नारी
जिसकी कोई थाह नहीं, जिसका व्यक्तित्व अपार है,
सागर से भी गहरी है वो, उसका अनंत ही विस्तार है,
तीनों लोक समेट ले जो अपने ममता भरे आंचल में
वो ईश्वर की नायाब कृति, उसको प्रणाम बारम्बार है।
है वो सहनशीलता की प्रतिमूर्त, वो प्रेम का आगार है,
है उसके बिना सृष्टि अधूरी और जगत भी निराधार है,
अपना सब कुछ न्यौछावर कर दे बिना किसी चाह के
ख़ुदा भी उसको नतमस्तक है, नतमस्तक ये संसार है।
दया, धर्म, शील, त्याग और स्नेह जिसके हथियार है,
वसुंधरा के जैसे उर्वर है वो, उसमें गुणों की भरमार है,
जिसकी गोद में खेलती हैं प्रलय और सृजन की शक्ति
कुछ लिख पाया अरविन्द उसको, शारदे का उपहार है।
देवकरण गंडास "अरविन्द"
व्याख्याता इतिहास
राजस्थान
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