लिसा नहीं जानती थी कि उसका पिता कौन है ? वो इस दुनिया में है भी या नहीं ।
न जाने ये सवाल उसके मन को कितनी बार ज़ख्मी करता रहता था ।
कॉलेज में जब सब लडकियाँ अपने-अपने पापा के नाम बिजनेस का जिक्र करके उनकी तारीफ करती तो लिसा मन ही मन रो उठती थी ।
जब भी कोई फ्रेंड उससे उसके पापा के बारे में पूछता था तो वो बात आई-गई कर इधर-उधर की बातों में उलझा दिया करती थी उन सबको।
लेकिन आज ....
आज तो वो फफक पड़ी जब प्रिंसिपल मैडम ने सबके सामने कॉलेज थोड़ा देर से आने पर उंसका खूब अपमान किया।
आखिर अब वो कोई छोटी बच्ची तो नही रह गयी थी पूरे सत्रह साल की हो गयी थी लिसा और बीए के दूसरे साल की स्टूडेंट थी।
आज उसने कॉलेज में छुट्टी की एप्लिकेशन अपनी एक फ्रेंड को दी और खुद अपने साथ एक बैग में कुछ किताबें व दो चार जोड़े कपड़े लेकर निकल पड़ी।
दिल्ली से लखनऊ की ट्रेन में बैठ तो गयी थी वो लेकिन जायेगी कहाँ?
ये तो उसने सोचा ही नहीं था ।
क्योंकि जब से उसने होश संभाला तब से इसी होस्टल में तो रहती आई है।
अक्सर उसकी माँ ही उससे मिलने आ जाया करती थी अभी तक तो ।
लिसा को इतना तो पक्का मालूम था कि उसकी माँ लखनऊ में रहती है ।
अकेली जॉब करने की वजह से उसने लिसी को यहां होस्टल में रखा हुआ है।
लिसा को आज कुछ बातें खूब याद आ रही थी जब एक दिन उसने अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पूछा था तो " माँ मेरे पापा का नाम क्या है , वो दिखते कैसे हैं? क्या वो इतने बिजी रहते है कि कभी हमे मिलने की आना तो दूर सोच भी नहीं पाते ...या फिर वो मर गये?"
लिसा के मुँह से ये सुनते ही उस दिन पहली बार उसकी माँ ने उसके मासूम और प्यारे से गाल पर एक जोरदार थप्पड़ मारा था और बाद में लिसी को चूमते हुए उसकी माँ खुद भी बहुत रोइ थी।
उस दिन उसकी माँ ने उससे कहा था
"लिसा क्या मम्मा का प्यार में कोई कमी रह गयी है बच्चा जो तू इतना सवाल पूछती है ? "
"ना मम्मा आपके प्यार में कोई कमी नहीं बल्कि आप तो मीठी सुपर माँ हो।
जो अकेले माँ और पापा का प्यार मुझे दे रही हो।"
"तो फिर आज अपनी माँ से वादा करो कि कभी भी पापा की बात करके मेरा दिल नही दुखाओगी?"।
"हां , मम्मा मै वादा करती हूं कि कभी आपका दिल नहीं दुखाउंगी।"
बस ! आज दो साल हो गये इस बात को कभी लिसा ने अपनी माँ से अपने पिता के बारे में कोई बात नहीं की।
लेकिन इस बीच न जाने इस बच्ची ने कितनी बार अपमान रूपी ज़हर का को घूंट-घूंट पीया है।
आखिर अब वो बडी हो रही है और कब तक लोगों के सवालों को उलझा या अनदेखा करेगी।
सोचते-सोचते लिसा की आंख लग गयी कि तभी किसी ने "लखनऊ आ गया बिटिया , उतरोगी नहीं जल्दी करो ट्रेन चल पड़ेगी वरना अपने अगले स्टेशन के लिए।"
एक बुजुर्ग की आवाज़ ने उसे नींद से जगा दिया।
पहली बार किसी आदमी के मुँह से बिटिया सुनकर उसकी आंख छलक गयी।
उसने ट्रेन से उतरकर बाहर आकर एक चाय की छोटी सी दुकान पर पड़ी बैंच पर बैठते हुए अपने लिये एक चाय बनाने को कहा।
चाय की चुस्कियों की गर्माहट के साथ-साथ उसका दर्द भी पिघलता जा रहा था मानो और अब वो दर्द उसके खूबसूरत गुलाबी गालों पर औंस की बूंद सा झलक रहा था।
उसने खुद को थोड़ा सम्भाला और अपने मोबाइल से अपनी माँ कॉल किया ।
उसकी माँ ने उंसका कॉल रिसीव नही किया।
कुछ देर बाद उसका मोबाइल बज उठा और वो देखते ही चहक उठी ।
"हैलो माँ ..."उसकी आवाज़ में उंसका दर्द साफ झलक रहा था।
"हां कैसा है मेरा बच्चा "?
