श्री मद्भगवतगीता एक ऐसा अनुपम ग्रंथ है जिसके माहात्म्य का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है परन्तु इसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसको संपूर्ण रूप से आचरण में लाना संभव नहीं प्रतीत होता। प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं इससे यह सदैव नवीन बना रहता है। श्रद्धाभक्ति से विचार करने से इसके पद-पद मंे रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। जितना ही मनुष्य इसका अध्ययन करता है उतना उसका जीवन दैवीय गुणों से भरता जाता है। वह मानव से महात्मा बनने लगता है। यह गीता का ही प्रभाव था जिसने गांधी जी को साधारण मानव से महात्मा बना दिया। अपने ऊपर गीता के प्रभाव को स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्म कथा में जगह-जगह स्वीकार किया है। यूँ तो उनके घर मंे शुरू से ही आध्यात्मिक वातावारण था परन्तु गीता के प्रति गांधी जी का विशेष झुकाव कैसे हुआ उसके विषय मंे उन्होंने लिखा है-
विलायत मंे रहते हुए मुझे कोई एक साल हुआ होगा। इस बीच दो थियाॅसोफिस्ट मित्रों से मेरी पहचान हुई। दोनों सगे भाई थे और अविवाहित थे। उन्होंने मुझसे गीता की चर्चा की। वे एडविन आर्नल्ड का गीता का अनुवाद पढ़ रहे थे पर उन्होंने मुझे अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए न्यौता दिया। मैं शरमाया क्योंकि मैंने गीता संस्कृत मंे या मातृभाषा में पढी ही नहीं थी। मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैंने गीता पढी ही नहीं है पर मंै आपके साथ पढ़ने को तैयार हूँ। इस प्रकार मैंने उन भाइयों के साथ गीता पढ़ना शुरू किया-
ध्यायतः, विषयान् पंुसः, सग्ङ, तेषु, उपजायते, ।
सग्ङात्,सञजायते,कामः,कामात्,क्रोधः,अभिजायते ।। अ० 2 श्लोक
अर्थ- ‘विषयों का चिन्तन करने वाले पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इन श्लोकों का मेरे मन पर गहरा असर रहा। उनकी भनक मेरे कानों में गूँजती ही रही। उस समय मुझे लगा कि भग्वदगीता अमूल्य ग्रन्थ है। यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गई, और आज मैं तत्वज्ञान के लिए उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ। निराशा के समय इस ग्रन्थ ने मेरी अमूल्य सहायता की है।
1903 के समय से मंैने नित्य एक दो श्लोक कंठस्थ करने का निश्चय किया। अपनी दिनचर्या का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा-
‘प्रायः दातुन और स्नान के समय का उपयोग गीता के श्लोक कंठस्थ करने में किया। दातुन में पन्द्रह और स्नान में बीस मिनट लगते थे। दातुन मैं अंग्रेजी ढ़ंग से खडे़-खड़े करता था, सामने की दीवार पर गीता के श्लोक लिखकर चिपका देता था और आवश्यकतानुसार उन्हंे देखता तथा पढ़ता जाता था। ये पढ़े हुए श्लोक स्नान करने तक पक्के हो जाते थे। इस बीच पिछले कंठस्थ किए हुए श्लोकों को भी मैं एक बार दोहरा जाता था। इस प्रकार तेरह अध्याय कंठस्थ करने की बात मुझे याद है।‘
गीता पाठ का मेरे साथियों पर क्या प्रभाव पड़ा ये तो वे जानें परन्तु मेेरे लिए तो वह पुस्तक आचार की एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गई। वह मेरे लिए धार्मिक कोष का काम देने लगी जिस प्रकार नए अंग्रेजी शब्दों के हिज्जों या उनके अर्थ के लिए मैं अंग्रेजी शब्दकोष देखता था, उसी प्रकार आचार संबंधी कठिनाइयों और उनकी अटपटी समस्याओं को गीता से हल करता था। उसके अपरिग्रह, समभाव, आदि शब्दों ने मुझे पकड़ लिया। समभाव का विकास कैसे होे, उसकी रक्षा किस प्रकार की जाए? अपमान करने वाले अधिकारी, रिश्वत लेने वाले अधिकारी, व्यर्थ विरोध करने वाले कल के साथी इत्यादि और जिन्होंने बडे़-बड़े उपकार किए हैं ऐसे सज्जनों के बीच भेद न करने का क्या अर्थ है? अपरिग्रह किस प्रकार पाला जाता होगा? देह का होना ही कौन कम परिग्रह है? स्त्री-पुत्रादि परिग्रह नहीं तो और क्या हैं? गीता शास्त्र के अध्ययन के फलस्वरूप ‘ट्रस्ट्री‘ शब्द का अर्थ विशेष रूप से मेरी समझ में आया। कानून शास्त्र के प्रति मेरा आदर बढ़ा, मुझे उसमें भी धर्म के दर्शन हुए।‘ट्रस्ट्री‘ के पास करोड़ों रूपयों के रहते हुए भी एक भी पाई उसकी नहीं होती। मुमुक्ष को ऐसा ही बरताव करना चाहिए, यह बात मैंने गीता से समझी। मुझे यह दीपक की तरह स्पष्ट दिखाई दिया कि अपरिग्रह ही बनने में समभावी होने में हेतु का, हृदय परिवर्तन आवश्यक है।
गाँधी जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण रहा। एक ओर परतन्त्रता मेें जकड़ी हुई भारत माँ को आज़ाद कराने की लड़ाई थी तो दूसरी ओर भारतीय समाज़ तथा जनमानस में व्याप्त अंधविश्वास, जाति संघर्ष, छुआ छूत, अस्पृश्यता, वर्ग भेद जैसी कुरीतियाँ थीं। गाँधी जी ने नैतिक और राजनैतिक दोनांे क्षेत्रोें का विशद् अध्ययन किया। यूँ तो उन्होंने अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया परन्तु जैसा कि स्वयं उन्होंने अपनी आत्म कथा तथा भाषणों में कहा है कि गीता ने उनके जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया। आज भी यदि हम कहें कि गीता सम्पूर्ण आर्ट आॅफ लिविंग का सार है तो अतिश्योक्ति न होगी। गीता पढ़ते तो बहुत लोग हैं परन्तु गाँधी जी ने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया जिसमंे वह सफल भी रहे। गीता के संदर्भ में यदि हम गाँधी जी के विचारों और कार्यों का विवेचन करें तो संक्षेप वह इस प्रकार है-
विषयाः विनिवर्तन्ते, निराहारस्य, देहिनः,
रसवर्जम रसःअपि,अस्य,परम्,दृष्ट्वा,निवर्तते ।। अ० 2,श्लोक 59
ईश्वर में अटूट आस्था- गाँधी जी की ईश्वर में अटूट आस्था थी। मानव सेवा को वह ईश्वर सेवा का ही रूप समझते थे।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। अ० 9,श्लोक 22
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरूषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। गाँधी जी कहना था कि मैं अनुभव करता हूँ कि ईश्वर मेरी रग-रग में समाया हुआ है। वही सत्य और प्रेम है। ईश्वर प्रकाश है। वह कहते थे कि अपने कार्याें को ईश्वर में अर्पण कर दो, ईश्वर सबकी रक्षा करने वाला है। गीता में कहा गया है-
मन्मनाः भव मदभक्तः मद्या जी माम् नमस्कुरू
माम एक एष्यसि ते सत्यम् प्रतिजाने मे प्रियः असि
मुझमें मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा । यह मैं तुझसे सत्यप्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
