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Sunday, February 23, 2020

रामधारीसिंह "ष्दिनकर" की प्रमुख प्रबंध कृति र: "ष्कुरुक्षेत्रष" ;प्रबंधकाव्यद्धमें युध्द विषयक विचार

 श्री रामधारीसिंह ष्दिनकरष् ने ष्कुरुक्षेत्रष् प्रबंधात्मक काव्य के लिए ही लेखनी नहीं उठाई है द्य उन्होंने तो इस प्रबन्ध काव्य की आड़में युध्द की अनिवार्यता तथा आधुनिक युगमें अहिंसा तथा तप की निस्सारता पर प्रकाश डाला है द्य ष्कुरुक्षेत्रष् की भूमिकामें ही उन्होंने लिखा है दृ
   श् बात  यों  हुई  कि  पहले मुझे अशोक के
    निर्वेदने आकर्षित किया और ष्कलिंग.विजयष् 
    नामक  कविता  लिखते . लिखते मुझे ऐसा 
    लगाए  मानों  युध्द  की समस्या मनुष्य की 
    सारी  समस्या  की  जड़  हों द्य श्
 कवि वर्तमान युग के लिए अहिंसा और तप को व्यर्थ समजते हुए लिखते हैं दृ
   श् इसी  क्रममे  द्दापर  की  और  देखते  हुए मैंने
     युधिष्ठिर को देखा जो ष्विजयष् इस छोटे से शब्द
     को कुरुक्षेत्र में बिछी हुई लाशों से तोल रहे थे द्यण्ण्ण्
     ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् आत्मा का  संग्राम आत्मा से और देह का 
     संग्राम  देह  से  जीता  जाता  है द्यश्
यधपि दिनकरजी मानते है कि दृ
   श् युध्द एक निन्दित और क्रूर कर्म है द्य श्
पर साथ ही कवि यहभी सोचता है कि दृ
   श्किन्तु इसका दायित्व किस पर होना चाहिए घ् ण्ण्ण्
   ण्ण्ण् शान्ति की रचना तो दुर्योधनने भी की थीए
   तो क्या युधिष्ठिर महाराज को इस शांति का भंग 
   नहीं करना चाहिए था घ्श्
इस प्रकार कविने इसकी आधारभूमि पर स्वयं ही प्रकाश डाल दिया है द्य
’ दिनकरजी के युध्द विषयक विचार रू.
 दिनकरजी के युध्द विषयक विचार निम्नप्रकार से देखे जा सकते है द्य
 १ण् वर्तमान समस्या रू पुराना माध्यम रू.
  ष्कुरुक्षेत्रष् में वर्तमान समस्या ष्युध्द की समस्याष् को सुलझाने के लिए दिनकरजी ने पुराना माध्यम ष्महाभारतष् का आधार लिया है द्य युध्द की समस्या मानव समाज की एक चिरंतन समस्या है द्य मनुष्य अबतक इस समस्या को हल करने में समर्थ नहीं हुआ है द्य युध्द के लिए कोई एक व्यक्ति उत्तरदायी न होकर सारा समाज होता है द्य इसलिए युध्द के कारणों पर समष्टिगत रूपमें विचार करना होगाए व्यक्तिगत रूपमें नहीं द्य
  महाभारत का युध्द केवल दो पक्षो का ही युध्द न थाए बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष का विकट विस्फोटक था द्य यह अन्याय के विरुध्द न्याय काए अनीति के विरुध्द नीति काए पाप के विरुध्द पुण्य का युध्द था द्य इसीलिए युध्द का उत्तरदायित्व उसी के उपर होता है जो न्याय को चुराता है दृ
   श्चुराता न्याय जोए रण को बुलाता भी वही है द्यश्
  युध्द की समस्या सनातन समस्या है द्य युध्द के पश्चात का द्रश्य देखकर व्यक्ति बहोत दुःखी होता हैए किन्तु युध्दकाल के पश्चात वह फिर नए युध्द में प्रवृत होता है द्य कविने लिखा है दृ
   श् हर युध्द के पहले द्दिधा लडती उबलते क्रोध से 
      हर  युध्द  के  पहले  मनुज  है  सोचताए
       क्या  शस्त्र  ही  उपचार  एक  अमोघ  है 
       अन्याय काए अपकर्ष काए गरलमय दोह का ण्ण्ण्घ्श्
 २ण् युध्द एक अनिवार्य विकार रू.
  ष्कुरुक्षेत्रष् का आरंभ युध्दान्त पर युधिष्ठिर के ह्दय की ग्लानि के चित्रण के निर्वेद के साथ होता है द्य प्रस्तुत प्रसंगमें युधिष्ठिर का केवल इतना महत्व है कि उसके ब्यान से ही भीष्म पितामह द्द्वारा शौर्यकी महिमा का व्याख्यान किया गया है तथा युध्द के अनधत्व की स्थापना की है द्य इस प्रकार युध्द एक अनिवार्य विकार है द्य
