गुरूनानक की धार्मिक भावना में भक्ति तत्व
सुनीता यादव
शोधार्थी
बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक
गुरू नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रर्वतक है। उनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा को 1469 ई में तलवड़ी (जिला शेखपुरा, पश्चिमी पाकिस्तान) में हुआ। नानक देव जी के प्रादुर्भाव के समय लोग घृणा, द्वेष, निराशा, अविश्वास की प्रबल अग्नि में दग्ध हो रहे थे। ऐसे समय में नानक जी का जन्म नैराश्य से भरी जनता के लिए किसी वरदान से कम नहीं था। उस युग की परिस्थितियों के विषय में इतिहासकार डा0 बड़थ्बाल का कहना है - ”तथाकथित निम्नपूर्ण के हिन्दुओं पर सवर्ण हिन्दुओं का अत्याचार मुसलमानों के अत्याचारेां से भी बढ़कर था।“1 क्योंकि उस समय तक भारत में हिन्दू धर्म में अनेक असंगतियाँ और विकृतियाँ आ गई थी और साथ ही मुस्लिम धर्म का प्रसार-प्रचार भी भारत में हो रहा था। अंधकार के घने कोहरे को दूर करते हुए नानक देव जी ने सरल भक्ति मार्ग का रास्ता सामान्य जन को दिखाया। इस सम्बन्ध मंे हजारी प्रसाद द्विवेदी का विचार है - ”भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवत भक्ति। आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरल लीलाओं का गान।“2
गुरू नानक ने भगवत् स्मरण को ही धर्म का मुख्य आधार बताया। धर्म की व्याख्या, सभी साधु-सन्तों ने अपने-अपने अनुसार की है। लक्ष्य सभी का एक ही है- परमतत्व का ज्ञान अर्थात् परमानन्द से मिलन। अतः धर्म के अनेक रूप प्रचलित है।
धर्मः स्वरूप, तत्व एवं धारणा
धर्म केवल बौद्धिक उपलब्धि ही नहीं; बल्कि मनुष्य की स्वाभाविक एषणा है। हमारे धर्मग्रन्थों में धर्म का एकमात्र उद्देश्य हित और कल्याण बताया गया है। जिसका आदि, मध्यम और अन्त सभी कुछ कल्याणमय है। ऐसे कल्याणकारी धर्म का महत्त्व निर्विवाद सिद्ध है। वह व्यापक और शाश्वत सत्य है। धर्म से सुख, हित और कल्याण की प्राप्ति होती है। धर्म से बढ़कर मनुष्य का दूसरा कोई मित्र नहीं है सभी मित्र संबधियों से एक दिन साथ छूट जाता है, किन्तु धर्म जैसे मित्र का जीवन भर और जीवनो परान्त भी साथ बना रहता है। धर्म पर आचरण करने से इस लोक में भी आयु, बल, यश, विद्या आदि जितनी भी निधियाँ हैं, वे सभी सहज ही मिल जाती है। संकट के समय में भी धर्म ही रक्षा करता है। नानक ने कहा भी है-
”धनु धरनी अरू संपति सगरी जो मानियों अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई।।“3
अतः धर्म सर्वस्व है। धर्म का सीधा अर्थ धारण करना है। संस्कृत में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति (ध) धातु से हुई। ‘यः धारते इति स धर्मः।’इन वाक्यों से धारण करने का ही भाव परिलक्षित होता है। प्रकृति गुणों के भेदाभेद से युक्त अपने स्वरूप् को धारण करती है। आकाश, शब्द, नक्षत्र एवं सौरमण्डल को धारण करता है मानव, पशु-पक्षी, कीट, पंतग, शुक, मूषक, अन्ड्ज, स्वेदूज, जरायुज, उद्भिज, धान्य, तृण, वृक्ष, रस, फल, पुण्य, जन्म, मरण, पाप, पुण्य, सत्य, अहंकार आदि अगणित पद-पदार्थों के कोटि-कोटि योनियों को पृथ्वी धारण करती है। जल एवं उसमें उत्पन्न विविध जीव-जन्तुओं तथा पद-पदार्थों को पाताल धारण करता है। अर्थात् चराचर जगत एवं त्रैलोक्य की सत्ता को एकमात्र धारण करने वाला धर्म ही है। इसलिए धर्म अनेक व्याख्याओं और परिभाषाओं से संकुल है। इस विषय में नानक देव ने कहा भी हैं-
”हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई।“4
प्रभु के सिवा मनुष्य का कोई नहीं है माता-पिता, भाई-बंधु पत्नी-बेटा सब सांसारिक मोह-मोया है। सच्चा प्रेम तो प्रभु के स्मरण से ही प्राप्त हो सकता है।
आज धर्म बुद्धि की कसौटी पर चढ़ा हुआ है। इस वैज्ञानिक युग में तर्क का ही बोलबाला है। बौद्धिक विकास की तो मानो बाढ़ आ रही है और स्वतन्त्र चिंतन का मूल्य बढ़ रहा है। इस स्थिति में धर्म की रूढ़ धारणाएं अपना अस्तित्व बनाए बिना नहीं रह सकती। अतः आज उसी धर्म का अस्तित्व रह सकता है जिसमें बौद्धिक चुनौतियों को समझने की क्षमता हो।
गुरू नानक देव: धर्म साधना
गुरू नानक देव जी निर्गुण संत परम्परा के भक्त कवि थे। इस परम्परा में आत्मा व परमात्मा के परस्पर मिलन का उपक्रम मानव जीवन का लक्ष्य माना जाता रहा है। ज्ञान, कर्म तथा भक्ति आदि इस उपक्रम के विभिन्न स्वरूप रहे हैं। तर्क एवं दर्शन द्वारा, पूजा-अर्चना, योग-साधना, हठयोग तथा इसी वर्ग की क्लिषट साधनाओं द्वारा आत्म की सिद्धि के प्रयास होते रहे हैं। परन्तु पूर्व परम्पराओं के श्रेष्ठ तत्वों को सुरक्षित रखते हुए भी, भक्ति को अर्थात् भावपूर्ण आत्म समर्पण। आत्मा की सिद्धि के सर्वोत्तम साधन के रूप में गुरू नानक जी ने प्रतिष्ठित की है। भक्ति का सर्वजन सुलभ स्वरूप का प्रचार गुरू नानक जी ने किया। उनके विचार से गुरू ही हमें ईश्वर मिलन का मार्ग दिखाते हैं।
”गुरूमुखि नादं गुरूमुखि वेंद गुरमुखि रहिआ समाई।
गुरू ईसरू गुरू गोरखू बरमा गुरू पारबती माई।।“5
भक्ति जाति तथा मत-मतान्तर के भेद को नहीं स्वीकारती। किसी भी प्रकार की विशेष पूजा-पद्धति, प्रणाली, कर्मकाण्ड, धार्मिक पाखण्ड और बाह्य रूपिता को भक्ति कतई स्वीकार नहीं करती। इन सब धार्मिक कर्मकाण्डों का भक्तिके महत्व के संदर्भ में कोई स्थान नहीं है। नानक देव के युग में भक्ति-भावना का उद्य युगीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिस्थितियों के दबाव के फलस्वरूप हुआ। उन्होंने कहा भी है-
”थापिया न जाइ कीता न होइ।
आपे आपि निरंजनु सोई।।“6
अर्थात् भगवान अजन्मा, निरांकार, मायातीत, अनादि, अनन्त व सिद्ध स्वरूप है।
भक्ति-आन्दोलन की निर्गुण सन्त परम्परा के पूर्व-पुरुषों में गुरू नानक देव परिगण्य है। वे अपने धर्म, चिन्तन मंे आत्मा-परमात्मा के सम्बन्धों में, आत्म-सिद्धि के साधन में श्रेष्ठ तत्वों को स्वीकार करते हुए भक्ति के मार्ग पर प्रशस्त होते है। उनके अनुसार मानव अपने कर्मो के कारण सुख और दुख को प्राप्त करता है-
”करमी आवै कपड़ा, नदरी मोखु दुआरू।
नानक एवै जाणिएँ, सभु आपे सचिआरू।।“7
कर्मो के अनुसार यह शरीर बदलता है परन्तु मुक्ति-मोक्ष तो सिर्फ प्रभु कृपा से संभव है। इसीलिए समस्त भ्रमों को दूर कर ईश्वर रूपी परमतत्व को प्राप्त करने के लिए समस्त प्रयास करने चाहिए। क्योंकि जब मनुष्य ईश्वर की शक्ति को नाकार देता है तो भयानक कष्ट और पीड़ा से उसका जीवन भर जाता है -
”इकु तिलु पियारा वीसरै रोग बड़ा मन माहि।।“8
(नानक वाणी, सिरी राग शब्द 20)
नानक जी के अनुसार परमात्मा के दर्शन के लिए प्रभु का गुणगान करना चाहिए जिससे वे अपनी कृपा बनाए रखें -