गाँधी जी नित्यप्रति पूजा पाठ के अतिरिक्त जब भी उन्हें समय मिलता था वह ईश्वर की ही आराधना करते थे। जेेल में रहते हुए भी वह ईश पूजा में ही मन रमाते थे। सत्याग्रह के समय भी वह लोगों से ईश पूजा के लिए ही कहते थे। ईश्वर का ध्यान करने से मन का भटकाव कम हो जाता है। वह कहते थे-
‘मन का मैल तो विचार से ईश्वर के ध्यान से और आखिरी ईश्वरी प्रसाद से छूटता है।‘
गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति अंत समय में भी ईश्वर का नाम लेते ही शरीर त्यागता है वह सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है। सर्व विदित है, गाँधी जी को जब गोली मारी गई तो वह शाम की पूजा के लिए ही जा रहे थे। गोली लगते ही ‘हे राम‘ कहा और वे गिर गए। गीता का यह श्लोक कि जो निरन्तर मुझे याद करता है, अंतिम समय भी मंै उसके साथ होता हूँ, गाँधी जी पर पूर्णतः चरितार्थ हुआ।
कर्तव्यपराणयता- गीता वास्तव में कर्म योग का ग्रंथ है। कर्मयोग का अर्थ है कर्म करते हुए भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर होना। गाँधी जी के विचार से कर्तव्यपरायणता से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। गीता के उपदेशों का उद्देश्य अर्जुन को उसके कर्तव्य का ज्ञान कराना था-
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम् जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम्
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय यु़द्धाय कृतनिश्चयः अ० 2,श्लोक 37
‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे! अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।‘ गाँधी जी के सामने भी स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य किसी महाभारत से कम नहीं था। तत्कालीन परिस्थितियों में सोए हुए जनमानस में चेतना जाग्रत करने के लिए ऐसे ही प्रेरक विचारों की आवश्यकता थी।
जीवन के किसी भी क्षेत्र मंे सफलता पाने के लिए निष्काम कर्म की आवश्यकता होती है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः
मा कर्मफल हेतुःमा भूःते अकर्मणि संग मा अस्तु अ० 2,श्लोक 47
‘तेरा कर्म करने में अधिकार है उसके फल मेें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति न हो।‘
मनोवैज्ञानिक सत्य भी यही है कि काम करते समय अगर केवल परिणाम के बारे में ही सोचा जाएगा तो काम में पूर्ण तन्मयता से ध्यान नहीं लगेगा। किसी भी कार्य को करने में सफलता तभी मिलती है जब उसे लगनशीलता से किया जाए। बिना प्रयास के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता कोई कार्य छोटा-बड़ा अच्छा बुरा नहीं होता। हर काम में कुछ न कुछ अच्छाई है तो कुछ न कुछ बुराई भी होगी।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत्
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेन अग्निःइव आवृताः अ० 18,श्लोक 48
दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं।
गाँधी जी ने स्वयं कभी किसी कार्य को छोटा नहीं माना। उन्होंने हरिजनांे की बस्ती में जाकर वहाँ सफाई करने तक का कार्य किया। वह अपना हर कार्य स्वयं करते थे और दूसरों को भी शिक्षा देते थे स्वावलम्बी बनो। अपना कार्य स्वयं करो। अध्ययन के समय से लेकर राज नैतिक जीवन तक, गृहस्थी के कार्यों से लेकर बागवानी, हस्तशिल्प, कृषि कार्यों को स्वयं करते थे। चरखा और करघा गाँधी जी का पर्याय बन गए। अफ्रीका के टालस्टाय फार्म में रहकर उन्हांेने चप्पल जूते बनाने की कला सीखी। उनके कार्याें और व्यवहार की उनके विदेशी मित्र भी प्रशंसा करते थे। जनरल स्मट्स ने गाँधी जी के बारे में कहा था-मेरे भाग्य में बदा था कि मैं उस व्यक्ति का विरोधी बना जिसके प्रति विरोध के दिनों में भी मेरे मन में आदर का सर्वोच्च स्थान था। जेल में मेरे लिए उन्होंने चप्पल जोड़ी बनाई और रिहा होने पर मुझे भेंट की। अच्छे दिनांे में मैंने उन चप्पलों को बरसों पहना है और मन ही मन कहा है कि क्या मैं उस महान व्यक्ति की कृति के योग्य हूँ।
गीता के इस ज्ञान को यदि आज की पीढ़ी आत्मसात करले तो बेरोजगारी, असंतोष, भ्रष्टाचार,की समस्याएं स्वतः हल हो जाएगी। आज का युवा गाँव से शहर की ओर पलायन कर रहा है। शहरों का युवा व्हाइट कालर जाव की तलाश में दौड़ रहा है। बडे़ लोग कोई अलग कार्य नहीं करते हैं। मसाले पीस कर कोई पूरे देश में नाम कमा सकता है तो एम डी एच मसाले वालों से पूछों। धीरू भाई अम्बानी ने अपना काम पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल भरने से शुरू किया था। ऐसे अनेक उदारहण हैं। सफलता के लिए शार्टकट की जरूरत नहीं होती, कार्य में आस्था की जरूरत होती है। गाँधी जी ने लिखा है-
‘मनुष्य और उसका काम ये दो भिन्न वस्तुएंे हैं। अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे काम के प्रति तिरस्कार होना ही चाहिए। भले बुरे काम करने वालों के प्रति आदर अथवा दया रहनी चाहिए। यह चीज सम्भव है, ये सरल है पर इसके अनुसार आचरण कम से कम होता है। इसी कारण इस संसार में विष फैलता जा रहता है। इसलिए हर कार्य को निष्काम भाव से पूर्ण निष्ठा के साथ करने पर ही सफलता एवं आत्मसंतोष मिलता है।‘
बाहय आडम्बर का अभाव- ईश्वर की आराधना के लिए किसी भी आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती, गीता में लिखा है-
पत्रं पुष्प फलं तोयं यो मे भक्त्था प्रयच्छति
तत् अहम् भक्त्युपहृतम् अश्नानि प्रश्तात्ममः
‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्रं, पुष्प, फल, जल, आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादि मैं सगुन रूप से प्रकट होकर प्रीति पूर्वक खाता हूँ।‘
वे नित्य भजन कीर्तन, संध्या भगवत ध्यान में विश्वास करते थे। इन सब कार्याें के लिए व्यक्ति, स्थान, समय की बाध्यता नहीं रहती थी। स्वयं गाँधी जी ने लिखा है-‘तीर्थ स्थलों में जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवान चिन्तन की आशा रखता है वहाँ उसे कुछ नहीं मिलता। यदि ध्यान की जरूरत हो तो वह अपने अंतर से पाना होगा।‘
विद्या विनयसम्पन्ने, ब्राह्यमणे,गवि, हस्तिानि
शुनि,च रस,श्वपाके,च पण्डिताःसमदर्शिनः अ०5,श्लोक 18
