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Tuesday, May 26, 2020

भारतीय विचार मंच, नागपुर एवं अक्षरवार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका, उज्जैन (मध्यप्रदेश) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार

भारतीय विचार मंच, नागपुर एवं अक्षरवार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका, उज्जैन (मध्यप्रदेश) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित
तीन दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार में सभी प्राध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी तथा साहित्य प्रेमी सादर आमंत्रित  हैं।  


विषय:- "वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संत साहित्य की प्रासंगिकता"
 
तिथी:-  २७, २८ एवं २९ मई २०२० 
समय :- प्रात: ११:०० से १२:३० 


पंजीकरण लिंक (Registration Link) :-
https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSefZgUh7FBP3G0Zxr1SP9zkxMA928omEpXDZWJSlSwMlxwtYg/viewform


पंजीकरण होने के पश्चात निम्न किसी भी 1 वाट्स अप अथवा टेलीग्राम ग्रुप से जुड़े, वेबिनार में जुड़ने की लिंक व अन्य सूचनाएँ आपको वहीं प्रदान की जाएगी:


WhatsApp Group
Group 1 Link: https://chat.whatsapp.com/JeaTgEaAX3dGpOgjHZa2yS


Group 2 Link: https://chat.whatsapp.com/HOAc3pbdrzYIS5qCj96HYz


Group 3 Link: https://chat.whatsapp.com/COg08FauEjQIE97T2s3FL2


Group 4 Link:
https://chat.whatsapp.com/G4dvE7YNmxuCmtWPtkvw7F


Group 5 Link: 
https://chat.whatsapp.com/Kr5K1IhDt1rJ4NR5KMx6JZ


Telegram Group Link
https://t.me/joinchat/Q5HwJhvJxR_Qo7plUl_Icg


पंजीकरण करने के पश्चात वेबिनार के अंत में फीडबैक फॉर्म भरनेवाले सभी प्रतिभागियों को ई - सर्टिफिकेट दिया जाएगा। 


कार्यक्रम संरक्षक 
श्री सुनील किटकरू
(मो. 9890489978)


अक्षरवार्ता संपादक
डॉ. मोहन बैरागी
(मो. 9424014366)
 
कार्यक्रम संयोजक 
डॉ. कमलकिशोर गुप्ता 
(मो. 9881597382)


कार्यक्रम सहसंयोजक 
श्री नवीन महेशकुमार अग्रवाल 
(मो. 9273301557)


Friday, May 22, 2020

कविता

कविता:-

         *"साथी"*

"बहके कदम जब मेरे यहाँ,

बढ़कर थाम लेना साथी।

संग-संग चल कर मेरे तुम,

सत्य- पथ दिखलाना साथी।।

छाए कटुता मन में जब जब,

छोड़ दूर ना जाना साथी।

सुना मधुर गीत यहाँ कोई,

मन को तुम बहलाना साथी।।

कहे न बेगाना कोई फिर,

वो राहें दिखलाना -साथी।

निभाये साथ जीवन में जो,

वो साथी तुम बनना-साथी।।"

ःःःःःःःःःःःःःःःःः         

 

कविता:-

     *"घर वापसी"*

"महामारी की बढ़ी चाल,

घर में रहे-सुरक्षित रहे-

तभी बचेगी जान।

फँसे है जो जहाँ कहीं,

वही रहे-

समय की करें पहचान।

घर वापसी की दौड़ में,

खो न जाना-

जान है-जहाँंन है इसे मान।

बेरोज़गार हुए लोग,

भूख से व्याकुल-

घर वापसी को चल पड़े इन्सान।

कब -कहाँ -पहुँचेगे वो-

इसका भी नहीं उन्हें भान।

घर वापसी होगी जरूर,

थोड़ा करो-

सब्र और ध्यान।

महामारी से बचने को,

घर में रहे सुरक्षित रहे-

तभी बचेगी जान।।"

ःःःःःःःःःःःःःःःःः         

 

कविता:-

        *"मन"*

"जान सके तो जाने मन,

कैसे-अपने होते है?

पग-पग  संग निभाए जो,

साथी अपने होते है।।

छोड़ सके न अहं जब तक,

तब मन बसता सवार्थ है।

छोड़ सके उसको जग में,

जीवन बनता यथार्थ है।।

रो न ओ रे मन बावरे,

जो छोड़े संग साथ है।

मिले जीवन पथ पर यहाँ,

जहाँ अपनत्व का साथ है।।"

ःःःःःःःःःःःःःःःःः           

 

कविता:-

      *"फिर तुम याद आये"*

"जीवन में संग चले थे कभी,

यादो के झरोखो से-

फिर तुम याद आये।

बहुत दूर हो तुम हमसे,

कभी मिल न पाओगें-

फिर तुम याद आये।

साया बन संग चले जो,

कभी जीवन में-

फिर तुम याद आये।

यादो के साये गहराने लगे,

भूले थे तुमको-

फिर तुम याद आये।

मिले न जीवन में तुम,

मिलने की आस में-

फिर तुम याद आये।

सपने तो सपने है-साथी,

उसमें भी-

फिर तुम याद आये।।"

ःःःःःःःःःःःःःःः

 

 कविता:-

     *"मेल मिलाप"*

"मेल मिलाप तो अच्छा साथी,

जीवन में अब-

मिलने से डर लगता है।

दूर रह कर ही हम तो साथी,

कर लेगे सब्र-

तुम रहो आबाद दिल कहता है।

महामारी का देख प्रकोप साथी,

क्या-मेल-मिलाप में रखा-

सुरक्षित रहो मन यही दुआ करता है।

स्वस्थ हम रहे-तुम रहो साथी,

मिलेगे मिलने के मौके बहुत-

मन यही कहता है।

मेल-मिलाप तो अच्छा साथी,

जीवन में अब-

मिलने से डर लगता है।।"

ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 

 

कविता:-

*"क्या-पाया फिर साथ में?"*

"साथ निभाया साथी तुमने,

क्या-पाया फिर साथ में?

झूठ फ़रेब संग साथी फिर,

खोया जीवन विवाद में।।

बहक रहे यहाँ कदम साथी,

कौन-चलता फिर साथ में?

सत्य-पथ चल साथी यहाँ,

क्या-पाया सौगात में?

छूट गये वो संगी साथी,

यहाँ चले संग- साथ में।

साथ निभाया साथी तुमने,

क्या-पाया फिर साथ में?"

ःःःःःःःःःःःःःःःःःः         

सुनील कुमार गुप्ता

S/0श्री बी.आर.गुप्ता

3/1355-सी ,नयू भगत सिंह कालोनी, 

बाजोरिया मार्ग, सहारनपुर-247001(उ.प्र.)

व्यंग्य - बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना

   हमारे एक मित्र बचपन से ही बाराती बनने के शोैकीन  रहे हैं। कस्बे में शायद ही कोई ऐसा शादी शुदा  बचा होगा जिसके विवाह  में उन्होंने नागिन डांस न किया हो या दूल्हे के घोड़े से लेकर दूल्हे के ससुर तक को गाइड न किया हो। जैसे आजकल फिल्मों में एक आयटम गर्ल होती हेै ऐसे ही  वे हर बारात की इसेंशियल आयटम थे। लोग उन्हें इस लिए भी बाराती बना देते थे ताकि बारात का लंबे से लंबा रास्ता आराम से कट जाए। कइयों ने उनका सीक्रेट नाम चाचा रौेनकी राम रख दिया था जो उनको खुद नहीं मालूम था। 

     हर परिवार से जबरदस्ती आत्मीयता दिखाने के कारण उन्हें सबसे पहले गुलाबी पगड़ी से सजा कर हलवाई के पास बिठा दिया जाता था और दोनों का टाइम अच्छा पास हो जाता था। मिलनी में भी ये जनाब सेल्फ सर्विस के अंडर , शगुन और शाल दुशाले या कंबल पकड़ने में नंबर वन रहते। नगर में यदि शादीे के एल्बम देखे जाएं तो सबसे अधिक इनका चेहरा नजर आता हैे चाहे फोटो में एक आंख ही कयों न दिख रही हो।

   इस कस्बे से  अक्सर बारातें आस पास ही जाती थी। लेकिन यह पहला मौका था कि इस बार  लव मैरिज के कारण एक बारात को 8 राज्य पार करके जाना था । हिमाचल से बंगाल। बारात ट्रेन से पहुंची । बाबू रामलाल ने पूरे जोश से  सोलन नंबर वन की बाटली पकड़ कर घोड़ी के आगे रितिक रोशन की तरह सड़क पर सूट पहने हुए लोट लोट कर वैसे ही डांस किया जैसा कंगना रणौत ने आप की अदालत कार्यक्रम में रजत शार्मा को बताया था। मुंह में नोट फंसा फंसा के बाजे वालों के आगे काफी उछलकूद मचा मचा कर बाराती होने का धर्म और फर्ज निभा रहे थे और नड़की वालों पर पूरा इंप्रैशन जमा रहे थे  । बाद में पता चला कि नोटों की गडड्ी लड़के के बाप से उन्होंने पहले ही झटक ली थी । माले मुफत दिले बेरहम । जब बाबू रामलाल  झकाझक सफेद सूट पहनकर जितेंद्र की तरह जंपिंग जैक बनते हुए सड़क पर बार बार गिरते तो एक सज्जन उनके सफेद कोट को कीचड़ से बचाने की कोशिश करते परंतु तब तक दूसरी टुन्न पार्टी उन्हें दोबारा लपेटे में ले लेती। एक अन्य टल्ली  जुंडली बार बार  उन्हें फिर खींच खांच कर सेंटर में ले आती ओैर उनका कोट बचाने वाले सज्जन को नाचते नाचते कार्नर पर धकेल देती। एक बाराती जिस पर मोहन मेंिकंस की पूरी की पूरी ब्रूरी ही , पूरी तरह हावी हो चुकी थी, उनसे उलझ पड़े औेर अंग्रेजी में पूछने लगे- ‘ व्हाट इज योर प्राबलम गंजे ?’ वे सज्जन बोले - डियर ये जो व्हॉइट सूट पहन कर इतनी उछल कूद मचा रहे है, ये सूट मेरा है , इस  मैरिज के लिए स्पेशियली सिलवाया था । मैं लड़के का फूफा हूं । इसने मुझ से सिर्फ एक दिन के लिए उधार मांगा था ।

खाना वाना , फोटो सेशन अभी स्टार्ट ही हुआ था कि जैसे ही जयमाला दुल्हन ने डाली , बारातियों ने फूल बरसाए, देवताओं ने आशीर्वाद दिया,  तभी उधर से आकाशवाणी हुई -  भाइयो ओर बहनों - खटाक्- 12 बजे से पूरा भारत बंद। 

 फिर सब कुछ फास्ट फारवर्ड । फेरे शेरे भी खटाक फटाक ।

  अगली सुबह बारात विदा करने के कई जुगाड़ लगाए गए। कुछ जुगाड़ू अपने अपने लिंक ओैर सोर्स आजमाते रहे परंतु वापस जनवासे में आकर पिछवाड़ा सिंकवाते रहे ओैर हाथ पैेर मलवाते रहे। नाई , हलवाई, बाई, कसाई सब हो गए हवा हवाई। दो चार रोज का मेहमान ही मेहमान होता है, इससे ज्यादा तो सब जानते हैं......।  कुछ दिन बाद बाराती घराती बन गए। अब कितने दिन मेहमनवाजी चल सकती थी ? कुछ  दिन बाद लड़की वालों ने भी हाथ खड़े कर दिए। स्कूल के एक कमरे को शरणार्थी शिविर बना दिया गया। कुद दिन कई नए नए समाज सेवक बाल्टियों में दाल और थालों  में रोटिया  लाते रहे ओैर उनके साथ फोटो खिंचवा कर ऐसे गायब हो गए जेैसे गधे के सिर से सींग।  फिर कुछ नए दानी सज्जन दूसरी पार्टी से आ गए। कुछ दिन खिंच गए। और एक दिन सभी सामाजिक संस्थाओं, दानी सज्जनों, लंगर के शौकीनों , फोटो खिंचवाने वालों के धैर्य का स्टॅाक खत्म हो गया और इधर चौथा लॉक डाउन डिक्लेयर हो गया।

 सभी बारातियों की हवाइयां उड़ने लगीं । काफी प्रयासों के बाद और कई सरकारों की मदद से बारात अपने ठिकाने पर लौटी। आस्मान से गिरे तो खजूर पर लटके। सीधे 14 दिन और  कवारंटाइन हो गए। कई लोग तो दिनों की गिनती ही भूल गए कि 22 मार्च से घर पहुंचने में कितने दिन लगे? बाबू रामलाल की श्रीमती ने उन्हें पहचानने से ही  इंकार कर दिया। वे कोरोना बाबा लग रहे थे। एक ही कुर्ते पायजामें में 70 दिन काट दिए।

  अभी बाबू रामलाल नार्मल हुए ही थे कि उनके द्वार एक सज्जन  शादी का कार्ड लेकर प्रकट हो गए। बाबू रामलाल को ऐसा करंट लगा कि उन्हें बाहर से ही वापस भागने के आर्डर दे दिए। बोले ये कार्ड वार्ड अपने पास रखो। अभी  तक रोम रोम  दर्द कर रहा है। जो शगुन लेना वेना है, हम दिए देते है। पर कार्ड को उंगली तक नहीं  भी  लगाएंगे। 

  मित्र बोले- भाई  जी ! ये कार्ड है, इन्कम टैक्स का सम्मन नहीं  है, पकड़ तो लो। बाबू रामलाल कोरोना से इतने डरे हुए थे कि पत्नी को हाथ सेनेटाइज करने के बाद कार्ड पकड़ने को कहा। फिर पत्नी को आदेश दिया कि पढ़कर बताओ  बारात कहां और कब जानी है? लोकल हेै या बाहर जानी है।

    पत्नी ने लंबा चौड़ा रंग बिरंगा , कई तहों वाला कार्ड खोला ओैर पढ़ कर सुनाया-

- भेजा है प्रियवर निमंत्रण तुम्हें  विवाह में बुलाने को

हे मानस के राजहंस, दौड़ न आना खाने को........

