"पंछियो का विचरण होता है,
उन्मुक्त गगन में ।
बांधे क्यो हम ,
उनको बन्धन में।
पिंजरे में खुश रहते वे,
लोग एसी बात करते है।
पर सच मानो ये भी,
आज़ाद होने के लिये फरियाद करते है।
सहेजकर तिनका-तिनका,
बनाते हैं जो घोंसला।
आन्धी तुफा भी नही,
छीन सकते उनका हौसला।
हमने देखे है,
कई बार ये मंजर।
पंछी के उडते ही,
आंधियों ने चलाये कितने ही खंजर।
पंछियों से सीखो हमेशा,
कोशिश करते रहना ।
संकट चाहे कितने भी आये,
मार्ग से कभी ना हटना।
अब ये पंछी इंसानों की,
बस्ती में नही आते।
इन्सा तो बस केवल,
मजहब ही को पहचानते।
पंछियों की न कोई जात-पात,
न मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारा।
इन्सा तो मडते दूसरो के सिर,
अपने स्वार्थ का पिटारा।
अच्छा हुआ जो इन पंछियों को,
धर्म और सीमा का पता नही।
वरना आसमान मे ही रोज होती,
खून की वर्षा कहीं न कहीं ।"
अजय प्रकाश यादव,
शिक्षक, अमरावती (महाराष्ट्र)
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