‘ज्ञानी विद्या और विनययुक्त ब्राहमण मंे तथा गौ, हाथी, कुत्ते, और चाण्डाल में भी समदर्शी होते हैं।‘ गाय को माता इसलिए कहा गया है कि वह हमें दूध पिलाती है और ऐसे बछडेे़ जनती है जो हमारा साथी बनकर कृषि और वाणिज्य में सहायक होता है। गाय हिन्दू जीवन की अहिंसकता और सादगी की प्रतीक है। जीवों पर दया करनी चाहिए, सब मनुष्य बराबर हैं।
तीर्थस्थलों में जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवत चिन्तन की आशा रखता है वहाँ उसे इनमें से कुछ नहीं मिलता । यदि ध्यान की जरूरत हो तो वह अपने अंतर से पाना होगा।
सर्वभूत सर्वात्मा-
सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि च आत्मनि
ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्र, समदर्शनः अ०6,श्लोक 29
‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।‘
गाँधी जी सम्पूर्ण प्राणी मात्र को समान भाव से देखते थे। वे जाति पांति की दीवारों को मानव जाति की प्रगति के लिए अभिशाप मानते थे। उनका कहना था कि केवल जन्म के कारण कोई व्यक्ति अछूत नहीं माना जा सकता । उनकी दृष्टि में स्वराज्य का अर्थ था- देश के हीन से हीन लोगों की आज़ादी। वे हरिजनों की बस्ती मेें जाकर रहे उन्होंने कहा-
‘मैं अश्पृश्यता के कलंक से अपने को मुक्त करके आत्मशद्धि के अर्थ में हरिजन कार्य में लगा हुआ हूँ।‘
आत्मा की अमरता में विश्वास-
गीता, आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध जोड़ने वाली एक कड़ी है। गीता में कहा गया है कि आत्मा अज़र अमर और शाश्वत है। गाँधी जी कहते थे कि जन्म और मृत्यु दो भिन्न स्थितियाँ नहीं हैं परन्तु एक ही स्थिति के दो अलग-अलग पहलू हैं। मृत्यु नवजीवन और पुराने चोले का संधि स्थल है- गीता में कहा गया-
वासंासि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृहयाति नरः अपराणि
तथा शरीराय विहाय जीर्णानि
अन्यानि, संयाति, नवानि देही अ०2,श्लोक 22
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। आत्मा का विकास करने का अर्थ है, चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना, आत्मज्ञान प्राप्त करना।‘
अपनी आत्मा की आवाज़ पर कार्य करना चाहिए। आत्मा मनुष्य को सही और गलत का ज्ञान कराती है। अपनी अंतरात्मा के निर्देशों का पालन करते हुए यदि कोई अपना जीवन जीता है तो उसको किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं होता क्योंकि आत्मा कभी गलत कार्य के लिए प्रेरित नहीं करती।
नेताओं को श्रेष्ठ आचरण करना चाहिए-
यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः
अःयत् प्रमाणम् कुरूते लोकः अनुवर्तते अ०3,श्लोक 21
‘श्रेष्ठ पुरूष जो जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगता है।‘ मनुष्य का स्वभाव होता है कि जिसे वह श्रेष्ठ समझता है उसका अनुकरण करने का प्रयास करता है। उच्च, ख्याति प्राप्त लोगों को श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। लोकसेवा करने वालों को कभी कोई बहुमूल्य वस्तु भेंट स्वरूप नहीं स्वीकार करनी चाहिए। गाँधीजी को अफ्रीका में अनेक बहुमूल्य वस्तुएं उपहार में मिली मगर उन्हांेने सब वापस कर दीं। गाँधी जी ने यह भी कहा कि अफसरांे को बिगाड़ने में नागरिकों का भी हाथ होता है। क्या कारण हैं कि जो अंग्रेज अफसर स्वेज के उस पार भलामानस होता है यहाँ आकर कुछ दिनों में अभद्र हो जाता है। गाँधी जी के इन विचारों का यदि पालन हो जाए तो इस देश से भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, जैसी बुराइयाँ स्वतः मिट जाएं। आज बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अपना झूठा दम्भ दिखाने के चक्कर में नेता मंचों पर सार्वजनिक रूप से नोटों की माला पहनते हैं जो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का सबसे निकृष्टतम् रूप है। उनके येनकेन प्रकारेण से प्राप्त किए गए पद, झूठेदम्भाचरण को देखकर दूसरे लोग भी वैसा ही करने का प्रयास करते हैं जिससे अनीति को ही बढ़ावा मिलता है। यह संसार नीति पर टिका हुआ है । नीति मात्र का समावेश सत्य में है।
धार्मिक मन्थन- गाँधी जी ने विलायत में रहकर पढ़ाई के अतिरिक्त गीता, बुद्धचरित, और बाइबिल का अंग्रेजी अनुवादांे के माध्यम से अध्ययन किया। कार्लाइल लिखित वीर पैगम्बर (हज़रत मुहम्मद) निबंध को ध्यान से पढ़ा। थियोसोफी रहस्य नामक पुस्तक पढ़कर अपने धर्म के प्रति उत्साह अनुभव किया। वहीं रहकर हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन किया और निष्पक्ष भाव से विचार कर पाया कि हिन्दू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं। हिन्दू धर्म की त्रुटियों पर मनन किया और लगा कि यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग है तो वह सड़ा हुआ और बाद में जुड़ा हुआ अंग जान पड़ा।
टालस्टाय की पुस्तक स्वर्ग तेरे हृदय में तथा रस्किन की अनटू द लास्ट पुस्तक ने उनके हृदय को सर्वाधिक प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त पंचीकरण, मणि रत्नमाला, योग वाष्ठिका, मुमुक्ष प्रकरण, हरिभाद्र सूरिका, षड़दर्शसमुच्चय पुस्तकंे भी पढ़ीं।
सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर उन्होंने पाया कि वे हिन्दू हैं और उन्हंे हिन्दु धर्म ही श्रेष्ठ लगा क्योंकि कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें सारी अच्छाई हो तथा कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें केवल बुराइयाँ हों। गीता में कहा गया-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः अ०3,श्लोक 35
‘अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इसलिए-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् अ०18,श्लोक 47
‘अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।‘
वे सम्पूर्ण धर्मों का आदर करते थे परन्तु हिन्दू धर्म में उनकी अगाध श्रद्धा थी क्योंकि वे जन्म से हिन्दू ही थे।
त्याग की भावना-
आसक्ति अनभिष्वअः पुत्रदार गृहादिषु
नित्यम् च समचित्वम् इष्टा निष्टोंपपत्तिपु अ०13,श्लोक 1
‘पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना।‘
गाँधी जी सारी जनता को पुत्रवत मानते थे। दक्षिण अफ्रीका के स्कूल में उनके बच्चों को दाखिला देने को तैयार थे परन्तु गाँधी जी ने यही सोचकर अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा कि शिक्षा का अधिकार समान रूप से मिलना चाहिए। भले ही इससे उनके बच्चों की विधिवत शिक्षा नहीं हो सकी। वह कहते थे सबै भूमि गोपाल की फिर स्थान का मोह क्यों ?
