देष के प्रमुख आदिवासियों में ष्सहरियाष् भी प्रमुख आदिवासी के रूप में जाने गये हैं। इन्हें ष्अनुसूचित जनजातिष् की श्रेणी में रखा गया है। राजस्थान के हाड़ौती अंचल के बारां जिले की शाहबाद व किषनगंज तहसील के गाँवों तथा जंगलों में सहरिया जनजाति के लोग निवास करते हैं जो राज्य का एकमात्र ष्आदिम जनजाति समूहष् है। इसके अतिरिक्त ष्मध्यप्रदेषष् के उत्तर-पष्चिम भाग में षिवपुरी, गुना, दतिया, मुरैना जिलों में भी यह जनजाति निवास करती है। सहरिया जनजाति के लोग डामोर के समान ही प्रवासी है। सहरिया मूलतः मध्यप्रदेष राज्य के निवासी हैं, जो मध्यप्रदेष राज्य के ष्गुनाष् जिले की सीमा से लगे हुए ष्बारांष् जिले की शाहबाद एवं किषनगंज तहसील में निवास करते हैं। यहाँ पर सहरियों का बाहुल्य है। इसके अतिरिक्त चित्तौड़गढ़, झालावाड़, सिरोही व बून्दी जिले में भी ये लोग निवास करते हैं।
निरक्षर एवं सीधे होने के कारण सहरिया सबसे पिछड़ी हुई जनजाति मानी गई है जिसका आसानी से शोषण किया जा सकता है। प्राचीन समय में सहरिया जंगल में ही रहते थे तथा किसी भी सभ्य व्यक्ति को देखकर वे भाग जाते थे। यह कहा जाता था कि सहरिया जंगली भयानक जानवरों से इतना नहीं डरते थे जितना कि एक सभ्य व्यक्ति से डरते थे। साहूकारों से कर्ज लेकर वे अपनी जमीन खो चुके हैं और आकंठ कर्ज में डूबे हुए हैं। षिकार करके, मछली पकड़कर व जंगलों में कुछ उपजाकर ये लोग अपना पेट भरते हैं जबकि कुछ सहरिया मकान बनाने, छप्परखाने, डलिया व टोकरी बुनने तथा अनाज पिसने आदि का कार्य मजदूरी पर किया करते हैं।
सहरिया का ऐतिहासिक परिदृष्य:
सहरिया एक ऐसी आदिम जनजाति है जिसे सहर, सीरो, सवर, सौर, सहरिया, सेरिया, सेहरिया आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। इस जनजाति के लोग ऐतिहासिक परिदृष्य के बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ है। केवल वृद्ध व जानकार लोगों की जानकारियों व कथाओं के माध्यम से ही इनके जीवन की कुछ धुंधली यादों को एकत्रित करने का प्रयास किया गया है। कुछ साहित्यकार यह मानते हैं कि सहरिया लोग डकैती का कार्य करते थे एवं चम्बल के विहड़ों में शरण लेते थे परन्तु उनकी इस बात का कुछ अन्य इतिहासकारों ने विरोध किया है। उनका मानना है कि यदि सहरिया लोग डकैती करते थे तो उनकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर कैसे थी। वह भूखे क्यों मरते थे ? क्यों दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर थे ? बल्कि वे तो डकैतों के यहाँ मजदूरी का काम किया करते थे। ये लोग तो हमेषा से ही उपेक्षित रहे हैं और पूर्णतया आदिवासी ही बने रहे। ये हमेषा अपनी स्थिति को सुधारने में असमर्थ रहे हैं। सहरियों के संबंध में यह मान्यता है कि ये अपने पास सदैव कुल्हाड़ी रखते हैं। आर्य इतिहास के अनुसार सहरिया भारत के पहले कृषि सम्पन्न समूहों में से है। शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर इनका अर्थ शेर का साथी होने से भी लगाया जाता है। ये शेर से कभी नहीं डरते बल्कि स्वयं को शेर या सेर कहलाने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। ये लोग स्वयं को आदिवासी व आर्य का सम्मिश्रण मानते हैं, ऐसा भी माना जाता है कि सेहरा शब्द