 

मदन गुप्ता सपाटू, 458, सैक्टर 10, पंचकूला .134109

"टेलीमेडिसिन :ई-स्वास्थ्य सुविधा"

कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान स्वास्थ्य देखभाल उद्योग वर्तमान में बड़े पैमाने पर परिवर्तनशील दौर से गुज़र रहा है। इस संकट के दौरान सामान्य स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को बहाल करने की आवश्यकता है। वर्तमान मेंटेलीमेडिसिनजिसे ई-स्वास्थ्य सुविधा का एक बेहतरीन उदाहरण माना जाता है, कि आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है। इस समय संपूर्ण देश की स्वास्थ्य अवसंरचना कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने में लगी हैं। ऐसे में अन्य बीमारियों से पीड़ित लोगों के समक्ष चिकित्सीय सुविधाओं को प्राप्त करने में कठिनाई हो रही है। भारत में टेलीमेडिसिन और टेलीहेल्थ के वर्तमान परिदृश्य का मूल्यांकन करने का यह सही समय है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अध्ययन में यह पाया गया कि टेलीमेडिसिन भारत की संपूर्ण जनसंख्या के लिये बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि कर सकता है, इससे मुख्यतः ग्रामीण आबादी अत्यधिक लाभान्वित होगी।


 


टेलीएक ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है दूरीऔर मेडेरीएक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है ठीक करना। टाइम पत्रिका ने टेलीमेडिसिन को हीलिंग बाई वायर’  के नाम से संबोधित किया है। हालाँकि प्रारंभ में इसे भविष्यवादीऔर प्रायोगिकमाना जाता था, लेकिन टेलीमेडिसिन आज एक वास्तविकता है। निश्चित ही भारतीय चिकित्सा क्षेत्र के कार्मिक कंप्यूटर के कुशल जानकार नहीं हैं, वस्तुतः चिकित्सा में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के संबंध में जागरूकता और जोखिम की कमी है। ये भारत में टेलीमेडिसिन के विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। निस्संदेह, हमें तकनीकी जागरूकता की कमी को रुकावट नहीं बनने देना चाहिये और नवाचारों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिये।


 


टेलीमेडिसिन स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल के क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं की एक उभरती हुई विधा है जहाँ सूचना प्रौद्योगिकी के साथ चिकित्‍सा विज्ञान के सहक्रियात्‍मक संकेन्‍द्रण से ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में स्‍वास्‍थ्‍य के विभिन्न क्षेत्र जैसे- शिक्षा, प्रशिक्षण और प्रबंधन के अनेक अनुप्रयोगों के अलावा स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल प्रदायगी की चुनौतियों को पूरा करने की अपार संभाव्‍यता निहित है।यह उतना ही प्रभावी है जितना एक टेलीफोन के ज़रिये चिकित्‍सा संबंधी किसी समस्‍या पर रोगी और स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञ आपस में बात करते हैं।


 


ईसीजी, रेडियोलॉजिकल इमेज आदि जैसे नैदानिक परीक्षणों, चिकित्सीय जानकारी के लिये  इलेक्‍ट्रॉनिक चिकित्‍सा रिकॉर्ड भेजने और आईटी आधारित हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की सहायता से रियल टाइम आधार पर अंत:क्रियात्‍मक चिकित्‍सा वीडियो कॉन्‍फ्रेंस करना, उपग्रह और स्‍थलीय नेटवर्क द्वारा ब्रॉडबैंड के उपयोग से वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग जैसे जटिल कार्य करना भी इसका भाग है। 


 


पिछले कुछ  वर्षों में टेलीमेडिसिन के द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र में दी गई सेवाएँ दूरसंचार प्रौद्योगिकी के अपेक्षाकृत नए उपयोग के रूप में दिखाई देती हैं, सच्चाई यह है कि टेलीमेडिसिन विगत 30  वर्षों से किसी न किसी रूप में उपयोग में है। नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ( NASA) ने टेलीमेडिसिन के शुरुआती विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। टेलीमेडिसिन में NASA के प्रयास 1960 के दशक की शुरुआत में प्रारंभ हुए जब मानव ने अंतरिक्ष में उड़ान भरना शुरू किया। मिशन के दौरान फिजियोलॉजिकल पैरामीटर को अंतरिक्ष यान से प्रेषित किया गया था।  टेलीमेडिसिन का सबसे शुरुआती प्रयोग एरिज़ोना प्रांत के ग्रामीण क्षेत्रों में निवास कर रहे लोगों को आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को प्रदान करने के लिये किया गया।वर्ष 1971 में नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के द्वारा अलास्का के 26 स्थलों को चुना गया ताकि यह देखा जा सके ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुँचाने की दिशा में तकनीकी द्वारा टेलीमेडिसिन का प्रयोग कितना कारगर है।  वर्ष 1989 में नासा ने पहला अंतर्राष्ट्रीय टेलीमेडिसिन कार्यक्रम प्रारंभ किया जिसके तत्त्वावधान में आर्मेनिया के येरेवन शहर में एक टेलीमेडिसिन चिकित्सा केंद्र स्थापित किया गया। इसके बाद अमेरिका में चार स्थलों पर टेलीमेडिसिन चिकित्सा केंद्र स्थापित किये गए, जो कंप्यूटर, इंटरनेट इत्यादि तकनीकी सुविधाओं से लैस थे।


 


भारत में इसरो ने वर्ष 2001 में टेलीमेडिसिन सुविधा पायलट प्रोजेक्ट के साथ प्रारंभ की, जिसने चेन्नई के अपोलो अस्पताल को चित्तूर जिले के अरगोंडा गाँव के अपोलो ग्रामीण अस्पताल से जोड़ा था।इसरो द्वारा की गई पहल में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, विदेश मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ राज्य सरकारों ने भी भारत में टेलीमेडिसिन सेवाओं के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा मानकीकृत टेलीमेडिसिन चिकित्सा दिशानिर्देश जारी किये गए और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2005 में एक राष्ट्रीय टेलीमेडिसिन टास्क फोर्स की स्थापना जैसे सकारात्मक कार्य किये गए।


 


इसरो का टेलीमेडिसिन नेटवर्क एक लंबा सफर तय कर चुका है। इस नेटवर्क में 45 दूरस्थ ग्रामीण अस्पतालों और 15 सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों को जोड़ने का कार्य किया का चुका है। दूरस्थ क्षेत्रों में अंडमान और निकोबार तथा लक्षद्वीप के विभिन्न द्वीप, जम्मू और कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र, उड़ीसा के मेडिकल कॉलेज और अन्य राज्यों के कुछ ग्रामीण / जिला अस्पताल इस नेटवर्क में शामिल हैं।


 


टेलीमेडिसिन अनुप्रयोग के क्षेत्र :


 


1.टेलीहेल्थ- टेलीहेल्थ लंबी दूरी की क्लिनिकल हेल्थकेयर, रोगी और पेशेवर स्वास्थ्य से संबंधित शिक्षा और प्रशिक्षण, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वास्थ्य प्रशासन का समर्थन करने के लिये  इलेक्ट्रॉनिक सूचना और दूरसंचार प्रौद्योगिकियों का एक समूह है।


 


2.टेलीमेडिसिन परामर्श केंद्र- टेलीमेडिसिन परामर्श केंद्र वह स्थल है जहाँ रोगी उपस्थित होता है। एक टेलीमेडिसिन परामर्श केंद्र में, रोगी की चिकित्सा जानकारी को स्कैन / परिवर्तित करने, बदलने और अन्य स्वास्थ्य केंद्रों के साथ साझा करने के लिये उपकरण उपलब्ध होते हैं।


 


3.टेलीमेडिसिन स्पेशलिटी सेंटर- टेलीमेडिसिन स्पेशलिटी सेंटर एक स्थल है, जहाँ स्वास्थ्य विशेषज्ञ मौजूद रहते हैं। वह दूरस्थ स्थल में मौजूद रोगी के साथ बातचीत कर सकता है और उसकी रिपोर्ट देख सकता है तथा उसकी प्रगति की निगरानी कर सकता है।


 


4.टेलीमेडिसिन प्रणाली- टेलीमेडिसिन प्रणाली हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और संचार चैनल के बीच एक इंटरफेस है जो अंततः सूचनाओं का आदान-प्रदान करने और दो स्थानों के बीच टेलीकाउंसलिंग को सफल बनाने के लिये दो भौगोलिक स्थानों को जोड़ने का कार्य करता है। हार्डवेयर में एक कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर, वीडियो-कांफ्रेंसिंग उपकरण आदि होते हैं। वहीँ सॉफ्टवेयर रोगी की जानकारी (चित्र, रिपोर्ट, फिल्म) आदि को सक्षम बनाता है। संचार चैनल कनेक्टिविटी को सक्षम करता है जिससे दो स्थान एक दूसरे से जुड़ सकते हैं।


 


टेलीमेडिसिन की उपयोगिता:


 


*सुदूर क्षेत्रों तक आसान पहुँच। 


*परिधीय स्वास्थ्य सेट-अप में टेलीमेडिसिन का उपयोग रोगी परिवहन में लगने वाले समय और लागत को काफी कम कर सकता है।


*गंभीर देखभाल की निगरानी, जहाँ रोगी को स्थानांतरित करना संभव नहीं है।


*चिकित्सा शिक्षा और नैदानिक ​​अनुसंधान जारी रखने में सहायता।


*आपदा के दौरान चिकित्सीय सुविधाओं में किसी प्रकार की रुकावट नहीं।


*टेलीमेडिसिन प्रौद्योगिकी के उपयोग से सबसे बड़ी उम्मीद यह है कि दूरसंचार स्थापित होने के बाद यह चिकित्सा पद्धतियों में विशेषज्ञता ला सकता है।


*रोबोट्स का उपयोग करते हुए स्वास्थ्य टेलीमेटेड सर्जरी


यह महामारी की आशंका में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह स्थानीय और वैश्विक स्तर पर बीमारियों की रियल टाइम निगरानी में एक सक्षम विकल्प है। 


 


टेलीमेडिसिन के क्षेत्र में सरकार के प्रयास:


 


संजीवनी- वर्ष 2005 में केंद्र सरकार ने टेलीमेडिसिन से संबंधित एक सॉफ्टवेयर जारी किया जिसे संजीवनी नाम दिया गया। इसे टेलीमेडिसिन के हाइब्रिड मॉडल के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है जो स्टोर और फॉरवर्डके साथ-साथ रियल टाइम की अवधारणा का उपयोग करता है।    


 


सेहत- वर्ष 2015  में केंद्र सरकार ने दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीमेडिसिन के ज़रिये विशेषज्ञ चिकित्सकों की सेवाएँ उपलब्ध कराने के उद्देश्य से अस्पतालों का नेटवर्क संचालित करने वाली कंपनी अपोलो अस्पताल के साथ मिलकर 60 हजार कॉमन सर्विस सेंटरों (सीएससी-Common Service Centre) में टेलीमेडिसिन सेवा सेहतशुरू की है। 


 


कॉनटेक- कॉनटेकपरियोजना दरअसल कोविड-19 नेशनल टेलीकंसल्टेशन सेंटरका संक्षिप्त नाम है। यह एक टेलीमेडिसिन केन्द्र है जिसकी स्थापना अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान., नई दिल्ली के द्वारा की गई है, जिसमें देश भर से विशेषज्ञों के बहु-आयामी सवालों का उत्तर देने के लिये विभिन्न नैदानिक क्षेत्रों के विशेषज्ञ डॉक्टर 24 घंटे उपलब्ध होंगे। यह एक बहु-मॉडल दूरसंचार केन्द्र है जिसके माध्यम से देश के अलावा विश्व के किसी भी हिस्से से दोनों ओर से ऑडियो-वीडियो वार्तालाप के साथ-साथ लिखित संपर्क भी किया जा सकता है।


 


चुनौतियाँ :


 


डॉक्टर व स्वास्थ्यकर्मी ई-चिकित्सा या टेलीमेडिसिन के बारे में पूरी तरह से आश्वस्त और परिचित नहीं हैं।टेलीमेडिसिन के परिणामों के बारे में रोगियों में विश्वास की कमी है।भारत में तकनीक और संचार लागत बहुत अधिक है, कभी-कभी यह टेलीमेडिसिन को वित्तीय रूप से अक्षम बना देती है।भारत में, लगभग 40% जनसंख्या गरीबी के स्तर से नीचे रहती है। ऐसे में इस वर्ग का तकनीकी रूप से दक्ष होना अत्यधिक कठिन है।विभिन्न प्रकार के सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर द्वारा समर्थित ई-चिकित्सा को अभी भी परिपक्व होने की आवश्यकता है। सही निदान और डेटा के अन्वेषण के लिये, हमें उन्नत जैविक सेंसर और अधिक बैंडविड्थ समर्थन की आवश्यकता है।टेलीमेडिसिन स्वास्थ्य सेवा के मामले में दिशानिर्देश बनाने व इन दिशानिर्देशों का उचित अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिये शासी निकाय का अभाव है।


 


निष्कर्ष:


 