धन का संचय उन्होंने जीवन में किया नहीं वरन् वकालत जो उनकी आजीविका थी उसके लिए भी उन्हेें अपने मुवक्किल से फीस लेना अच्छा नहीं लगता था।
विषया विनिवर्तन्ते निराहरस्य देहिनः
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवां निवर्तते अ०2,श्लोक 59
‘इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरूष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरूष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।‘
गाँधी जी का कहना था कि मनुष्य को अपने आहार पर संयम रखना चाहिए,व्रत, उपवास रखने से मन में कुछ संयम की भावना अवश्य आती है। उपवास की सच्ची उपयोगिता वहीं होती है जहाँ मनुष्य का मन भी देह दमन मेें साथ होता है। तात्पर्य यह है कि मन मंे विषय भोग के प्रति विरक्ति आनी चाहिए। विषय की जड़ें मन में रहती हैं। उपवास आदि साधनों से यद्यपि बहुत सहायता मिलती है, फिर भी वह अपेक्षाकृत कम ही होती है। कहा जा सकता है कि उपवास करते हुए भी मन विषयासक्त रह सकता है। पर बिना उपवास के विषयासक्ति को जड़ मूल से मिटाना संभव नहीं। अतएव ब्रह्यमचर्य के पालन में उपवास अनिवार्य अंग है। ब्रहमचर्य का अर्थ है, मन-वचन क्रम से समस्त इंद्रियों का संयम। आत्मार्थी के लिए रामनाम और रामकृपा ही अंतिम साधन है। गाँधी जी शाकाहारी भोजन को ही उत्तम मानते थे। उनका कहना था कि अपने मुख केे स्वाद के लिए किसी जीव की हत्या करना पाप है। गीता में भी कहा गया है कि-
आयुः सत्व बलारोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः
रस्याःस्निग्धाःस्थिराःहृद्या आहाराःसात्विकप्रियाः अ०17,श्लोक 8
‘आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात भोजन सात्विक पुरूष को प्रिय होते हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि शाकाहारी भोजन ही श्रेष्ठ होता है।‘
सेवा की भावना- अपनी आत्म कथा में गाँधी जी ने लिखा-
मैंने सेवाधर्म अपना लिया क्योंकि मेरी समझ से ईश्वर साक्षात्कार का यही एक उपाय था। मेरी दृष्टि में लोकसेवा भारत माता की सेवा थी। सेवा करनेवाले साधक का सिद्धान्त वाक्य होता है- ‘मोहि कहाँ विश्राम‘।
सेवा की अभिरूचि कुकुरमुत्ते की तरह बात की बात में उत्पन्न नहीं होती। उसके लिए इच्छा चाहिए और बाद में समय। दिखावे या लोकलाज से सेवाधर्म अपनाने से साधक की प्रगति रूक जाती है और उसका मन भर जाता है। सेवा मंे आनन्द का अनुभव न हुआ तो सेवा और सेव्य में से किसी का कुछ भला नहीं होता। लेकिन मन से सेवा की जाए तो सेवक को ऐसा आनन्द आता है कि अन्य सब प्रकार की सम्पदा और सुख भोग फीके पड़ जाते हैं।
गाँधी जी के अफ्रीका में दक्षिण टंªासवाल मंे 14 अगस्त 1908.......................के दिन का सत्याग्रह का वर्णन एक विदेशी ने यूँ किया -
‘तेरह हज़ार निशस्त्र प्रवासी भारतीय एक शक्तिशाली सरकार को चुनौती दे रहे थे। प्रवासी भारतीय के अस्त्र शस्त्र हैं सत्याग्रह और भगवान के न्याय में विश्वास। जिनके लिए मनुष्यता, नैतिकता और ईश्वरीय न्याय की व्यवस्था संसार से उठ नहीं गई है उन्हें इन अस्त्र शस्त्रों की सामथ्र्य में इतना विश्वास है।‘ दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी के सत्याग्रह की विजय की टिप्पणी में प्रोफेसर गिल्बर्ट मरे ने लिखा था-
‘अत्याचारियों को सावधान होकर सीख लेनी चाहिए कि ऐसे व्यक्ति का सामना करना कठिन है, जिसे इंद्रियों के भोग, धन, दौलत सुविधा की रंचमात्र परवाह नहीं है और जो सत्य पर आसक्त रहने का दृढ़ निश्चय कर लेता है । उससे लड़ना खतरनाक होता है ।उसके शरीर पर हावी हुआ जा सकता है लेकिन उसकी आत्मा पर नहीं।‘
अहिंसा-
अहिंसा,सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिपैशुनम्
दया, भूतेष्वलोलुप्त्वं्, मार्दवं, हृीरचापलम् अ०16,श्लोक 2
मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार किसी को भी कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना उपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्माें में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दा न करना, सब भूत प्राणियांे में हेतुरहित दया इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। सत्य की शोध के मूल मंे ऐसी अहिंसा है। जब तक ऐसी अहिंसा हाथ नहीं आती तब तक सत्य नहीं मिल सकता। व्यवस्था या पद्धति के विरूद्ध झगड़ा करना शोभा देता है, पर व्यवस्थापक के विरूद्ध झगड़ा करना तो अपने विरूद्ध झगड़ने के समान है क्योंकि हम सब एक ही कूंची से रचे गए हैं, एक ही ब्रहमा की संतान हैं। व्यवस्थापक में अनन्त शक्तियाँ निहित हैं। व्यवस्थापक का अनादर या तिरस्कार करने से उन शक्तियोें का अनादर होता है और वैसा होने पर व्यवस्थापक को और संसार को हानि पहुँचती है।
चम्पारन में रहकर गाँधी जी ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह आंदोलन किया था, जो सफल रहा। गाँधी जी ने लिखा-
‘चम्पारन में मैंने ईश्वर का, अहिंसा का, और सत्य का साक्षात्कार किया। जब मैं इस साक्षात्कार के अपने अधिकार की जाँच करता हूँ तो मुझे लोगों के प्रति प्रेम के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इस प्रेम का अर्थ है, प्रेम अथवा अहिंसा के प्रति मेरी अविचल श्रद्धा।‘
अहिंसा व्यापक वस्तु है । हम हिंसा की होली के बीच घिरे हुए पामर प्राणी हैं। अहिंसा की तह में ही अद्वैत भावना निहित है। प्राणि मात्र में जो भेद है, तो एक के पाप का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है, इस कारण भी मनुष्य हिंसा से बिलकुल अछूता नहीं रह सकता। समाज में रहने वाला मनुष्य समाज की हिंसा में, अनिच्छा से ही क्यों न हो, साझेदार बनता है। दो राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ने पर अहिंसा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति का धर्म है कि वह युद्ध को रोके। आज सम्पूर्ण विश्व ऐसे युद्ध के ढेर पर बैठा है जिसमें एक चिंगारी सम्पूर्ण विनाश करने के लिए काफी है। आज अपनी बात मनवाने के लिए जरा-जरा सी बात में हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। हड़ताल करना, तोड़-फोड़ करना, आगजनी करना, इन सब से नुकसान तो जनता का ही होता है। फिर जनता कोई और तो नहीं । चीजें भी किसी और की नहीं। यह सब हमारी ही चीजें हैं, हमारे ही पैसे से, इन्कम टैक्स, सेल टैक्स, रोड़ टैक्स से ही तो सरकार बनवाती है। ऐसी हिंसा से जनता की गाढी कमाई का ही अहित होता है। हर व्यक्ति यदि शांत भाव से सोचे तो समस्याएं स्वतः हल हो जाएंगी।
यदि राष्ट्रों के बीच अहिंसा का भाव जन्म ले तो युद्ध की संभावना ही नहीं होगी। महाविनाश स्वतः टल जाएगा।
सत्य-
अभयम् सत्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानम्,दमः,च,यज्ञः,च,स्वाध्यायः,तपः,आर्जवम् अ०16,श्लोक 1
भय का सवर्था अभाव, अंतकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान, योग में निरन्तर दृढस्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरूजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेदशास्त्रों का पठन पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिए कष्ठ सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।