से सेह तथा आर्यों के सम्पूर्ण आर्य शब्द को मिलाकर सेहरया शब्द बनता है जिसका अर्थ आर्यों के सहयोगी हुआ और यही सेहरया शब्द कालान्तर में स्थानभेदी के साथ सहरिया, सेहरिया अथवा सहरिया नाम से जाने जाना लगा। इस जनजाति का प्राचीनकाल से ही अत्यधिक शोषण हुआ है। इन्हें अपने इतिहास की जानकारी विरासत में मिली। उसी के अनुसार इनका स्वयं के प्रति हीन दृष्टिकोण है अन्य सभी जातियों ने इनका घोर अपमान किया है और इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद भी ये अब तक चुपचाप बैठे हुए हैं और शोषित जीवन को बड़ी तत्लीनता के साथ हँसते-हँसते झेल रहे हैं।
सहरिया का राजनीतिक परिदृष्य:
सहरिया जनजाति में भी अन्य आदिवासी समुदायों के समान ही परम्परागत राजनीतिक संगठनात्मक स्वरूप पाया जाता है जिसकी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इन लोगों की बस्ती गाँव का सहराना कहलाती है। सहरियों में सहराना के आधार पर ही पंचायत का गठन किया जाता है। इनका प्रमुख ष्पटेलष् होता है, जो वंषानुगत होता है। पटेल के अत्यधिक वृद्ध होने पर उनके बड़े भाई या बड़े पुत्र को उसके उत्तराधिकारों का वहन करना पड़ता है, सहराना पंचायत द्वारा सभी जातिगत विवादों को सम्पत्ति के विकास, वैवाहिक व अन्य झगड़ों को आपसी समझौते के साथ बीच बचाव कर तय करवाया जाता है। पंचायत द्वारा सामान्तया आर्थिक एवं समाज से बहिष्कृत करने का दण्ड भी दिया जाता है। सहरिया पंचायत के प्रमुख तीन स्वरूप माने गये हैं:-
पंचताई: यह पंचायत सहराना स्तर पर होती है एवं इसका प्रमुख सहराना का पटेल होता है।
एकादसिया पंच: यह ग्यारह सहरनाओं की एक सम्मिलित पंचायत होती है। इसमें सभी सहरनाओं के पटेल सम्मिलित होते हैं। इनमें सामान्य सहमति से निर्णय लिये जाते हैं।
चैरासिया पंच: इस पंचायत में सभी सहनाओं के पंच पटेल को शामिल किया जाता है। अतः चैरासिया पंचायत सहरियाओं का सर्वोच्च संगठन माना गया है। यह पंचायत विषेष मामलों के निर्णय करने हेतु बुलायी जाती है। इस पंचायत में निर्णय सर्वसम्मति के आधार पर लिये जाते हैं।
सहराना के बीच में एक छतरीनुमा मकान होता है। इसे ही पंचायती बंगला कहा जाता है। इसी बंगले पर बैठकर सहरिया आपस में होने वाले झगड़ों का फैसला किया करते हैं।
सहरिया का भौगोलिक परिदृष्य:
सहरिया जनजाति राजस्थान और मध्यप्रदेष की अत्यन्त पिछड़ी हुई जनजाति है। राजस्थान के बारां जिले की शाहबाद व किषनगंज तहसीलों में सहरिया निवास करते हैं। यह क्षेत्र लगभग 150 किलोमीटर में स्थित है और इसी भूभाग पर सहरियाओं का निवास है। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेष के उत्तर में मुरैना व ग्वालियर के पूर्व में षिवपुरी तथा दक्षिण में गुना जिले में सहरियों का निवास है। भौगोलिक दृष्टि से देखा जाये तो भारतीय प्रायद्वीप के लघु हिस्से पर सहरियाओं का निवास था तथा उस क्षेत्र के बाहर सहरिया अत्यन्त कम संख्या में पाये जाते थे। यह सम्पूर्ण बसाव वाला क्षेत्र राजस्थान व मध्यप्रदेष राज्यों में स्थित है। इस प्रकार भौगोलिक दृष्टिकोण से सहरिया जनजाति अत्यन्त लघु पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करती है।
सहरिया का सामाजिक परिदृष्य:
संस्कृति के धनी सहरिया लोगों का अपना सामाजिक संगठन है जिसे जाति पंचायत कहते हैं। जातियाँ पंचायतें एक प्रकार से उनकी अपनी सरकारें होती है जो कि उनके पूरे समुदाय को बांधकर रखती है। इस पंचायत के अपने नियम व कानून होते हैं जिनकी पालना हेतु प्रत्येक सहरिया को बाध्य होना पड़ता है। विभिन्न मामलों पर निर्णय लेने तथा सजा देने के इनके अपने तरीके हैं। इनकी यह व्यवस्था सहरिया समुदाय को एक संगठन और व्यवस्थित समूह के रूप में समेकता प्रदान करती है। सहरिया जनजाति के रहन सहन का तरीका अन्य जनजातियों से बिल्कुल अलग है। इस जनजाति के लोग प्रत्येक गाँव में सामान्य लोगों से अलग जंगल से लगे हुए क्षेत्रों में घर बनाकर रहते हैं। सहरिया जनजाति की अपनी कोई उपभाषा नहीं होती है। यह जनजाति सामान्य क्षेत्रीय भाषा बोलती है। इस जनजाति के स्त्री एवं पुरूष गुदना गुदवाते हैं। इनकी स्त्रियाँ शरीर के किसी-न-किसी भाग पर गुदना गुदवाती है। स्त्रियों के साथ-साथ पुरूष भी अपने शरीर के हाथ, पैर, जांघ, पीठ, सीना, गर्दन एवं पंजा आदि स्थानों पर गुदना गुदवाते हैं।
सहरिया में अधिकांषतः लघु परिवार ही पसंद किये जाते हैं। साधारण रूप से यह रिवाज है कि विवाह के उपरान्त पुत्र को एक अलग झोपड़ी बना दी जाती है और वह उसमें अलग रहने लगता है। भरण-पोषण करने के लिए पति-पत्नी मजदूरी करने में जुट जाते हैं किन्तु परिवारों के प्रति मूल रूप से संयुक्त परिवार को आदर्ष माना जाता है जिनमें सबसे बड़े पुत्र की जिम्मेदारी होती है वही सहरिया परिवार का वहन करता है। माता-पिता की मृत्यु होने के बाद बड़ा पुत्र ही मृत्यु संस्कार करता है परन्तु विधवा माँ या बाप जो भी हो उनकी सार संभाल की जिम्मेदारी सबसे छोटे पुत्र की होती है तथा स्वभावतः माता-पिता का पैतृक मकान आदि सम्पत्ति कनिष्ठ पुत्र को मिलती है। अविवाहित भाई-बहिनों की जिम्मेदारी भी उसी की मानी जाती है। अन्य भाईयों से यह आषा की जाती है कि इस प्रकार की पारिवारिक जिम्मेदारियों में वे हाथ बंटायें, क्योंकि ज्येष्ठ भाईयों की यह भावना ही होगी कत्र्तव्य नहीं।
सहरिया समाज की सार्वजनिक समस्या के समाधान के लिए जो सामूहिक बैठक होती है, उस बैठक में प्रत्येक गाँव के मुखिया का शामिल होना जरूरी होता है। क्योंकि इस बैठक में मुखिया के शामिल होने को उस गाँव की सहमति माना जाता है तथा इस प्रकार की बैठकों के निर्णय सम्पूर्ण समाज के लिए मान्य एवं बाध्यकारी होते हैं। सहरियाओं का सामूहिक जीवन इनकी आदिमता की पहचान है। स्वभाव के अनुसार सहरियालोग आम आदमी से घुलना-मिलना पसन्द नहीं करते हैं। सहरिये बाहर अनजान व भोले दिखाई देते हैं। स्त्रियाँ अधिकांषतः घूंघट में रहती है व मर्यादाओं को निभाने वाली होती है परन्तु समय पड़ने पर वह अमर्यादित भी हो जाती है।
सहरिया का धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिदृष्य:
सहरिया जनजाति के लोग धार्मिक प्रकृति के होते हैं। धर्म के प्रति इन लोगों का अटूट विष्वास पाया जाता है। सहरिया हिन्दू देवती-देवताओं को मानते हैं। प्रमुख देवी देवताओं में भगवान हनुमान, शीतला माता, शारदा भाई, ठाकुर देव, रामदेव, नामदेव आदि है साथ ही राम, कृष्ण, गणेष, षिवजी, सत्यनारायण, गंगाजी, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जलदेव के साथ सीता माता व काली माता की भी पूजा करते हैं। देवी-देवताओं की पूजा संस्कारों व त्यौहारों के अवसर पर की जाती है। इनके प्रमुख त्यौहार दषहरा, होली, दीपावली, हरियाली, रक्षाबंधन आदि है। तेजाजी सहरियाओं के प्रचलित लोक देवता के रूप में माने जाते हैं। सहरिया काली दुर्गा एवं अन्य देवी-देवताओं की उपासना करते हैं जिनमें शबरी या सौरी माता, पूर्वक या कुल देवता, दाने बाबा, भूमानी देवी, ग्राम देवता, वन देवता, दूल्हा देव, केवलया बब्बा एवं मेहरवाली शारदा माता प्रमुख है। सहरिया लोगों का आत्मा, जादू, भूत प्रेत, टोना टूटका, चूड़ैल आदि के प्रति दृढ़ विष्वास होता है। रोग, टोना, जाूद एवं अकाल मृत्यु के समय पूजा व उपचार का कार्य जंतर लोग ही किया करते हैं। सहरिया लोग बड़े अंधविष्वासी होते हैं तथा इनके समाज में अनेक कुप्रथायें जिनमें भूत-प्रेत, डाकिन इत्यादि प्रमुख है। ये लोग जिन्नू देवता की भी पूजा व उपासना किया करते हैं।
सहरिया राजस्थान की ऐसी आदिम जनजाति है जिसमें स्वतंत्र विवाह को निषिद्ध माना जाता है। स्त्री-पुरूष अपने गौत्र के अतिरिक्त दो और गौत्र माँ और पिताजी के गौत्र को भी छोड़ते हैं। पुजारी के कार्य को गाँव का सरपंच सम्पन्न करा लेता है। विवाह की रस्में भी पंच द्वारा ही सम्पन्न की जाती है। विवाह के पश्चात् लड़का अपने माता-पिता के पास से अलग मकान बनाकर रहने लगता है। सहरिया समाज के व्यक्ति विभिन्न उत्सवों व त्यौहारों पर नाचगान करते हैं। सामान्यतः स्त्री-पुरूष एक साथ नहीं नाचते हैं। होली के अवसर पर फाग और राई नृत्य होता है और दीपावली के अवसर पर हीड़ा गाने का प्रचलन है। ढोलक, मंजीरा, नगाड़ा, झांझ, तूमड़ी आदि इनके प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। इस क्षेत्र में लगने वाला सीताबाड़ी व तेजाजी का मेला इनमें बहुत लोकप्रिय है। सहरियाओं में एक खास बात यह है कि ये लोग कभी भीख नहीं माँगते हैं, भले ही वह दो दिन से भूखे क्यों न हो मगर वह यह कभी नहीं कहते कि मैं भूखा हूँ या मेरे घर रोटी नहीं बनी, इतने यह संतोषी होते हैं।
सहरिया का आर्थिक परिदृष्य:
सहरिया जनजाति आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त पिछड़ी हुई जनजाति कही जा सकती है। ये प्रारम्भ से ही बहुत गरीब है। इनकी गरीबी के दो प्रमुख कारण हैं:-
1. सामन्त और उच्च जातियों जैसे ब्राह्मण, किराड़ एवं बनिया इत्यादि द्वारा इनका शोषण।
2. सरकारी मषीनरी तंत्र द्वारा इस शोषण का समर्थन।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व सहरियाओं के रोजगार के दो ही साधन थे-प्रथम कृषि तथा खेतीहर मजदूरी और दूसरा जंगल से प्राप्त होने वाली उपज को संग्रहित कर बेचना। इसके अलावा धनी, व्यापारी, जमींदार, राजा महाराजा इनसे अक्सर काम करवाते रहते थे। इस तरह से इनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब रहती थी। अतः इनका आर्थिक जीवन अत्यन्त सरल माना गया है जो कि मुख्यत खेती, मजदूरी या जंगली उपज संग्रह पर आधारित है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर सहरिया कृषि व्यवसाय, मजदूरी व वनोपज के साथ-साथ बीड़ी बनाकर तथा चरवार वाले क्षेत्रों में चरवाहे का काम अपनाकर जीवन-यापन करते हैं। इनकी आय कम होने के कारण ये हमेषा कर्ज में डूबे हुए रहते हैं। इसका मुख्य कारण कार्य का न मिलना या मिला हुआ कार्य का स्थायी न होना है। अषिक्षा, गरीबी एवं पर्याप्त अनुकूल कार्य न मिलने के कारण ये लोग अनेक दुव्र्यसनों के षिकार होते हैं।
