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Sunday, January 12, 2020

मालवा के प्रमुख व्रत, पर्व, उत्सव सरोकार और संवेदनाएँ        

मालवा के प्रमुख व्रत, पर्व, उत्सव सरोकार और संवेदनाएँ
        सुदामा सखवार
शोधार्थी, हिंदी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, मप्र.



 प्रस्तावना:- ''लोकसाहित्य का सम्बन्ध Óलोक मानसÓ से माना गया है जहाँ से उसका जन्म होता है। वाणी के द्वारा प्रकृत रूप में लोकमानस की सरल निश्छल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही लोकसाहित्य है। इसमें जन-जीवन का समग्र उल्लास, उच्छवास, हर्ष-विषाद, आशा-आकांक्षा, आवेश-उद्धेग, हास्य-रूदन का समावेश होता है।'' 
 ''लोकसाहित्य में समाज का प्रतिबिंब साफ-साफ  दिखाई देता है। एक अतीत जो हम पीछे छोड़ आए है वही जब किस्सों के रूप में और वह भी परिष्कृत रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होता है, तो उसे बोध कथाओं के रूप में स्वीकार किया जाता है। वर्तमान से अब तक प्राप्त अनुभव को लोककला और लोकगीतों के द्वारा सामाजिक थाती के रूप में सुरक्षित रखने की भावना आदिमकाल से आज तक विद्यमान है। साहित्य यदि जीवन की कथा है जो लोक-साहित्य को हम सामाजिक आचार-व्यवहार तथा सोच की व्याख्या कहेंगे। एक समय था जब संसार के समस्त देशों में मनुष्य प्रकृति देवी का उपासक था तथा प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था। उस समय उसका आचार-विचार रहन-सहन, आडम्बर तथा कृत्रिमता से कोसों दूर सरल, सहज तथा स्वाभाविक था। स्वाभाविकता की गोद में पले इस जीव के समस्त क्रियाकलाप - उठना, बैठना, हँसना, रोना, बोलना साहित्य की रचना तब भी होती थी और आज भी होती है, परन्तु दोनों युगों के साहित्य में जमीन-आसमान का अंतर है। आज का साहित्य अनेक रूढिय़ों-वादों से जकड़ा हुआ हैं कविता पिंगलशास्त्र की नपी-तुली नालियों से प्रवाहित होती है, अलंकार के भार से वह बोझिल है, कथाओं में अनेक शिल्प-विधान का तथा नाटकों की रचना में अनेक नाटकीय नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु उस प्राचीन युग में साहित्य का प्रधान युग भी स्वाभाविकता, स्वव्छन्दता तथा सरलता थी। वह साहित्य उतना ही स्वाभाविक था जितना जंगल में खिलौने वाला फूल, उतना ही स्वच्छन्द था, जितना आकाश में विचरने वाली चिडिय़ा; उतना ही सरल एवं पवित्र था जितना गंगा की निर्मल धारा। तत्कालीन साहित्य का जो अंश आज अवशिष्ट तथा सुरक्षित रह गया है। वही हमें लोकसाहित्य के रूप में उपलब्ध होता है। सभ्यता के प्रभाव से दूर रहने वाली अपनी सहजावस्था की निरक्षर जनता की आशा- निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में उपलब्ध है, वही लोकसाहित्य है। ''पुत्र जन्म से लेकर मृत्यु तक के जिन षोडस संस्कारों का विधान हमारे ऋषियों ने किया है। प्राय: उन सभी संस्कारों के अवसर पर गीत गाए जाते है। प्रिय व्यक्ति की मृत्यु तक पर भी गीत गाने की प्रथा है। विभिन्न ऋतुओं में प्रकृति में होने वाला परिवर्तन उसका साधारण जन के हृदय पर पडऩे वाले-स्वरूप उत्पन्न उल्लास तथा आनन्द की अनुभूति को भी लोकगीतों में गाया जाता हैं। जनता अपने पूर्व पुरूषों के शौर्यपूर्ण कार्यो का भी गान करती है और वीररस का संचरण होता है। इन गीतों को लोकगाथाओं की कोटि से सम्मिलित किया जा सकता है। 