जहाँ सत्य की ही साधना और उपासना होती है वहाँ भले परिणाम हमारी धारणा के अनुसार न निकले, फिर भी जो अनपेक्षित परिणाम होता है, वह अकल्यााणकारी नहीं होता और कई बार अपेक्षा से अधिक अच्छा होता है।‘
लोकसेवा के माध्यम से सत्य की आराधना की जा सकती है । सत्य एक विशाल वृक्ष है ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है त्यों-त्यों उस पर नए-नए फल आते हैं जिनका कोई अन्त नहीं । सत्य एक ऐसी खान के समान है जिसमें जितना गहरा पैठा जाए उतने ही रत्न गहराई मंे दिखाई देते हैं जिनके आलोक मंे सेवा के नए-नए मार्ग सूझ जाते हैं।
मानवीय मूल्यांे पर पूर्ण आस्था-मन को यदि वश में कर लिया जाए तो दुःखों का स्वतः नाश हो जाएगा
यो न हृष्यति ने द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः।।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता ह,ै न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझको प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदः खेषु समः सग्ङविवर्जितः
जो शत्रु-मित्र मेें और मान अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखदि द्वन्द्वों मंे सम है और आसक्ति से रहित है।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।
जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरूष मुझको प्रिय है।
गाँधी जी ने मित्र और शत्रु दोनों का भेद मिटा दिया। उनका कहना था- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। सम्पूर्ण जीवन त्याग और बलिदान का उदाहरण रहा। गाँधी जी के समय मेे हमारे देश मे अत्याधिक निर्धनता थी, लोगों के पास पहनने को कपड़े तक नहीं थे। चम्पारन में रहकर उन्होंने गरीबी की पराकाष्ठा देख उन्होंने यह व्रत लिया कि जब तक सम्पूर्ण देशवासियों के पास तन ढंकने के लिए वस्त्र नहीं हो जाएगंे वे सिर्फ एक धोती में ही तन को ढकूंगा। देश की आज़ादी के बाद भी उन्होंने कोई पद नहीं लिया। हिन्दु-मुस्लिम एकता, अछतुोद्धार पर जीवन भर निःस्वार्थ भाव से लगे रहे।
उनके मन में किसी प्रकार की कामना नहीं थी, वह प्राणियों के दुःखों का निवारण चाहते थे।
न त्वम् कामये राज्यम् स्वर्गम् न पुर्नभवम्।
कामये दुःख तत्वानां प्राणी नामाशाय नाशनम्।।
गीता में कहा गया है-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मांन सृजाम्यहम्।।
जब जब धर्म की हानि और अर्धम की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
वह परत्रन्त्रा की बेडियों में जकडी मातृभूमि को आज़ाद कराने तथा लोगों के मन में वैचारिक क्रान्ति जगाने आए थे। महात्मा गाँधी के जीवन को यदि हम यूँ कहें कि उन्होंने गीता को चरितार्थ किया तो अतिश्योक्ति न होगी। उनका जीवन दर्शन गीता का दर्शन था।
स्नेह लता
लेखाधिकारी (उ०रे०)
1/309,विकास नगर,लखनऊ
मो०नं० 9450639976
स्नेह लता
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गीता दर्शन और गाँधी जी
श्री मद्भगवतगीता एक ऐसा अनुपम ग्रंथ है जिसके माहात्म्य का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है परन्तु इसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसको संपूर्ण रूप से आचरण में लाना संभव नहीं प्रतीत होता। प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं इससे यह सदैव नवीन बना रहता है। श्रद्धाभक्ति से विचार करने से इसके पद-पद मंे रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। जितना ही मनुष्य इसका अध्ययन करता है उतना उसका जीवन दैवीय गुणों से भरता जाता है। वह मानव से महात्मा बनने लगता है। यह गीता का ही प्रभाव था जिसने गांधी जी को साधारण मानव से महात्मा बना दिया। अपने ऊपर गीता के प्रभाव को स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्म कथा में जगह-जगह स्वीकार किया है। यूँ तो उनके घर मंे शुरू से ही आध्यात्मिक वातावारण था परन्तु गीता के प्रति गांधी जी का विशेष झुकाव कैसे हुआ उसके विषय मंे उन्होंने लिखा है-
विलायत मंे रहते हुए मुझे कोई एक साल हुआ होगा। इस बीच दो थियाॅसोफिस्ट मित्रों से मेरी पहचान हुई। दोनों सगे भाई थे और अविवाहित थे। उन्होंने मुझसे गीता की चर्चा की। वे एडविन आर्नल्ड का गीता का अनुवाद पढ़ रहे थे पर उन्होंने मुझे अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए न्यौता दिया। मैं शरमाया क्योंकि मैंने गीता संस्कृत मंे या मातृभाषा में पढी ही नहीं थी। मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैंने गीता पढी ही नहीं है पर मंै आपके साथ पढ़ने को तैयार हूँ। इस प्रकार मैंने उन भाइयों के साथ गीता पढ़ना शुरू किया-
ध्यायतः, विषयान् पंुसः, सग्ङ, तेषु, उपजायते, ।
सग्ङात्,सञजायते,कामः,कामात्,क्रोधः,अभिजायते ।। अ० 2 श्लोक
अर्थ- ‘विषयों का चिन्तन करने वाले पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इन श्लोकों का मेरे मन पर गहरा असर रहा। उनकी भनक मेरे कानों में गूँजती ही रही। उस समय मुझे लगा कि भग्वदगीता अमूल्य ग्रन्थ है। यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गई, और आज मैं तत्वज्ञान के लिए उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ। निराशा के समय इस ग्रन्थ ने मेरी अमूल्य सहायता की है।
1903 के समय से मंैने नित्य एक दो श्लोक कंठस्थ करने का निश्चय किया। अपनी दिनचर्या का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा-
‘प्रायः दातुन और स्नान के समय का उपयोग गीता के श्लोक कंठस्थ करने में किया। दातुन में पन्द्रह और स्नान में बीस मिनट लगते थे। दातुन मैं अंग्रेजी ढ़ंग से खडे़-खड़े करता था, सामने की दीवार पर गीता के श्लोक लिखकर चिपका देता था और आवश्यकतानुसार उन्हंे देखता तथा पढ़ता जाता था। ये पढ़े हुए श्लोक स्नान करने तक पक्के हो जाते थे। इस बीच पिछले कंठस्थ किए हुए श्लोकों को भी मैं एक बार दोहरा जाता था। इस प्रकार तेरह अध्याय कंठस्थ करने की बात मुझे याद है।‘
गीता पाठ का मेरे साथियों पर क्या प्रभाव पड़ा ये तो वे जानें परन्तु मेेरे लिए तो वह पुस्तक आचार की एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गई। वह मेरे लिए धार्मिक कोष का काम देने लगी जिस प्रकार नए अंग्रेजी शब्दों के हिज्जों या उनके अर्थ के लिए मैं अंग्रेजी शब्दकोष देखता था, उसी प्रकार आचार संबंधी कठिनाइयों और उनकी अटपटी समस्याओं को गीता से हल करता था। उसके अपरिग्रह, समभाव, आदि शब्दों ने मुझे पकड़ लिया। समभाव का विकास कैसे होे, उसकी रक्षा किस प्रकार की जाए? अपमान करने वाले अधिकारी, रिश्वत लेने वाले अधिकारी, व्यर्थ विरोध करने वाले कल के साथी इत्यादि और जिन्होंने बडे़-बड़े उपकार किए हैं ऐसे सज्जनों के बीच भेद न करने का क्या अर्थ है? अपरिग्रह किस प्रकार पाला जाता होगा? देह का होना ही कौन कम परिग्रह है? स्त्री-पुत्रादि परिग्रह नहीं तो और क्या हैं? गीता शास्त्र के अध्ययन के फलस्वरूप ‘ट्रस्ट्री‘ शब्द का अर्थ विशेष रूप से मेरी समझ में आया। कानून शास्त्र के प्रति मेरा आदर बढ़ा, मुझे उसमें भी धर्म के दर्शन हुए।‘ट्रस्ट्री‘ के पास करोड़ों रूपयों के रहते हुए भी एक भी पाई उसकी नहीं होती। मुमुक्ष को ऐसा ही बरताव करना चाहिए, यह बात मैंने गीता से समझी। मुझे यह दीपक की तरह स्पष्ट दिखाई दिया कि अपरिग्रह ही बनने में समभावी होने में हेतु का, हृदय परिवर्तन आवश्यक है।
