’’ जाति-पात पूछे नहि कोऊ, हरि को भजे सो हरि का होऊ’’- जैसी बातें बड़े उद्देष्य को साधने के लिए छेड़ी गयीं। विविधताओं के बीच सामूहिक एकता की अद्भुत क्षमता से ओत-प्रोत भारत सारे संसार की विषिष्ट भूमि है। लेकिन बहुधर्मी भारत के सामाजिक आधार को धार्मिक सामन्तों ने तार-तार कर दिया, जिसका कारण हुआ कि ’दलित वर्ग’ उपेक्षित और अपमानित हो गया। सदियों लगे उपेक्षा और अपमान से उबरने में। ऐसा नही कि केवल शोषण ही चला, सहानुभूति का, शोषण के खिलाफ संघर्ष का, सामंतषाही पाखंडी तत्वों के विरोध का भी लम्बा इतिहास है। बहुत बड़े-बड़े नाम सामने आते है, जिन्होंने इस तरह के अराजक तत्वों पर तीखे प्रहार कर आन्दोलन खड़ा किया और उन्हें धूल चटाई। दरअसल शोषक, शोषित पीड़क-पीड़ित वर्ग सदैव रहे है और रहेंगे, समयानुसार आनुपातिक रूप से कम-ज्यादा की अंकगणित चलती रहेगी। हिन्दी के स्वर्ण युग के नायकों (सूर, तुलसी, जायसी, कबीर) ने तो अखिल भारत को एकता के सूत्र में पिरोने का मानों संकल्प ले रखा था, पूरब से पष्चिम, उत्तर से दक्षिण तक समन्वय की विराट चेष्टा से भरपूर लेखनी चलाई। सारा राष्ट्र तुलसी और विषेष रूप से कबीर का सदैव ऋणी रहेगा। आधुनिक भारत में बाबा साहब के राजनीति एवं लेखन में प्रवेष के साथ ही दलित साहित्यान्दोलन खुलकर सामने आया, जिसने सन्तुलन-समन्वय से भरपूर अखिल भारत के सामूहिक विकास की वृहत्तर संवाद-भूमि तैयार की, जिस पर बैठकर सहिष्णुता सद्भावना और संवेदनापूर्ण समाज का निर्माण हो रहा है। वर्गवादी सोच प्रतिभा को, अन्वेषण क्षमता, संवेदना एवं मौलिकता को रूग्ण करता है। इसके लिए जरूरी है कि
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दलित-विमर्षकारों-साहित्यकारों को आक्रोष-प्रतिषोध जैसी निषेधात्मक ऊर्जा का एवं गैर-दलित साहित्यकारों को संकीर्ण-रूढ़िवादी स्थापनाओं का त्याग करना पड़ेगा। सृजनात्मकता के स्तर पर संवेदना के साथ मौलिकता एवं कथ्यगत नवता का ही अभिवन्दन होता है। कालजयी रचनाधर्मिता के लिए तटस्थ रहना आवष्यक है। ऐसे ही समावेषी और सहिष्णु रचनाकारों में कबीर, रैदास, प्रेमचन्द, निराला, यषपाल, अज्ञेय, मुक्तिबोध, वाल्मीकि, माता-प्रसाद, हीरा डोम, षिवमूर्ति, एस.आर. हरनोट आदि हैं, जिनकी रचनाओं को (विचार को) भारत के बुद्धिधर्मी समाज में सार्वभौम स्वीकृति मिलती है।
समय बदला है, देष को छिन्न-भिन्न होने से बचाने के लिए एक विषद समन्वित निरापद, सामुदायिक एवं जातिमुक्त समाज का निर्माण करना होगा। डाॅ0 अम्बेडकर ने भी बौद्ध धर्म स्वीकारते हुए यह माना कि बौद्ध धर्म भारतीय सभ्यता का ही अनिवार्य अंग है, जहाॅ की परम्परा अवर्ण है और यह इस युग का एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प भी है, ’’ मैं वही रास्ता चुनॅूगा जिससे देष की न्यूनतम क्षति हो, और बौद्ध धर्म अपनाकर मैं देष को अधिकतम लाभ पहुॅचा रहा हॅू क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय सभ्यता का अनिवार्य अंग है। मैंने यह सावधानी बरती है कि मेरा धर्मान्तरण इस भूमि की परम्परा, संस्कृति एवं इतिहास को क्षतिग्रस्त नहीं करेगा। ’’1 इस बात को बहुत पहले ही संत रैदास, नानक, संत कबीर आदि ने समझ लिया था कि वर्ण-सम्प्रदाय भेद के कारण समाज टूटेगा और टकराव विद्वेषपूर्ण-माहौल पनपेगा। इसलिए उन लोगों ने एक दूसरे से भेद-भाव करने पर खुब फटकार लगाई है। कबीर का स्पष्ट मानना है कि वेद-कतेब, स्त्री-पुरूष, दीन-दुनिया, ब्राम्हण-सूद्र में कोई अन्तर नहीं है .....
