ग़ज़ल १: दूर चले हम
जलते बदन के दाग़ से हो मजबूर चले हम
चलो कि इस शहर से, कहीं दूर चलें हम
चैन-ओ-अम्न के सब रास्ते क्या बंद हो गए
इक मज़हब के वास्ते, हो काफ़ूर चले हम
आग से ही आग की लपटें बुझाने के लिए
यमुना के बहते दरिया से कहीं दूर चले हम
सड़क पे ख़ून देखकर कुछ मजबूर हो गए
उन ज़बानों के ज़हरीले नशे में चूर चले हम
पत्थरों के सामने जब ज़ोर लबों का न चला
तो इस जम्हूरियत से रूठ कर हुज़ूर चले हम
ग़ज़ल २: पहले वतन के बेढके बदन को लुकना चाहिए
पहले वतन के बेढके बदन को लुकना चाहिए
जैसे भी हो ये पीप बहता घाव छुपना चाहिए
बह चुका ख़ून बहुत, दोनों तऱफ के लोगों का
जैसे भी मुमकिन हो बहता ख़ून रुकना चाहिए
मन्दिर और मस्जिद में, इंसां कहीं का न रहा
अब इंसानियत के सामने, धर्म झुकना चाहिए
बाँट-बाँट के काटने का सिलसिला कब है नया
पीर उस सीने में हो तो दिल तेरा दुखना चहिए
ग़ैर की चिनगारी में घर अपना जला के बैठे हैं
अब ख़ुद के भी ज़मीर पे सवाल उठना चाहिए
नज़्म : वक़्त का मुसाफ़िर
हम सब जो यूँ बढ़ रहे हैं
एक नए वक़्त में चल रहे हैं
आगे बढ़ने में माहिर हैं
कि हम सब एक मुसाफ़िर हैं ।
सिर्फ़ गली,शहर या राहों के नहीं
यूँ कि वक़्त की पगडंडी पे
भटक रहे हैं सय्यारे से
कुछ जीते से, कुछ हारे से
घड़ी के काँटों का अलग फ़साना
बस गोल गोल है चलते जाना
जो बीत गयीं सदियां वो मानो
जैसे छोड़ा शहर पुराना
एक मुसाफ़िर हार न माना
फिर नया साल है नया ठिकाना।
जैसे राही अपनी राह पकड़
बस शहर बदलता जाता है
वैसे ही ये शहर, 'साल' का
हर साल बदलता जाता है।
इन वक़्त के शहरों में
क़स्बे महीनों के नाम हैं
कहीं सर्दी की धूप है सेकी
कहीं गर्मी में खाये आम हैं।
जब इन महीने वाले कस्बों में
कोई हफ़्ते वाली गली आ जाए
तो नुक्कड़ पे खड़े ख़ड़े
हफ्तों का हाल पूछना
कितने हफ़्ते रोके काटे,
कितने ख़्वाब मिलके बाटें
इन सबका, हिसाब पूछना।
हर गली हर नुक्कड़ पे बसा
एक दिन नाम का घर होगा
एक आंगन जैसा लम्हा होगा
और चौका जैसा एक पल होगा ।
जैसे सारे कमरे एक जगह
आंगन में मिल जाते हैं
वैसे सब लम्हे इक दूजे के
कंधों पे टिक जाते हैं ।
तुम मुसाफ़िर चलते चलते
वक़्त के किसी शहर ठहर जाना
दिन नुमा घर के अंदर
इक लम्हे में फिर रुक जाना
औऱ किसी लम्हे की दीवार पर
कान लगा, दास्ताँ सब सुन जाना ।
सुन ना कैसे हसीन याद कोई
गीले पैर ले छप छप करती आई थी
और कैसे कड़वी बातों ने
एक अर्थी वही उठाई थी।
एक तंग रसोई लम्हे में
तुम्हारे हौसले गुड़गुड़ाये थे
यहीं मुझे तुम छोड़ वक़्त के
दूजे शहर चले आये थे।
पर तुम्हें तो जाना ही था,
तुम मुसाफ़िर जो थे
एक मुसाफ़िर का फ़र्ज़ है
एक शहर से शहर दूसरे जाना
जैसे आख़िरी तारीख़ बदल जाना
मुसाफ़िर हो,जाओ बिल्कुल जाओ
नए शहर का जश्न मनाओ ।
नए साल का जश्न मनाना
पर सुनी दास्तान लम्हों की
फिर अगले मुसाफ़िर को सुनाना ।
कभी कभी जब वक़्त मिले
तो गए लम्हों की दास्तान सुनना ।
नए साल का जश्न करना
पर बीते शहर का एक ज़िक्र रखना
कभी कभी जब वक़्त मिले
तो बीते लम्हों की दास्तान सुनना ।
हम मुसाफ़िर हैं
आगे बढ़ने में माहिर हैं
हम मुसाफ़िर हैं ।
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