टेलीमेडिसिन सभी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है, लेकिन कई समस्याओं को संबोधित करने में बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। टेली-हेल्थ, टेली-एजुकेशन और टेली-होम हेल्थकेयर जैसी सेवाएँ स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में चमत्कारिक साबित हो रही हैं। आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में टेलीमेडिसिन का विशेष महत्त्व है जैसा कि वर्तमान में कोरोना वायरस के प्रसार के दौरान देखा जा रहा है। टेलीमेडिसिन की पहल अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं को करीब ला रही है और गुणवत्ता स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने में रुकावटों को दूर कर रही है। इतनी क्षमता होने के बावजूद अभी भी टेलीमेडिसिन ने उस ऊँचाई को प्राप्त नहीं किया है जहाँ इसे पहुँचने की आशा थी। हालाँकि सरकारें अब टेलीमेडिसिन स्वास्थ्य सेवाओं को विकसित करने में गहरी दिलचस्पी लेने लगी हैं, जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक स्वास्थ्य में इसके उपयोग में धीमी लेकिन स्थिर वृद्धि हुई है। उम्मीद है कि कुछ वर्षों में, टेलीमेडिसिन स्वास्थ्य सेवाओं को अपनी वास्तविक क्षमता तक पहुँचाया जाएगा।


____________________________________________________________प्रेषक: डॉ दीपक कोहली, उपसचिव ,पर्यावरण ,वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ,उत्तर प्रदेश शासन ,5 /104, विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010 


 


 


शांतिपूर्ण प्रदर्शन है लोकतंत्र की खूबसूरती



शांतिपूर्ण प्रदर्शन है लोकतंत्र की खूबसूरती




सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे से




मुझे राजनीति नहीं  करनी, हम्हें घर चलाना है,




मुझे राजा नहीं बनना, समाज की रीढ़ बनना है।




शांतिपूर्ण प्रदर्शन है लोकतंत्र की खूबसूरती,




मुझे किसी भी हालात में इसे बहाल रखना है।"




 




लोकतंत्र में माना, कोई तानाशाह नहीं होता है।




सभी दलों के साथ मिल देश चलाना होता है।




फूल सी ये  पार्टियाँ राजनैतिक गुलदस्ता हैं,




अनेकता में एकता से लोकतंत्र कायम होता है।



 


तुम कह रहे थे वोट दूँगा मैदान में आओ तो,




मैंने अभी किसी पार्टी का परचम नहीं थामा।




तुम विचार में मेरे खिलाफ हो तो क्या हुआ,
तूफान के बाद तो मिलकर आबाद करना है।








 

 

सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक',
अध्यक्ष, भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम,

सम्पादक, स्पाइल-दर्पण (ओस्लो से प्रकाशित द्विभाषी- द्वैमासिक पत्रिका)
Post Box 31, Veitvet, 0518 Oslo, Norway 





मैं मजदूर हूँ।

तपती,झुलसाती तीखी धूप,
और सामने अंधेरा घुप।
बौराये आम, गर्मी में मन भी बौराया।
घर जाने को सड़क नापना, 
मेरे हिस्से आया।
दो जून की रोटी पाने, विस्थापन था!
भूखे पेट अंतड़िया सुनती
पास जो मेरे ज्ञापन था।
मिलों पार खड़ा मेरा घर
आवाजे देता मुझको,
वादा करके आया था मैं,
चोखट,दरवाजों, छप्पर,
बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों से।
पापी पेट की भूख मिटाने
भेजता रहूंगा, पैसे, जैसे-तैसे
लेकिन अब नही काम बनता
क्या लिखा तूने ओ नियंता?
पसीने की बूंदे बेचकर...
कमा लेता था कुछ रुपया
क्या यह समय की त्रासदी, 
अब पसीने का मोल नहीं..!
पसीना तो अब भी बह रहा है...
मिलों सड़क नाप कर घर जाने में।
क्यों, इतना मजबूर हूँ..?
क्योकि शायद..
मैं मजदूर हूँ।
©डॉ. मोहन बैरागी



Monday, May 18, 2020

क्या इंसानियत - सबसे बड़ा धर्म है?

क्या इंसानियत - सबसे बड़ा धर्म है?


कहते है, जिंदगी में हमेशा अच्छे कर्म करो वही आपका परिचय देगी जिसकी नीति अच्छी होगी तो हमेशा उन्नति होगी कोई भी व्यक्ति किसी के पास तीन कारणों से आता है भाव से, अभाव से या प्रभाव से यदि भाव से आया है तो उसे प्रेम दो अभाव से आया है तो उसकी मदद करो और यदि प्रभाव से आया है तो प्रसन्न हो जाओ की परमात्मा ने तुम्हें इतनी क्षमता दी है, क्योंकि जब कोई दुविधा में होता तब उन्हें उन्हीं लोगों का खयाल आता है जो किसी भी संकट में उपस्थित होकर उनके अंधकारमय जीवन में प्रकाश भर देगा। किसी भी स्थिति में उस व्यक्ति का खयाल पहले मस्तिष्क में आता है।


नेत्र दृष्टि प्रदान करती है परंतु हम कहाँ क्या देख पाते है। लेकिन सब हमारे मन पर निर्भर होता है कि हम क्या सोचते है। क्या कर्म करते है उसी का ठीक फल प्राप्त होता है हा, लेकिन इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सोचते है हमारे विचार सही है या गलत। कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र होता है लेकिन कर्म करने के पीछे हमारी मनशा कैसी है वह भी हमारे कर्म पर निर्भर करता है लेकिन दोष किसी और का करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। हम ईश्वर को कोसते है कि वह हमारे साथ हमेशा गलत करता है। लेकिन क्रिया पर क्या प्रतिक्रिया होगी इसमें ईश्वर का जरूर हाथ होता है। अगर हम उदाहरण के साथ समझे तो एक चोर के हाथ में छुरी है और एक डॉक्टर के हाथ में छुरी है एक व्यक्ति चोरी करते वक्त पकड़े जाने पर छुरे से हमला करता है और एक डॉक्टर मरीज का छुरे से ऑपरेशन करता है कार्य में कोई भेद नहीं है लेकिन दोनों का कार्य करने का उद्देश्य मनशा अलग है। महत्त्वपूर्ण है हम किस कार्य को किस ढंग और कैसे करते है।


आज के बदलते आधुनिक समाज में संवेदनाएँ कहाँ रह गयी है। कहते इंसानियत और मानवता सबसे बड़ा धर्म है। लेकिन क्या यह शब्द आज के समय में लोगों के लिए मायने रखता है ?आज अपने अपनों के नहीं रहे तो परायों से क्या उम्मीद रखी जा सकती है। माँ-बाप दस बच्चों को पाल सकते है लेकिन दस बच्चे अपने एक माता-पिता को नहीं संभाल पाते। दुनिया में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इंसान को घिरा सके। लेकिन इंसान, इंसान द्वारा गिराया जाता है। अपनों से संबंध नहीं रहे। इंसान से बड़ा खुदगर्ज मनुष्य प्राणी और दुनिया में कोई नहीं हैं। आज मनुष्य अपने और अपने स्वार्थ के लिए जीता है,जैसे अपना स्वार्थ पूरा हुआ फिर उस व्यक्ति को पहचानने से भी इनकार कर देते है। किसी की किए अच्छाई को कभी भी याद नहीं रखा जाता। दूसरे को दुख से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, किसी के दुख को देखकर हँसने वाले बहुत मिलेंगे। इंसान की इंसानियत उसी समय खत्म हो जाती है, जब उसे दूसरों के दुख में हँसी आने लगती है।  आज दुनिया चलती है तो सिर्फ अपने मतलब से जैसे अपना मतलब निकल गया वैसे पहचानने से इनकार कर देते है। भले हम आज पढ़े-लिखे हो लेकिन पेपर के पन्ना सिर्फ डिग्री नहीं होती हमारे व्यवहार से किस व्यक्ति के साथ हम कैसे पेश आते है उस पर हमारी डिग्री का पता चलता है। हम किसी के आँखों के आँसू के मोहताज न बने तो किसी के चेहरे के हँसी का मोहताज बने। किसी के आँखों में आँसू लाना बहुत आसान है लेकिन उसके परिणाम बहुत घातक होता है। क्योंकि दूसरों को दुख देने वाला व्यक्ति खुश भला कैसे रह सकता है लेकिन आज किसी की निंदा करने में लोगों को जो आनंद मिलता है वह उन्हें आनंद किसी और वस्तु में नहीं मिलेगा। हम किसी की निंदा करते थकते नहीं निंदा करते-करते हम यह भूल जाते है कि हम कितने अच्छे है हममे क्या बुराई है।


मन का खोट कुए के पानी की तरह होता है। जितना भी निकालो खत्म नहीं होता। मन में दूसरों के प्रति सिर्फ द्वेष, घृणा और तिरस्कार होता हैं। मन में सुबह से लेकर शाम तक बस यहीं चलता रहता है कि मेरा भला कैसे होगा और दूसरों का बुरा। अपने जीवन से ज्यादा दूसरों के जीवन में क्या चल रहा है यह जानने कीसबसे बड़ी उत्सुकता रहती है। दूसरों की जिंदगी से अपने जीवन को कैसे बेहतर बनाए जिससे कुछ लोगों के बीच सम्मान पा सके। लेकिन कोई कभी यह समझ नहीं पाता कि दूसरों को सम्मान देने से खुद सम्मान पाते है। आज सबसे बड़ी दुर्दशा यह है कि आदमी सड़क परतड़प-तड़प कर मरता है,लेकिन उस समय कोई उनकी मदद के लिए नहीं दौड़ता इंसान पशु से भी बत्तर होता जा रहा है क्योंकि पशुओं को एक खूटे से बाँध दिया जाए तो वह अपने आप उसी अवस्था में ढाल लेता है जबकि,मानव परिस्थितियों के मुताबिक गिरगिट की तरह रंग बदलता हैं। पशु प्राणी कभी संचय नहीं करता लेकिन मनुष्य हमेशा संचय करने में लगा रहता है। रात-दिन मेहनत करता है, लेकिन जानवर कभी भूखा पेट नहीं मरता। चेहरे पर मुखौटा लिए लगाए घूमते है व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है वह समझ नहीं आता। घाव के बिना शब्दों से गंभीर घाव दिया जाता है। जानवर जब सामने आता है तब पता चलता है कि वह हम पर हमला करेगा,लेकिन मनुष्य सामने से कैसे वार कर सकता है इसका आकलन लगाना बड़ा मुश्किल है।


जीवन में खाली पेट और खाली जेब जो सीख सिखाती है वह बात शिक्षक नहीं सीखा सकता। क्योंकि कठिन परिस्थिति में कैसे जीना और उस स्थिति से कैसे उभरना है वह समय ही बताता है। चौरासी लाख यौनियों में से मनुष्य ही धन कमाता है, लेकिन मनुष्य का पेट कभी नहीं भरता। मनुष्य अपना संपूर्ण जीवन सब कुछ पाने के लिए गवाता हैं। जीव, जन्तु, प्राणी, पशु, पक्षियों को कभी कमाते नहीं देता फिर भी जीवन में संतुष्ट रहते है। जीव कभी भूखा नहीं मरता और मनुष्य का कभी पेट नहीं भरता। अपने जीवन में जितना है उससे अधिक पाना चाहता हैं।श्रेष्ठता का भाव मनुष्य के अंदर हमेशा विद्यमान रहता हैं। बस थोड़ी सी जीत पर मनुष्य ऐसे घमंड करता है। जैसे रेस में जीतने वाले घोड़े को यह पता भी नहीं होता कि जीत वास्तव में क्या है वह तो अपने मालिक द्वारा दी गयी तकलीफ की वजह से दौड़ता है।


आज हम अपनों से ही कट रहे है, प्रकृति से हमारा संपर्क नहीं रहा बस जीवन जी रहे भाग रहे है लेकिन रुकना कहा है यही नहीं पता, घिरते को उठाना भी हम आज भूल गए है। रोज एक खोफ के साथ बीत रही है जिंदगी न जाने किस मोड पर जा रही है जिंदगी बेबस है इंसान बेबस है साँसे कितनी सस्ती हो गयी है इंसान की साँसे न जाने कल जो साथ हँस रहे थे। अब किस हाल में होंगे ये आगे।समाज में जानवरों कि प्रताड़ना, शारीरिक दुष्कर्म बढ़ते जा रहे है। हमने अपने साथ अपनी सोच को भी कैद कर लिया है। डिजिटल दुनिया में हम भी डिजिटल यानी मशीन हो गए है। मनुष्य की जान बहुत सस्ती हो गयी है। उसी प्रकार रिश्ते ही सिकुड गए है आज बाते दिल से नहीं सिर्फ दिमाग से होती है। आज हृदय का स्थान मस्तिष्क ने ली है क्योंकि आज लोग दिल से ज्यादा दिमाग का इस्तमाल कर रहे हैं।


