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Tuesday, January 28, 2020

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद स्वयं में बड़ा गहरा और व्यापक शब्द है, जो भारत के भूत को वर्तमान को और भविष्य को समाहित कर देश को आगे बढ़ाने की एक वैचारिक आधारशिला है, जिसमें सम्प्रदाय का अंश कहीं लेशमात्र भी नहीं है, जो सभी को एक साथ लेकर चलने वाली विचारधारा है। इस शब्द का सबसे पहले अपने लेखों में प्रयोग पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने किया और इसकी नींव वीर सावरकर ने रखी तथा इसकी विवेचना गुरू गोलवलकर ने की थी। इसमें एक राष्ट्र-राज्य की तमाम बुनावटें हैं जिसमें वेश, भाषा, बोली, संस्कृति इत्यादि सभी तत्व मिलते हैं। मूल राष्ट्रवाद में संस्कृत, पालि, प्राकृत सभी के आधारतत्व समाहित हैं एक प्रकार से कहें तो मूल राष्ट्रवाद के यही आधार हैं। 
प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से सम्बद्ध होता है। साहित्यकार उन राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है जिसमें वह अपने देश के अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, भविष्य के सपने बुनता है और वर्तमान का मूल्यांकन करता है। अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुतः राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है, तब अज्ञेय का यह कथन बड़ा युक्तियुक्त लगता है, ‘‘संस्कृतियों का सम्बन्ध अपनी देशभूमि से होता है।’’  
   -  वर्तमान साहित्य में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ 
    सुशील कुमार शर्मा
प्रारम्भिक विश्लेषण के पश्चात सर्वप्रथम संस्कृति को समझना आवश्यक है। सामान्य शब्दों में संस्कृति को समझने की कोशिश करें तो, ‘‘किसी समाज में निहित उच्चतम मूल्यों की चेतना, जिसके अनुसार वह समाज अपने जीवन को ढालना चाहता है।’’ 
   -  भारत की राष्ट्रीय संस्कृति 
    एस0 आबिद हुसैन
‘‘संस्कृति किसी एक समाज में पायी जाने वाली उच्चतम मूल्यों की वह चेतना है, जो सामाजिक प्रथाओं, व्यक्तियों की चित्तवृत्तियों, भावनाओं, मनोवृत्तियों, आचरण के साथ-साथ उसके द्वारा भातिक पदार्थों का विशिष्ट स्वरूप दिए जाने में अभिव्यक्त होती है।’’  (वही-2)
संस्कृति मनुष्यों के समुदाय में रहती है, जिसे समाज कहा जाता है। ऐसे जिस भी समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता पायी जाती है या वह समाज ऐसी एकता का इच्छुक होता है, तो उसे राष्ट्र कहते हैं। 
राष्ट्रवाद ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म, पंथ और सम्प्रदाय को समान दृष्टि से देखा जाता है, उसमें ऐसा कोई भी विचार नहीं है जिससे समाज में संघर्ष या टकराव की स्थिति उत्पन्न हो। हम सब एक हैं यह भावना धरती से जुड़ी संस्कृति में निहित है। हमारे देश की शक्ति एकात्मकता, समानता, समरसता में समाहित है। सभी धर्मों का समान आदर, समभाव ही राष्ट्रवाद की कसौटी है। साहित्य में अन्य रूपों से अधिक कविता मानव-समाज के अन्तर्द्वन्द्वों का अधिक सच्चा प्रतिबिम्ब होती है, इसके विपरीत मुस्लिम राष्ट्रीय कवियों की कविताओं में जो भाव उतरे हैं वे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक करने वाले भाव हैं। ये अत्यन्त सरल और सुस्पष्ट है। दिनकर ऐसी ही उपलब्धि को भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट उपलब्धि मानते हैं। उनके अनुसार, ‘‘भारत भू को ऊपर ले जाने वाला एक स्वप्न है, स्वर्ग को भू पर लाने वाला एक विचार है, भारत एक जलज है, जिस पर जल का दाग नहीं लगता, भारत उज्ज्वल आत्मोदय की तथा वैराग्य की संज्ञा है, भारत मनुज को रोगमुक्त करने की कल्पना है, संसार में जहाँ कहीं भी अखण्डित एकता तथा प्रेम के स्वर की विद्यमानता है वहीं यह समझ लेना चाहिए कि भारत अपने जीवित और भास्कर स्वरूप में खड़ा है, भारत वहाँ है जहाँ जीवन साधना के प्रति भ्रम नहीं है, जहाँ संगम में धाराओं को समाधान मिला हुआ है, जहाँ माधुर्यपूर्ण त्याग हो, जहाँ निष्काम भोग हो, जहाँ कामना समरस हो, वहीं भारत है और इस रूप में वह प्रणम्य है। 
  -  दिनकर का समाज दर्शन और राष्ट्र दर्शन 
   डा0 प्रेम प्रकाश रस्तोगी
