जीवन के विविध रंग: सहयात्री है हम: जय वर्मा
डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
चेयर, हिंदी, आई सी सी आर, वार्सा युनिवर्सिटी, वार्सा, पोलेण्ड
जय वर्मा का नाम प्रवासी साहित्यकारों में लिया जाता है। यह नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। 40 वर्षों से अधिक ब्रिटेन के नॉटिघम में रहने वाली भारतीय मूल की जय वर्मा दो संस्कृतियों की टकराहट, संघर्ष से उपजी संवेदना को खूबसूरत तरीके से बयाँ करती हैं। एक कहानीकार और एक कवयित्री के रूप में जय वर्मा का हिंदी समाज प्रेमियों से परिचय है। उनका काव्य संग्रह ''सहयात्री हैं हम' उनकी लगभग 78 कविताओं को समेटे हुए है। इसका शीर्षक ही अपनी आध्यात्मिकता, अपने दर्शन की व्याख्या को अनूठे ढंग से परिभाषित करता नजऱ आता है। यह भी कहा जा सकता है कि जीवन को कवयित्री ने महज सहयात्री के रूप में चित्रित करके, सबको साथ लेकर चलने की बात कही है। जीवन एक अंतहीन यात्रा है, जिसमें हम सब सहयात्री के रूप में अलग-अलग रिश्तों में बँधे हुए, अपनी-अपनी भूमिका निभाते हुए चले जाते हैं। यात्रा के इस सफऱ में संवेदना की तासीर शुष्क न हो, तो जीवन सुखद बन जाता हैए जीवन यात्रा मंगलमय हो जाती है।
कवयित्री का मन संवेदनाओं से भरा पूरा अपने भारतीयता के रंग में डूबीए रिश्तों की गर्माहट को बनाए रखने वालीए सुदूर दूसरी संस्कृति की कर्म प्रधानताए यथार्थवाद की वास्तविकता से जुड़ी होने पर भी मानवता को मूल मंत्र मानकर जीना जीने का संदेश देती नजऱ आती हैं। यही सोच भारतीय दर्शन, आत्मसाक्षात्कार, आत्मविश्वास से उपजा मैं क्या हूँ? की देन है। भारतीय सनातन परंपरा का निर्वाह करती कवयित्री जय वर्मा ने अपने काव्य संग्रह की पहली कविता में माँ शारदे या सरस्वती को स्मरण करते हुएए आशीर्वाद लेते हुए माँ के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहती हैं-
प्रेम और विश्वास सृजन का
माँ शारदा ने दिया आशीष
श्रद्धा सुमन के पुण्य गुच्छ से
नतमस्तक करती हूँ प्रणाम (पेज 33)
माँ शारदे की अद्भुत कृपा, माँ शारदे अपने भक्तों को प्रेम और विश्वास का पाठ सिखाकर जीवन में विश्व बंधुत्व मैत्री की सीख देती हैं। यही भावना लेकर चलने वाली कवयित्री का स्वर कहीं भी निराशा से आतंकित नहीं है। आशा और आस्था से जीवन यात्रा को सुखद बनाने की बात कहती नजऱ आती हैं। कविता को अगर क्षण की अनुभूति कहा जाता है, तो हर पल का महत्व है। शायद यह पल दुबारा जीवन में ना आए। हर पल को खुशी के साथ जीने का नाम ही जिंदगी है। सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दो चार तीन का भाव देखिए, एक पल में-
एक पल के लिए जी लेने दो
एक पल ही तो बस अपना है
इस पल को मुझे छू लेने दो।
................................
सागर को मिलने जाए
भुलाकर अपना अस्तित्व
वह सागर में खो जाए
उस पल के बाद बस
नदी फिर कभी नदी न कहलाए (पेज 34,35)
डॉ. कुँअर बेचैन ने इस कविता के संदर्भ में कहा है किए जीवन को यदि दार्शनिक रूप में समझने की कोशिश करें तो हम सब एक जीवन नहीं जीते वरन् एक जीवन में हजारोंए लाखों-करोड़ों पल जीते हैं और एक-एक पल स्वयं में स्वतंत्र जीवन है। इस तरह हम एक जीवन में लाखों करोड़ों जीवन जीते हैं। (पेज 14)प्रेम की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति इतनी सरल भाषा में बहुत कम देखने को मिलती है। कबीर के ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ैं सो पंडित होय, का भाव नजऱ आता है। प्रेम के बिना, हर पल निरर्थक है, उसका कोई मोल नहीं है। प्रेम, आस्था, विश्वास के कारण ही हर पल जीवन बन जाता है, एक ऐसा लम्हा जो सदैव याद रहता है। कवयित्री को मुलाकात की हर पल की खुशबू उसके जहन में है, वह कहती हैं-
हर लम्हा जिन्दगी का ले जाए तेरी ओर
हर पन्ने पर लिखा है नाम तेरा चितचोर (पेज 50)
दीवानगी का आलम, मीरा सा भाव लेकर
लौकिक से अलौकिक घरातल की ओर भी संकेत करता है.