आज हम कहने के लिए इंसान रह गए है लेकिन इंसानियत खत्म हो चुकी है जहाँ किसी का स्वार्थ समाप्त होता है वहीं से इंसानियत आरंभ हो जाती है। जीवन में किसी की मदद करना किसी के बारे में बुरा नहीं सोचना यही सच्ची मनुष्यता है। इसमें कभी स्वार्थ नहीं होता जो भी किसी के लिए कुछ किया जाता है वह दिल से किया जाता है। उसमें लेन देन नहीं होता। और जहाँ लेन-देन है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। जीवन में हर एक की सुनों और हर एक से कुछ न कुछ सीखो क्योंकि हर कोई सब कुछ नहीं जानता लेकिन हर एक कुछ न कुछ जरूर जानता हैं। रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई तो रिश्ता टूटना मुश्किल है और अगर स्वार्थ से हुई है तो टिकना मुश्किल है अगर लोग अच्छाई को कमजोरी समझते है तो वह उनकी समस्या है आपकी नहीं आप जैसे है वैसे बने रहिए। क्योंकि लोगों को अच्छाई में भी बुराइयाँ धुंडने की आदत होती है। जब तक इंसान आँखों के सामने होता है तब तक इंसान का मूल्य समझ में नहीं आता। कोई जीवन में आगे बढ़ता हुआ किसी से देखा नहीं जाता वह उस व्यक्ति को पीछे लाने के लिए तत्पर खड़ा होता हैं। न कोई किसी का हालात समझता है न जज़्बात।


पूजा सचिन धारगलकर


इडब्ल्यूएस 247, हनुमान मंदिर के पास, हाउसिंग बोर्ड रूमदामल दवर्लिम सालसेत (गोवा) -403707


ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं बल्कि ज्ञान का भ्रम है

ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं बल्कि ज्ञान का भ्रम है


 


ज्ञान लोगों के भौतिक तथा बौद्धिक सामाजिक, प्राकृतिक और मानवीय तत्वों के बारे में विचारों की अभिव्यक्ति है। ज्ञान दैनदिन तथा वैज्ञानिक होता है। ज्ञान में मनुष्य की सामाजिक शक्ति संचित होती है, निश्चित रूप धारण करती है तथा विषयीकृत होती है। ज्ञान शब्दों का भण्डार होता है। ज्ञान दो तरह का होता है। एक ज्ञान वह जो पुस्तकों को पढ़कर ग्रहण करते है, और दूसरा व्यवहारिक ज्ञान होता है। पुस्तक का ज्ञान होने के साथ दुनियादारी का ज्ञान भी होना जरूरी है।


ज्ञान को ही मनुष्य वास्तविक शक्ति मानता है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव हमारे साथ रहती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, और सहयोगी या साथी भी छूट जाते है। लेकिन ज्ञान ही एक ऐसा तत्व है जो, कभी भी किसी स्थिति या अवस्था में साथ नहीं छोड़ता है। और हम ज्ञान के बल पर ही लोगों या समाज में सहयोगी को अपना बना सकते है।


ज्ञान किसी पुस्तक में छिपी एक तत्व नहीं है। संसार में हर कहीं ज्ञान है। हर जगह पर हम ज्ञान प्राप्त कर सकते है। पहला ज्ञान हमे माता से और फिर गुरु से मिलता है। पूरा ज्ञान जब आत्मा-परमात्मा पर विलीन होते है, तभी पूर्ण होता है। जन बल को अपने पक्ष में करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है।


ज्ञान के अभाव में शक्ति का न होना बराबर होता है। उदाहरण के लिए मान लिया जाये की उत्तराधिकार में धन मिले या संयोगवंश अकस्मात धन पा लिया। तो क्या माना जाता है कि, धन में शक्ति होती है। लेकिन धन में शक्ति नहीं होती है, वह शक्ति तभी बन सकती है जब उसके साथ उसके प्रयोग या उपयोग में ज्ञान को समावेश किया जायेगा। ज्ञान के बिना मनुष्य नहीं जान सकता कि, किस तरह से  उस धन का कौनसा व्यवसाय करे, किस जन-हितैषी को दान दे, समाज के लाभ के लिए कौनसा स्थापना करे। वह धन द्वारा किस प्रकार दीन-दुखियों की सहायता करे या आवश्यकता लोगों की सहायता करे। हमे सब विषयों में ज्ञान होना जरूरी है। लेकिन ज्ञान का भ्रम नहीं करना चाहिए।


ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं बल्कि ज्ञान का भ्रम है। हमे कभी ज्ञान का भ्रम नहीं करना चाहिए। अगर हमे किसी विषय के बारे में पता नहीं तो, हमे किसी से पुछ लेना चाहिए। हमे यह जताना नहीं चाहिए की सब कुछ पता है, ऐसा करेंगे तो ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते है। हमे कभी भ्रम में नहीं जीना चाहिए। विद्धवान पंडित कितनी ही बड़ी बड़ी पुस्तके पढ़कर मुत्यु के द्रार पहुँचता है, लेकिन विद्धवान नहीं हो सके|सच्चा ज्ञानी वह होता है जो केवल एक अक्षर प्रेम का अर्थात प्रेम का वास्तविक पहचान ले वही ज्ञानी होता है| सच्चा ज्ञानी वह भी होता है जो मानव मात्र से प्रेम करता है। थोड़े पंडित ऐसे भी होते है जो, अपने आपको बड़े विद्धवान समझते है, ऐसा समझते है की वह आसमान को भी छु सकते है। असल में वह भ्रम में जी रहे होते हो। दरअसल उसे कुछ भी पता नहीं होता है।


बहुत से लोग धार्मिक और ग्रंथ में दी हुई जानकारी को ज्ञान मान लेते है| और बहुत से लोग महात्माओं के वाक्यों को रट लेना भर ही ज्ञान समझ बैठते है| यह सब ज्ञान नहीं है| यह सब ज्ञान प्राप्ति के लिए साधन एक मात्र है। पुस्तक पढ़ लेने अथवा किसी महात्मा का कथन सुन लेने भर ज्ञान की उपल्बधि नहीं हो सकती है। सच्चा ज्ञान, अनुभूति से द्वारा ही संभव या प्राप्त कर सकते है। ज्ञान ही जीवन का सार और आत्मप्रकाश है।


अलौकिक जीवन में खासकर अध्यात्मिक रूप में रहने पर साधु-संन्यासियों का ज्ञान, ईश्वर के समान हो माने जाते है। लेकिन लौकिक जीवन बितानेवाला व्यक्ति स्वार्थीपरक जिंदगी के बारे में ही सोचते रहते हैं। यह स्वार्थीपरक मन स्थिति मनुष्य को इस भ्रम में जलते है कि, मुझमें सब कुछ है। लेकिन यह ज्ञानता नहीं माना जाता है। दरअसल यह ज्ञानी होने का भ्रम है| एक व्यक्ति का ज्ञान तभी पूर्ण हो सकता है, जब वह परमात्मा में विलीन हो जाते है| साधारण मनुष्य के मन में जितनी भी आजकल के जिंदगी के प्रति लालसा है, सब कुछ पाने की अदम्य इच्छा है, वह ज्ञान नहीं अज्ञान है|


एक उदाहरण के तौर पर ले सकते है कि, एक शिक्षक को लगता है की वह कितना ज्ञानी है और उसे अधिक ज्ञानी कोई नहीं है| वास्तविक में यह उसका भ्रम होता है| ज्ञान का भ्रम है| कभी-कभी शिक्षक से अधिक उसका छात्र भी ज्ञानी हो सकता है| क्योंकि ज्ञान कभी भेदभाव नहीं करता| ज्ञान कभी छोटा या बड़ा नहीं देखता सबको समान रूप में देखता है|


असल में ज्ञान का मतलब केवल मोटी-मोटी पुस्तकों का अध्ययन करने से नहीं बल्कि ज्ञान वह गुण है, जिसके द्वरा मनुष्य अपने सुख-दुख ,काम-क्रोध लोभ-मोह इन सबका समन्वय अपने दैनिक जीवन में करता है|ज्ञानी मनुष्य को किसिका भय नहीं होता है, वह मुसीबतों का सामना कर सकता है| ज्ञान का उपयोग कर जीवन को सुलभ और सरल बना लेता है| अज्ञानता का होना कोई बुरी बात नहीं, यह किसी मनुष्य को जीवन जीने में बाध्य नहीं करता, अज्ञानता से मनुष्य अपने जीवन शैली में परिवर्तन नहीं ला सकता, बेहतर रोजगार प्राप्त नहीं कर सकता है| अज्ञानी पुरुष भी ज्ञानी बन सकता है लेकिन उसमे ज्ञान को अर्जित करने की जिज्ञासा होनी चाहिए| अत: ज्ञान का शत्रु अज्ञानता नहीं है|


थोड़े ज्ञान वाले व्यक्ति को ज्ञान होने का भ्रम होता है| उनका मन केवल दूसरों को निचा दिखाना, ईर्ष्या करना, आदि का कार्य करता है| उनमे सिखने की जिज्ञासा नहीं होती| अत: यह कहना उचित है कि, ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं बल्कि ज्ञान होने का भ्रम है|


बेशक ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु ज्ञान का भ्रम है| दूसरे शब्दों मै यह आपको सत्य जाने से रोकता है| आपको लगता है की आपके पास सच्चाई का ज्ञान है, लेकिन आप भ्रम में जी रहे होते हो| और आप उस सच्चाई को तलाशना बंद कर देते हो|


इस बदलते युगमें हर एक इंसान को अपने ज्ञानी होने का अभिमानी होता है|वह सोचते है की ज्ञान का इस्तमाल करके इस दुनिया मै कुछ भी कर सकते है| सब इस ज्ञान के भ्रम मै जीते है| ज्ञान का उपयोग दो तरह से किया जा सकता है किसी अच्छे काम के लिए और दूसरा बुरे काम के लिए किया जाता है| ज़्यादातर आज के युग में लोग ज्ञान का उपयोग बुरे काम के लिए करते है, जैसे लोगों को ठगना, बेवकूफ बनाना आदि| और यह समझते है की वह ज्ञानी इंसान है| दरअसल इसका यह भ्रम होता है|


किस चीज का ज्ञान नहीं होना ये कोई कमजोरी नहीं है, कमजोरी यह की ना जानते हुए भी दावा करे की सब कुछ जानते है| ज्ञान का भ्रम पैदा कर लेते है| और इसी वजह से ज़िंदगी मै पीछे रह जाते है| एक अज्ञानी व्यक्ति अपने जीवन की कितनी उपल्बधियों से वंचित रह जाते है| इसलिए यह भी कहते है कि, ज्ञान से बड़ा कोई साथी नहीं और अज्ञानता से बड़ा कोई शत्रु नहीं| ज्ञान हमेशा हमारा साथ देता है कभी अकेला नहीं छोड़ता है|


पूजा सचिन धारगलकर


इ.डब्ल्यू.एस 247, हनुमान मंदिर के पास, हाउसिंग बोर्ड रुंडमोल दवर्लिम सालसेत (गोवा) -403707



कविता... 

(1 )कविता... 

 

पिता पुराने दरख़्त की

 तरह होते हैं! 

""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

 

आज आंगन से

काट दिया गया

एक पुराना दरख़्त! 

 

मेरे बहुत मना करने 

के बाद भी! 

 

लगा जैसे भीड़ में 

छूट गया हो मुझसे 

मेरे पिता का हाथ! 

 

आज,बहुत समय के 

बाद, पिता याद 

आए! 

 

वही पिता जिन्होनें

उठा रखा था पूरे 

घर को 

अपने कंधों पर

उस दरख़्त की तरह! 

 

पिता बरसात में उस

छत की तरह थे.

जो, पूरे परिवार को 

भीगनें से बचाते ! 

 

जाड़े में पिता कंबल की

तरह हो जाते!

पिता  ओढ लेते थे

सबके दुखों को  ! 

 

कभी पिता को अपने

लिए , कुछ खरीदते हुए

नहीं देखा  ! 

 

वो सबकी जरूरतों

को समझते थे.

लेकिन, उनकी अपनी

कोई व्यक्तिगत जरूरतें

नहीं थीं

 

दरख़्त की भी कोई

व्यक्तिगत जरूरत नहीं

होती! 

 

कटा हुआ पेंड भी 

आज सालों बाद पिता 

की याद दिला रहा था! 

 

बहुत सालों पहले

पिता ने एक छोटा

सा पौधा लगाया

था घर के आंगन में! 

 

पिता उसमें खाद 

डालते 

और पानी भी! 

रोज ध्यान से 

याद करके! 

 

पिता बतातें पेड़ का 

होना बहुत जरूरी 

है आदमी के जीवण

में! 

 

पिता बताते ये हमें

फल, फूल, और 

साफ हवा

भी देतें हैं! 

 

कि पेंड ने ही थामा 

हुआ है पृथ्वी के

ओर - छोर को! 

 

कि तुम अपने 

खराब से खराब 

वक्त में भी पेंड

मत काटना! 

 

कि जिस दिन

 हम काटेंगे

पेंड! 

तो हम 

भी कट  जाएंगें

अपनी जडों से! 

 

फिर, अगले दिन सोकर 

उठा तो मेरा बेटा एक पौधा 

लगा रहा था 

 

उसी पुराने दरख़्त

 के पास , 

वो डाल रहा था 

पौधे में खाद और 

पानी! 

 

लगा जैसे, पिता लौट 

आए! 

और   वो 

दरख़्त भी  !! 

 

 

(2)कविता... 

 

चिड़ियों को मत मरने दो..

"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

 

चिड़ियों को मत मारो

उन्हें धरा पर रहने दो.

 

फुदकने दो हमारे घर

आंगन में

उनके कलरव को बहने दो! 

 

दुनिया के कोलाज पर

रंगों की छटा बिखरते

रहने दो ! 

 

मत मारो चिड़ियों को ! 

इन्हें धरा पर रहने 

दो! 

 

घरती भी मर 

जाती है चिड़ियों 

के मरने से! 

 

चिड़ियों के बच्चे भी मर 

जाते हैं

चिड़ियों के मरने से!

 

लाल, गुलाबी, नीले,

 पीले, चितकबरे, और हरे

रंगों के कोलाज को इस

धरा पर बहने दो! 