हम सांस्कृतिक और भाषायी रूप से अलग-अलग हैं लेकिन एक ध्वज, राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय प्रतीक के तहत एक रूप में एक साथ खड़े हैं। एक राष्ट्र का तभी जन्म होता है जब इसकी सीमा में रहने वाले सभी नागरिक सांस्कृतिक विरासत एवं एक-दूसरे के साथ भागीदारी में एकता के साथ बंधे रहते हैं। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परम्परा में अनेक मनीषी विद्वानों, ऋषियों, मुनियों के जीवन अनुभव के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं तब हमारा ध्यान उन जीवन मूल्यों की ओर जाता है जिसमें राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर ले जाता है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता के भाव ही सांस्कृतिक मूल्य हैं। जब तक राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक परम्परा के शाश्वत के साथ जुड़ा रहता है तब तक वह जीवंत रहता है। इकबाल जी की पंक्तियाँ इस ओर ही इशारा कर रही हैं कि यद्यपि सांस्कृतिक स्खलन के कारण विश्व के कई राष्ट्र मिट गये परन्तु हम अभी भी गर्व से अपने राष्ट्र की रक्षा में तत्पर और संलग्न दिखाई पड़ते हैं-
‘‘यूनान मिस्र रोमां सब मिट गये जहाँ से अब तक मगर है बाकी नामोनिशा। 
हमारा कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।’’
   -  तराना-ए-हिन्दी 
    (अल्लामा इकबाल)
अब बात करते हैं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यद्यपि स्वतंत्रता के पश्चात महत्वपूर्ण राजनैतिक समस्याओं का समाधान हुआ परन्तु सांस्कृतिक गुत्थी ऐसी उलझती चली गई मानो सुलझने का नाम ही न ले रही हो। ऐसा प्रकट हुआ कि हमारी राष्ट्रीय एकता मजबूत होने की अपेक्षा कमजोर होने के खतरे में पहुँच गयी। क्षेत्रीय या समूह संस्कृतियों के समाज राष्ट्रीय संस्कृति में संश्लेषण भारतीय इतिहास में पहले ही तीन बार हो चुका है। आर्य और द्रविड़ संस्कृति का विलयन, हिन्दू और बौद्ध तथा अन्त में हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों का विलयन। अब जब राष्ट्रीय एकता और सांस्कृति राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा चली तो एक-दूसरे की संस्कृति से सम्पर्क की आवश्यकता हुई। ऐसे में कई महत्वपूर्ण कदम भी उठाए गए। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ने युवा महोत्सव प्रारम्भ किए। तीन अकादमी स्थापित की गईं एक प्रतिनिधि कलाओं के विकास के लिए, दूसरी संगीत, नृत्य और नाटक के लिए और तीसरी साहित्य के लिए। यद्यपि पाश्चात्य संस्कृति से हमारे मतभेद हैं फिर भी हमने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता का वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाया है जो हमारे लिए वास्तविक उपयोग और मूल्य की वस्तु है।
यदि विगत वर्षों में विकास की समीक्षा करें तो हम पायेंगे कि सभी तीन बुनियादी उद्देश्य जो राष्ट्र निर्माण के लिए हमारे समक्ष हैं- धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राज्य, समाजवादी समाज व्यवस्था, औद्योगिक विकास पर हम खरे उतरते नजर आयेंगे। हम शहरी और ग्रामीण संस्कृति का समन्वय और संश्लेषण कर रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं हमारी संस्कृति जो इतनी समृद्धशाली है उसकी जड़ें ग्रामीण भूमि में गहरायी से पायी जाती हैं। स्वतंत्रता और समानता के संतुलन पर आधारित हमारी संस्कृति स्वयं में विशिष्ट है। हम पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक हाथ थामे बंधे हुए हैं। जो हमारी समान संस्कृति का विशिष्ट उदाहरण है। इसी एकता के फलस्वरूप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा जन्म लेती है। यदि उत्तर भारत की संस्कृति में अपने से बड़ों का सम्मान पैर स्पर्श करके होता है तो वह भारत के सम्पूर्ण भाग है। जब देश की रक्षा की बात आती है तो सम्पूर्ण देश राष्ट्रहित में एक साथ खड़ा नजर आता है, यही तो है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। फिर भी जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई का भी कुछ प्रतिशत हमेशा दृष्टिगत होता है। इसी राष्ट्र में कुछ अराजक तत्व राष्ट्र के खण्डित होने की बात करते हैं, राष्ट्र के विरोध में बोलकर जनता को भड़काने का काम करते हैं, संस्कृति की उपेक्षा करते हैं तब इसी राष्ट्र उनको जवाब देने के लिए राष्ट्र और संस्कृति के समर्थक उठ खड़े होते हैं-
‘‘एक राष्ट्र हो एक धर्म हो एक हमारी भाषा हो,
राष्ट्रधर्म का पालन करना जीवन की परिभाषा हो।’’
(प्रो0 अर्जुन प्रसाद सिंह (प्रभात), राष्ट्रीय गीतमाला)