जीने का सलीका भी तुम्हारे ढंग से सीखा हमने
अपनी जिंदगी को तुम्हारे रंगों से ढाला हमने
...................................... ...... .......
रूह में जब तक तुम न शामिल
खूबसूरत तस्वीर बन भी जाए तो क्या है (पेज 53)
प्रेम की ऐसी सात्विकता, अंत:करण की पवित्रता से ही प्रिय का रूह में, मिलना हो पाता है। सच्चा प्रेमी तो ऐसा समर्पण माँगता है। सब कुछ छुट जायेगा और प्रेमी-जन का एकाकार हो जाए, यही तो भक्ति है प्रेम की पराकाष्ठा की अंतिम सीढ़ी भक्ति कहलाती है। फासलों का खत्म होना, दूरी मिट जाना, हजारों मील की दूरी पर भी उसकी खुशबू, पराग, सुगंध से सुवासित होना ही प्रेम है। वह लिखती हैं-
छूकर तुम्हें हवाएँ
जो मेरे पास आएँ
खुशबू से मेरा दामन
महक.महक जाए।
मेरे महबूब कदम जहाँ रखो
चमन में बहार आ जाए (पेज 65)
प्रेम के कई नाम हैं. रिश्ते हैंए दिल से पुकारे सब में तुम्हीं हो-
तुम मेरे हो
किसी भी नाम से तुम्हें पुकारूँ
तुम मेरे हो
........
जब शबनम की नमीं आयी आँखों में
बिना पूछे कोई प्रश्न
तुम्हीं ने कंधे को थपथपाया
क्योंकि तुम मेरे हो (पेज 125)
आगे कवयित्री कहती हैं, प्रेम में सखा, सारथी सब कुछ तुम्ही हो-
बन गये तुम सखा
बन गये तुम सारथी
निस्वार्थ कर्म करते रहे
बन गये तुम पुरूषार्थी
....................
तुम जब मिले अपने से लगे
मुसाफिरों की राह में तुम अपने लगे
मिले थे पहली बार पर ऐसे लगे
जैसे कि जानते हैं बरसों से परे (पेज 133)
कवयित्री को केवल प्रेम के संबंध से मतलब हैए बाकी रिश्तों की कोई परवाह नहीं है। प्यार का रिश्ता एक डोर से बाँधने का कार्य करता है।
तेरा-मेरा ये रिश्ता
इसे क्या नाम दूँ
प्यार की न सीमा कोई
पैमाइश को क्या अंजाम दूँ। (पेज 66)
जीवन में दूरियों को पहले खत किसी प्रकार खत्म करते थे, संवेदना किस तरह उभर कर आती थी, शब्दों के बीच में चित्र उभर आता था, पत्रों के अक्षर आशीर्वाद देते लगते थे। लोग खतों को पढ़कर बार-बार पढ़ते, संभालकर रखते थे। खत प्रिय को समीप लाकर खड़ा कर देता था-
तेरे ख़त मिलने का इंतजार था मुझे
आज आयेगा खत जरूर यकीं था मुझे
बार.बार तेरा ख़त पढ़कर मुझे लगा
खड़े हो तुम मेरे करीब ऐसे लगा (पेज 70)
प्रेम की तकरार, प्रेम की इकरार, प्रेम की मौनता को साधे प्रेमी जन किस प्रकार एक दूसरे का आलंबन बनता हैए एक दूसरे की मंजिल होते हैं, दो शरीर एक कैसे बन जाते हैंए इसकी तमाम अनुभूतियाँ उनकी कविताओं में देखने को मिलती हैं। प्रेमी की शिकायत यह रहती है कि तुमने नहीं कहा, ऐ दिल कभी न कहना कि प्यार तुम्हें किसी ने किया ही नहीं। साजन प्रेमी साँवरिया किसी भी नाम से सँवरने वाले का आना प्रेमिका को किस प्रकार आह्लादित करता है देखिए-
दबे पाँव चलकर मैं दर के पट खोल आऊँ
पलकें झुकी हुईँ मैं अभिनन्दन भी भूल जाऊँ (पेज 74)
एक ही पथ के प्रेमी जन कहते हैं.
