वन थिंग, कीप इन माइंड... यू ऑलवेज़ मेक मी फील स्मॉल... ऑलवेज़...” भड़क गया था वो और फिर मायूस लौट गया था कमरे में |
और वह चली गई थी प्रकृति की गोद में फैले विश्वविद्यालय में फ़िर से 21 दिनों में बहुत कुछ ग्रहण करने की इच्छा लेकर |..... प्रो. ठाकुर भले व्यक्ति लगे थे | विभाग के अध्यक्ष थे, रोज़ रोज़ की मुलाकातें निकट ले आई थीं| प्रो. ठाकुर ने कहा था- “यू आर वैरी इंटेलिजेंट मिसेज़ अलका....| यू मस्ट गो फॉर पी.एच.डी....|” चुपचाप मान लिया निर्णय उसने | न कोई दुविधा, न कोई तनाव | बस हां कर दी थी इस शर्त पर कि निर्देशक प्रो. ठाकुर ही होंगे | दोनों ओर से स्वीकृति...आना होगा हर महीने...दो तीन दिन के लिए...पहले एनरोलमेंट...फ़िर रजिस्ट्रेशन...तरह-तरह की औपचारिकताएं निभाने के लिए उसे आना होगा....जान चुकी थी | 21 दिन के बाद ‘ए’ ग्रेड सर्टिफिकेट के साथ प्रसन्नचित घर लौटी थी |
सारी उदासीनता दूर हो चुकी थी | इतने दिनों के अलगाव के बाद लौटना....कपिल प्रसन्न था | बच्चे बेहद खुश थे...और अलका भी | बहुत परिवर्तन आ गया था घर के वातावरण में| इतने दिनों में बच्चे आत्मनिर्भर हो गये थे| कपिल में बहुत बदलाव आ गया था |हंसता सीटी बजाता घर लौटता पर देर से...पूरी तरह से उन्मुक्त...| सांझ ढले तो पक्षियों को भी अपने घर की चाह लौटा ही लाती है और कपिल...कपिल लौटता तो ज़रुर पर तब जब अंधेरे में दुनिया डूब कर सो चुकी होती....
हर महीने अलका को विश्वविद्यालय जाना होता | प्रो. ठाकुर खूब मेहनत करवाते | रजिस्ट्रेशन तक बहुत साथ दिया उन्होंने | खाने, रहने का पूरा प्रबंध कर देते थे उसके लिए हर बार | बार-बार मिलते आत्मीय शब्दों ने अलका को घायल कर दिया था | मन के भीतर के कपिल से जुड़े सारे शिकवे ज़ुबान पर आ गये थे |
चार साल बीत गए | अलका कभी अकेली जाती, कभी कपिल भी चल पड़ता सपरिवार उसके साथ | छ: माह पूर्व थीसिस जमा हो चुका था | अब 17 तारीख़ को मौखिकी थी |
सांझ हो चली थी... अलका विश्वविद्यालय के अथिति गृह में पहुँच चुकी थी | अगले दिन मौखिकी में क्या-क्या औपचारिकताएं निभानी होंगी...अभी तक सामने कुछ साफ़ न था | बार-बार अलका प्रो. ठाकुर को फ़ोन करती...पर उन्होंने कुछ नहीं बताया | अंधेरा होते-होते कमरे की घंटी बजी तो वह कुछ चौंकी..इस वक्त? कौन हो सकता है?खाना तो नौ बजे तक लगेगा?सोचते-सोचते उठकर दरवाज़ा खोला तो दरवाज़े पर प्रो. ठाकुर खड़े थे | कमरे के भीतर झांकते और फ़िरअन्दर घुस गए-
“साहब कहाँ हैं आपके” ?
“वो तो नहीं आये सर | क्यों ?....उनका आना जरूरी था” ?
“हां, उन्हें तो आना ही चाहिए था | कल का इंतज़ाम कौन करेगा” ?
बार-बार फ़ोन पर आग्रह करने के बावजूद प्रो. ठाकुर ने अलका के सामने कुछ स्पष्ट नहीं किया था | उसे लगा ही नहीं कि मौखिकी के वक्त कपिल को होना चाहिए | असमंजस की स्थिति में परेशान हो उसने पूछा- तो अब सर?
