कुछ मंज़र जो इतिहास में दोहराए जाने के लिए बार- बार काम में आते हैं, ऐसी दहशत और नफ़रत की स्थितियाँ धार्मिक चोला ओढ़ कर जिहाद के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं। उत्तरआधुनिकता के दौर में यह राजनीति की धार्मिक समांगी मिश्रण का घोल अशिक्षा और उन्माद के रूप में पिलाया जा रहा है, जिसे खैरात और भावना का प्रसाद समझ कर ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं समझी जाती। युद्ध, जेल और दहशत ये तीनों बाह्य और आंतरिक हुक़्मरानों के हथियार हैं जो उन्हें तख़्त पर काबिज़ रहने में भारी मदद पहुँचाते हैं। इसका संचालन राजनीतिक चरित्र पर पड़े पर्दे के पीछे से किया जाता है। देश की राजनीति में इनका बहुत योगदान है। जर्मनी का नाजीवाद और यहूदियों की दशा से लगभग सभी वाकिफ़ हैं जिसका सफ़र आज भी कई देशों में जारी है।
२६ जनवरी की सुबह नहाने के बाद गलियों से होते हुए मुख्य चौराहे की ओर बढ़े, तभी रास्ते में लगे साउंड सिस्टम में जावेद अख्तर का लिखा हुआ गाना सुनाई पड़ा- 'मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हम साए' यह बात कितनी बड़ी है कि कोई अपने दुश्मन को अपना भाई कहे। जो हुआ उन सबको भुला कर जंग को हमेशा के लिए रोक देने की अपील किसी भी अमनपरस्त व्यक्ति को अच्छी लगेंगी। हालांकि यह अपील व्यक्तिगत है, यह किसी सामूहिक प्रक्रिया का भी काम हो सकता है अगर इसके बारे में जागरूकता फैलाई जाए। गाने की एक- एक लाइन पर अगर गौर किया जाए तो उसमें जंग के बाद की भयावाह स्थिति का विस्तृत वर्णन किया गया है। 'जंग तो चंद रोज़ होती है/ ज़िन्दगी बरसों तलक रोती है'! दरअसल ये बात नई नहीं है, दुनिया में जितनी भी जंगे हुई हैं सभी के परिणाम से आप रूबरू हैं। हालांकि की यह बात कम विश्वसनीय है कि बिना जंग के किसी भी मसले का निपटारा कैसे हो सकता। बहुत करेंगे कि हम अपनी तरफ़ से लड़ाई नहीं करेंगे लेकिन क्या ज़रूरी है कि सामने वाला भी यह विचार रखता हो। लेकिन आप सोच कर देखिए और यह बात सच है कि अगर दुनिया में किसी भी मसले का निपटारा बिना लड़े, बिना खून बहाए, बिना घर उजाडे़, बिना जेल गए किया जा सके तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। ऐसा सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि बाहरी देशों के भी कुछ चिन्तक विचार दे चुके हैं।
भयानक स्थिति का दौर है जब नेताओं के द्वारा खुले आम गोली मारने के नारे लगवाए जा रहे हों और देश के सबसे बड़े और सबसे मजबूत नेता शांति और सद्भावना का परिचय देते हुए अंतरराष्ट्रीय मेहमान का महत्मा गांधी से परिचय करा रहे हैं। वैसे बिना युद्ध के किसी भी मसले का निपटारा करना इस समय संभव नहीं लगता क्योंकि हम अपने ही घर में धर्म की राजनीति में फंसकर धर्मयुद्ध पर निकल चुके हैं। शायद कुछ लोगों को याद होगा टीवी पर एक आदमी चिल्ला- चिल्ला कर कह रहा था कि अपने बच्चों पर नज़र रखिए वे कहीं दंगाई न बन जाएं कुछ लोगों ने उसकी बात पर अमल किया लेकिन कुछ लोगों ने अपने बच्चों को देशभक्ति के नाम पर इस युद्ध में झोंकने का पूरा प्रयास किया। देश इससे भी भयानक स्थिति के दौर से गुज़र रहा है जब किसी की मौत पर कुछ लोग जश्न भी मना रहे हैं। मानवता की हत्या का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। नेताओं का क्या है चाहे धर्मयुद्ध हो या सीमाओं का युद्ध उनके अपने कभी नहीं मरते हैं। मरता तो हमारे और आपके बीच का सदस्य है।