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ऐसा वेद बिगूचन भारी।
वेद कतेब दीन अरू दुनिया कौन पुरूष को नारी।
एक रूधिर एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक बॅूद तै सृष्टि रची है, कौन बाभन को सूदा।
-(कबीर ग्रन्थावली-सं0डाॅ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी)
नीहित स्वार्थो के चलते सामन्ती-जातिवादी वर्चस्व बनाये रखने के लिए पुरोहितवादी संस्कृति के दंभी ठेकेदारों ने व्यवस्था को अपने हाथों का खिलौना बनाये रखा और दलित अस्मिता को आहत करते रहे-
चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब का
तालाब ठाकुर का,
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की,
बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का,
हल के मूठ पर रखी हथेली अपनी
फल ठाकुर का, कुॅआ ठाकुर का।
पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ? गाॅव ? शहर ? देष ?’’ 2
यह वर्गबोध-जातिबोध ऐसे ही नहीं पनपा। सदियों से पीड़ित-षोषित, वंचित, अपमानित जातियों के लोग अभावग्रस्त-अमानवीय जीवन जीये जा रहे थे, लेकिन दलित बुद्धिजीवियों एवं विमर्षकारों के आगमन से यह जातिबोध अपने प्राकृतिक अधिकारों के प्रति सजग
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हुआ। हीनताबोध से उबरे इस समाज ने अपनी बात स्वयं कह लेने की ताकत पैदा की है जो स्वागत योग्य है-
’’ साहित्य हम भी सृजित करेंगे
नहीं होंगे जिसमें छंद, नहीं होंगे कोई बंध
नहीं होगी इसमें मेरी अपनी वेदना
मेरा अपना दर्द। ’’3
महाभारत के यक्ष-प्रष्न का उत्तर भी यही रहा कि कोई व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण-सूद्र नहीं होता। सामंती क्रूरता के षिकार लोगों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ। वर्णवादियों के चेहरे पर अब कालिख पुत गयी है। यह बड़ा अच्छा होगा कि आत्मविष्लेषण किया जाय और एक साक्षी संस्कृति का निर्माण किया जाय। जन्म और कर्म में अन्तर होता है, यही सत्य है। इन्हीं बातों की ओर इस काव्य खण्ड में इषारा है -
’’वह दिन कब आयेगा
जब बाभनी नहीं जनेगी बाभन
चमारी नहीं जनेगी चमार
भंगिन भी नहीं जनेगी भंगी।
तब नहीं चुभेगे
जातीय हीनता के दंष
नहीं मारा जायेगा, तपस्वी शंबूक
नहीं कटेगा अंगूठा एकलव्य का
कर्ण होगा नायक
राम सत्ता लोलुप हत्यारा।’’ 4
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’’साहित्य समाज का दर्पण है, किसी वर्ग की जागीर या धरोहर नहीं। हिन्दी साहित्य को और अधिक ऊर्जावान, वैचारिक विस्तार देने एवं मूल्यवान बनाने के लिए समूचे साहित्य में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य भी शामिल हो।’’5दलित वर्ग को उसके प्राकृतिक अधिकारों के साथ खड़े होने की हिम्मत वास्तव में दलित साहित्य ने प्रदान की है, ’’ दलित साहित्य केवल दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य नहीं है बल्कि वह साहित्य है जो दलित चेतना को अभिव्यक्त करता है।’’6 यहाँ मात्र साहित्य रचना उद्देष्य नहीं बल्कि उस समूह या वर्ग को न्याय दिलाला भी है, जो उपेक्षा के षिकार हैं, पीड़ित और शोषित है, ’’ शोषण -दमन के विरूद्ध जुझारू या क्रान्तिकारी साहित्य की एक लम्बी परम्परा है- जनवादी साहित्य, माक्र्सवादी साहित्य, काले लोगों का साहित्य और अब दलित साहित्य।’’