सहयात्री हैं हम, एक पथ के
गीत भी तुम्हीं और मीत भी तुम्हीं (पेज 109)
यही प्रेम प्रकृति के उपादानों में भी उभर-उभर कर आता है। प्रेम का पहला सहचरए सहयात्री वास्तव में प्रकृति ही है। प्रकृति की उदात्तता, शक्ति का ज्ञान मानव को देर से होता है। मनुष्य जब मनुष्य से प्रेम करने लगता है, तभी उसका अन्त:करण पवित्र हो जाता है। वह प्रकृति के नज़ारे पर गौर करता हुआ, कभी बादल, नदी, झरनें, फूल, बहार में सच्ची खुशी देखने लगता है। जय वर्मा की प्राकृतिक सुषमा का चित्रण मन को ही रंजित नहीं करता है, अपितु सामाजिकता में बंध कर मंगलमयता की सीख देता, जीने का मंत्र देता दिखलाई पड़ता है ध्यान से देखिए-
कृपा करो मेरे प्रभु
बन जाऊँ में एक बादल
बरस जाऊँ मरूस्थल में
बन जाऊँ राहत की बूँद (पेज 39)
फूलों तुम हँसना सिखा दो
अपनी तरह महकना सिखा दो (पेज 42)
खुशबू है बेशुमार चमन में
फूलों में, कलियों में
फैला दो अपना दामन
कसर बाक़ी न रहने दो (पेज 44)
अगर यह कहा जाए कि प्रेमी जन शुद्ध आत्मा की सिद्धावस्था है, जहाँ राग-द्वेष, ईष्र्या खत्म होकर प्रेमी ही प्रेमी जब जगह नजऱ आता है। ऐसा ही रागात्मक प्रेम जो अपने साथ समाज को खुशियों से भरना चाहे, वह प्रेम की अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में नजऱ आती है। जीवन में इंसान मुखौटे पर मुखौटे लगाए हुए है, संघर्ष हैए पीड़ा है, तनाव है, लेकिन उसका उपचार केवल प्रेम ही है। यही कारण है कि कवयित्री ने नारी के माँ स्वरूप को बहुत सुंदर ढंग से दो कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है.माँ कविता देखिए-
शीश नवाता चल जीवन की भक्ति है माँ
घर मंदिर देवालय ममता का आँगन है माँ
..... ..... ....... .......
दिन का सूरज और रात की चंदा है माँ
संपूर्ण परिवार और रिश्तों का प्यार है माँ
जान भी माँगों देने को तत्पर होती है माँ
दुनिया में कौन जिसे न याद आती है माँ (पेज 57)
नारी कविता में नारी की संपूर्णता का दर्जा माँ का ही होता है। पुत्र-पुत्री की छोटी सी पीड़ा, वेदना के सामने अपने पहाड़ से कष्ट को, दुख को भूल जाने वाली नारी माँ ही है। बहुत मार्मिक पंक्तियाँ हैं-
फिर भूल जाती है
वो डॉक्टर के यहाँ
स्वयं को दिखाने आई थी
मगर बच्चे की तरफ देखकर
करूणा भरी आवाज में कहती है
संक्षेप में एक बात
डॉक्टरए मैं तो ठीक हूँ
बस मेरे बच्चे का कर दो इलाज (पेज 102)
केवल बच्चे के रोनेए चुप न होने के कारण से भयभीत माँ का बेहतरीन उदाहरण यह कविता है। कवयित्री 40 वर्षों से विदेश में रह रही हैं। अपने लोगों की यादए देश की सुगंध खुशबू, पर्व-त्यौहार, अपनों की बातें किस प्रकार व्यथित करती हैं। केवल धन हेतु विदेश में आकर बस जाना, सुविधाओं से भरी जिंदगी जीने पर भी अपनापन, अपने देश और अपनों के बीच ही मिलता है। लाख तकरार होए मन-मुटाव हो लेकिन अपने अपने होते हैं। यह प्रवासियों की पीड़ा उनकी कविता आती होगी याद वतन की में देखी जा सकती हैं-
छोड़ गए हम सबको, विदेश में बनाया अपना वास
जल्द वापस आने की, दिला गए थे अनोखी आस
अनजाने देश चले गए, छूट गया अपना वतन
माता.पिता को छोड़ गए, वीरान हो गया उनका चमन। (पेज 60)
यह पीड़ा उनके कहानी संग्रह सात कदम में भी देखने को मिलती है। आश्चर्य की बात यह है कि सभी प्रवासी साहित्यकारों ने इस पीड़ा को बेहतरीन ढंग से उठाया है। हर व्यक्ति अपनी मर्जी, अपनी खुशी से अपने सपनों को साकार करने आया है, जिसकी बहुत बड़ी कीमत उसे चुकानी भी पड़ी है। अब वह देश वापस जा नहीं सकता, वहाँ रह नहीं सकता। दोनों की संस्कृतियों में बहुत अंतर है। केवल याद कर करके आँसू बहा रहा है।
इनकी कविताओं में शहीदों की कुर्बानी, उनकी देशभक्ति का वर्णन भी देखने को मिलता है। हजारों मील की दूरी पर बसे भारतीय किसी भी घटना पर देश के साथ खड़े नजऱ आते हैं। कवयित्री ने शहीद के आखिरी शब्द कविता में लिखा है-
माँ आँसू मत गिरा भगत सिंह की माँ है तू
हँसकर मुझे विदा कर एक शहीद की माँ है तू
...... ....... ....... ....