हंसते हुए कहा उन्होंने उन्होंने-“कोई बात नहीं,आना तो चाहिए था उन्हें, पर चलो, मैं हूँ, कर लूंगा तुम्हारे लिए..पर”
प्रो. ठाकुर ने आग्रह करके उसे अपनी पास वाली कुर्सी पर बिठा लिया था | जिस व्यक्ति से वह भीतर-बाहर की सारी व्याख्या निडरता से कर चुकी थी, आज अचानक उसके साथ बैठकर उसे डर-सा लगा | संकुचित भाव से बैठने, साथ-साथ चाय पीने के अचानक बाद उसे अपनी टांगों पर कुछ चुभन सी महसूस हुई, एक ऐसा एहसास जो सुखद होते हुए भी एक लिज़लिज़ेपन से भरा हुआ था |
“आई अंडरस्टैंड योर डिमांड्ज़”
“व्हॉट डिमांड्ज़ सर ? ...आय... आय हैव नो डिमांड्ज़ सर” यह सब उसके गले के भीतर ही अटक कर रह गया |
पास बिठाकर प्रो. ठाकुर ने उसके कंधों पर हाथ रख दिया | उसके भीतर एक उत्तेजना-सी जगी और भय में विलुप्त हो गई|उनके हाथ अधिक स्वतंत्रता लेने लगे | थोड़ी देर बाद भावुकता से भर कर कहा-“लेट्स गो आउट फॉर सम टाइम... कहीं बाहर ?”
अचानक उसे दिखी वही आदिम बर्बरता जो हर पुरुष में उसके सूट-बूट... उसके कपड़ों के पीछे छिपी खाल के भीतर कुलबुलाती है | क्या ऑफिस में रिवॉल्विंग चेयर पर सूट- टाई और चमचमाते जूतों में, हाथ में पेन पकड़े,सामने टेबल पर पड़े कागज़ों पर हस्ताक्षर करते हाथ, एक आभिजात्य शिष्टता- जिसकी मुरीद हो गई थी वह, क्या यही वह प्रलोभन था जो एक अचूक हथियार बन गया था ? शायद यह स्थिति न आती अगर कपिल उसके साथ आता, अगर कपिल उसे बांध लेता... अगर... अगर वह प्रो. ठाकुर से इतनी न खुलती और वह उसे आभिजात्य जीवन का लालच न देता और उसके हाथों को लेकर उसे सांत्वना न देता |
“कल वाईवा है तुम्हारा” .... अलका जैसे सोते से जागी... ज़ुबान पर ताला लग गया था | साहस करके बोली-‘मतलब’?
“समझाना जरूरी है ? तुम तो बहुत समझदार हो... कल एक्सपर्ट को जल्दी जाना है | हो सकता है वाईवा स्थगित हो जाए | हो सकता है, उसे तुम्हारी थीसिस में कुछ कमी लगे... ?” प्रो. ठाकुर के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान खेल रही थी | वह आतंकित
थीं | उसने विवशता में हाथ जोड़ दिए...
प्रो. ठाकुर की प्रसन्नता धीरे-धीरे क्रोध में परिवर्तित होने लगी थी | खीझ साफ़ दीख रही थी | आंखें अलका की देह में धंसाए प्रो. ठाकुर खड़े थे |
वह पिघल गई | अपने को छोड़ दिया | उसी रात तलवार की धार पर सब कुछ चिरता रहा बे-आवाज़ |
एक लंबे अंधकार के बाद अलका ने ठंडे उजास में डर-डर कर उगती हुई उस सुबह में पहली बार देखा... हृदयाघात के बाद मर जाने वाली हालत का-सा ठंडा शरीर... मौखिकी के लिए जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी | बांटा न जा सकने वाला दुःख हृदय में भर जाने से आंखों से बह निकला | वह सोचती रही “कपिल से क्या कहूंगी ? क्या कभी कह पाऊँगी ?” उस वक्त इस तरह बहते हुए क्षणों को बर्फ कर देना ही उचित लगा...
प्रो. वीर सिंह ठाकुर ऑफिस में प्रसन्नचित्त दीखे | मौखिकी अच्छी रही थी | एक्सपर्ट ने लिखा था, “एक्सीलेंट !! टू बी पब्लिश्ड इन द फॉर्म ऑफ बुक...”
लैटर हैड के नीचे प्रो.ठाकुर और प्रो.वर्मा के हस्ताक्षरों के साथ मुहर लगी थी |
मौखिकी सम्पन्न हो चुकी थी |
डॉ.(श्रीमती)विनोदकालरा
अध्यक्ष, हिन्दीविभाग
कन्यामहाविद्यालय, जालंधर (पंजाब)
Email: vinodkalra66@yahoo.com
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