7 निष्चित रूप से वह वर्ग जिसने अपने खून-पसीने से आराम की व्यवस्था दी, वहीं अत्याचार सहता रहा, जिसके बारे में चर्चा जितनी होनी चाहिए- जिस तरह से होनी चाहिए थी नहीं हुई। लेकिन दलित साहित्य ने दरवाजे खोले है और एक बदलाव का साहित्यिक प्रांगण तैयार किया है ’’ (दलित साहित्य) नवयुग का एक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनषील साहित्यिक हस्तक्षेप है ........सामाजिक बदलाव का दस्तावेज है। ’’8 और इसी बदलाव से हम साहित्य में जहाँ सर्जना और समीक्षा दोनों ही स्तर पर नवीन मानक की स्थापना की ओर बढ़ रहे हैं, वही एक नये वर्ग विहीन समाज की संरचना भी करने की ओर बढ़ रहे है।
वस्तुतः साहित्य में दलित साहित्य का अवदान धरोहर के रूप में स्वीकार किया जाना समयानुकूल और प्रासंगिक है। हमें एक दूसरे के अनुभवों और संवेदनाओं को बाँटने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए और दलित-गैर दलित यथार्थ को पहचानने का प्रयास करना चाहिए। व्यापक रूप से पिछड़े व सांस्कृतिक-साहित्यिक राजनीतिक-
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सामाजिक-आर्थिक रूप से दबाये गये समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने में पूरी ईमानदारी प्रदर्षित करनी चाहिए। आक्रोष और विरोध में प्रतिभाओं का उभार नही हो पाता है। बात यह भी जरूरी है कि नव्यता, मौलिकता, गुणवत्ता और अर्थवत्ता को लेखन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामग्री मानकर ही साहितय रचना संभव है। इस सम्बन्ध में डाॅ0 नामवर सिंह का कथन उचित ही है कि, ’’ साहित्य में आरक्षण नहीं हो सकता और न हो सकेगा। साहित्य का एक सिद्धान्त रहा है कि रचना को देखों, रचनाकर को मत देखो। कबीर ने कहा था कि जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान.......देखो यह कि रचना क्या कहती है। साहित्य का यह सिद्धान्त रहा है और इसे मैं मानता हँू।’’ 9 कुल मिलाकर हिन्दी में समकालीन दलित साहित्य नयी चेतना, संवेदना, नयी ऊर्जा, नये संस्कार और विचार के साथ वर्णवादी जड़ता को समाप्त करने के लिए तेवर और साहस से पदार्पण कर चुका है, साहित्य मनीषा ने इसका स्वागत भी भरपूर किया है। स्वागत इसलिए भी कि इससे पाखंडी समाज तार-तार होगा, सहिष्णु एवं सद्भावी भारत का निर्माण होगा। सामूहिक विकास की इस वृहत्तर संवाद-भूमि पर बैठकर ही हम समतामूलक-समरस समाज गढ़ पायेंगे- आवष्यकता है वर्गभेद से ऊपर उठकर अवदान के लिए संकल्पित होने की।
संदर्भ-
1- बाबा साहेब अम्बेडकर जीवन चरितः धनन्जय वीर: पू0 498
2- ओमप्रकाष वाल्मीकि की कविता, ठाकुर का कुआँ ज्ञंअपजंावेीण् 0तहण्
3- डाॅ0 सी0बी0 भारती की कविता ’साहित्य सृजन’ ज्ञंअपजंावेीण् 0तहण्
4- सदियों का संताप: ओमप्रकाष वाल्मीकि ज्ञंअपजंावेीण् 0तहण्
5- दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द-प्रेमचन्द साहित्य संस्थान-ष्योराज सिंह बेचैन। शुक्रवार 29 जुलाई 2005, पी0बी0सी0 हिन्दी
7- डाॅ0 तुलसी राम, 1936 में उरई में दलित जागरण गोष्ठी में दिया गया वक्तव्य’
7- हिन्दी में दलित साहित्य आलोचनाओं के उत्तर’- मणिषेखर-दलित लिबरेषन टुडे (अप्रैल 96) पृ0 26-29
8- दलित साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र डाॅ0 सी0बी0 भारती, हंस (अगस्त-1996) पृ0-70-71
9- ’कथन’ डाॅ0 नामवर सिंह अक्टूबर-दिसम्बर-1998 पृ0 65,
डा0 शषिकला जासवाल
असि0 प्रोफेसर-हिन्दी
राजकीय महिला पी0जी0 काॅ0, गाजीपुर
म्उंपस ेींेपीपेीेीतंककीं/हउंपसण्बवउण्
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