गाँधी जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण रहा। एक ओर परतन्त्रता मेें जकड़ी हुई भारत माँ को आज़ाद कराने की लड़ाई थी तो दूसरी ओर भारतीय समाज़ तथा जनमानस में व्याप्त अंधविश्वास, जाति संघर्ष, छुआ छूत, अस्पृश्यता, वर्ग भेद जैसी कुरीतियाँ थीं। गाँधी जी ने नैतिक और राजनैतिक दोनांे क्षेत्रोें का विशद् अध्ययन किया। यूँ तो उन्होंने अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया परन्तु जैसा कि स्वयं उन्होंने अपनी आत्म कथा तथा भाषणों में कहा है कि गीता ने उनके जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया। आज भी यदि हम कहें कि गीता सम्पूर्ण आर्ट आॅफ लिविंग का सार है तो अतिश्योक्ति न होगी। गीता पढ़ते तो बहुत लोग हैं परन्तु गाँधी जी ने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया जिसमंे वह सफल भी रहे। गीता के संदर्भ में यदि हम गाँधी जी के विचारों और कार्यों का विवेचन करें तो संक्षेप वह इस प्रकार है-
विषयाः विनिवर्तन्ते, निराहारस्य, देहिनः,
रसवर्जम रसःअपि,अस्य,परम्,दृष्ट्वा,निवर्तते ।। अ० 2,श्लोक 59
ईश्वर में अटूट आस्था- गाँधी जी की ईश्वर में अटूट आस्था थी। मानव सेवा को वह ईश्वर सेवा का ही रूप समझते थे।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। अ० 9,श्लोक 22
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरूषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। गाँधी जी कहना था कि मैं अनुभव करता हूँ कि ईश्वर मेरी रग-रग में समाया हुआ है। वही सत्य और प्रेम है। ईश्वर प्रकाश है। वह कहते थे कि अपने कार्याें को ईश्वर में अर्पण कर दो, ईश्वर सबकी रक्षा करने वाला है। गीता में कहा गया है-
मन्मनाः भव मदभक्तः मद्या जी माम् नमस्कुरू
माम एक एष्यसि ते सत्यम् प्रतिजाने मे प्रियः असि
मुझमें मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा । यह मैं तुझसे सत्यप्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
गाँधी जी नित्यप्रति पूजा पाठ के अतिरिक्त जब भी उन्हें समय मिलता था वह ईश्वर की ही आराधना करते थे। जेेल में रहते हुए भी वह ईश पूजा में ही मन रमाते थे। सत्याग्रह के समय भी वह लोगों से ईश पूजा के लिए ही कहते थे। ईश्वर का ध्यान करने से मन का भटकाव कम हो जाता है। वह कहते थे-
‘मन का मैल तो विचार से ईश्वर के ध्यान से और आखिरी ईश्वरी प्रसाद से छूटता है।‘
गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति अंत समय में भी ईश्वर का नाम लेते ही शरीर त्यागता है वह सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है। सर्व विदित है, गाँधी जी को जब गोली मारी गई तो वह शाम की पूजा के लिए ही जा रहे थे। गोली लगते ही ‘हे राम‘ कहा और वे गिर गए। गीता का यह श्लोक कि जो निरन्तर मुझे याद करता है, अंतिम समय भी मंै उसके साथ होता हूँ, गाँधी जी पर पूर्णतः चरितार्थ हुआ।
कर्तव्यपराणयता- गीता वास्तव में कर्म योग का ग्रंथ है। कर्मयोग का अर्थ है कर्म करते हुए भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर होना। गाँधी जी के विचार से कर्तव्यपरायणता से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। गीता के उपदेशों का उद्देश्य अर्जुन को उसके कर्तव्य का ज्ञान कराना था-
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम् जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम्
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय यु़द्धाय कृतनिश्चयः अ० 2,श्लोक 37
‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे! अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।‘ गाँधी जी के सामने भी स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य किसी महाभारत से कम नहीं था। तत्कालीन परिस्थितियों में सोए हुए जनमानस में चेतना जाग्रत करने के लिए ऐसे ही प्रेरक विचारों की आवश्यकता थी।
जीवन के किसी भी क्षेत्र मंे सफलता पाने के लिए निष्काम कर्म की आवश्यकता होती है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः
मा कर्मफल हेतुःमा भूःते अकर्मणि संग मा अस्तु अ० 2,श्लोक 47
‘तेरा कर्म करने में अधिकार है उसके फल मेें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति न हो।‘
मनोवैज्ञानिक सत्य भी यही है कि काम करते समय अगर केवल परिणाम के बारे में ही सोचा जाएगा तो काम में पूर्ण तन्मयता से ध्यान नहीं लगेगा। किसी भी कार्य को करने में सफलता तभी मिलती है जब उसे लगनशीलता से किया जाए। बिना प्रयास के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता कोई कार्य छोटा-बड़ा अच्छा बुरा नहीं होता। हर काम में कुछ न कुछ अच्छाई है तो कुछ न कुछ बुराई भी होगी।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत्
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेन अग्निःइव आवृताः अ० 18,श्लोक 48
दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं।
गाँधी जी ने स्वयं कभी किसी कार्य को छोटा नहीं माना। उन्होंने हरिजनांे की बस्ती में जाकर वहाँ सफाई करने तक का कार्य किया। वह अपना हर कार्य स्वयं करते थे और दूसरों को भी शिक्षा देते थे स्वावलम्बी बनो। अपना कार्य स्वयं करो। अध्ययन के समय से लेकर राज नैतिक जीवन तक, गृहस्थी के कार्यों से लेकर बागवानी, हस्तशिल्प, कृषि कार्यों को स्वयं करते थे। चरखा और करघा गाँधी जी का पर्याय बन गए। अफ्रीका के टालस्टाय फार्म में रहकर उन्हांेने चप्पल जूते बनाने की कला सीखी। उनके कार्याें और व्यवहार की उनके विदेशी मित्र भी प्रशंसा करते थे। जनरल स्मट्स ने गाँधी जी के बारे में कहा था-मेरे भाग्य में बदा था कि मैं उस व्यक्ति का विरोधी बना जिसके प्रति विरोध के दिनों में भी मेरे मन में आदर का सर्वोच्च स्थान था। जेल में मेरे लिए उन्होंने चप्पल जोड़ी बनाई और रिहा होने पर मुझे भेंट की। अच्छे दिनांे में मैंने उन चप्पलों को बरसों पहना है और मन ही मन कहा है कि क्या मैं उस महान व्यक्ति की कृति के योग्य हूँ।
गीता के इस ज्ञान को यदि आज की पीढ़ी आत्मसात करले तो बेरोजगारी, असंतोष, भ्रष्टाचार,की समस्याएं स्वतः हल हो जाएगी। आज का युवा गाँव से शहर की ओर पलायन कर रहा है। शहरों का युवा व्हाइट कालर जाव की तलाश में दौड़ रहा है। बडे़ लोग कोई अलग कार्य नहीं करते हैं। मसाले पीस कर कोई पूरे देश में नाम कमा सकता है तो एम डी एच मसाले वालों से पूछों। धीरू भाई अम्बानी ने अपना काम पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल भरने से शुरू किया था। ऐसे अनेक उदारहण हैं। सफलता के लिए शार्टकट की जरूरत नहीं होती, कार्य में आस्था की जरूरत होती है। गाँधी जी ने लिखा है-
‘मनुष्य और उसका काम ये दो भिन्न वस्तुएंे हैं। अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे काम के प्रति तिरस्कार होना ही चाहिए। भले बुरे काम करने वालों के प्रति आदर अथवा दया रहनी चाहिए। यह चीज सम्भव है, ये सरल है पर इसके अनुसार आचरण कम से कम होता है। इसी कारण इस संसार में विष फैलता जा रहता है। इसलिए हर कार्य को निष्काम भाव से पूर्ण निष्ठा के साथ करने पर ही सफलता एवं आत्मसंतोष मिलता है।‘
बाहय आडम्बर का अभाव- ईश्वर की आराधना के लिए किसी भी आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती, गीता में लिखा है-
पत्रं पुष्प फलं तोयं यो मे भक्त्था प्रयच्छति
