जय श्री राम !जय श्री राम !का उद्घोष, सिंधु की उत्तंग लहरों से टकराकर स्वर्ण नगरी में फैल गया । यह संदेश था, जो सांझ के धुंधलके में इस सन्नाटे भरी नगरी में दबे पांव पसारने लगा था, कि उनका वीर योद्धा किंतु अहंकारी राजा अब नहीं रहा ,कोई खास हलचल नहीं थी ।जैसे सब को पहले से ही परिणाम पता था, जैसे सब उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे, कि जो कुछ होना है, वह शीघ्रता पूर्वक घटित हो और इस असमंजस और उहापोह के वातावरण से मुक्ति मिले। दुर्बल कृषकाय तापसी जो अशोक वृक्ष के नीचे बिछे कुशासन पर किसी क्षीण मुरझाई सी लतिका की भांति पड़ी थी ,अचानक उठ बैठी, उसके दुर्बल शरीर में रक्त संचार हो गया। जैसे सूर्य की भीषण ताप से सुखी वनस्पति ,वर्षा की प्रथम फुहार से हरी- भरी होकर प्रस्फुटित होने लगती है। वैदेही के चेहरे पर स्वर्णिम कांति की आभा प्रस्फुटित होने लगी ,उसकी प्रार्थना और अडिग विश्वास रंग लाया ,अपने पति की विजय की कामना और प्रार्थना करते वक्त ऐसा नहीं था कि वह कभी टूटी नहीं ,वह कई बार निराश हो जाती थी ।राम का सुकुमार होना और साधन हीन होना ,उसके नारी सुलभ मन में सैकड़ो आशंकाएं जगाता था।दशानन का छल ,बल ,प्रपंची होनाऔर संपूर्ण साधनों से युक्त होना,उसे डरा जाता था ।पर फिर भी उसे अपने राम पर अटल विश्वास था ।उसने कठिन से कठिन परिस्थितियों में राम को धैर्य पूर्वक संघर्ष करते और विजयी होते देखा था। उनकी शक्ति और युक्ति पर उसे पूर्ण भरोसा था ।शुक्ल पक्ष की दशमी दोपहर का समय था। सभी परिचारिकाएं महल की ओर प्रस्थान कर गई थी ,जहां से रह-रहकर कभी मंदोदरी की सिसकियां उठती थी ,तो कभी विलाप जो प्रलाप में बदल जाता था ।वो रुदन के साथ प्रलाप करते हुए कह रही थी-" हे प्रिय !मेरे वीर योद्धा ! लंकापति इस तपस्वीनी के प्रति तुम्हारे मोह ने हमारे परिवार की और इस सोने की लंका की क्या दशा की । कोई तुम्हारी मृत्यु पर शोक करने वाला तुम्हारा भाई या पुत्र नहीं बचा ,हमारी परिवार की सारी स्त्रियां विधवा और पुत्र हीन होकर जड़ हो गई। वह तुम्हारी मृत्यु पर जरा भी आंसू नहीं बहा रही हैं ।बल्कि अपने पति और पुत्रों की मृत्यु का कारण तुम्हें मान कर धिक्कार रही है ।हाय !मैं तुम्हारी ऐसी मृत्यु से शोक संतप्त हूं ।कि तुम्हारी प्रजा तुम्हारी मृत्यु पर शोक मनाने के बजाय ,तुम्हारे शत्रु का गुणगान कर रही है, तुम्हें तो सदैव से ही में सर्वाधिक प्रिय थी । फिर प्रोढ़ आयु में आकर इस तापसी को क्यों अपने हृदय में बसाया। तुम्हारे इस मोह ने हमारे कुल का सर्वनाश कर दिया ।" मंदोदरी के कानों में रावण के वह शब्द गूंज रहे थे जो - उसने कितनी ही बार सीता से मंदोदरी के समक्ष ही कहे थे, कि यदि सीता उसकी बात मान लेगी तो वह उसकी महारानी बनेगी और मंदोदरी उसकी दासी के समान रहेगी ।जब से सीता लंका में आई कितनी बार मंदोदरी को अपमान की आग में जलना पड़ा था। जब से रावण से विवाह हुआ उसने रावण की सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ी थी, उसने एक धर्म परायण स्त्री की तरह अपने कर्तव्य का निर्वहन किया था, रावण के अंत:पुर में एक के बाद एक स्त्रियां आईं ,पर कोई भी उसके महारानी पद और रावण के प्रति उसके प्रेम के प्रति चुनौती नहीं बन सकी ।