”कोई कि अगै रखीऐ, जितु दिसै दरबारू।
मुहौ डि बोलणु बोलिएै जितु सुणि घरे पिआरू।।“9
नानक जी के जन्म से पहले हिन्दु धर्म में अनेक विसंगतियों के कारण ऊँच-नीच का भाव अपने उच्चतम स्तर पर था कबीर दास जी ने सर्वप्रथम सन्त काव्यधारा का सूत्रपात किया। गुरूनानक देव कबीर दास जी को अपना गुरू मानते थे। वे उनके बनाए मार्ग पर चले और अपने मार्ग का निर्माण भी उन्होंने स्वयं किया।
”धन्य पुरुष ज्ञानी करतारा। जीवकाज प्रकटे संसारा।
धनि करता तुम बंदी छोरा। ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा।।
दिया नाम दान किया उबारा। नानक अमरलोक पग धारा।।“10
गुरू नानक देव जी के दर्शन, चिन्तन, काव्य और सामाजिक-प्रदाय के सम्बन्ध में देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं और विभिन्न मत के मानने वालों ने खूब विचार किया है। सिक्ख धर्म के आविर्भाव के सन्दर्भ में गुरू नानक देव की वाणी पर भी अनेक विद्वानो ने अपने विचार रखे हैं। गुरू नानक देव जी की वाणी में सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का खण्डन और मानव एकता व सहकारिता की भावना को जागृत करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है। गुरू नानक जी ने अपनी वाणी में सामाजिक विचारों एवं जनमानस की आवाज को निर्भीक परन्तु विनम्र भाव से मुखरित किया। यद्पि उन्होंने इस युग की सामाजिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और मिथ्याचारों का विरोध अपनी वाणी से किया है परन्तु कहीं भी उन्होंने कटु वाणी का प्रयोग नहीं किया। बड़े विन्रम शब्दों में उन्होंने अपने मत को रखा है। उनके अनुसार प्रभु सेवा से ही हमारे कष्टों से हमें मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है-
”गावीऐ सुणीऐ माने रखीऐ भाउ।
दुखु परहरि सुखु धरि लै जाइ।“11
निर्गुण भक्तिधारा के अधिकांशतः सन्त सद्गृहस्थ थे। वे संसार को नहीं प्रत्युत सांसारिक मोह-माया को त्यागने का उपदेश देते थे। गुरू नानक उच्च कोटि के साधक, महान विचारक, समाज-सुधारक, कर्मयोगी व कवि थे। उनके मतानुसार परब्रह्म परमात्मा ही एकमात्र जीव का सहारा है -
”दीन दयाल सदा दुःख भंजन, ता सिउ रूचि न बढ़ाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैंनाई।।“12
गुरू नानक देव जी ने अन्य संतों की भांति यही उपदेश दिया कि मानव को संसार में रहते हुए स्वच्छ मन से लौकिक कार्यो को करते हुए, निष्काम भाव से, साम्प्रदायिक भेद-भाव एवं धार्मिक कट्टरता का विरोध करते हुए, मानवता व आपसी प्रेम पर बल दिया। क्योंकि सृष्टि का पालनहार एक है, हम सभी उसी ब्रह्म के अंश है।
”एक ओकांर सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ निरवैरू,
अकालमूरति, अजूनि, सैंभ गुर प्रसादि।।“13
नानक जी की युगीन परिस्थितियाँ बड़ी विकट थी। भांति-भांति की साधना-पद्धतियाँ प्रचलित थीं तथा कुछ ही जातियों व वर्णों के लोगों को योग व भक्ति का अधिकार प्राप्त था। बहुसंख्यक समाज इन अधिकारों से वांचित था। गुरू नानक जी ने अपनी भक्ति के द्वारा बाह्यआडम्बर और पाखण्डों का विरोध किया, व सरल से सरल भक्ति भावना की प्रतिष्ठा की। उनके अनुसार सेवा भावना श्रेष्ठ भाव है मनुष्य के भीतर।
”जिनि सेविआ तिनि पाइया मानु, नानक गावीऐ गुणी निधानु।“14