तत् अहम् भक्त्युपहृतम् अश्नानि प्रश्तात्ममः
‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्रं, पुष्प, फल, जल, आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादि मैं सगुन रूप से प्रकट होकर प्रीति पूर्वक खाता हूँ।‘
वे नित्य भजन कीर्तन, संध्या भगवत ध्यान में विश्वास करते थे। इन सब कार्याें के लिए व्यक्ति, स्थान, समय की बाध्यता नहीं रहती थी। स्वयं गाँधी जी ने लिखा है-‘तीर्थ स्थलों में जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवान चिन्तन की आशा रखता है वहाँ उसे कुछ नहीं मिलता। यदि ध्यान की जरूरत हो तो वह अपने अंतर से पाना होगा।‘
विद्या विनयसम्पन्ने, ब्राह्यमणे,गवि, हस्तिानि
शुनि,च रस,श्वपाके,च पण्डिताःसमदर्शिनः अ०5,श्लोक 18
‘ज्ञानी विद्या और विनययुक्त ब्राहमण मंे तथा गौ, हाथी, कुत्ते, और चाण्डाल में भी समदर्शी होते हैं।‘ गाय को माता इसलिए कहा गया है कि वह हमें दूध पिलाती है और ऐसे बछडेे़ जनती है जो हमारा साथी बनकर कृषि और वाणिज्य में सहायक होता है। गाय हिन्दू जीवन की अहिंसकता और सादगी की प्रतीक है। जीवों पर दया करनी चाहिए, सब मनुष्य बराबर हैं।
तीर्थस्थलों में जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवत चिन्तन की आशा रखता है वहाँ उसे इनमें से कुछ नहीं मिलता । यदि ध्यान की जरूरत हो तो वह अपने अंतर से पाना होगा।
सर्वभूत सर्वात्मा-
सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि च आत्मनि
ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्र, समदर्शनः अ०6,श्लोक 29
‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।‘
गाँधी जी सम्पूर्ण प्राणी मात्र को समान भाव से देखते थे। वे जाति पांति की दीवारों को मानव जाति की प्रगति के लिए अभिशाप मानते थे। उनका कहना था कि केवल जन्म के कारण कोई व्यक्ति अछूत नहीं माना जा सकता । उनकी दृष्टि में स्वराज्य का अर्थ था- देश के हीन से हीन लोगों की आज़ादी। वे हरिजनों की बस्ती मेें जाकर रहे उन्होंने कहा-
‘मैं अश्पृश्यता के कलंक से अपने को मुक्त करके आत्मशद्धि के अर्थ में हरिजन कार्य में लगा हुआ हूँ।‘
आत्मा की अमरता में विश्वास-
गीता, आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध जोड़ने वाली एक कड़ी है। गीता में कहा गया है कि आत्मा अज़र अमर और शाश्वत है। गाँधी जी कहते थे कि जन्म और मृत्यु दो भिन्न स्थितियाँ नहीं हैं परन्तु एक ही स्थिति के दो अलग-अलग पहलू हैं। मृत्यु नवजीवन और पुराने चोले का संधि स्थल है- गीता में कहा गया-
वासंासि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृहयाति नरः अपराणि
तथा शरीराय विहाय जीर्णानि
अन्यानि, संयाति, नवानि देही अ०2,श्लोक 22
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। आत्मा का विकास करने का अर्थ है, चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना, आत्मज्ञान प्राप्त करना।‘
अपनी आत्मा की आवाज़ पर कार्य करना चाहिए। आत्मा मनुष्य को सही और गलत का ज्ञान कराती है। अपनी अंतरात्मा के निर्देशों का पालन करते हुए यदि कोई अपना जीवन जीता है तो उसको किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं होता क्योंकि आत्मा कभी गलत कार्य के लिए प्रेरित नहीं करती।
नेताओं को श्रेष्ठ आचरण करना चाहिए-
यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः
अःयत् प्रमाणम् कुरूते लोकः अनुवर्तते अ०3,श्लोक 21
‘श्रेष्ठ पुरूष जो जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगता है।‘ मनुष्य का स्वभाव होता है कि जिसे वह श्रेष्ठ समझता है उसका अनुकरण करने का प्रयास करता है। उच्च, ख्याति प्राप्त लोगों को श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। लोकसेवा करने वालों को कभी कोई बहुमूल्य वस्तु भेंट स्वरूप नहीं स्वीकार करनी चाहिए। गाँधीजी को अफ्रीका में अनेक बहुमूल्य वस्तुएं उपहार में मिली मगर उन्हांेने सब वापस कर दीं। गाँधी जी ने यह भी कहा कि अफसरांे को बिगाड़ने में नागरिकों का भी हाथ होता है। क्या कारण हैं कि जो अंग्रेज अफसर स्वेज के उस पार भलामानस होता है यहाँ आकर कुछ दिनों में अभद्र हो जाता है। गाँधी जी के इन विचारों का यदि पालन हो जाए तो इस देश से भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, जैसी बुराइयाँ स्वतः मिट जाएं। आज बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अपना झूठा दम्भ दिखाने के चक्कर में नेता मंचों पर सार्वजनिक रूप से नोटों की माला पहनते हैं जो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का सबसे निकृष्टतम् रूप है। उनके येनकेन प्रकारेण से प्राप्त किए गए पद, झूठेदम्भाचरण को देखकर दूसरे लोग भी वैसा ही करने का प्रयास करते हैं जिससे अनीति को ही बढ़ावा मिलता है। यह संसार नीति पर टिका हुआ है । नीति मात्र का समावेश सत्य में है।
धार्मिक मन्थन- गाँधी जी ने विलायत में रहकर पढ़ाई के अतिरिक्त गीता, बुद्धचरित, और बाइबिल का अंग्रेजी अनुवादांे के माध्यम से अध्ययन किया। कार्लाइल लिखित वीर पैगम्बर (हज़रत मुहम्मद) निबंध को ध्यान से पढ़ा। थियोसोफी रहस्य नामक पुस्तक पढ़कर अपने धर्म के प्रति उत्साह अनुभव किया। वहीं रहकर हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन किया और निष्पक्ष भाव से विचार कर पाया कि हिन्दू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं। हिन्दू धर्म की त्रुटियों पर मनन किया और लगा कि यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग है तो वह सड़ा हुआ और बाद में जुड़ा हुआ अंग जान पड़ा।
टालस्टाय की पुस्तक स्वर्ग तेरे हृदय में तथा रस्किन की अनटू द लास्ट पुस्तक ने उनके हृदय को सर्वाधिक प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त पंचीकरण, मणि रत्नमाला, योग वाष्ठिका, मुमुक्ष प्रकरण, हरिभाद्र सूरिका, षड़दर्शसमुच्चय पुस्तकंे भी पढ़ीं।
सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर उन्होंने पाया कि वे हिन्दू हैं और उन्हंे हिन्दु धर्म ही श्रेष्ठ लगा क्योंकि कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें सारी अच्छाई हो तथा कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें केवल बुराइयाँ हों। गीता में कहा गया-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः अ०3,श्लोक 35
‘अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इसलिए-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् अ०18,श्लोक 47
‘अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।‘
वे सम्पूर्ण धर्मों का आदर करते थे परन्तु हिन्दू धर्म में उनकी अगाध श्रद्धा थी क्योंकि वे जन्म से हिन्दू ही थे।
त्याग की भावना-
आसक्ति अनभिष्वअः पुत्रदार गृहादिषु
नित्यम् च समचित्वम् इष्टा निष्टोंपपत्तिपु अ०13,श्लोक 1
‘पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना।‘
गाँधी जी सारी जनता को पुत्रवत मानते थे। दक्षिण अफ्रीका के स्कूल में उनके बच्चों को दाखिला देने को तैयार थे परन्तु गाँधी जी ने यही सोचकर अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा कि शिक्षा का अधिकार समान रूप से मिलना चाहिए। भले ही इससे उनके बच्चों की विधिवत शिक्षा नहीं हो सकी। वह कहते थे सबै भूमि गोपाल की फिर स्थान का मोह क्यों ?