पर हाय रे यह पुरुष ह्रदय ! इस प्रोढ़ उम्र में आकर रावण सीता के मोह में ऐसा मतांध हुआ कि उसके जीवन भर के समर्पण को भुला बैठा ,यह भी भूल गया कि मंदोधरी लंका के युवराज और उसके जेष्ठ पुत्र की माता है ।महारानी तो वह अब भी नहीं रहेगी , पर महारानी थी ,तब भी बार-बार सीता को महारानी बनाने की बात कहकर - क्या रावण ने उसके मान को पद - दलित नहीं किया, कल विभीषण महाराज होंगे और उनकी पत्नी महारानी होगी, और वह एक साधारण विधवा स्त्री होगी ।पर कम से कम उस अपमान की आग में तो नहीं जलेगी ,जिसमें उसे जीते जी रावण ने झुलसाया आया था । उसने पल-पल अग्नि परीक्षा दी थी ।मंदोदरी को लगा कि वह सब कुछ हार गई है ,राज्य गया ,पति गया ,कुटुंब -परिवार गया और रावण की हृदय साम्राज्ञी होने उसका वह मान भी चला गया ।*****************
******* अशोक वाटिका में पूरी तरह सन्नाटा व्याप्त था ।पक्षी भी स्तब्ध थे। पेड़- पौधे भी स्थिर थे, मानो इस घटना से ठगे से खड़े रह गए थे । 10 माह के लंबे वियोग के पश्चात वैदेही राम से मिलने के लिए व्याकुल थी ।राम के साथ बिताया हर क्षण, दृश्य बनकर उसके सामने घटित हो रहा था। मिथिला में वाटिका में पुष्प चुनने आए सुकुमार किशोर वय के राम ! जिन्हें देखकर प्रथम दर्शन में उसका मन आकर्षित हो गया था। सीता के स्वयंवर में उसे प्राप्त करने के लिए धनुष का संधान कर राक्षसों के विनाश, और धर्म की स्थापना कर ने कि प्रतिज्ञा करते हुए वीर श्री राम ! धनुष टूटने पर परशुराम के क्रोध को शांत करने वाले विनम्र राम ! सीता के प्रेम में डूब जाने वाले भावुक प्रेमी राम ! माता- पिता की आज्ञा पालन करने के लिए राज सिंहासन का पल भर में त्याग कर , वन के लिए प्रस्थान करने वाले त्याग और वैराग्य की प्रतिमूर्ति राम ! राम !राम !राम ! उसे अपने चारों और सिर्फ राम ही दिखाई दे रहे थे।वह भी त्रिजटा नाम कि वह परिचारिका उसके पास आई जो इस कठिन समय में उसकी पुत्री की तरह देखभाल करती रही थी कई बार सीता की दुखी होने पर अपने जीवन का अंत तक करना चाहता एक रिश्ता ही थी जो उसे धैर्य बन जाती थी और दुख की घड़ी में उसका मनोबल बनाए रखती थी। पुत्री सुना तुमने तुम्हारे पति श्री राम की विजय हुई है लंकापति रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए हैं ।अब तुम्हारे दुखों का अंत हुआ ,शीघ्र ही तुम श्री राम से मिल सकोगी पर, आज रात्रि तुम्हें इस वाटिका में अकेले ही गुजारनी होगी हमें महारानी मंदोदरी के साथ रणक्षेत्र में जाना है । श्रीराम ने महारानी जी को लंका पति की अंत्येष्टि में सम्मिलित होने के लिए बुलाया है ।