फिल्म-संगीत-जगत में समय-समय पर कुछ ऐसे गीतों की रचना हुई है, जो आज हमारे लिए अनमोल धरोहर बन गए हैं। एक ऐसा ही गीत 1956 में प्रदर्शित फिल्म 'बसन्त बहार' में रचा गया था। यूँ तो इस फिल्म के सभी गीत अपने समय में हिट हुए थे, किन्तु फिल्म का एक गीत- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...' कई कारणों से फिल्म-संगीत-इतिहास के पृष्ठों में दर्ज़ हुआ। इस गीत की मुख्य विशेषता यह है कि पहली बार किसी वरिष्ठ शास्त्रीय गायक (पण्डित भीमसेन जोशी) और फिल्मी पार्श्वगायक (मन्ना डे) ने मिल कर एक ऐसा युगल गीत गाया, जो राग बसन्त बहार के स्वरों में ढला हुआ था। यही नहीं, फिल्म के प्रसंग के अनुसार राज-दरबार में आयोजित प्रतियोगिता में नायक गोपाल (भारतभूषण) को गायन में दरबारी गायक के मुक़ाबले में विजयी होना था। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि दरबारी गायक के लिए भीमसेन जी ने और नायक के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था। फिल्म से जुड़ा तीसरा रेखांकन योग्य तथ्य यह है कि फिल्म की संगीत-रचना में सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पण्डित रामनारायण का उल्लेखनीय योगदान था।
1949 की फिल्म 'बरसात' से अपनी हलकी-फुलकी और आसानी से गुनगुनाये जाने वाली सरल धुनों के बल पर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले शंकर-जयकिशन को जब फिल्म 'बसन्त बहार' का प्रस्ताव मिला तो उन्होने इस शर्त के साथ इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया कि फिल्म के राग आधारित गीतों के गायक मन्ना डे ही होंगे। जबकि फिल्म के नायक भारतभूषण के भाई शशिभूषण सभी गीत मोहम्मद रफी से गवाना चाहते थे। मन्ना डे की प्रतिभा से यह संगीतकार जोड़ी, विशेष रूप से शंकर, बहुत प्रभावित थे। शंकर-जयकिशन ने फिल्म 'बसन्त बहार' में मन्ना डे के स्थान पर किसी और पार्श्वगायक को लेने से साफ मना कर दिया। फिल्म के निर्देशक राजा नवाथे मुकेश की आवाज़ को पसन्द करते थे, परन्तु वो इस विवाद में तटस्थ बने रहे। निर्माता आर. चन्द्रा भी पशोपेश में थे। मन्ना डे को हटाने का दबाव जब अधिक हो गया तब अन्ततः शंकर-जयकिशन को फिल्म छोड़ देने की धमकी देनी पड़ी। अन्ततः मन्ना डे के नाम पर सहमति बनी।
फिल्म 'बसन्त बहार' में शंकर-जयकिशन ने 9 गीत शामिल किए थे, जिनमें से दो गीत- 'बड़ी देर भई...' और 'दुनिया न भाए मोहे...' मोहम्मद रफी के एकल स्वर में गवा कर उन्होने शशिभूषण की बात भी रख ली। इसके अलावा उन्होने मन्ना डे से चार गीत गवाए। राग मियाँ की मल्हार पर आधारित 'भयभंजना वन्दना सुन हमारी...' (एकल), राग पीलू पर आधारित 'सुर ना सजे...' (एकल), लता मंगेशकर के साथ युगल गीत 'नैन मिले चैन कहाँ...' और इन सब गीतों के साथ शामिल था राग बसन्त बहार के स्वरों में पिरोया वह ऐतिहासिक गीत- 'केतकी गुलाब जूही...', जिसे मन्ना डे ने पण्डित भीमसेन जोशी के साथ जुगलबन्दी के रूप में गाया है। इस आलेख की आरम्भिक पंक्तियों में हम फिल्म के उस प्रसंग की चर्चा कर चुके हैं, जिसमें यह गीत फिल्माया गया था। आइए, अब कुछ चर्चा इस गीत की रचना-प्रक्रिया के बारे में करते हैं। संगीतकार शंकर-जयकिशन फिल्म के इस प्रसंग के लिए एक ऐतिहासिक गीत रचना चाहते थे। उन्होने सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित भीमसेन जोशी और सारंगी वादक पण्डित रामनारायण को आमंत्रित किया और यह दायित्व उन्हें सौंप दिया। इसके आगे की कहानी आप स्वयं पण्डित भीमसेन जोशी की जुबानी सुनिए, इस रिकार्डिंग के माध्यम से। पण्डित भीमसेन जोशी पर निर्मित वृत्तचित्र का यह एक अंश है, जिसमें गीतकार गुलज़ार, पण्डित जी से सवाल कर रहे हैं।