 गाँव के बूढ़ों द्वारा बच्चों को कहानियाँ सुनाना, दादी व माँ द्वारा बच्चों की लोरियाँ तथा छोटी-छोटी कथाएँ, लोगों द्वारा अपने दैनिक जीवन में सैकड़ों मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग और छोटे-छोटे बच्चों द्वारा खेल-खेल में हास्यजनक गीत गाना ये सभी गीत तथा कथाएँ लोकसाहित्य के अंतर्गत आती है। लोकसाहित्य की व्यापकता मानव के जन्म से लेकर मृत्यु तक है और स्त्री-पुरूष, बच्चे, जवान तथा बूढ़े सभी लोगों की सम्मिलित सम्पत्ति है। ''लोक-साहित्यकी सामग्री के संकलनकर्ता को इसका बोध होना चाहिये की वह ऐसे अनमोल रत्नों का संग्रह व संकलन करने का दायित्व निर्वाह कर रहा है। जो किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का प्रतिमान बना हुआ है। वह एक ऐसा संग्रहकर्ता है जो किसी राष्ट्र का अतीत और वर्तमान ही नही वरन् भविष्य निर्माण की सामग्री को संग्रहीत करने वाला है। निश्चिय ही यह कार्य सहज और सरल नहीं बल्कि गुरूत्तर दायित्व निर्वहन का है। इसे मशीनी व्यवस्था से पूरा नहीं कर सकते बल्कि हृदय के अनुराग से रंजित होकर ही सफल बना सकते है। लोक-साहित्य की सामग्री हमारे आदिम पूर्वजों की विरासत है जिसका संकलन करना हमारा नैतिक कर्तव्य बन जाता है।''30लोक-साहित्य का संकलन क्षेत्रीय अनुसंधान का विषय है इसलिये यह विषय मनोविज्ञान, नूतत्व शास्त्र, समाज-शास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र,भाषा-विज्ञान, भूगोलादि से संबंधित है। इसलियेकिसी भी लोक-साहित्य संकलनकर्ता को किसी भी प्रदेश देश की ही नहीं बल्कि संकलन स्थल से जुड़े गांव, कस्बा, नगर स्तर की भी सांस्कृतिक विशेषता, स्थानीय ऐतिहासिक, समाज संरचना वर्ग या वर्ण व्यवस्था, लोकानुष्ठान, रीति-रिवाज, देवी-देवता के अतिरिक्त लोक वर्जना और निषेध का भी ज्ञान होना किसी क्षेत्र विशेष से एकत्र करना चाहता है। ''लोकवार्ता में लोक-साहित्य के विभिन्न उपादान तो सम्मिलित होते ही है। जैसे -लोक-गीत, लोक-गाथाएँ, लोक-पुराण, लोक-कथाएँ, कहावतें, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र जैसे विषय भी इसकी व्यापक परिधि के अंतर्गत समाविष्ट हो जाते है। वैसे तो सह सामग्री मुख्यत: मोखिक होती है तथा परम्परित रूप से संग्राह्य होती है, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि लिखित सामग्री इसकी सीमा के बाहर कर दी जावे।''31 इसलिये संग्रहकर्ता को अपने चयनित विषय और क्षेत्र का पूर्ण ज्ञान होना अपेक्षित ही नही बल्कि अनिवार्य भी है। संग्रहकर्ता हो अथवा शोधकर्ता उसके संग्रह के लिए जिस विधा के विषय शिल्प आदि का सम्पूर्ण बोध होगा तभी तो अपने संकल्पित कार्य के प्रति वह न्याय करेगा। 
 मालवा और मालवी का संक्षिप्त परिचय:- महिलाओं के पर्व एवं अनुष्ठान देश कालीन परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। मध्यप्रदेश लोक साहित्य में निरन्तर विकास की प्रक्रिया ने महिलाओं के पर्व एवं अनुष्ठानों पर भी अपना प्रभाव दिखाया है। हमारे देश में अनेकता में एकता यह भारतीय संस्कृति की विशेषता हैं। संस्कृति समाज का निर्माण करती है। समाज साहित्य का निर्माण और उसी साहित्य के आधार पर समाज में फिर से परिवर्तन आता है। इसी वजह से कि भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता पर प?िचमी सभ्यता प्रभावी ना हो सके। पर्व अनुष्ठानों के वास्तविकता से समाज को परिचित करना ही मेरा उद्देश्य हैं। ताकि हमारे संस्कृति को संरक्षण, संवर्धन और प्रोत्साहन मिल सके। 
 मध्यप्रदेश लोक और जनजातीय संस्कृति के अध्येता श्री वसंत निरगुणे के अनुसार- ''संस्कृति किसी एक अकेले का दाय नहीं होती, उसमें पूरे समूह का सक्रिय सामूहिक दायित्व होता है। सांस्कृतिक अंचल या क्षेत्र की इयत्ता इसी भाव भूमि पर खड़ी होती है। जीवन शैली कला, साहित्य, और वाचिक परम्परा मिलकर किसी अंचल की सांस्कृतिक पहचान बनती है।  