हम सब उनके साथ जाएंगे और लौटकर आज रात्रि उन्हीं के साथ उनके महल में रहेंगी क्योंकि वे शोक संतप्त है। सचमुच श्री राम बड़े दयालु हैं, कि वह ससम्मान लंकापति का अंतिम संस्कार कर रहे हैं । धन्य है आर्य संस्कृति जहां शत्रु के शव की सम्मान सहित अंत्येष्ठि की जा ती है हमारे राक्षस जाति में तो शत्रुओं के शवों को भी क्षत विक्षित कर अपमान किया जाता है। सीता निशब्द थी। उसकी आंखों में अश्रु की दो बूंदे ढुलक गई यह मिले-जुले आंसू थे ,राम विजय से वह भाव विहल थी ,पर मंदोदरी के दुख से दुखी भी हुई थी । उसका साक्षात्कार कई बार मंदोदरी से हुआ था, वह कई बार खुद इस रावण के पीछे दौड़ती हुई वाटिका में आई थी। इसलिए कि कहीं क्रोध में रावण कोई अर्थ न कर बैठे, अनुनय -विनय और चतुराई से वह उसे वहां से ले जाती थी ,और जाते-जाते परिचारिकाओं को ध्यान रखने का निर्देश जाती थी । वह सोच रही थी कि आर्यव्रत में घुसकर यहां के कुछ दुष्ट लोग लोगों द्वारा आतंकवाद मचाने के कारण ,वहां के लोग इन्हें राक्षस जाति की संज्ञा दे दी है।पर यहां के आम नागरिक आर्यव्रत जैसे ही हैं । वह बुरे नहीं हैं, त्रिजटा और अन्य राक्षस परिचारिका ओं ने उसका खूब ध्यान रखा है । वह आज उन्हीं की वज़ह से जीवित है। त्रिजटा केले के पत्ते पर कुछ फल रखकर और पानी रख कर वहां से चली गई ।वैदेही ने 10 माह से रावण के द्वारा दिए हुए अन्न और वस्त्र को हाथ नहीं लगाया था ।वह फल खाकर ही जीवित थी। उसने अपनी साड़ी के दो हिस्से कर लिए थे। रात्रि के चौथे पहर में स्नान करती और इन्हीं वस्त्रों से काम चलाती थी । उसके यह वस्त्र जीर्ण हो चुके थे ।वाटिका में नीरवता व्याप्त थी ।शायद सब लोग अंत्येष्टि में सम्मिलित होने के लिए जा चुके थे। वह कुशासन पर आंखें मूंदकर लेट गई। मगर उससे नींद नहीं आ रही थी।
रावण की अंत्येष्टि हो चुकी थी ।रात्रि का प्रथम पहर आरंभ हो चुका था । युद्ध- शिविर में राम अपने खेमे के बाहर स्फटिक शिला पर शांत मुद्रा में बैठे समुद्र की लहरों को निहार रहे थे ।दशमी का आधा चंद्रमा तारा गणों के साथ गगन में विचरण करने निकला था। पर यूं ठिठका का सा खड़ा था, मानो वीर प्रतापी सूर्यवंशी राजा - राम का दर्शन कर रहा हो राम के कुंतल केश समुद्र से आती तेज़ हवाओं से लहरा रहे थे ।पिछले 10 माह की कठिन साधना और भीषण संघर्ष के बाद आखिर उन्होंने अपनी प्राणप्रिया को प्राप्त कर ही लिया था ।बस कुछ घंटों का इंतजार था ,सीता से साक्षात्कार होने में। प्रातः राम ने विभीषण को आज्ञा दी कि वे वैदेही को वहां लिवा लाएं विभीषण को आज राम थोड़े से उद्विग्न दिखाई दिए ,उनकी आंखें लाल थी। जैसे वह रात भर सो नहीं सके हों, विभीषण का संदेश आते ही सीता ,राम से मिलने को आतुर हो उठी, पर तभी वहां पर विभीषण की पत्नी वस्त्र आभूषण लेकर आ गई। इतने दिनों बाद तुम्हारा इस तरह राम के समक्ष जाना उचित नहीं सीता! लो स्नान करके वस्त्र आभूषण पहन लो -उसने कहा तो सीता मान गई वह स्वयं भी मैले -कुचले वस्त्रों में वहां उपस्थित नहीं होना चाहती थी। उन्हें पालकी में अपने साथ सम्मान सहित लेकर विभीषण राम के समक्ष उपस्थित हुए। मैदान के एक छोर पर राम -लक्ष्मण, सुग्रीवऔर हनुमान के साथ खड़े थे और पूरा वानर समुदाय उनके साथ खड़ा था ।दूसरे छोर पर विभीषण के साथ सीता पालकी में थी ।पालकी सोने व चांदी की बनी थी जिस पर लंका का राज्य चिन्ह लगा हुआ था ।पालकी के साथ आए लंका के सैनिक व अंगरक्षक ,सीता के दर्शनों को आतुर वानरों को घुड़क कर हटा रहे थे। यह सब राम को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उन्होंने आदेश दिया कि पालकी वही रूके और वैदेही पैदल चलकर वहां आए ,सीता ने ऐसा ही किया, वह पालकी से उतरकर राम की ओर बढ़ी, सीता बहुमूल्य वस्त्र आभूषण धारण किए थी यह देखकर राम और अधिक उद्विग्न हो गए ।