इतिहास में एक घटना हमेशा याद रखी जाएगी जो शिक्षण संस्थान को ध्वस्त करने के काले कारनामों में शामिल है। २६ दिसंबर २०१४ में पाकिस्तान के पेशावर में एक आर्मी पब्लिक स्कूल पर अतंकवादी हमला हुआ, जिसमें छात्रों और अध्यापकों को मिलाकर कुल १४९ लोग मारे गए उसमें १३२ स्कूल के छात्र थे। ISPR की तरफ़ से एक गीत 'मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है' प्रकाश में आया और विरोध प्रदर्शित करने का अनूठा तरीका तलाशा गया। बदला लेने जैसी कोई बात नहीं है इस गाने में। क्योंकि बदला लेना एक परंपरा जैसे बन जाता है जो कभी रुकने का नाम नहीं लेगा। इसलिए दुश्मन के बच्चों को पढ़ाने की बात कही गई, उनकी आने वाली पीढ़ियों को जागरूक करने की बात हुई ताकि भविष्य में वे सब इस भयानक परम्परा को छोड़कर अमन के रास्ते पर चलें, सभी को प्यार करें। इसी चैनल की तरफ़ से एक गीत २०१८ में पब्लिश हुआ जिसमें दहशत फैलाने वालों पर लानत भेजता हुआ देखा जा सकता है, 'मै ऐसी क़ौम से हूं जिसके वो बच्चों से डरता है/ बड़ा दुश्मन बना फिरता है जो बच्चों से लड़ता है!' और सबसे ख़ास बात ध्यान देने वाली यह है कि जिस देश के उपर सबसे ज़्यादा आतंकवादी गतिविधियों का ठप्पा लगा है यह गीत उसे देश में बनाया गया। नफ़रत, ख़ून- खराबा, जेल, दहशत से सभी को आज़ादी चाहिए। देश में रहने वाले लोग इंसान होते हैं जो अमन की चाह रखते हैं, किसी भी देश को आतंकवादी देश कह देने से हम वहाँ की मज़लूम आवाम के साथ नाइंसाफी होगी, क्योंकि वहाँ भी हमारे मुल्क़ की तरह मजदूर, किसान, बूढ़े और बच्चे रहते हैं जिन्हे ऐसी गतिविधियों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता सभी को उसी में समेट लेना बर्बरता है।
जब हम अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं उस समय हमसे दर्शक यह उम्मीद करते हैं कि हमारे पास दर्शकों में बैठे हुए लोगों से कुछ बेहतर विचार है जो हम उनके साथ बांटना चाहते हैं, और कला का यह रूप इंसानियत को बचाए रखने के साथ कलात्मक अभिव्यक्ति के ज़रिए आम व्यक्ति को जागरूक किया जाय। यह बात अपने आप में बहुत बड़े मन से निकली है जो अपने गीत के माध्यम से यह अपील करते हैं 'मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है', वे चाहते तो उनसे बदला लेने के लिए भी सोच सकते थे या इसी दिशा में लोगों को जागरूक करते लेकिन सच कहा जाए तो अमन कायम करने के लिए इससे बेहतर और कोई तरीका हो ही नहीं सकता। यह वैश्विक स्तर पर प्रचारित होने पर कारगर हो सकती है। हम रजाई ओढ़ कर मोबाइल पर आईटी सेल के द्वारा बनाए गए एसएमएस और फोटोशॉप बिना ध्यान दिए फॉर्वर्ड करने में लगे हुए हैं। दरअसल हम युद्ध की पृष्ठिभूमि तैयार करने में लगे हुए हैं।
कुछ सालों से युद्ध को लेकर लोगों में कई धारणाएं पनप रही हैं। आज कल यह राजनीतिक हो चुका है। लोग इस बात को समझने का प्रयास कर रहे हैं कि नेताओं के अपने स्वार्थ के चलते कई युद्धों के संकेत प्रायः दिखाई पड़ जाते हैं। वैसे इस तरह की बात १९३६ में 'बरी द डेथ' नाटक के जरिए इरविन शॉ ने भी कहने की कोशिश की थी, जबकि उस समय के समाचार पत्रों ने भी शुरुआत में आज की तरह ही सत्ता की गुलामी करने की कोशिश की और इसे राष्ट्रद्रोह के नजरिए से प्रेषित किया। आज भी देश में लोगों को न्यायपालिका और सेना पर अटूट विश्वास बना है, लेकिन अंधराष्ट्रवाद के शिकंजे में बहुत कुछ मानवता के विनाश और अंधभक्ति की ओर ढकेलने का प्रयास जारी है।