गुरू नानक जी की वाणी की प्रासंगिकता उनके जीवन मूल्यों में निहित है। सभी जीवनमूल्यों में सर्वापरि है - मानवमात्र की एकता उनके अनुसार सभी जीव एक ही पिता की सन्तानें है। सबका सुख समान है और सबका दुःख भी समान है क्योंकि सभी जीव एक ही ज्याति से बने है -
”गुरू इक देहि बुझाई।
सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरि न जाई।।“15
गुरू नानक देव जी ने अपने प्रभु के स्मरण और रागात्मक भक्ति को ही श्रेष्ठ बताया है, यद्पि - कर्ममार्ग, प्रेममार्ग और ज्ञानमार्ग रूपी भक्तिधारा भी उनकी वाणियों में सर्वत्र दिखाई पड़ती है। वे बाह्यआड़म्बरों को पाखण्ड मानते थे। प्रभु से मिलन व विरह प्रेमा भक्ति में आवश्यक है -
”नानक मिलहू कपट दर खोलहू एक घड़ी खटु मासा“16
(नानकवाणी, तुखारी, बारहमासा, पउडी 12)
गुरूनानक जी की भक्ति धर्म के प्रवृतिमूलक सिद्धान्त पर आधारित है। धर्म ने भारतवर्ष में सदैव समाज और राजनीति को संचालित किया है। उस काल में हिन्दू व मुसलमान दोनों ही धर्म को मानने वालेे अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए थे। परन्तु सच्चाई यह है कि धर्म का सच्चा स्वरूप कहीं दिखाई न देता था। इस सम्बन्ध में नानक देव जी ने अपने शिष्य लालों से कहा - ”शर्म और धर्म दोनों ही इस संसार से विदा हो चुके है और झूठ प्रधान होकर फिर रहा है। काजीयों और ब्राह्मणों की बातें समाप्त हो गई और अब विवाह शैतान करवाता है“ ऐसी विकट परिथितियों में गुरू नानक देव जी ने भक्ति मार्ग को अपनाया व उत्तरी भारत को घोर निराशा व अंधकार भरे माहौल से बाहर निकला। मत-मतान्तरों का खण्डन करते हुए एक ही शक्ति की भक्ति पर विश्वास जताया।
”साहिब मेरो एको है। एको है भाई एको है।
आपे रूप करे बहुत भांती नानक बुपड़ा एवं कह।।“17
(गुरू ग्रंथ साहिब राग आसावरी, महला 1)
हिन्दु धर्म में फैले आड़म्बरों को दूर करने का श्रेय संत काव्यधारा के भक्तों को अवश्य दिया जाना चाहिए। इतिहासकार कनिघंम ने कहा है - ”यह सुधार गुरू नानक के लिए अवशिष्ट था। उन्होंने सुधार के सच्चे सिद्धान्तों का सूक्ष्मता से साक्षात्कार किया और ऐसे आधार पर अपने धर्म की नींव डाली, जिसके द्वारा गुरू गोबिन्द सिहं जी ने अपने देशवासियों का मस्तिष्क नवीन राष्ट्रीयता से उत्तेजित कर दिया और उन सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया कि छोटी और बड़ी जाति तथा उनके धर्म समान है। इसी भांति राजनीतिक सुविधाओं की प्राप्ति में भी सभी की समानता है।“18
गुरू नानक देव जी भक्त होने के साथ-साथ दार्शनिक, चिंतक, राष्ट्रीय एकता के प्रबल समर्थक, विश्व भातृत्व भाव के पुरोधा, सच्चे साधक, मानवतावादी और समानता के सच्चे हिमायती थें। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक यात्राएँ की भांति-भांति के लोगों से मिले और अतः में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार को रचने वाली शक्ति एक ही है और समस्त जीव व जगत् उसी प्रकाश की किरणें है। सब एक ही है और एक ही ज्योति में अन्त में सभी समा जाएंगे तो भेद-भाव, मान-अपमान, ईष्या, घृणा, द्वेष, तेरा-मेरा, लोभ-लालसा, तृष्णा-लिप्सा आदि सभी मनोविकारों को छोड़कर गुरू नानक देव जी द्वारा दिखाए गए भक्ति मार्ग पर आज की पीढ़ी को चलना चाहिए। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा भी है -
”मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयों नीत।
नानक भव-जल-पार-परै जो गावे, प्रभु के गीत।।“19
अर्थात् परन्तु मन को जितना भी समझा ले, वह अभी प्रभु नाम के महत्व को समझ नहीं पा रहा है। इस ससंार चक्र को वही पार करेगा तो प्रभु के नाम को स्मरण करता हो। नाम के महत्त्व को नानक देव जी ने सर्वत्र बताया है। नाम स्मरण के साथ उनकी भक्ति भावना में गुरू का स्थान सर्वोच्च है। गुरू की महिमा से ही बुद्धि व प्रभु भक्ति को पाया जा सकता है। उनकी शिक्षा का यही संदेश है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान और सत्य है, ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। नाम-स्मरण सर्वोपरि तत्व है जिसे गुरू द्वारा प्राप्त किया जाता है उनकी वाणी भक्ति, ज्ञान, वैराग्य से ओत-प्रोत है। नानक ने ठीक ही कहा है -
”अंजन माहि निरंजनि रहीये जोगु जुगाति इब पाईये।
गली जोगु न होई।“20
एक दृष्टि करि समसरि जाणे जोगी कहिये सोई।।
नानक देव के विचारानुसार वास्तविक भोग संसार में रहते हुए भी सांसारिक बुराईयों से दूर रहने में है। वास्तविक सच्चा गुरु सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखता है।
अतः गुरू नानक देव जी की भक्ति भावना आज भी उतनी ही प्रासंागिक है जितनी उस युग में थी। मनुष्य मात्र से प्रेम करना तथा सामाजिक भेद-भाव को दूर करना, आज भी आवश्यक है। समाज अपनी गति से चलता है। साधु-सन्त समाज के उत्थान में अपना योगदान सदियों से देते आए है। गुरू नानक देव जी ने भी अपनी वाणियों से तृप्त धारा को शान्त किया और भारतभूमि को आपसी सद्भाव, प्रेम, भाई-चारे, सहिष्णुता आदि भावों से लबाबल भर दिया। गुरू नानक देव जी आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने अपने युग में थे और आने वाली सदियों तक जनमानस को अपनी भक्ति भावना से प्रेरित करते रहेगें।
संदर्भ ग्रथ
1 जयराम मिश्र, गुरूनानक देव जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1972, पृ0 सं0 14
2 सुखदेव सिंह शर्मा, 1973, धर्म दर्शन (हिन्दी), पटना:बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
3 https://karmabhumi. Org>gurunanak
- http://hindi.webdunia.com.guru nanak dev.
- https://ansunibaate.com>nanak.dev.
- https://karmabhumi.org>gurunanak.dev
- https://karmabhumi.org>gurunanak.dev
- जयराम मिश्र, नानक वाणी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चतुर्थ संस्करण, पृ0 सं0 120
- https://hi.m.wikipedia.org.gurunanak.dev
10- https://www.sikhiwiki.org-index.php
11- https://karmabhumi. Org>gurunanak
12- http://hindi.webdunia.com.guru nanak dev.
13- https://hindi.webdunia.com>guru nanak.deve
- https://karmabhumi. Org>gurunanak
- https://www.bhaskar.com>news
- जयराम मिश्र, गुरूनानक देव जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1972, पृ0 सं0 675
- गुरू ग्रन्थ साहिब
18 डा0 कनिधम, हिस्ट्री आफ द सिक्खिज्म: रूपा एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, पृ0 38-39
19 http://hindi.webdunia.com, Guru Nanak Dev.
20 https://hi.m.wikipedia.org.gurunanak.dev
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