गिरेगा अगर एक कतरा खून का कहीं
तुरन्त सौ भगत सिंह पैदा हो जायेंगे वहीं (पेज 106)
जय वर्मा ने अंग्रेजी हुकूमत से लड़ाई आज़ादी की ही बात नहीं की है। वह समाज में फैली गुलामी, दासता, परतंत्रता से मुक्त होने की भी बात करती हैं। आज हम स्वतंत्र भारत में भी बच्चोंए नारियों पर थोपी गई गुलामी से त्रस्त हैं तभी वे कहती हैं-
गुलामी की बेडयि़ों को अब तोड़ दो
आज़ादी का हर किसी को हक दो
औरतें हों या गुलाम
या हों छोटे बच्चे
चीखें तो बस सबकी एक हैं
इंसान को समझ इंसान
हम सब एक हैं (पेज 128)
जय वर्मा ने नेल्सन मंडेला के शांति-दूत और क्रान्ति-दूत की छवि को बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया है। गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अफ्रीका में उनका कार्य प्रशंसनीय हैए रंग भेद, जाति भेदए वर्ग भेद को मिटाने का उनका संकल्प सराहनीय है वह लिखती हैं-
हैं झुका रहे अब शीश सभी
प्राणीए दक्षिण अफ्रीका में
मानवता को जो चुभते थे
तुमने सारे हर लिए शूल
बन गए मसीहाए शान्ति प्रेम
भाई चारे, समरसता के
परवशता से आजादी दी
अफ्रीका के पावन सपूत
हे शान्ति दूत हे क्रान्तिदूत
अपनाए वेए जो थे अछूत (पेज 132)
समाज में फैली संवेदनहीनता, बहुरूपियापन, मुख में राम बगल में छूरी वाले इंसानो ने मानवता का इतना हनन किया है कि हम सभी एक दूसरे के प्रति आशंकित से नजऱ आते हैं। पत्थरों के शहर में कविता इसका प्रमाण है-
पत्थरों के इस शहर में
घर हम ढूँढे कैसे
मुखौटों के पीछे छुपे हैं चेहरे
इंसानों को पहचाने कैसे? (पेज 36)
इतना होने पर भी उसकी सोच सकारत्मक बनी हुई है। वह आशावादी हैं तभी कहती हैं
दुख तो हमेशा ही साये की तरह हमारे साथ रहता है
तुम पर गोया नजऱ रखता है
कहीं सुखों के पहलू में तुम सो न जाओ
अपनी सुध.बुध खो न जाओ (पेज 86)
कवयित्री का मन मानवता का हनन होते देख, अपनों को अपनों से लड़ता देखए जाति-धर्म पर लड़ते देखकर दुखी भी होता है। वह प्रभु को रामराज्य के लिए पुन: अवतरित होने की कामना करती हैं।सोमदत्त शर्मा जी के शब्दों में लेखिका की शैली रोचक है। अपनी कविताओं के माध्यम से उनकी कृति में सहजता, मौलिकता, आत्मीयता एवं प्रामाणिकता का एक साथ मूर्तिमंत होते दीखती हैं। (पेज 26) प्राण शर्मा ने लिखाए मन में उतरने वाली पंक्तियों को कहने वाली जय वर्मा करूणा, सहानुभूति और संवेदनाओं की कवयित्री हैं। (पेज 25)
वास्तविकता यह है कि जय वर्मा की कविताओं में संवेदना ही संवेदना हैए जो भाषा की क्लिष्टता से बची हुई है। यही कारण है कि उनका काव्य संसार जीवन के विविध आयामों को व्याख्यायित करता है। वह प्रेम को समाजए देश और विश्व धरातल पर विश्व बंधुता मैत्री पर लाकर खड़ा करती हैं। कविताएँ छोटी और मार्मिकता से भरी हैं। प्रकृति के सुंदर उपादानोंए प्रतीकों से प्राकृतिक सुषमा के साथ.साथ संदेश भी प्रेषित किया गया है। उनकी कविताएँ उनकी जिंदादिली को बयाँ करती हैं। उनका भाषायी बोध उनकी संवेदना पर हावी नहीं हैए यही उनकी विशेषता पाठकों को मंत्रमुग्ध करती है।
No comments:
Post a Comment