उनके चेहरे पर कई भाव आ- जा रहे थे ।वे प्रसन्न नहीं थे ,लक्ष्मण ,हनुमान सहित सुग्रीव विभीषण भी हतप्रभ थे, वे राम के व्यवहार को समझ नहीं पा रहे थे। उनके मन में प्रश्न था कि आखिर सीता को देखकर भी वे प्रसन्न क्यों नहीं है? दुर्बल और कृष्ण काय होने पर भी सीता सौंदर्य की प्रतिमा दिखाई दे रही थी। उनकी चेहरे पर अपने प्राण वल्लभ से मिलने की उत्सुकता थी, वह दीपशिखा सी ,राम की ओर बढ़ रही थी ।
राम का मन संदेह से भर उठा ,न जाने क्यों उन्हें सीता अपनी सी नहीं लग रही थी ।जब सीता उनसे बिछड़ी तो वल्कल वस्त्र धारण किए थीं ।वे जब जंगल -जंगल भटकते अपनी प्राण -प्रिय को ढूंढ रहे थे, तो वल्कल वस्त्रों वाली सीता को ही वे तलाश रहे थे। यह वह सीता नहीं है ! स्वर्ण जड़ित पालकी में आई ,बहुमूल्य वस्त्र धारण किए, यह उनकी वैदेही नहीं है ! उनके हृदय में संदेह के बादल घुमड़ आए सीता परम सुंदरी है ,विवाह से पूर्व ही उसके अलौकिक सौंदर्य की चर्चा संपूर्ण आर्यव्रत में ही नहीं ,सुदूर देशों में पहुंच चुकी थी ,अनेक राजा- महाराजा, राजकुमार उसे पाने को लालायित थे ,इसीलिए राजा जनक ने सबसे योग्य वर की तलाश के लिए धनुष संधान की कठोर शर्त रखी थी यह कैसे संभव है कि सीता जैसी परम सुंदरी रावण की लंका में रही और वह सीता के समीप नहीं गया। उसने सीता को ऐसी ही छोड़ दिया यह कैसे हो सकता है ? उनके पुरुष हृदय में अनेक सवाल उठ खड़े हुए थे हृदय और मस्तिष्क में सैकड़ों लहरें उठ खड़ी हुई ।जो इस सिंधु की लहरों से भी भयंकर शोर कर रही थी ।मेरे साथ संपूर्ण राज्य का त्याग करके निकली सीता के हृदय में कहीं स्वर्ण का मोह तो नहीं रह गया था? वह तो एक स्वर्ण के मृग पर ही मोहित हो गई थी ।तो क्या इस सोने की लंका ने उसे नहीं मोहित किया होगा मेरे पास क्या है इन वल्कल वस्त्र और इस धनुष के अलावा ।मैं ठहरा एक तपस्वी 14 बरस से भरत अयोध्या का राजा है ,वह मुझे राज्य लौटाए या नहीं ,क्या पता ?मैं तो रह लूंगा पर क्या फिर से सीता मेरे साथ वन में भटकने को तैयार है। उन्हें सीता के मन को अभी टटोलना होगा ।अभी उसके मन की बात को जानना होगा ।अभी फैसला करना होगा। वे से शिला पर बैठ गए ,अब तक सीता उनके सम्मुख आकर खड़ी हो गई थी , वे राम के चेहरे को निहार रही थी ।सभी लोग स्तब्ध से राम को देख रहे थे ।राम ने सीता की ओर देखते हुए कहा -"सीता तुम्हारे चरित्र में संधि का अवसर उपस्थित है, रावण ने तुम्हारा हरण करते समय तुम्हारा स्पर्श किया था ।तत्पश्चात तुम्हें इतने समय अपने घर में पाकर भी वह तुमसे कैसे दूर रहा ! मैंने उसे युद्ध में परास्त करके अपने कुल को कलंकित होने से बचाया है ,मैं यह युद्ध अपने महान वंश की मर्यादा को जाने की लिए किया है ,तुम्हें पाने के लिए नहीं! तुम जहां भी रहना चाहो, रह सकती हो। अपने वंश को महान बताते हुए भी,दूसरे के घर में इतने लंबे समय रही हुई स्त्री को यदि मै पत्नी के रूप में कैसे ग्रहण करूं तो संसार क्या कहेगा ?"