 

रंगों के रहने से ही

सपने भी रहते हैं जिंदा 

इसलिए भी 

चिड़ियों को मत मरने दो! 

 

इस धरा पर रंगों के कोलाज

को बहने दो  ! 

 

फुदकने दो हमारे 

घर आंगन में

उनके कलरव  को बहने दो!

 

मत, मारो चिड़ियों को उन्हें जिंदा  रहने दो!

 

 

(3 )कविता... 

 

संवेदना

..... 

 

बांध दो पट्टियां

गाय अगर दिखे

चोटिल! 

 

लगा दो  कुत्ते 

के जख्मों पर

 मरहम !

 

ठंड में दे दो

किसी बेजुबान को

बरामदा का कोई

कोना! 

 

पिला दो पानी 

उस परिन्दे को

जो प्यासा है! 

 

दे दो खाना 

उनको जो 

भूखे हैं! 

 

बांट लो दुख 

उनका जो दुखी हैं!

 

 

(4 )कविता... 

 

चुनौती को अवसर बनाईए.. 

""'"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""“""""""""""""'""“""""""""""""""""""

 

लाल किले से एक मुनादी 

हुई थी.. 

कि इस विकट 

समय में  चुनौती

को अवसर 

बनाईए! 

 

जब भूख एक 

चुनौती थी ! 

 

तो वो अवसर कैसे 

बनती..?? 

 

मजदूरों  के लिए भूख 

एक चुनौती थी! 

तो वो उनके लिए अवसर

कैसे बनती...?? 

 

लेकिन, बिचौलियों

के लिए

भूख अवसर बनी! 

वो डकार गये मजदूरों का

भाडा ! 

 

और छोड दिया 

उन्हें मरने के 

लिए सडकों पर  ! 

और ले भागे  बिचौलिए 

मजदूरों की 

जीवण भर की कमाई! 

 

भूख किसी के लिए

चुनौती बनती  रही 

और ,किसी के लिए 

अवसर! 

 

महेश कुमार केशरी

 C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो

 बोकारो झारखंड

पिन-829144

डॉo सत्यवान सौरभ की रचनायें

(1)योद्धा बनें,आज वतन की आस !!


लोग सभी खामोश हैं, दुबके सभी प्रधान !
सरकारी सेवक बनें, सब के दयानिधान !!

कोरोना से लड़ रहे, भूलें आज थकान !
जज्बा इनका देखकर, ईश्वर है हैरान !!

कामचोर जिनको कहा, माना सदा दलाल !
खड़े साथ हैं आपके, देखो वो हर हाल !!

द्वारे-द्वारे हैं खड़े, सिविल सेवादार !
जीत-जीतकर मोर्चे,  सांस रहे वो हार !!

नेता के दौरे नहीं, सड़कें हैं सुनसान !
आकर तुमसे पूछते,अब वो सेवक ध्यान !!

जिनको तुमने फाँसने, करतब किये हज़ार !
बचा रहें हैं आज वो, सपनों का संसार !!

सौरभ हर पल लड़ रहे, विपद काल के शाह !
दिखा रहे तुमको सही, वक्त पड़े की राह !!

नर-नर रोया दुःख में, कोय न बैठा पास !
कोरोना योद्धा बनें,आज वतन की आस !!

कोरोना योद्धा सभी, करें यही अरदास !
सौरभ अब तो मानिये, उनके किये प्रयास !!

✍ #सत्यवान #सौरभ

 

 

(2)  देख हाल मजदूर का,है सौरभ अफ़सोस

बदले सबके रूप है, बदले सबके रंग
मगर रहे मजदूर के, सदा एक से ढंग

देख हाल मजदूर का, है सौरभ अफ़सोस
चलता आये रोज पर,  दूरी उतने कोस

जब-जब बदले कायदे, बदली है सरकार
मजदूरों की पीर में, खूब हुई भरमार

बांध-बांध कर थक गए, आशाओं की डोर
आये दिन ही दुख बढे, मिला न कोई छोर

चूल्हा ठंडा है पड़ा, लगी भूख की आग
सुना रही सरकार है, मजदूरों के राग

रूप विधाता दोस्तों, होता है मजदूर
जग को सदा सुधारता, चाहे हो मजबूर

मजदूरों के हाथ हैं, सपनों की तस्वीर
इनसे सौरभ जुड़ी, हम सबकी तकदीर

 ✍ सत्यवान सौरभ

 

(3)   सोता हूँ माँ चैन से,जब होती हो पास!! 

नारी मूरत प्यार की,ममता का भंडार!
सेवा को सुख मानती,बांटे खूब दुलार!!

 तेरे आँचल में छुपा,कैसा ये अहसास!
 सोता हूँ माँ चैन से,जब होती हो पास!!  

 बिटिया को कब छीन ले,ये हत्यारी रीत !
घूम रही घर में बहू,हिरणी-सी भयभीत !!

 अपना सब कुछ त्याग के,हरती नारी पीर !
फिर क्यों आँखों में भरा,आज उसी के नीर !!

 नवराते मुझको लगे,यारों सभी फिजूल !
नौ दिन कन्या पूजकर,सब जाते है भूल !!

 रोज कहीं पर लुट रही,अस्मत है बेहाल !
खूब मना नारी दिवस,गुजर गया फिर साल !!

 थानों में जब रेप हो, लूट रहे दरबार !
तब सौरभ नारी दिवस, लगता है बेकार !!

 जरा सोच कर देखिये, किसकी है ये देन !
अपने ही घर में दिखें, क्यों नारी बेचैन !!

 रोज कराहें घण्टिया, बिलखे रोज अजान !
लुटती नारी द्वार पर, चुप बैठे भगवान !!


 नारी तन को बेचती, ये है कैसा दौर !
मूर्त अब वो प्यार की, दिखती है कुछ और !!

 

(4)   बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव !!

 

नई सुबह से कामना, करिये बारम्बार!
हर बच्चा बेखौफ हो, पाये नारी प्यार !!

 छुपकर बैठे भेड़िये, देख रहे हैं दाँव !
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव !!

 मोमबत्तियां छोड़कर, थामों अब तलवार !
दिखे जहाँ हैवानियत, सिर दो वहीं उतार !!

 जीवन में आनंद का, बेटी मंतर मूल !
इसे गर्भ में मारकर, कर  ना देना भूल !!

 बेटी कम मत आंकिये, गहरे इसके अर्थ !
कहीं लगे बेटी बिना, तुम्हे ये सृष्टि व्यर्थ !!

 बेटी होती प्रेम की, सागर एक अथाह !
मूरत होती मात की, इसको मिले पनाह !!

 छोटी-मोटी बात को, कभी न देती तूल !
हर रिश्ते को मानती, बेटी करें न भूल !!

 बेटी माँ का रूप है, मन ज्यों कोमल फूल !
कोख पली को मारकर, चुनों न खुद ही शूल !!

 बेटी घर की लाज है, आँगन शीतल छाँव !
चलकर आती द्वार पर, लक्ष्मी इसके पाँव !!

 बेटी चढ़े पहाड़ पर, गूंजे नभ में नाम !
करती हैं जो बेटियाँ, बड़े -बड़े सब काम !!

 बेटी से परिवार में, पैदा हो सम-भाव !
पहले कलियाँ ही बचें, अगर फूल का चाव !!

 बिन बेटी तू था कहाँ, इतना तो ले सोच !
यही वंश की बेल है, इसको तो मत नोच !!

 हर घर बेटी राखिये, बिन बेटी सब सून !
बिन बेटी सुधरे नहीं, घर, रिश्ते, कानून !!

 सास ससुर सेवा करे, बहुएं करतीं राज ।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज ।।

 आये दिन ही टूटती, अब रिश्तों की डोर !
बेटी औरत बाप की, कैसा कलयुग घोर !!

 (5)   लड़कियां,

 

कभी बने है छाँव तो, कभी बने हैं धूप !
सौरभ जीती लड़कियां, जाने कितने रूप !!

 जीती है सब लड़कियां, कुछ ऐसे अनुबंध !
दर्दों में निभते जहां, प्यार भरे संबंध !!

 रही बढाती मायके, बाबुल का सम्मान !
रखती हरदम लड़कियां, लाज शर्म का ध्यान !!

 दुनिया सारी छोड़कर, दे साजन का साथ !
बनती दुल्हन लड़कियां, पहने कंगन हाथ !!

 छोड़े बच्चों के लिए, अपने सब किरदार !
बनती है माँ लड़कियां, देती प्यार दुलार !!

 माँ ,बेटी, पत्नी बने, भूली मस्ती मौज !
गिरकर सम्हले  लड़कियां, सौरभ आये रोज !

 नींद गवाएँ रात की, दिन का खोये चैन !
नजर झुकाये लड़कियां, रहती क्यों बेचैन !!

 कदम-कदम पर चाहिए, हमको इनका प्यार !
मांग रही क्यों लड़कियां, आज दया उपहार !!

 बेटी से चिड़िया कहे, मत फैलाना पाँख!
आँगन-आँगन घूरती, अब बाजों की आँख !!

 लुटे रोज अब बेटियां, नाच रहे हैवान !
कली-कली में खौफ है, माली है हैरान !!

 आज बढ़े-कैसे बचे, बेटी का सम्मान !
घात लगाए ढूंढते, हरदम जो शैतान !!

 दुष्कर्मी बख्सों नहीं, करे हिन्द ये मांग !
करनी जैसी वो भरे, दो फांसी पर टांग !!

 बेटी मेरे देश की, लिखती रोज विधान !
नाम कमाकर देश में, रचें नई पहचान !!

 बेटे को सब कुछ दिया, खुलकर बरसे फूल !
लेकिन बेटी को दिए, बस नियमों के शूल !!

 सुरसा जैसी हो गई, बस बेटे की चाह !
बिन खंजर के मारती, बेटी को अब आह !!

 झूठे नारो से भरा, झूठा सकल समाज!
बेटी मन से मांगता, कौन यहाँ पर आज!!

 बेटी मन से मांगिये, जुड़ जाये जज्बात !
हर आँगन में देखना, सुधरेगा अनुपात !!

 झूठे योजन है सभी, झूठे है अभियान !
दिल में जब तक ना जगे, बेटी का अरमान !!

 अब तो सहना छोड़ दो, परम्परा का दंश!
बेटी से भी मानिये, चलता कुल का वंश!

 बेटी कोमल फूल- सी, है जाड़े की धूप!
तेरे आँगन में खिले, बदल-बदलकर रूप !!

 सुबह-शाम के जाप में, जब आये भगवान !
बेटी घर में मांगकर, रखना उनका मान !!

 शिखर चढ़े हैं बेटियां, नाप रही आकाश !
फिर ये माँ की कोख में, बनती हैं क्यों लाश !!

 

(5)

 

माँ ममता की खान है, धरती पर भगवान !
माँ की महिमा मानिए, सबसे श्रेष्ठ-महान !!

 माँ कविता के बोल-सी,कहानी की जुबान !
दोहो के रस में घुली, लगे छंद की जान !!

 माँ वीणा की तार है, माँ है फूल बहार !
माँ ही लय, माँ ताल है,जीवन की झंकार !!

 माँ ही गीता, वेद है, माँ ही सच्ची प्रीत !
बिन माँ के झूठी लगे, जग की सारी रीत !

 माँ हरियाली दूब है, शीतल गंग अनूप !
मुझमे तुझमे बस रहा, माँ का ही तो रूप !!
 
माँ तेरे इस प्यार को, दूँ क्या कैसा नाम !
पाये तेरी गोद में, मैंने चारों धाम !!

 ✍सत्यवान सौरभ, 

 

(6)  मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए !!



 


 



कर दे जो मन को तृप्त  
ऐसा एक उपहार चाहिए !
बुझ जाये इस मन की प्यास ,
मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए !!

चाहता अब मन नहीं , झरने सा व्याकुल बहना !
चुभन काँटों की लिए , डूबा यादों में रहना !!

दर्द का जो स्वाद बदल दे
मुझे वो अहसास चाहिए !
बुझ जाये मन की प्यास ,
मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए !!

जब- जब तुझपे गीत लिखा ,  नाम तेरे मेरे मीत लिखा !
 कैसे भूले तुझको साथी , हार को  मैंने जीत लिखा !!

पास बैठकर बात करो तुम,
मुझे न अब इंतज़ार चाहिए !
बुझ जाये इस मन की प्यास ,
मुझे  तुम्हारा प्यार चाहिए !!

 उजड़ा-उजड़ा जीवन ये , घूँट पीड़ा के पी रहा !
 आकर देखो साथियाँ, कैसे हूँ मैं जी रहा !!

चहक उठे मेरा घर-आँगन ,
तेरे दुपट्टे की बहार चाहिए !!
बुझ जाये इस मन की प्यास ,
मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए !!

 

  ✍सत्यवान सौरभ,   

 

(7) दोहा गीत

*********************


समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार !


छोटी-सी ये ज़िंदगी, तिनके-सी लाचार !!



सुबह हँसी, दुपहर तपी, लगती साँझ उदास !


आते-आते रात तक, टूट चली हर श्वास !!


पिंजड़े के पंछी उड़े, करते हम बस शोक !


जाने वाला जायेगा, कौन सके है रोक !!



होनी तो होकर रहे, बैठ न हिम्मत हार !


समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार !!



पथ के शूलों से डरे, यदि राही के पाँव !


कैसे पहुंचेगा भला, वह प्रियतम के गाँव !!


रुको नहीं चलते रहो, जीवन है संघर्ष !


नीलकंठ होकर जियो, विष तुम पियो सहर्ष !!



तपकर दुःख की आग में, हमको मिले निखार !


समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार !!