मध्यप्रदेश को एक ओर जहाँ निमाड़ी, मालवी, बुंदेली और बघेली भाषाएं तथा वहीं दूसरी ओर जनजातीय भाषाएं जनपदीय लोकांचलों की वि?िाष्टिताओं के कारण सांस्कृति दृष्टि से समृद्ध बनाती है। मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड अंचल की सांस्कृति परम्परा काफी प्राचीन है। प्राचीन काल में यह भू-भाग कौ?ाल प्रान्त के नाम से सुप्रसिद्ध रहा है। जिसका उल्लेख रामायण में है। बघेलखण्ड का संबंध महाभारत काल से भी रहा है। महाभारत काल का विराट नगर बघेलखण्ड में ही था, जो वर्तमान में रोहागपुर नाम से ख्यात है। भगवान राम के वन-गमन का अधिकांश काल बघेलखण्ड के चित्रकूट में ही व्यतीत हुआ है। उनके वन-गमन की यात्रा भी इसी भूमि से हुई थी। इसलिए यहाँ शिव और वैष्णव संप्रदाय की परम्परा आज भी विद्यमान है। बघेलखण्ड में संत कबीर का भी प्रमाण है। संत कबीरदास के अनुयायी संत धर्मदास, बघेलखण्ड के बांधवगढ़ के सामाजिक रीति-रिवाज, परम्पराएं, कला, साहित्य व संस्कृति का अपना अलग संसार है। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से बघेलखण्ड अंचल का महत्व सर्वोपरि है। 
 मध्यप्रदेश के विंध्य और सतपुड़ा के बीच का भू-भाग, निमाड़ अंचल के नाम से जाना जाता है। प्रशासनिक व्यवस्था के कारण निमाड़ को दो भागों में विभाजित किया गया है, पहला भाग पूर्वी निमाड़ और दूसरा भाग पष्चिमी निमाड़। लेकिन खान-पान, रीति-रिवाज, रहन-सहन, कला, साहित्य और सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग है। भौगोलिक सीमा की दृष्टि से उत्तर में विंध्याचल, दक्षिण में सतपुड़ा के बीच से नर्मदा की अजस जल धारा प्रवाहित है। निमाड़ अंचल का भी पौराणिक महत्व है। पहले निमाड़ अनूप-जनपद के नाम से विख्यात हुआ निमाड़ में माँ नर्मदा का महेश्वर तट बहुत प्रसिद्ध है। निमाड़ की पावन भूमि पर संतों, महात्माओं, की तपो भूमि भी रही है। निमाड़ की धरा पर अनेकों संत हुए है, इनमें संत सिंगाजी का नाम प्रसिद्ध है। जिनके पदों का गायन, आज भी ग्रामीण अंचलों में होता है। निमाड़ी साहित्य, कला और संस्कृति, की एक समृद्ध परम्परा है, निमाड़ के लोक साहित्य का विपुल भंडार है। निमाड़ का लोक-समाज अपने लोक व्यवहार के कारण, सभी अंचलों में लोकप्रिय है।
 मालवा के प्रमुख व्रत पर्व उत्सव सरोकार और संवेदनाऐं :- मालवा वर्ष में अनेक व्रत और त्योहार मनाये जाते हैं। इस महान् देश के प्रत्येक राज्य में कोई न कोई त्योहार विशेष रूप से मनाया जाता है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में होली, दिवाली और दशहरा का त्योहार प्रसिद्ध है। पंजाब में बैसाखी का मेला- जो बैसाख मास की पूर्णिमा को लगता है-विख्यात है। बंगाल में बंगाली लोग दुर्गा-पूजा का उत्सव बड़े ही उत्साह और प्रसन्नता से मनाते है। असम में बिहू का त्योहार प्रचलित है जो संभवत: धान काटने के समय होता है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में भी अनेक त्योहार, प्रचलित तथा प्रसिद्ध है। मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) का राजसी दशहरा, केरल का ओणम, तमिडनाड् का पोंगल और आंध्र प्रदेश का त्योहार अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। कहने का आशय यह है कि भारत व्रतों और त्योहारों का देश है और इसके प्रत्येक राज्य में विशेषकर मध्यप्रदेश में विशिष्टि प्रकार के त्योहार मनाये जाते हैं जिनका जन जीवन से घनिष्ट संबंध है। 