सीता की आंखों से अविरल अश्रु धारा बह निकली, उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इतने माह के लंबे वियोग के पश्चात जब उसके प्राण प्रिय राम उससे मिलेंगे तो ऐसे कठोर शब्द कहेंगे । धनुर्धर राम ने जैसे युद्ध में शत्रुओं पर बाण चलाए थे , वैसे ही जहर बुझे बाणों से सीता का हृदय लहूलुहान कर दिया था ।इतना संताप तो रावण की कैद में भी उसे नहीं हुआ जो राम ने उसे दो पल में दे दिया था। जिसके लिए वह जीवित थी। आज उसी ने अपनी नजरों से उसे गिरा दिया था ।उसे जीने का अब कोई प्रयोजन नजर नहीं आ रहा था। भरी सभा में आज राम ने उसे अपमानित कर दिया था। उस राम ने जिसका उसने किशोर वह में वरण किया था और तब से अब तक उसका मन उसी के हृदय से जुड़ा हुआ था। सीता स्वयं को हारा हुआ महसूस कर रही थी । उसे लगा कि सब कुछ पाकर भी, उसने सब खो दिया है ।उसके मन में विचार आया कि वह कि अभी इसी क्षण, अग्नि प्रज्वलित हो और वह उसमें समा जाए, इस अपमान की अग्नि में ,जलने से बेहतर है ,कि पवित्र अग्नि में प्रवेश कर जाए ,सीता ने अवरुद्ध कंठ से राम की ओर देखते हुए कहा- "कि किशोर वय से अब तक साथ रहने पर भी क्या तुम मुझे इतना ही परख पाए हो ? क्या 10 माह में ही सीता और उसका चरित्र बदल गया ? राम अगर तुम्हें मेरा परित्याग ही करना था, तो दूत बनकर आए हनुमान से ही यह सब क्यों नहीं कहलवा दिया? मैंने उसी समय अपने प्राणों का त्याग कर दिया होता।" सीता ने लक्ष्मण को अग्नि प्रज्वलित करने का आदेश दिया । फिर रोष पूर्वक राम से कहने लगी - "राम इस अपमान की आग में जलने से अच्छा है, कि मैं जीवित जल जाऊं, पर जाने से पूर्व अवश्य कहूंगी कि क्या स्त्री सिर्फ शरीर है ? उसके हृदय -मन -आत्मा का कोई मूल्य नहीं ? कोई बल शाली पुरुष किसी स्त्री का अपहरण कर ले ,तो वह दोषी कैसे हैं ? दोषी तो वह पुरुष है ।फिर लोकोपवाद स्त्री के लिए ही क्यों ? लंका में मेरे साथ क्या हुआ और क्या नहीं, इसकी गवाह तो सिर्फ मैं ही हूं ।तुम और यह जनसमुदाय मुझे सच्चा समझ कर मुझ पर विश्वास कर सकता है। और झूठा समझ कर आ विश्वास भी कर सकता है। पर मेरा प्रश्न यह है कि, जिस कार्य में स्त्री की कोई इच्छा नहीं पुरुष के समान शक्तिशाली ना होने के कारण जो पीड़ित हुई हो ,परिस्थिति का शिकार हुई हो ,आखिर वह दोषी कैसे है ??तुम्हारे जैसा महापुरुष भी ,यदि इस प्रकार की अन्यायपूर्ण बात करेगा तो साधारण लोग फिर कैसा बर्ताव करेंगे । सीता धीरे-धीरे अग्नि की ओर बढ़ने लगी ।उसके हृदय में धधकती अग्नि के समक्ष इस अग्नि की तपिश कहीं कम थी।
Rekha Pancholi.
334,Shastri Nagar Dadabari,Kota
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