दुःख से मत भयभीत हो, रोने की क्या बात !


सदा रात के बाद ही, हँसता नया प्रभात !!


चमकेगा सूरज अभी, भागेगा अँधियार !


चलने से कटता सफ़र,चलना जीवन सार !!



काँटें बदले फूल में, महकेंगें घर-द्वार !


समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार !!


छोटी- सी ये ज़िंदगी, तिनके सी लाचार !!



•••••••••••••••••••✍ #सत्यवानसौरभ


स्वरचित/मौलिक, सर्वाधिकार सुरक्षित


  

 

(8)पहले जैसा प्यार !!

मतलबी रिश्ते-मित्रता, होते नहीं खुद्दार !
दो पल सुलगे कोयले, बनते कब अंगार !!


आखिर किस पे अब यहाँ, करे स्व: ऐतबार!!
करते हो जब खास ही, छुपकर हम पे वार !!


घर में पड़ी दरार पर, करो मुकम्मल गौर !
वरना कोई झाँक कर, भर देगा कुछ और !!


रिश्तों में जब भी कभी, एक बने अंगार !
दूजा बादल रूप में, तुरंत बने जलधार !!


सुख की गहरी छाँव में, रिश्ते रहते मौन !
वक्त करे है फैसला, कब किसका है कौन !!


मित्र मिलें हर राह पर, मिला नहीं बस प्यार !
फेंक चलें सब बाँचकर, समझ मुझे अखबार !!


अब ऐसे होने लगा, रिश्तों का विस्तार !
जिससे जितना फायदा, उससे उतना प्यार !!


फ्रैंड लिस्ट में हैं जुड़े, सबके दोस्त हज़ार !
मगर पड़ोसी से नहीं, पहले जैसा प्यार !!


भैया खूब अजीब है, रिश्तों का संसार !
अपने ही लटका रहें, गर्दन पर तलवार !!


अब तो आये रोज ही, टूट रहें परिवार !
फूट-कलह ने खींच दी, आँगन बीच दीवार !!


कब तक महकेगी यहाँ, ऐसे सदा बहार !
माली ही जब लूटते, कलियों का संसार !!


✍ सत्यवान सौरभ


 

 

 

(9)   बापू बैठा मौन

 

बल रहे रिश्ते सभी, भरी मनों में भांप !

ईंटें जीवन की हिली, सांस रही हैं कांप !!


बँटवारे को देखकर, बापू बैठा मौन !
दौलत सारी बांट दी, रखे उसे अब कौन !!


नए दौर में देखिये, नयी चली ये छाप !
बेटा करता फैसले, चुप बैठा है बाप !!


पानी सबका मर गया, रही शर्म ना साथ !
बहू राज हर घर करें, सास मले बस हाथ !!


कुत्ते बिस्कुट खा रहे, बिल्ली सोती पास !
मात-पिता दोनों करें, बाहर आश्रम वास !!


चढ़े उम्र की सीढियाँ, हारे बूढ़े पाँव !
आपस में बातें करें, ठौर मिली ना छाँव !!


कैसा युग है आ खड़ा, हुए देख हैरान !
बेटा माँ की लाश को, नहीं रहा पहचान !!


कोख किराये की हुई, नहीं पिता का नाम !
प्यार बिका बाजार में, बिल्कुल सस्ते दाम !!


भाई-भाई से करें, भीतर-भीतर जंग !
अपने बैरी हो गए, बैठे गैरों संग !!


रिश्तों नातों का भला, रहा कहाँ अब ख्याल !
मात-पिता को भी दिया, बँटवारे में डाल !!


कैसे सच्चे यार वो, जान सके ना पीर !
वक्त पड़े पर छोड़ते, चलवाते हैं तीर !!




Sunday, May 17, 2020

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शर्मा  अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान दिया प्रो शर्मा ने 

उज्जैन। शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 

संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र में गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया।


'मैं तेरा बेटा हूँ' (कविता

क्या किसी ने ईश्वर को देखा है 

सच तो यह है कि ईश्वर वही है जहां माँ है

 ईश्वर वही है जहां वह रसोई में पसीने से भीगी मेेरे लिए भोजन पकाती है 

और वहां भी जब बुखार में रात भर मेरी पट्टियां बदलती है

 मेरे चोट में मरहम लगाते हुए आंसू बहाते फूँक मारती है 

और वहां जब देर होने पर बाहर की चाबी अपने पास छुपाती है 

मां तू कैसे समझ जाती है मेरे मन के भीतर की उदासी तू कैसे याद रख लेती है मेरी पसंद और नापसंद 

तू कैसे जान लेती है हर चीज छुपाने की जगह 

मां तू कैसे नहीं भूलती मुझे रोज दवा खिलाना

 मेरे थक कर घर आते ही जल्दी से पानी पिलाना 

इस प्रगति और विकास ने मुझे तुझसे बहुत दूर कर दिया है

मुझे अकेले रहने पर मजबूर कर दिया है 

अब मैं तेरे बिना थपकी के आंख मूँदता हूं 

होटल के खाने में वह सुखी रोटी का स्वाद ढूंढता हूं स्कूल जाते समय मेरा सामान मुझे बहुत आसानी से मिल जाते थे माँ 

आज दफ्तर की जल्दबाजी में भी एक रुमाल खोजता हूं

 जब तू पास थी तो मैं दूर भागता

 अब तेरी याद में कई-कई रात जागता हूं 

मैंने जब चलना सीखा तूने ऊँगली थाम 

मुझे सहारा दिया 

आज देख ले कैसा बेटा हूं तेरे लड़खड़ाने के वक्त में तुझे लाठी थमा तुझसे दूर भागता हूं

 मैं जानता हूं तू आज भी दुआ मेरे लिए माँगती है

 मेरे सुख में हंसती दुख में आंसू बहाती है 

तेरा कर्ज चुकाने के लिए यह दिन कुछ कम पड़ेंगे 

तुझे पाने के लिए और एक जनम मांगता हूं

 

श्रीमती रामेश्वरी दास

पता- हरिओम सदन, विकास विहार कॉलोनी, महादेव घाट रोड ,निर्मल हॉस्पिटल के पास, रायपुरा, रायपुर(छत्तीसगढ़)


मरुस्थल सा मैं

मरुस्थल  सा  जीवन  है मेरा,पूर्णतया  निराशा  भरा,

फिर भी कभी-कभी कुछ ओश की बूंदों से मिलता हूँ।

 

सोचता  हूँ  ,  समेट  लू  सबको  अपनी  आगोश  में,

मेरे गर्म एहसास से मिलकर बूंदे भाँप बन उड़ जाती है।

 

गर्म रेतीले मरुस्थल सा मौन जीवन के साथ चल रहा है।

कभी-कभी शाम की ठंडी हवा के मुखर झोंके से मिलता हूँ।

 

अक्सर सोचता हूँ,तोड़ दू सारी बंदिशे अपने मरुस्थल होने की,

बस इन गुदगुदाती ठंडी मुखर हवाओ में अविरल बहता जाओं।

 

 

 

नीरज त्यागी

ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).

Saturday, May 16, 2020

‘नावेल टेक्नोलाॅजी एंड जाॅब अर्पाचुनिटी आफ्टर कोविड-19‘ विषय वेबिनार में   डाॅ. बैरागी को मिला आनॅलाईन कोविड प्रमाणपत्र

उज्जैन। एक तरफ जहाँ सारी दुनिया कोराना नामक बीमारी तथा कोविड 19 नामक वायरस से लड़ रही है तो वहीं इस महामारी से बचाव तथा मानव जीवन पर पड़ने वाले इसके प्रभाव से सारी दुनिया चिंतित है। दुनियाभर की सरकारी तथा निजी संस्थाओं द्वारा इस पर शोधकार्य किया जा रहा है। इसी तारतम्य में 15 मई 2020 को राजस्थान के अलवर स्थित सनराईज विश्वविद्यालय द्वारा ‘नावेल टेक्नोलाॅजी एंड जाॅब अर्पाचुनिटी आफ्टर कोविड-19‘ विषय पर अंतरराष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया, जिसमें देशभर के विद्वानों ने आनलाईन सहभागिता की। उज्जैन से डाॅ. मोहन बैरागी ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये तथा इस महामारी तथा इसके चलते जाॅब अर्पाचुनिटी पर कहा कि भारतीय तकनीकों को अपनाकर आत्मनिर्भर होकर स्वरोजगार की दिशा में कदम बढ़ाया जाना चाहिये। तथा महामारी की रोकथाम के हर संभव उपाय अपनाना चाहिये। वेबिनार की अध्यक्षता सनराईज विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. अनुप प्रधान ने की तथा मुख्य उदबोधन फार्मेसी विभाग विभागाध्यक्ष डाॅ. योगेन्द्र सिंह ने दिया। वेबिनार के उपरांत सभी प्रतिभागियों को आनॅलाईन प्रमाणपत्र का प्रेषण किया गया।



 रमणिका गुप्ता के काव्य में आदिवासी विमर्श

 रमणिका गुप्ता के काव्य में आदिवासी विमर्श

 

अजय प्रकाश यादव, 

सहायक शिक्षक,

विद्याभारती माध्यमिक विद्यालय,

अमरावती,

 

●  प्रस्तावना:-

          साहित्य जीवन की सहज अभिव्यक्ति हैं। साहित्य जीवन को कितना प्रभावित करता है। यह विचारणीय हो सकता हैं, परंतु साहित्य जीवन से ही ऊर्जा और जीवन-शक्ति प्राप्त करता हैं। यह निर्विवाद हैं । सामान्यतः कवियों या लेखकों का जीवन प्रवाह उतार-चढ़ाव का होता हैं। जीवन में आए उतार-चढ़ाव से उनकी सर्जनात्मकता प्रभावित होती हैं। हिन्दी साहित्य में आदिवासी समाज की सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में जो भी साहित्य लिखा गया है वह बहुत कम हैं। वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य काफी मात्रा में लिखा जा रहा है और उसकी समिक्षा भी हो रही है। आदिवासी इस धरती के मूल निवासी हैं। आदिवासी समाज एक विशिष्ट समाज हैं। नगरीय जीवन से दूर प्रकृति की गोद में उनकी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। जो अपने आप में अनोखी हैं। आदिवासियों का रहन-सहन, रीति-रिवाज, संगीत-नृत्य आदि सभ्य समाज से भिन्न हैं। प्रकृति के प्रति उन्हें अपार श्रद्धा एवं प्रेम है, प्रकृति ही उनके जीवन का आधार हैं। 

           “दलित तथा आदिवासियों के आस-पास की सांस्कृतिक चौखट एवं वातावरण भिन्न हैं। आदिवासियों की संस्कृति की अपनी एक चौखट हैं। उनकी संस्कृति में मिट्टी की सोंधी महक हैं। इस कारण आदिवासी साहित्य दलित साहित्य की नकल न बनकर, उसकी अपनी एक शैली तथा संरचना होनी चाहिए।“1 वैसे तो दलित साहित्य के अंतर्गत ही आदिवासी साहित्य का अध्ययन आज तक होता रहा है। स्वयं रमणिका गुप्ता जी भी आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य का अभिन्न अंग मानती हैं। बावजूद इसके कुछ आलोचक तथा विद्वान आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य से भिन्न बताते हैं। दलित साहित्य के अंतर्गत आदिवासी साहित्य का अध्ययन इसिलिए होता रहा है क्योंकि दलित हो, या आदिवासी हो दोनों वर्गों को दला गया है अर्थात दबाया गया है, उनका शोषण हुआ है। रमणिका गुप्ता जी ने अपना समग्र जीवन दलित, आदिवासी तथा स्त्री जाति के लिए समर्पित किया हैं। आदिवासी जनजीवन की अभिव्यक्ति उनके साहित्य में विशेषतः कविता में प्रखर रूप से सामने आती हैं। पहले आदिवासियों को दलितों में समाविष्ट किया गया था। इतना ही नहीं, उनके साहित्य को दलित साहित्य ही कहा जाता था। वैसे देखा जाए तो आदिवासी और दलित दोनों सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दोनों समाज से कटे हुए थे, मगर आजादी के बाद दलित मुख्यधारा में मिल गए और आदिवासी मुख्यधारा से कटे रहे और आज भी अलग-थलग रह रहे हैं। जिसके कारण आदिवासी साहित्य एक अलग चिंतन और विमर्श का विषय बन गया हैं। मुख्यतः हिन्दी में 'आदिवासी विमर्श' को गति देने का काम झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्र हजारीबाग से 1987 में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'युध्दरत आम आदमी' और उसकी संपादिका रमणिका गुप्ता ने किया। इसी पत्रिका के  तेलुगू, गुजराती और पंजाबी दलित साहित्य पर केंद्रित अंकों के जरिए दलित-विमर्श या आदिवासी विमर्श के कैनवास को और व्यापक किया। आदिवासी जीवन संघर्षों को शब्दबद्ध करती हुई रमणिका गुप्ता लिखती है "जंगल माफ़िया कीमती पेड़ उससे सस्ते दामों पर खरीदकर, ऊँचे दामों पर बेचता है और करोड़पति बन जाता है। पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी दंड भरता है या जेल जाता है। सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी ज़मीन के मालिक बनने के बजाए पहले मज़दूर बने फिर बंधुआ मज़दूर।"2