 ३ण् युध्द आपधर्म रू.
  दिनकरजीने युध्द या हिंसाको जीवनके अंतिम लक्ष्यके रुपमें कभी नहीं स्वीकार किया द्य कोईभी कार्य चाहे वह वैयक्तिक हो या समष्टिगत अपने आपमें पुण्य या पाप नहीं होता द्य फिर युध्द तो बिलकुल ही अपवाद है द्य
   श् क्योंकि  कोई  कर्म  है ऐसा नहीं 
     जो स्वयं ही पुण्य हों या पाप होए
    और समर तो और भी अपवाद है 
    चाहता कोई  नहीं  इसकोए  मगर 
    जूझना  पड़ता  सभीकोए शत्रु जब 
    आ गया हो द्दार पर ललकारता द्य श्
  स्वत्वए धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए जो युध्द किया जाता है वह पाप नहीं होता द्य
   श् छीनता  हो  स्वत्व कोई और तू
    त्याग तप से काम लेए यह पाप है द्य
    पुण्य  है  विछिन्न  कर  देना उसे 
    बढ़  रहा  तेरी  तरफ  जो  हाथ है द्य
   त्यागए तपए करुणाए दयाए क्षमा मनुष्य के व्यक्तित्व का परिष्कार करते हैए उसे मनुजत्व से देवत्व की और ले जाते है द्य युध्द की स्थिति अपवाद हैए क्योंकि आत्मबल मनोबल के सामने नहीं ठहर सकता द्य
  इसी प्रकार विवशता की स्थितिमे की गई क्षमा अर्थहीन हैए अभिशाप है दृ
’ दिनकरजी के शांति विषयक विचार रू.
 ष्कुरुक्षेत्रष् में दिनकरजीके शांति विषयक विचारों को भी अभिव्यक्त किया गया है द्य आज की अनेक समस्याओंका समाधान कविको समय एवं मैत्री के आधार पर अव्यवस्थित समाज व्यवस्थामें दिखता है द्य प्रवृति और निवृतिए बुध्धि एवं भावनाए प्रेम और कठोर नीतिए हिंसा और अहिंसा तथा आत्मबल और बाहुबल के बीच जो शाश्वत संघर्ष आदिकालसे चल रहा है उसका चित्रण तो इस काव्यमें है हीए आज के युग के युध्द और शांतिए व्यक्तिधर्म और समाजधर्मए भाग्यवाद और कर्मवाद विज्ञान और अध्यात्मवाद तथा भोग एवं त्याग के आदर्शसंधान का भी चित्रण किया गया है द्य जबतक मनुष्यमे व्यक्तिगत लोभ की तथा धन संचय की प्रवृति बनी रहेगी तब तक शांति इस पृथ्वी पर स्वप्नतुल्य ही बनी रहेगी द्य
 इस प्रकार कविने ष्कुरुक्षेत्रष् के द्द्वारा एक नई समाजवादी समतापूर्ण समाज रचना का आदर्श प्रस्तुत किया हैए जिसमे सबको  न्यायोचित सुख सुलभ होए यही युध्द को रोकने का एकमात्र उपाय है द्य . 
   श् बुला रहा निष्काम कर्म वह 
     बुला  रही  है  गीता द्य श्
 इस संसार में दो प्रकारके मनुष्य रहते हैए एक तो कर्मयोगी है जो संसार को सतत सुन्दर और सुखी बनाए रखनेमें प्रयत्नशील है और दुसरे अकर्मण्य लोग है जो कर्मत्यागमें ही अपना और संसार का कल्याण देखते हैं द्य कवि दिनकरजीने लिखा है कि दृ 
   श् जिस दिन मनुष्य संपति को साध्य न मानकर 
     साधन मान लेगा तथा वल्कल और राजमुकुट 
     दोनों को समान समझ लेगा उसी दिन विश्वमें 
     सुख  और  शांति  का  साम्राज्य  होगा द्य श्
’ निष्कर्ष रू.
 डॉण् सावित्री सिन्हा ष्युगचारण और दिनकरष् नामक पुस्तकमें लिखती है रू.
   श् ष्कुरुक्षेत्रष् में दिनकरजी युध्द के विषयमें एक नया द्रष्टिकोण लेकर आए द्य भले ही भारतीय और पाश्चात्य धारणाए पाश्वभूमि और पृष्ठभूमि के रुपमें हों लेकिन स्थापनाए और सन्देश अपने हैए और वे इतने व्यावहारिक सार्वभौम और पूर्ण है कि आज जब हमारे देशमे युध्द के बादल घिरे हुए हैए ष्कुरुक्षेत्रष् की एक.एक उक्ति सार्थक जान पड़ती है द्य श्


 


 


 


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