माँ ने पूछा।
"मैं ठीक हूँ माँ और लखनऊ में ही हूँ"
"लखनऊ में" उसकी माँ ने आश्चर्य से पूछा ।
"हां माँ मन कुछ ठीक नही था और आपकी याद भी आ रही थी तो सोचा आपको सरप्राइज ही दे दूं"।
"हां..हां वो सब तो ठीक है पर तू इस वक्त है किस जगह?"।
" ये रेलवे स्टेशन पर मैं यहां सूरज की चाय की दुकान पर ही बैठी हूँ माँ"।
"हां , ठीक है तू वहीं रुक तब तक मैं न आऊँ।
उसकी माँ की चिंता बढ़ गयी थी क्योंकि अब तो लिसा बच्ची थी ,छोटी थी जैसे वो उसे समझा देती थी वो मान जाया करती थी लेकिन अब...अब यदि उसने कुछ भी पूछा तो...तो वो क्या जवाब देगी ।
यही कि वो एक बिन ब्याही माँ की औलाद है?
या उसका पिता अब इस दुनिया में नहीं है....नहीं..नहीं मैं ऐसा नहीं कह पाऊंगी ।
मैं बहुत प्यार करती हूँ नीरज जी को और उनके जीते जी मैं उनके बारे में ऐसा छी: कहना तो दूर सोच भी नहीं सकती।
उसकी माँ ने तभी नीरज को कॉल किया आज कई साल बाद उसने नीरज को कॉल किया । आखिरी बार वो अब से सात साल पहले नीरज से मिली थी और तब नीरज ने उसे नया मोबाइल और अपना नम्बर भी दिया था।
नीरज एक बड़े घर का बेटा था ।
वो भी लिसा की माँ से बेहद प्यार करता था लेकिन घरवालों के जिद पर उसे किसी और लड़की से शादी करनी पड़ी।
मगर लिसा की माँ ने नीरज और अपने प्यार की निशानी को जनम दिया और उसी के सहारे जीवन के इतने बसन्त गुजार दिये।
वो नीरज की मजबूरी समझती थी लेकिन किसी और उसके प्यार के सहारे के बिना ही अपनी पूरी जिंदगी बिताने का निर्णय भी लिया था।
नीरज से वादा भी कि वो कभी नीरज को किसी के आगे अपनी वजह से अपमानित नहीं होने देगी।
बस ! वही वादा तो निभा रही थी लिसा की माँ।
आज उसने नीरज को फोन पर बताया कि लिसा अचानक से बिन बताये यहां आ गयी है तो नीरज फौरन गाड़ी लेकर उसके पास आ गया।
डर था कि कहीं इन दिनों में नीरज उससे दूर न हो गया हो लेकिन वो नहीं जानती थी कि नीरज ने पिछले सात सालों में क्या कुछ नही सहा।
दोनों चल पड़े लिसा को लिवाने।
लिसा के पास पहुंचते ही लिसा की माँ से पहले ही गाड़ी से उतरते ही नीरज ने लिसा को अपने सीने से लगा लिया और उसकी आँखों से आंसुओ का झरना बहता रहा।
"मेरी बच्ची,मेरी लिसा इतनी बड़ी हो गयी और मैं बदनसीब कभी उसे देख तक नहीं पाया।"
लिसा कुछ समझ रही थी और न ही बोल पा रही थी और यही हाल उसकी माँ का भी था।
नीरज के इस रूप ने तो लिसा की माँ की मानों सारी उलझन पल में सुलझा दी हों।
कुछ पल के लिए तीनों खामोशी से बस एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे।
तभी नीरज ने लिसा का माथा चूमते हुए कहा "मैं ही तेरा बदनसीब पिता हूँ जो सिर्फ बदनामी के डर से आज तक अपनी फूल से बच्ची से दूर रहा।
लेकिन अब और नहीं ।"
नीरज का ये रूप तो लिसी की माँ की समझ से भी परे था और उसे सोचते हुए देखकर नीरज ने फिर बोलना शुरू किया ।
"तुम नही जानती कि मैं आज बिल्कुल अकेला हूँ मेरी पत्नी
दिव्या मुझे छोड़कर चली गयी थी और उसने मुझे तलाक दे दिया था क्योंकि वो किसी और से प्यार करती थी।
अब माँ और बाबूजी भी ये दुख सह नहीं पाए ।
मैं तुम्हारे फोन का इंतज़ार करता रहा।
आखिर अब मैं ही अकेला क्यों रहूं।
कब तक बदनामी के डर से अपने प्यार व अपनी प्यारी सी बेटी से दूर रहूं?
बस! अब अपनी इस छोटी सी दुनिया के साथ जीना चाहता हूँ।
तीनों गाड़ी में बैठकर चल दिये अपनी छोटी सी दुनिया की ओर।
लगता था लिसा और उसके माँ पापा के जीवन से बदनामी का कोहरा छंट गया है और उन तीनों के साथ-साथ पूरी प्रकृति मंद-मंद मुस्कुरा उठी हो।
आज सालों बाद बसन्त का आगमन हुआ उन तीनों के जीवन में।।
सविता वर्मा "ग़ज़ल"
230,कृष्णापुरी,
मुज़फ्फरनगर,(उप्र)
मोबाइल न.-8755315155
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