              आदिवासी विमर्श एक ऐसा विषय है जिसमें समाज के रहन-सहन,उनकी संस्कृति,परंपराएं,अस्मिता,साहित्य और अधिकारों के बारे में विस्तृत चर्चा की जाती हैं। आदिवासी समाज सदियों से जातिगत भेदों, वर्ण व्यवस्था,विदेशी आक्रमण अंग्रेजों और वर्तमान में सभ्य कहे जाने वाले समाज द्वारा दूर-दराज जंगलों और पहाडों में खदेडा गया हैं। अज्ञानता और पिछड़ेपन के कारण यह समाज सदियों से मुख्यधारा से कटा रहा,दूरी बनाता रहा। आदिवासी साहित्य के कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपना भोगा हुआ सत्य और साथ ही अपने समाज की सामाजिक वैयक्तिक जीवन संघर्ष की समस्याओं को व्यक्त किया हैं।

            रमणिका गुप्ता हिन्दी की उन कुछ कवयित्रीयों मे से एक हैं जिन्होनें आदिवासी समाज की समृध्द सांस्कृतिक परंपरा और संघर्ष को लगातार समझने का प्रयत्न किया है बल्कि वे शायद हिन्दी की अकेली रचनाकार हैं जिन्होनें झारखंड के आदिवासियों के साथ कदम से कदम मिलाकर लड़ाइयाँ लड़ी,जेल गई,माफिया से मुकाबला किया और अपने इन्हीं अनुभवों को कविता में ढाला। उनके द्वारा लिखित पूर्वांचल-एक कविता यात्रा, विज्ञापन बनता कवि, आदिम से आदमी तक, आदिवासी कविताएं,तिल तिल नूतन,अब मूरख नहीं बनेंगे हम आदि कविता संग्रह में रमणिकाजी आदिवासियों के संघर्ष को जुबान देते हुए उनकी पहचान, उनके मूल्य, उनके जीवट व संकल्पों से परिचित कराती हैं।

                रमणिका गुप्ता द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'पूर्वांचल-एक कविता यात्रा' की कविता 'नागा' में भारत के पूर्वोत्तर छोर विशेषकर असम, नागालैण्ड, म्यांमार आदि भागों में पाई जाने वाली 'नागा' प्रजाति के संदर्भ मे अपने विचार व्यक्त करते हुए कहती हैं कि ये नागा अपने-अपने पोखरों(घरों) के भीतर से जाग-जागकर बाहर निकलने लगे हैं । वे अभी तक अपनी खोह में आराम कर रहे थे। उनकी पत्नियाँ चरखे पर पूनी से सूत कातने में व्यस्त हैं,वहीं दूसरी ओर यतिम्बा(नागा लोगों की चावल से बनी शराब) ऊबल रही हैं। इनके इबो-इबे(लड़का-लड़की) घरों के आस-पास हमें देखते ही एकत्र हो गए हैं।

                "अंदर ही अंदर

                कहीं फुन्कार रहा 'नागा'!

                फण उठाये-विष उगलता

                अपनी खोह से बाहर आ गया!

                'यतिम्बा' की सफेद फेण पुरे ऊबाल पर

                करघे पर धागे सफेद पूरे कसाव पर

                चरखे पर पूनी के सूत तन गए

                'इबो घर' और 'इबे घर' पूरे सज गये।"3

          रमणिकाजी ने पूर्वांचल की यात्रा के दौरान नागा प्रजाति की जो भी दिनचर्या स्वयं की आंखों से देखी यहाँ उसे लेखनी के माध्यम से सजीव वर्णन करने का सफल प्रयत्न किया है।

          इसी काव्य संग्रह ‘पूर्वांचल-एक कविता यात्रा’ की एक अन्य कविता 'इतिहास के मुकाबिल' में कवयित्री इसी 'नागा' प्रजाति के जीवन-यापन के लिए की जाने वाली शिकार की परंपरा का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है, शरीर ढकने के लिये केवल एक लुंगी व शाल, शिकार के लिए हाथों में भालें, मृदंग लेकर जंगल-जंगल भटकना इनकी नियती बन गई हैं वे लिखती है-

                 "जंगलों में पेड़ों पर

                 अपने दुर्ग चिनता

                 खेतों की मेढ़ो को दीवारें मानता

                 अपनी टोलियों को

                 करघे में बुन-बुन बाँधता

                 'फनेक' को कमर में कसे

                 'इनफी' को कन्धों पर डाले

                 भालों पर तोरण टांके

                 मृदंग की ताल पर

                 धरती की टोह में चलता

                इतिहास के मुकाबिल हैं।"4

           रमणिकाजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी देखा और भोगा उसका ही कविता के माध्यम से चित्रांकन किया। उनके 'विज्ञापन बनता कवि' नामक एक अन्य काव्य संग्रह की कविता 'वे बोलते नहीं थे' में उन्होंने आदिवासी समाज की दशा दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया हैं। कवयित्री लिखती है कि ये आदिवासी समुदाय बोलना या बहस करना नहीं जानता,वे केवल कर्म पर विश्वास रखते हैं। वे जंगल में पाई जानेवाली विविध जिवनावश्यक वस्तुओं के सहारे अपने और अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं, रमणिकाजी लिखती है-

                  "लकड़ियां काटते हल नाधते

                   रोपनी निकोनी कटनी करते

                   झूम सजाते महुआ चुनते

                   सखुए के बीज बटोरते

                   कुसुम फूल बीनते

                   सीझाते

                   बासों का जंगल का जंगल

                   सूपों और टोकरियों में

                   बिन डालते

                   पर वे बोलते नहीं थे।"5

              रमणिकाजी के काव्य संग्रह 'अब मूरख नहीं बनेंगे हम' की कविता 'दिलावन- दिलावन' में भी कवयित्री ने आदिवासी समुदाय की व्यथा को उजागर किया है। उनका कहना है कि ये आदिवासी समुदाय गुफाओं से निकलकर आज भी जंगलों में जीवन जी रहे हैं। उन्हें किसी भी प्रकार की लिपि या शाब्दिक ज्ञान नही दिया जाता। उन्हें तो बस मशीनों की तरह काम कराने हेतू ताकतवर मनुष्य बताकर अपने साथ ले जाते हैं। जबकि इन आदिवासी समुदाय की संवेदनाओं को कोई नही समझता या समझना ही नहीं चाहता। रमणिकाजी लिखती है-

                      “गुफाओं से निकले

                       तभी से वहीं हो

                       जंगल में जिन्दा रहते अभी हो

                       तेरी नुमाइश

                       'उत्सव' लगाते

                       पिछड़ी लकीरों का

                       गौरव बताते

                       न भाषा सिखाते

                       न लिपियाँ बताते

                       पीछे समय से

                       तूझे ले ले जाते

                       'जंगल का मानुष'

                       बताते बेजोड़,

                       दिलावन-दिलावन आयु-बाबाहोड!"6

                 कवयित्री रमणिका गुप्ता द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'आदिवासी कविताएँ' में उन्होनें आदिवासी जनजाति की दिनचर्या,मानवीय भावना,प्रकृति प्रेम,भोलापन आदि बातों को सुन्दरता से दर्शाया है। इस काव्य संग्रह की  कविता 'भाग्य का बंधुआ' मे उन्होनें आदिवासी समुदाय द्वारा सदियों से जंगलों में भटकते-भटकते आधा पेट भोजन कर, अधनंगा रहकर संस्कृति का जतन करने की परंपरा को मोहक रूप से चित्रित किया है, रमणिकाजी लिखती हैं-

            "दूर...कहीं...दू...र

             जहाँ रास्तें खत्म हो गये

             जहाँ जंगलों में

             मानव और वन्य पशु

             एक हो गये

             मैं अधढका-सा

             कुछ खाया-कुछ भूखा-सा

             संस्कृति की डाली पर

             धर्म की डोली में

             सभ्यता की अनदेखी

             अनछुई दुल्हन को

             बिना छुए सदियों से ढ़ोता हूँ

             मैं भाग्य का बंधुआ हूँ।"7

           इसी ‘आदिवासी कविताएं’ काव्य संग्रह की एक अन्य कविता 'घुमक्कड आदमी की नस्ल कहां गई' में रमणिकाजी ने प्रकृति प्रेम के साथ नष्ट होते जंगल और भटकते आदिवासियों की व्यथा पर प्रश्नचिन्ह खींचा हैं, रमणिकाजी लिखती है-

              "कहां है वह

              चुप-सी चुप्पी

              पहाड़-सी शान्ती प्रकृति सी सुबह

              चिड़ियों सी मासूमियत

              चिन्घारते शेरों के बीच घूमती निर्भय-निडर

              घुमक्कड़ आदमी की नस्ल

              कहां हैं?कहां हैं?कहां हैं???"8

          ‘आदिवासी कविताएं’ काव्य संग्रह की एक अन्य कविता 'लोहे का आदमी' में कवयित्री ने भोलेपन में विकास के नाम पर आदिवासियों द्वारा स्वयं अपना घर(जंगल) नष्ट करने तथा उन्हीं की आनेवाली पीढ़ी को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देने की भावना का सजीव और मार्मिक वर्णन करते हुए लिखती है-

             "उसने विकास के नाम पर काटी 'लाइफ-लाइन'

              भूख के नाम पर भरे गोदाम

              पेड़ नहीं काटी अपनी ही टाँगे

              वह टहनियां नहीं छाटता रहा

              अपनी ही पीढियों के हाथ-पाँव

              छाटता रहा नाती-पोती की ऊंगलियां,नख-दन्त

              आंखो की पलकें और पुतलियां

              पत्तों के नाम पर!"9

 

● निष्कर्ष:-

              आदिवासी साहित्य की अनेक पुस्तकों का सम्पादन तथा अपने उपन्यासों, कहानीयों, कविताओं आदि में आदिवासियों के जीवन, उनके संघर्ष की गाथा स्वयं उनके साथ उनके बीच रहकर भोगे हुए पलों का जीवित चित्रांकन रमणिका गुप्ताजी ने बखूबी किया हैं। कहते हैं 'लिक-लिक गाड़ी चले,लीकहि चलै कपूत, लीक छाडी तीनहि चलै, शायर,शेर,सपूत।' रमणिका गुप्ता का साहित्य एवं सम्पूर्ण जीवन इस उक्ति का उदाहरण हैं। रमणिका गुप्ता का संपूर्ण जीवन दलित, आदिवासी और स्त्री के लिए समर्पित हैं। वे जीवनभर इनकी ही पक्षधर बनकर लड़ती रहीं हैं। उनका नाम स्वयं एक संघर्षशील नारी का प्रतिक है। उनका संपूर्ण साहित्य सदियों से कुचले गए शोषित समाज की आवाज़ है। संपन्न सिख परिवार में जन्मी रमणिकाजी ने राजसी जीवन जीने की उपेक्षा कर दक्षिण-बिहार के जंगलों-पहाडों में आदिवासियों  के बीच 'परहित सरिस धरम नहीं भाई,परपीड़ा सम नहीं अधमाई ' को वास्तविक रूप में चरितार्थ करते हुए अपना जीवन समर्पित कर दिया। राजनीति में सक्रिय रहते हुए बिहार के कोयला खदानों मे काम करनेवाले मजदूर तथा वहाँ के किसानों पर हो रहे शोषण, विशेषकर दलित, शोषित, पीड़ित आदिवासी एवं वहाँ की महिलाओं के अधिकारों हेतू संघर्ष करती रही। उनकी छवि स्त्री विमर्श और दलित चेतना की सजग प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में रही। वे एक संघर्षशील नारी का प्रतिक थी। उन्होने अपने जीवन में जो भी संघर्ष किया,स्वयं जो भोगा उसे ही लेखनी के माध्यम से कागज पर उतारा। वे आधुनिक युग की अत्यंत सजग एवं संवेदनशील रचनाकार थी। उनके साहित्य में सहजता, सरलता,स्पष्टता,सत्यता,और अनिष्ट रुढ़ियों के खिलाफ विषमता के खिलाफ विद्रोह मिलता हैं।

• संदर्भ संकेत :-

1)      आदिवासी स्वर और नई शताब्दी,रमणिका गुप्ता,पृ 23

2) आदिवासी विकास से विस्थापन,सं.रमणिका गुप्ता,पृ 12

3) पूर्वांचल-एक कविता यात्रा,रमणिका गुप्ता,पृ 20

4) पूर्वांचल-एक कविता यात्रा,रमणिका गुप्ता,पृ 21-22

5) विज्ञापन बनता कवि,रमणिका गुप्ता,पृ 41

6) अब मूरख नहीं बनेंगे हम,रमणिका गुप्ता,पृ 42

7) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 38

8) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 61

9) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 74

Friday, May 15, 2020

कहानी...  शिकंजा.. 

अबकी बाबू साहेब कुछ जोर से चिल्लाए- "कहां मर गया रे बुधुआ मादर... कब से बुला रहे न रे बहन... सुनता काहे नहीं.. रे..! " 

बुधुआ जिसकी उम्र बारह-तेरह साल की थी. शरीर सूखे हुए पतले बांस की तरह. गहरे काले गढढों में धंसी हुई आंखें, सूखी हुई पसलियां, पपडियाये हुए होंठ, जिसे वो 

बार- बार जीभ से चाटता रहता, जिससे उसके होंठों पर 

गर्द की एक मोटी परत जम गई थी.एक मैले - कुचैले हाफ-पैंट और तार - तार हो चुकी बनियान में हाथ- बांधे

सिर झुकाए आकर खडा़ हो गया.

 

गोया वो आदमी का बच्चा नहीं कोई रोबोट हो, जिसके पुर्जे ढीले हो चुके हों. बुधुआ को सामने पाकर एक बार फिर दहाड़ उठे बाबू साहेब-" आंए रे स्साला! तुमको हम कितना देरी से बुला रहे हैं. सुनता काहे नहीं था, रे... कान में ठेपी लगइले था का ...? " 

 

" न... न...नहीं मालिक! भूसा घर से भूसा निकाल रहे थे." मालिक का गुस्सा देखकर थर-थर कांपते हुए बुधुआ

घिघियाते हुए बोला. मानो उसकी आवाज को कोई भीतर से धकेल रहा हो.