जहाँ एक ओर देश के वे सपूत जो अपनी धरती माँ की रक्षा हेतु सीमाओं पर डटकर खड़े हुए हैं वहीं दूसरी ओर देश के कुछ दबाव समूह और कुछ संगठन उन्हीं पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर देते हैं लेकिन तब भी देश के जाबांज अभिनन्दन जैसे नायक अपने प्राणों को दांव पर लगाकर देश की रक्षा में निरन्तर डटे रहते हैं। स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता के आगमन से समाज सुधार को गति मिली और सरकार तथा निजी प्रतिष्ठानों के संयुक्त प्रयास से उसकी प्रगति को गतिशील बनाया गया। जहाँ तक वैधानिक प्रावधानों का सम्बन्ध है, हमारे संविधान ने पुरुष और स्त्री आदि को समान अधिकार दिए हैं और व्यवहार में इन पर कार्य भी हो रहा है। सभी वर्गों के लिए प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य की गई क्योंकि शिक्षा देश का वह महत्वपूर्ण अवयव है जो देश के विकास में और देश को गतिशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। देशवासी के रूप में भारतीयों ने दृढ़ता से समयबद्ध परम्पराओं पर आश्रित, जीवन की एक पद्धति बनायी है। एक राष्ट्र के रूप में वे आधुनिक युग के प्रवाह और झोंकों, तूफान और दबाव से प्रभावित होते हैं। वे अपना नौबंध छोड़ना और उसके द्वारा बह जाना नहीं चाहते, जो उन्हें निर्मम और उद्देश्यहीन वर्तमान का उफनता प्रचंड ज्वार मालूम पड़ता है, किंतु वे महसूस करते हैं कि स्वतंत्र प्रजातांत्रिक राज्य को चुनने के बाद, पैसिफिक में प्राचीनता के स्थिर और छिछले जल में चिपके नहीं रह सकते। इसलिए उन्हें स्थिर और गतिशील, प्राचीन और नये के बीच संतुलन बनाना है।’’  
-  भारत की राष्ट्रीय संस्कृति 
    (एस0 आबिद, हुसैन)
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीयों के जीवन की सतत प्रेरणा है, उनमें स्फूर्ति जगाता है और साथ-ही साथ संघर्ष तथा बलिदान के लिए भी प्रेरित करता है। राष्ट्रवाद कोई भौगोलिक इकाई नहीं है अर्थात् इसकी कोई निश्चित भौगोलिक अवधारणा नहीं है और न ही यह कोई काल्पनिक समुदाय है, यह एक अनुभूति है जो हमें राष्ट्र के विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों से जोड़ती है। दीनदयाल जी मानते थे कि, ‘‘राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंतःकरण में अपनी भूमि के प्रति श्रद्धा की भावना होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है।’’ 
-  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 
    (प्रभात झा)
और उन्होंने कहा, ‘‘स्वराष्ट्र के प्रति पुलक स्वाभाविक है, क्योंकि स्व हमारा स्वभाव है। हमारे स्व का आदर्श हमारी संस्कृति है। स्वदेश और विदेश में आधारभूत फर्क है। स्वदेश में आत्मीयता है, विदेश में परायापन है। यह तत्व राष्ट्रजीवन के अंतस में सहज प्रवाहित रहते हैं। त्याग, प्रेम, बंधुत्व हमारा स्वभाव है। यह स्वसंस्कृति से आया है।’’
-  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 
     (प्रभात झा)
हमारी संस्कृति हमेशा से विशिष्ट रही है, इस देश में जो भी आया वह भारत की माटी में समा गया और भारतीय हो गया। यह राष्ट्र कोई छोटा सा टुकड़ा नहीं है अति विशाल और विराट है जो अपनी विशिष्ट संस्कृति के कारण विश्वपटल अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वर्तमान संदर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तेजी से अपनी विचारधारा को दृढ़ता प्रदान कर रहा है और जो इसको खण्डित करने वाले तत्व हैं उनको मुँहतोड़ जवाब भी दे रहा है। आज का युवा जागरूक है जो स्वामी विवेकानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहा है और अन्ततः कहीं न कहीं सफल भी हो रहा है। अतः वर्तमान में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीज गहरे होते जा रहे हैं। 
 
सन्दर्भ सूची-
1. भारत की राष्ट्रीय संस्कृति - एस0 आविद हुसैन
 2. दिनकर का समाजदर्शन और राष्ट्र दर्शन - डा0 प्रेम प्रकाश रस्तोगी
 3.  संस्कृति के चार अध्याय - रामधारी सिंह ‘दिनकर’
 4.  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद - प्रभात झा
 5.  आज के आईने में राष्ट्रवाद - रविकान्त
 6.  वर्तमान साहित्य में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ - सुशील कुमार शर्मा
7   राष्ट्रीय गीत माला - प्रो0 अजु्रन प्रसाद सिंह (प्रभात)


 प्रियंका सिंह
शोध छात्रा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
पता-हॉल ऑफ रेजीडेन्स, महिला छात्रावास
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज-211002


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