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Saturday, March 14, 2020

वक़्त ए ज़ुहूर ए इश्क़ भी बेसत से कम नहीं 

वक़्त ए ज़ुहूर ए इश्क़ भी बेसत से कम नहीं 

ये इंक़लाब ए ज़िन्दगी जन्नत से कम नहीं 

 

तेरी निगाह  ए  इज़्न जो रहती खोई खोई 

ये साथ भी तो हमदम फुरक़त से काम नहीं

 

वो ज़ुल्फ़ ए शबनमी जो बोसा कुनां है रुख से 

मेरे लिए ये क़ुरबत, हसरत से कम नहीं 

 

बुकरात हो गए हो पढ़ते नहीं हो कुछ भी 

ये खुश नुमाई आप की ग़फ़लत से कम नहीं

 

नक़ली उलूम पढ़ कर नक़ली से हो गए हैं 

ये बात है जो तल्ख़ हक़ीक़त से काम नहीं 

 

दौर ए  जदीद है ये तसव्वुफ़ रहा नहीं 

अब हैं जो पीर व मुर्शिद झंझट से कम नहीं  

 

मर मर के जी रहा है ताकि रहे मुबीं याद 

हालाँकि ऐसे जीना मय्यत से कम नहीं

 

बेसत = पैग़ंबर की पैदाइश (जिसके बाद बाद समाज बदल गया है)

इज़्न = इजाज़त  

बुकरात = खूब हांकने वाला 

खुश नुमाई = खुद को अच्छा ज़ाहिर करना

नक़ली उलूम = यानी  उलूम ए नक़लिया (क़ुरान, हदीस, फ़िक़्ह, तफ़सीर की तालीम जो मदरसे में दी जाती है.)

तसव्वुफ़ = यानि असल सूफ़ियत

कोई भी शख्स सुधार कर सकता है. ग़ज़ल के रंग में कुछ कहने की कोशिश भर है. सन्देश पहुँचाना मक़सद है मगर ये शायरी के फन पर कैसे खरा उतरे मुझे नहीं मालूम। कमियों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ.... तुकबंदी की इस तरक़्क़ी और खूबियों का हक़दार कोई और है.

 

@MobeenJamei

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