तभी, बाबू साहेब की नजर उसके मुंह पर गई, जहां किसी

चीज का जूठन लगा था. फिर, दहाड़ते हुए बोले - " आएं रे, स्याला ! अभी क्या खा रहा था तू रे..? झूठे बोल रहा था कि भूसा निकाल रहे थे. सच - सच बता नहीं तो आज, तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगा."

 

सामने ही, बबूआइन मोढे पर बैठकर चावल चुन रही थी.

बुधुआ के खाने वाली बात को सुनकर उसने आंखें तेरेरते हुए कहा - " इस मुए का पेट है कि भरसांय . जब देखो कुछ न कुछ खाता रहता है. इसके चलते ही घर में दरिदर

का बास हो गया है. भगवान करे इसके पेट में बज्जर पडे. इसका शरीर गल- गलकर चला. मुंहझौंसे की अरथी उठे." 

इतनी, लानत - मलामत के बाद भी बाबू साहेब को संतोष नहीं हुआ.सामने पडा़ सोंटा उठाकर वो बुधुआ की तरफ लपके और लगे उसको पीटने. बुधुआ चिल्लाता रहा, गिड़गिड़ाता रहा - " नहीं, बाबू साहेब , अब कुच्छो नहीं खाएंगे.... "

धूल में लोटते हुए वो लगातार चिल्लाए जा रहा था -" नहीं बाबू साहेब! माई किरिया ( कसम) बाबू साहेब... अब नहीं खाएंगे.... बाप किरिया बाबू साहेब, जब बुलाइएगा

तब सुनेंगे, पितर किरिया बाबू साहेब, छोड़ दीजिये बाबू साहेब..! "

चिल्लाने के क्रम में उसके मुंह से गाजनुमा थूक बाहर आने लगा था. सोंटे की मार से बचने के लिए वो कभी लोटते हुए दायीं ओर को मुड जाता तो कभी बायीं ओर को ! 

अंत में जब सोंटा टूट गया तो बाबू साहेब हांफते हुए लात - घूँसों से उसकी धुनाई करने लगे. लगभग अधमरा करके ही बाबू साहेब ने बुधुआ को छोडा़, फिर बबुआइन से बोले - " स्याला बहुत जब्बर है ..! इसकी मतारी के ये नीच 

लोग साले बहुत चाईं होते हैं! " 

 

इस बात पर बबुआइन बिहंसती हुई बोली -" पता नहीं मरदुए क्या-क्या खाते हैं. गाय- सूअर तक तो छोडते ही नहीं!  "

 

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इतनी मार पडने के बाद बुधुआ का पोर - पोर दुखने लगा था. उसे अब सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी. उसका 

लगभग प्रत्येक अंग सूज गया था. उसने करवट लेने की कोशिश की, लेकिन एक तीव्र वेदना उसके पूरे वजूद में 

फैल गई. 

 

जब दिनभर खेत में काम करने के बाद वो घर लौटा था, तो खाना खत्म हो चुका था. जाकर बबुआइन से बोला कि -"  मालकिन, मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को है तो दीजिये! " 

 

तब, बबुआइन लगभग झल्लाते हुए बोली थी - " जाओ जाकर पहले बैलों को सानी- पानी दे दो, तब जाकर खाते रहना." 

 

गोया आदमी के खाने से पहले जानवर का खाना 

जरूरी हो. जब, वो खली - भूसी सानकर नांद के करीब गया, तो उसे बासी रोटी का एक अधजला टुकडा नांद के भीतर दिखा, जिसे देखकर पहले उसने चोर - नजरों से चारों तरफ देखा, फिर आहिस्ता से उस रोटी के टुकड़े को 

उठाकर देखने लगा, मानों कि उसे रोटी का टुकड़ा न मिला हो कोई कीमती चीज मिल गई हो. नांद में नमी के

कारण रोटी  गूंधे हुए आटे का शक्ल अख्तियार कर चुकी थी. फिर भी बुधुआ ने उस रोटी के टुकड़े को हसरत भरी नजरों से देखा और कुछ देर तक अपलक देखता रहा था.

फिर वो उसे खाने लगा था, तभी बाबू साहेब ने उसे हांक

लगाई थी.

 

बुधुआ एक बार फिर दर्द और भूख के दोहरे प्रहार से 

कसमसाया. उसे लगा जैसे कि उसकी अंतड़ियों को कोई जोर जोर से उमेठ रहा है! भूख और दर्द की लहरों पर सवार वो लगभग चेतनाशून्य- सा हो चला था! फिर, धीरे

- धीरे  बुधुआ के स्मृतियों के बादल का झुटपुटा साफ होने लगा था.उन बादलों के बहुत सारे टुकडों में बुधुआ भी था और उसके गांव- जवार के उसके संगी- साथी भी.

बुधुआ उर्फ बुधन दुसाध वल्द फेंकू दुसाध उस समय मात्र

आठ वर्ष का था, जब उसके पिता ने उसे बाबू साहब के यहां बंधक रख दिया था, उसकी बड़ी बहन पशुपतिया 

के विवाह में दहेज देने के लिए.

 जिस समय गाँव के बाल वृंद खेतों की ऊबड़- खाबड़ पगडंडियों पर छोकडे चलाते, गाँव के तालाब नाले से मछलियाँ पकडकर आग में भूनकर खाते, गर्मियों में आम के बगीचे में आम के मोजरों पर गुलेल से निशाना लगाने का खेल- खेलते थे, उस समय बुधुआ या तो अपने मालिक के खेतों में काम कर रहा होता या फिर ढोर - डांगर चरा रहा होता. उसे बहुत धुंधली- धुंधली सी याद है. जब वो बाबू साहेब की कोठी में आने को हुआ था, तब उसकी महतारी छाती पीट पीट कर रोने लगी थी.

करीब चार- पांच साल तो हो ही गये उसे बाबू साहेब की तामीरदारी करते. उसे उस वक्त थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था, जब उसकी माँ विलाप करते हुए बार - बार एक ही 

बात को दुहरा रही थी -" मत, ले जा हो बाबू साहेब हमरा बेटा के . ई चिराग जइसन लइका हम कहाँ से लाइब... हम जानत हईं ई अब दुबारा इंहा न आई, एक बार बिकाइल चीज कहीं वापस होला ! "

 

तब, पशुपतिया के बाबू उसकी माँ को समझने लगे थे-" ना रे पशुपतिया के माई, पशुपतिया के बियाह के साल - छव  महीना के बाद धीरे- धीरे करके कर्जा उतार दीहल

जाई."

 

लेकिन, जब बाबू साहेब के मुंडेर के नीचे बुधन के पिता पहुंचे थे तब बुधन का मन कैसा तो होने लगा था, और उसके बाबूजी तो फफक- फफक कर रो ही पडे थे! 

बोलने की कोशिश में शब्द उनके गले में अटक- अटक से पडते थे. तब बड़ी मुश्किल से वो बोल पाए थे- "बबुआ हमरा के माफ............. " और वे भरभरा रो ही तो पडे थे.उन छलछलाई- पानीदार आंखों में उसे अपने बाप की बेचारगी साफ झलक रही थी.

 

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वो दिन था, और आज का दिन है. फिर खुशी क्या चीज होती है, बुधुआ को आज तक पता नहीं चला. बाबू साहेब

के यहां आने के बाद उस पर रोज- रोज, नए- नए अत्याचार होने लगे.इन चार- पांच सालों में वो चार पांच

हजार मौतें मरा होगा, लेकिन उसके अंदर का स्वाभिमान नहीं मरा था. प्रतिरोध के तेवर उसके अंदर मौजूद थे. फिर उम्र भी उसकी कोई खास नहीं थी. इसलिए, ज्यादातर वो नाफरमानी ही करता और इस कारण पिटता भी दमभर के बाबू- बबुआइन से.

एक बार वो कभी रामदेई पासवान का भाषण सुनने गया था. उनके बारे में उसने सुन रखा था कि वो कोई बुद्धि जीवी- कम्यूनिस्ट हैं.शहर से पढकर उन जैसे लोगों की 

समस्याओं को जानने समझने के लिए ही वे उसके गांव आए हैं. क्या-क्या तो बताते रहे थे वो, हां याद आया, वो कोई किरान्ती- ऊरांती की बात कर रहे थे. कहते थे अब हम लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.अब हम अपने ऊपर कोई अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेंगे! बहुत कर चुके हम राजपूत- भूमिहारों की गुलामी, अब हमें जागना होगा! नहीं तो ये लोग फिर से हम पर राज करने लगेंगे.

 

और.... और क्या बता रहे थे. हां याद आया कह रहे थे कि जब तुम्हारे ऊपर अत्याचार अधिक बढ रहा है तो तुम लोग नक्सली बन जाओ.तब उन लोगों में से ही किसी ने पूछा था कि, ई नक्सली का होता है भईया....? "

 

तब रामदेई पासवान ने बताना शुरू किया था -" नक्सली माने हक के लिए लडने वाला...., अत्याचार को बर्दाश्त नहीं करने वाला......सबको एक्के- छिप्पा में बैठाकर खाने- खिलाने की व्यवस्था करनेवाला....... रणबांकुरों की तरह धांय- धांय गोलियां चलाने वाला... " 

 

उस दिन वो चौंक सा पडा़ था. उसे आखिर वाली दो- चार  बातें समझ में नहीं आई थीं. ई कैसे हो सकता है कि राजपूत- दुसाध एक्के छिप्पा में बैठकर खाना खाएं  . जबकि बाबू साहेब तो उसे अपने घर में घुसने तक नहीं देते . वो पास वाले गोहाल, घर के बगल में बने ओसारे में सोता था . उसकी खाट के आसपास तो कोई फटकता  तक नहीं था.और गोली - बंदूक...... बाप- रे- बाप! उसे एक बार की घटना याद आयी.जब बभनौटी में किसी बात को लेकर आपस में ही झड़प हो गई थी, तो गोलियों की गरज से पूरी दुसाध टोली थर्रा गई थी.उस रात उसके बाबूजी ने उन लोगों को सख्त हिदायत दी थी कि खबर दार..... चाहे जो हो जाए, घर से बाहर कोई नहीं निकलेगा! 

 

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फिर बाबू साहेब के यहाँ आने के चार - पांच महीने बाद बप्पा आया था.टसटस पियर धोती और सगुन का मुरैठा बांधे! तब उसे वापस अपने साथ ले जाने के लिए बहुत चिरौरी- मिन्नत की थी उसने बाबू साहेब की. लेकिन, बाबू साहेब टस से मस  नहीं हुए थे. फिर, हाथगोड जोडकर भकुवा- भकुवा कर रोने लगा था बप्पा.तब जाकर कहीं बाबू साहेब ने उसके घर के कागज को अपने पास गिरवी रखकर बुधुआ को वापस उसके गाँव जाने दिया था! 

 

गांव पहुंचने के बाद उसे अपने पहले का घर पहचान में ही नहीं आ रहा था.घर के पिछवाडे की दीवार और एक कमरा एक सिरे से गायब थे. वहां अब साव जी की बछिया बंधी हुई थी. और उनके घर का दरवाजा पहले से 

कुछ ज्यादा ही चौड़ा दिखाई दे रहा था. जिस दिन सगुन हुआ  , उस दिन माडौ पर की मेहरारू लोग आपस में बतिया रही थी -" बाप है कि कसाई, बछिया ( पशुपतिया) को अपने जैसे उम्र के आदमी से ब्याह रहा है! "

तब, सुगनी बुआ ने उन लोगों को समझाते हुए कहा था -" क्या अनाप - शनाप तुम लोग बके जा रही हो. बेचारे की

हैसियत होती तो वो किसी अच्छे घर में रिश्ता न करता! खैर,  बाबा बलेसरनाथ किसी तरह पार - घाट लगाएं, जो होना था सो हुआ."

तब बुधुआ ने भी सोचा था कि भोज- भात और जात बिरादरी के चक्कर में बप्पा बेकार ही पडा़ नहीं तो उसकी जिंदगी की मिट्टी- पलीद काहे को होती! 

 

बुधुआ ने एकबार फिर करवट लेने की कोशिश की, लेकिन दर्द ने फिर दूने वेग से हमला किया! ....... बहुत दिनों से उसके भीतर कुछ रेंग रहा है.... लम्हा-दर -लम्हा........ रफ्ता- रफ्ता...... हौले- हौले...... और आज उसे पकड़ लिया है उसने...! 

 

सहसा, उसने फर्श पर थूक दिया है... थूक का एक मोटा चकता..! फिर, वो घोड़े पर सवार हो गया है... और... घोड़ा बड़ी तेजी से दौड़ रहा है..! वो, सामने जंग के मैदान में देखता है कि सामने बाबू साहेब भी खड़े हैं.  उसी रोबीली मुस्कान के साथ मोटी-मोटी मूंछों को ऐंठते  हुए. अरे ये उसके हाथ में फरसा कहाँ से आया , देखो तो कैसा चमक रहा है. लगता है जैसे अभी -अभी उस पर सान चढाया गया है.और इसके साथ ही उसने फरसा खींच कर चलाया है. और बाबू साहेब का सिर धड़ से अलग हो गया है... !!!! 

 

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महेश कुमार केशरी

 C/O -श्री बालाजी स्पोर्ट्स सेंटर

मेघदूत मार्केट फुसरो

बोकारो झारखंड -829144

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Aksharwarta International Research Journal December 2024 Issue