नफ़रत के बीज
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पत्थर जो चला रहे हो
शायद किसी आशियाँ का है
रहते थे सब सुकून से जिसमें
वो घर अब खंडहर सा है
सीना छलनी किया जिसका
वो सीना किसी रखवाले का था
तुम चैन से सोते थे जब
वो रात भर जागता रहता था
नफ़रतों के बीज अंकुरित हो रहे
विशाल वृक्ष न बन जाए
उखाड़ फेंको उसे
कीड़े कही न लग जाए
क्यों हिंसा के नशे में डूबे हो
धरना ,प्रदर्शन के नींद से जागो
खुमारी बदले की त्यागो..
निर्दोष न कोई बे मौत मरे
दोषियों को धर पकड़ो |
सेवक हो हम सबकी
उलझन सबकी सुलझावों
सत्ता के खुमारी से उठकर
विश्वास का दर्पण दिखलाओ|
सविता गुप्ता
राँची (झारखंड)
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