 मध्यप्रदेश की जनपदीय महिलाओं में यह धार्मिक भावना घर कर गई है कि व्रत, उपवास एवं अनुष्ठान से पापों का नाश एवं पुण्य का उदय होता है तथा मनोरथ की प्राप्ति और शांति एवं परम पुषार्थ की सिद्धि होती है। व्रत, उपवास एवं अनुष्ठान वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक युग में अधिक देखने को मिलते हैं। व्रत एवं उपवास के अंतर्गत व्यवहार में लाये जाने वाले नियमों को भी लचीला किया जा सकता है जैसे एकादर्शी व्रत पर भूखे रहना होता है, किंतु फलाहार एवं साबूदाना का उपयोग कर इसके नियमों की कठोरता को कम किया जाता हैं। घर में महिलायें श्रम अधिक करती है तथा उनके अनुसार फलाहार से तंदुरूस्ती बनी रहती है इस कारण वे व्रत, उपवास के नियमों की कठोरता को कम करके फल एवं साबूदाना का प्रयोग करते है। 
०. चैत्र मास - नवरात्र (दुर्गा पूजन), ०. गणगौर व्रत, ०. गणेश दमनक चतुर्थी ०. राम नवमी , ०. चैत्र पूर्णिमा (हनुमान जयन्ती), ०. शीतलाष्टमी, ०. अक्षय तृतीय (आखातीज), ०. आसमाई की पूजा, ०. वैशाखी र्पूिर्णमा, ०. अचला एकादशी , ०. वट सावित्री पूजन, ०. गंगा दशहारा, ०. निर्जला एकादशी, ०. देवश्यनी (सोवनी) एकादशी, ०. गुरू-पूर्णिमा, ०. नाग पंचमी 
 समग्र आकलन निष्कर्ष:- मध्यप्रदेश में मालवा की अपनी अलग-अलग पहचान है। भारतीय साहित्य की दृष्टि से मालवा का अपना एक अलग महत्वपूर्ण स्थान है। मालवा की उर्वरा भूमि ने, सबको अपनी ओर आकर्षित किया है। मालवा में अनेक जातियों और जनजातियों का निवास है, जिनकी अपनी सामाजिक संस्कृत व लोक-व्यवहार है। कृषि और व्यवसाय है! ऐतिहासिक रूप से भी मालवा का अपना विशिष्ट स्थान है। मालवा की मालवी भाषा बड़ी सुमधर व कर्णप्रिय है। यहाँ के जन भी सरल, सहज, स्वभाव के लोक व्यवहारिक है। कृषि के क्षेत्र में मालवा, प्रदेश में सबसे अग्रणी है। 
मध्यप्रदेश का दूसरा अंचल है, बुंदेलखण्ड जो शौर्य, पराक्रम और वीर गाथाओं में सबसे अग्रणी रहा है। यहा वीर, साहसी, योद्धाओं का वर्चस्व रहा है। बुंदेलखण्ड की सामाजिक व्यवस्था, कला, साहित्य, संस्कृति में अपने विशिष्ट योगदान के लिए, इस अंचल की अपनी अलग पहचान है। बुंदेलखण्ड अंचल का अपना धार्मिक महत्व भी कम नहीं। एक ओर ओरछा में राम राजा का प्रसिद्ध मंदिर है तो दूसरी ओर खजुराहो में चंदेल कालीन विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के काम-कला पर केन्द्रित, अनेक मंदिर है। जो स्थापत्य की दृष्टि से बेजोड़ स्मारक है। बुंदेलखण्ड जहाँ अपनी ॉाौर्य गाथाओं धार्मिक स्मारकों के लिए प्रसिद्ध है वहीं दूसरी ओर लोक साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में समृद्ध है। 
संदर्भ सूची:- 
1.  उपाध्याय कृष्णदेव: लोक संस्कृति की रूपरेखा, लोक भारती   प्रकाशन, इलाहबाद पृष्ठ. 165 
2.  अग्रवाल नीलिमा: व्रत और त्यौहार, मनोज प्रकाशन मानपाड़ा, 
 आगरा पृष्ठ. 49 
3.  अग्रवाल वासुदेवशरण: 'लोक का प्रत्यक्ष दर्शन' लेख- सम्मेलन 
 पत्रिका, पृ. 65 
4.  मित्तल पूनम: पर्व संग्रह व्रत और त्यौहार, दीपचन्द बुकसेलर,   नयागंज, हाथरस पृ. 23 
5.  निरगुणे वसन्त: लोक संस्कृति, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी,  बानगंगा, भोपाल पृष्ठ. 41 
6.  अग्रवाल नीलिमा: व्रत और त्यौहार, मनोज प्रकाशन मानपाड़ा,   आगरा पृष्ठ. 86 
7.  मिश्र अशोक: मध्यप्रदेश की जनपदीय व्रत कथाएँ, आदिवासी   लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति   परिषद् भोपाल पृ. 118 
8.  मिश्र अशोक: मध्यप्रदेश की जनपदीय व्रत कथाएँ, आदिवासी   लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति   परिषद् भोपाल पृ. 210 
9.  निरगुणे वसन्त: लोक संस्कृति, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी,  बानगंगा, भोपाल पृष्ठ. 62 
10.  तिवारी श्रीराम: ''चौमासाÓÓ आदिवासी लोक कला एवं बोली   विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल पृ. 23 


 


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