धरती और अंबर
सुनों,
स्वीकार करना होगा तुमको
मेरा ये
मौन और निशब्द प्रेम ही ,
क्योंकि
चाहकर भी नहीं मिलते
धरती-अंबर कभी !!
सुनों,
करती हूं स्पर्श तुम्हें
अद्रश्य हवाओं से ,
और..
बरस जाते हो तुम भी
अतृप्त मेघ से !!
शीर्षक - एक बीज अपने लिए..
कब से भींचे हुए थी
ये मुट्ठी
बहुत कसकर,
..संभाल रखे थे
अनगिनत बीज
और उनके अनगिनत जंगल ,
पर कब तक..
लो, गिरने लगे एक-एक कर
सब कहीं
इधर-उधर !!
हां, जरूरी था..
बहुत जरूरी था
अंकुरित होना इन बीजों का
कि उपजने लगी थी
कंक्रीट-कल्चर चारों ओर !
पर, रहनें देती हूं एक बीज
अपने लिए
.. सिर्फ अपनें लिए
बिना पर्यावरण की चिंता किए हुए !!
शीर्षक - पुरानें पन्नें
क्यों ढूंढ रही हूं
अब भी
पुराने "शब्द"
बरसों से बंद अलमारी में !!
एक दिन ,
फ़ाड़ दिये थे सब
वो कुछ पन्नें..
पुरानी डायरी..
पर, छूट गया था
"थोड़ा कुछ" कि
कर रही हूं कोशिश
उन्हें "पढ़ने" की ,
और..
समझने की
वो सारे "अर्थ"
जो होने लगे थे धुंधले
समय की गर्त में !!
..खोज रही हूं मायने
उनके होनें के !!
शीर्षक - नाम उसका..
उस दिन
नम होकर
ओस की नमी में
आखिर लिख ही दिया न
.."नाम" उसका !!
सुनों..
गीलेपन में उसके
सुलग रहा है
भीतर ही भीतर
अब तक "कुछ" ,
..महसूस किया क्या ??
हलचल मन की
स्पष्ट दिखी थी
उंगलियों में तुम्हारी
कि सिमट सा गया था
कुछ.. बहुत कुछ
हां, उसी ओस में !!
शीर्षक - तेरे ये शब्द..
..ये शब्द
हां, यही शब्द.. अक्सर
ढक लेते हैं मुझको
आवरण से ,
..कि नितांत असमर्थताओं में भी
जन्मनें लगती हैं
आकांक्षाएं !!
..ये शब्द
हां, यही शब्द.. अक्सर
बचा लेते हैं मुझको
सुरक्षित
प्रत्येक अवरोधों से ,
..कि लौट आती हूं मैं वापस
अपनी कविताओं में
कुछ कहने को नया !!
Namita Gupta"मनसी"
No comments:
Post a Comment