पण्डित भीमसेन जोशी से की गई गीतकार गुलज़ार की बातचीत का एक अंश
पण्डित जी ने बातचीत के दौरान जिस 'गीत लिखने वाले' की ओर संकेत किया है, वो कोई और नहीं, बल्कि गीतकार शैलेन्द्र थे। दूसरी ओर शंकर-जयकिशन ने जब इस जुगलबन्दी की बात मन्ना डे को बताई तो वे एकदम भौचक्के से हो गए। मन्ना डे ने यद्यपि कोलकाता में उस्ताद दबीर खाँ और मुम्बई आकर उस्ताद अमान अली खाँ और उस्ताद अब्दुल रहमान खाँ से संगीत का प्रशिक्षण प्राप्त किया था, किन्तु पण्डित जी के साथ जुगलबन्दी गाने का प्रस्ताव सुन कर उनकी हिम्मत जवाब दे गई। मन्ना डे की उस समय की मनोदशा को समझने के लिए लीजिए, प्रस्तुत है- उनके एक साक्षात्कार का अंश-
मन्ना डे के एक साक्षात्कार का अंश
इस गीत को गाने से बचने के लिए मन्ना डे चुपचाप पुणे चले जाने का निश्चय कर चुके थे, लेकिन पत्नी के समझाने पर उन्होने इस प्रकार पलायन स्थगित कर दिया। पंकज राग द्वारा लिखित पुस्तक 'धुनों की यात्रा' में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि- मन्ना डे अपने संगीत-गुरु उस्ताद अब्दुल रहमान खाँ के पास मार्गदर्शन के लिए भी गए थे। इसके अलावा मन्ना डे के गाये हिस्से में राग बसन्त के साथ राग बहार का स्पर्श दिया गया और लय भी थोड़ी धीमी की गई थी। पण्डित रामनारायण ने मन्ना डे को कुछ ऐसी तानें सीखा दी, जिससे फिल्म का नायक विजयी होता हुआ नज़र आए। साक्षात्कार में मन्ना डे ने स्वीकार किया है कि उनके साथ गाते समय पण्डित जी ने अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग नहीं किया था। अन्ततः पण्डित भीमसेन जोशी, पण्डित रामनारायण, मन्ना डे और शैलेन्द्र के प्रयत्नों से फिल्म 'बसन्त बहार' का ऐतिहासिक गीत- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...' की रचना हुई और फिल्म संगीत के इतिहास में यह गीत सुनहरे पृष्ठों में दर्ज़ हुआ। लीजिए, अब आप पूरा गीत सुनिए।
फिल्म – बसन्त बहार : ‘केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...’ : पण्डित भीमसेन जोशी और सुर गन्धर्व मन्ना डे
बसन्त ऋतु का अत्यन्त मोहक राग ‘बसन्त बहार’ दो रागों के मेल से बना है। कुछ विद्वान इसे ‘छायालग राग’ कहते हैं। आम तौर पर इस राग के आरोह में बहार और अवरोह में बसन्त के स्वरों का प्रयोग किया जाता है। यदि आरोह में बसन्त के स्वरों का प्रयोग किया जाए तो इसे पूर्वांग प्रधान रूप देना आवश्यक है। राग बसन्त और बहार में मुख्य अन्तर यह है कि बहार में कोमल गान्धार और दोनों निषाद तथा बसन्त में कोमल ऋषभ व कोमल धैवत के साथ शुद्ध गान्धार का प्रयोग होता है। राग ‘बसन्त बहार’ दो प्रकार से प्रचलन में है। यदि बसन्त को प्रमुखता देनी हो तो इसे पूर्वी थाट के अन्तर्गत लेना चाहिए। ऐसे में वादी स्वर षडज और संवादी पंचम हो जाता है। काफी थाट के अन्तर्गत लेने पर राग बहार प्रमुख हो जाता है और वादी मध्यम और संवादी षडज हो जाता है। अन्य ऋतुओं में इस राग का गायन-वादन रात्रि के तीसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु बसन्त ऋतु में इसका प्रयोग किसी भी समय किया जा सकता है।
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