साहिर ने अपनी ज़िन्दगी के तमाम अनुभवों और अध्ययन के आधार पर एक ऐसी दुनिया की कल्पना की जिसको सुनने के बाद हम सोचते पर मजबूर हो जाते हैं- 'जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी/ वो सुबह कभी तो आएगी!' और आखिर पंक्ति में उन्होंने खुद को शामिल करते हुए लिखा 'वो सुबह हमीं से आएगी!' पता नहीं कितने लोग इस बात पर यक़ीन करेंगे कि ऐसा सम्भव भी हो सकता है लेकिन साहिर लुधियानवी ने इस बात की कल्पना कर ही दी। एक ऐसा समाज बनाया जाए जिसमे दौलत के लिए औरत की अस्मत न लूटी जाए। जाहिर सी बात है हम जब इन बातों का खुलासा करते हैं तब रवीन्द्रनाथ टैगोर का वह संस्मरण 'रूस की चिट्ठी' कैसे भूल सकते हैं जो साहिर से पहले की बात की पुष्टि करता है 'जहाँ की जेलें भी स्वर्ग हैं'। टैगोर ने रूस में ऐसा देखा था और साहिर ने अपने देश में बिना जेल के नियमन की कल्पना करते हैं। 'जंग तो खुद ही एक मसला है/ जंग क्या मसअलों का हल देगी/ खून और आग आज बरसेगी/ भूंख ओर एहतियाज कल देगी!' महात्मा गांधी जी सत्य और अहिंसा के द्वारा समाज को नई ऊंचाई देने का रास्ता अख्तियार करते हैं, उनके तमाम योगदानों में एक पहलू लोगों अंदर से जेलों का भय समाप्त करना भी अति महत्वपूर्ण रहा है। इसे हम नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते।
धर्म को लेकर नफ़रत बढ़ती जा रही है जो किसी आग की तरह है, जो सिर्फ बढ़ना जानती है और इस बढ़ने के क्रम में बहुत कुछ नष्ट करते हुए बढ़ती ही जाती है जहाँ इंसानियत या धार्मिक होना कोई मायने नहीं रखता। उसका एकमात्र लक्ष्य विनाश ही होता है। हम जब युद्ध की बात करते हैं तब हमें इसके दूरगामी विनाश को हमेशा याद रखना चाहिए क्योंकि युद्ध होने पर तात्कालिक प्रभाव जितना होता है उससे कहीं ज्यादा उसके बाद दिखाई पड़ता है। युद्ध की भेंट कई पीढ़ियां ऐसे चढ़ती हैं जिसकी भरपाई शायद संभव नहीं है। बीमारियों का अंबार उस समय की सामाजिक परिस्थितियों को ग़मगीन कर देती हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति इतनी भयानक थी जिसका ख़ामियाजा आज भी उसके आस- पास के लोग भुगत रहें हैं। ऐसा ही एक गीत जो युद्ध की विनाशकारी स्थिति को दर्शाता है। 'गांधी टू हिटलर' फिल्म का वह गीत जिसे पल्लवी मिश्रा ने लिखा है - 'हर ओर तबाही का मंज़र/ गरजा विनाश का बादल है/ कहीं सहमा- सहमा बचपन है/ कहीं रोता मां का आंचल है!' यह एक ऐसा गीत है जो मानव सभ्यता के सबसे बड़े युद्ध का दर्द बयां करता है। हिटलर की सोच और राष्ट्रवादी सोच को चरम पर ले जाने का नशा कितना भयनाक हो सकता है इस गीत में साफ झलकता है। 'जो चले जीतने दुनिया को क्या खबर नहीं है यह उनको/ जब जंग जीत कर आएंगे सब कुछ न मुकम्मल पाएंगे!' यह बात जग ज़ाहिर है कि युद्धों से कितना बड़ा नुकसान होता है। इस नुकसान की भरपाई में सबसे अहम इंसानी सभ्यता के विनाश को कैसे पूरा किया जा सकता है। इस साल के आंदोलनों में प्रदर्शनकारियों ने सिपाहियों को फूल बाँट कर अमन की गुज़ारिश की है। यह संकेत है कि हम अमन चाहते हैं। हमें किसी भी प्रकार का दंगा या फसाद नहीं चाहिए।
युद्धों का विरोध न सिर्फ भारतीय चिंतकों ने किया बल्कि अन्य देश के लेखकों, दार्शनिकों, और गीतकारों ने भी किया। हम युद्ध की शक्ल अक्सर सिर्फ सीमाओं पर होने वाले युद्ध के आधार पर बनाने का प्रयास करते हैं। जबकि हमारे आस- पास न जाने कितने युद्ध हो रहे हैं जिसे हम देख कर भी अनदेखा कर रहे हैं। उसका असर हमारे मन पर तो पड़ ही रहा है उससे कहीं ज्यादा आने वाली अनजानी पीढ़ियों में भी संचित होता जा रहा है जिसका असर सांप्रदायिक दंगे और धार्मिक उन्माद के रूप में सामने आता है। बदले की यह भावना कभी भी युद्ध से ख़तम नहीं की जा सकती है। इसके लिए आपसी सद्भाव और सामंजस्य आवश्यकता है।
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परिचय.....
जुगेश कुमार गुप्ता
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शिवना साहित्यिकी, रचना उत्सव, सुबह की धूप पत्रिकाओं में लेख, साथ ही राज्य सभा टीवी पर निराला विशेष कार्यक्रम में गायन।
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