सहरियाओं की दो-तिहाई आमदनी खेती तथा मजदूरी से ही होती है और शेष उन्हें वनोपज से प्राप्त होती है। मुख्यतः ये लोग अपने परिवार के साथ आसपास के क्षेत्रों में फसल पकने के बाद मजदूरी करने चले जाते हैं जहाँ ये फसल को काटने व साफ करने का कार्य करते हैं जिसके बदले इन्हें अनाज, नकद राषि व खाना दिया जाता है। इसके अतिरिक्त अकाल राहत कार्य में विभिन्न प्रकार के सड़क व भवन निर्माण संबंधित के कार्य सरकार करवाती है। उनमें सहरियाओं को काम के बदले निर्धारित मजदूरी के साथ गेहूँ का भुगतान किया जाता है।
अपने जीविकोपार्जन के लिए वनोपज पर निर्भर रहने वाली यह जनजाति जंगल से महुआ, अचार, गुली, गोंद, मूसली, कत्था, खैर, आंवला, तेंदूपत्ता, हर्र, बहेरा, लाख शहद, कंजी घास एवं अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ लाते हैं साथ ही मधुमक्खियों के छत्ते से शहद निकालने का कार्य भी करते हैं। इस कार्य में परिवार के सभी व्यक्ति सम्मिलित होते हैं।
सहरियों के बारे में एक कहावत है कि वे कभी नहीं सुधरेंगे जिसे अन्य जातियों के अतिरिक्त स्वयं सहरिया ने भी आत्मसात कर लिया है।
सहरिया का शैक्षणिक परिदृष्य:
सहरिया एक ऐसी जनजाति है जिसमें षिक्षा का स्तर शून्य मात्र ही रहा है। इस प्रकार अन्य आदिवासी समुदायों की अपेक्षा सहरिया सबसे कम मात्रा में साक्षर है। सहरियाओं का केवल 4.72 प्रतिषत भाग ही साक्षर है। शेष 95.28 प्रतिषत सहरिया लोग अषिक्षित है। षिक्षा से ये हमेषा से ही दूर रहे। सहरिया जनजाति बाहुल्य गाँव में एक स्नातक, 5 हायर सेकण्डरी, 2 सेकण्डरी एवं 44 आठवीं कक्षा में उत्तीर्ण पाये गये और इसी प्रकार की स्थिति अन्य समुदायों में भी है।
सहरियों की वर्तमान शैक्षिक प्रणाली में उनके बच्चों, उनकी अधिक मेहनत करने की दक्षता पर प्रतिकूल असर डालती है। सहरियाओं का वर्तमान शैक्षिक प्रणाली में कोई विष्वास नहीं है। रोटी तो हमें मेहनत करने से ही मिलती है, षिक्षा हमें रोटी नहीं देती बल्कि हमसे मेहनत करने की आदत और छीन लेती है अतः यह पूरी तरह से समय की बर्बादी है। सामाजिक स्थिति महिलाओं को षिक्षा से दूर करती है। विद्यालय का वातावरण बच्चों के लिए आकर्षक नहीं है। औपचारिक शहरी षिक्षकों के लिए फटे हाल, नंगे एवं मेले सहरिया बच्चों के प्रति घृणा का भाव होता है। सामान्तवादी एवं जातिगत भेद सहरियाओं को षिक्षा से दूर रखता है। वर्तमान की षिक्षा प्रणाली एवं वातावरण उन्हें विरासत में मिली हुई प्राचीन समृद्धि को भुलाता है। सहरियाओं में पलायन की प्रवृत्ति अधिक रहती है। यह लोग रोजगार की तलाष में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं एवं इन जनजातियों का शैक्षणिक स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। सहरिया जाति के लोग जो कि अन्य जातियों की अपेक्षा शैक्षिक जीवन में काफी पिछड़े हुए हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची:
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