धन का संचय उन्होंने जीवन में किया नहीं वरन् वकालत जो उनकी आजीविका थी उसके लिए भी उन्हेें अपने मुवक्किल से फीस लेना अच्छा नहीं लगता था।
विषया विनिवर्तन्ते निराहरस्य देहिनः
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवां निवर्तते अ०2,श्लोक 59
‘इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरूष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरूष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।‘
गाँधी जी का कहना था कि मनुष्य को अपने आहार पर संयम रखना चाहिए,व्रत, उपवास रखने से मन में कुछ संयम की भावना अवश्य आती है। उपवास की सच्ची उपयोगिता वहीं होती है जहाँ मनुष्य का मन भी देह दमन मेें साथ होता है। तात्पर्य यह है कि मन मंे विषय भोग के प्रति विरक्ति आनी चाहिए। विषय की जड़ें मन में रहती हैं। उपवास आदि साधनों से यद्यपि बहुत सहायता मिलती है, फिर भी वह अपेक्षाकृत कम ही होती है। कहा जा सकता है कि उपवास करते हुए भी मन विषयासक्त रह सकता है। पर बिना उपवास के विषयासक्ति को जड़ मूल से मिटाना संभव नहीं। अतएव ब्रह्यमचर्य के पालन में उपवास अनिवार्य अंग है। ब्रहमचर्य का अर्थ है, मन-वचन क्रम से समस्त इंद्रियों का संयम। आत्मार्थी के लिए रामनाम और रामकृपा ही अंतिम साधन है। गाँधी जी शाकाहारी भोजन को ही उत्तम मानते थे। उनका कहना था कि अपने मुख केे स्वाद के लिए किसी जीव की हत्या करना पाप है। गीता में भी कहा गया है कि-
आयुः सत्व बलारोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः
रस्याःस्निग्धाःस्थिराःहृद्या आहाराःसात्विकप्रियाः अ०17,श्लोक 8
‘आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात भोजन सात्विक पुरूष को प्रिय होते हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि शाकाहारी भोजन ही श्रेष्ठ होता है।‘
सेवा की भावना- अपनी आत्म कथा में गाँधी जी ने लिखा-
मैंने सेवाधर्म अपना लिया क्योंकि मेरी समझ से ईश्वर साक्षात्कार का यही एक उपाय था। मेरी दृष्टि में लोकसेवा भारत माता की सेवा थी। सेवा करनेवाले साधक का सिद्धान्त वाक्य होता है- ‘मोहि कहाँ विश्राम‘।
सेवा की अभिरूचि कुकुरमुत्ते की तरह बात की बात में उत्पन्न नहीं होती। उसके लिए इच्छा चाहिए और बाद में समय। दिखावे या लोकलाज से सेवाधर्म अपनाने से साधक की प्रगति रूक जाती है और उसका मन भर जाता है। सेवा मंे आनन्द का अनुभव न हुआ तो सेवा और सेव्य में से किसी का कुछ भला नहीं होता। लेकिन मन से सेवा की जाए तो सेवक को ऐसा आनन्द आता है कि अन्य सब प्रकार की सम्पदा और सुख भोग फीके पड़ जाते हैं।
गाँधी जी के अफ्रीका में दक्षिण टंªासवाल मंे 14 अगस्त 1908.......................के दिन का सत्याग्रह का वर्णन एक विदेशी ने यूँ किया -
‘तेरह हज़ार निशस्त्र प्रवासी भारतीय एक शक्तिशाली सरकार को चुनौती दे रहे थे। प्रवासी भारतीय के अस्त्र शस्त्र हैं सत्याग्रह और भगवान के न्याय में विश्वास। जिनके लिए मनुष्यता, नैतिकता और ईश्वरीय न्याय की व्यवस्था संसार से उठ नहीं गई है उन्हें इन अस्त्र शस्त्रों की सामथ्र्य में इतना विश्वास है।‘ दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी के सत्याग्रह की विजय की टिप्पणी में प्रोफेसर गिल्बर्ट मरे ने लिखा था-
‘अत्याचारियों को सावधान होकर सीख लेनी चाहिए कि ऐसे व्यक्ति का सामना करना कठिन है, जिसे इंद्रियों के भोग, धन, दौलत सुविधा की रंचमात्र परवाह नहीं है और जो सत्य पर आसक्त रहने का दृढ़ निश्चय कर लेता है । उससे लड़ना खतरनाक होता है ।उसके शरीर पर हावी हुआ जा सकता है लेकिन उसकी आत्मा पर नहीं।‘
अहिंसा-
अहिंसा,सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिपैशुनम्
दया, भूतेष्वलोलुप्त्वं्, मार्दवं, हृीरचापलम् अ०16,श्लोक 2
मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार किसी को भी कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना उपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्माें में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दा न करना, सब भूत प्राणियांे में हेतुरहित दया इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। सत्य की शोध के मूल मंे ऐसी अहिंसा है। जब तक ऐसी अहिंसा हाथ नहीं आती तब तक सत्य नहीं मिल सकता। व्यवस्था या पद्धति के विरूद्ध झगड़ा करना शोभा देता है, पर व्यवस्थापक के विरूद्ध झगड़ा करना तो अपने विरूद्ध झगड़ने के समान है क्योंकि हम सब एक ही कूंची से रचे गए हैं, एक ही ब्रहमा की संतान हैं। व्यवस्थापक में अनन्त शक्तियाँ निहित हैं। व्यवस्थापक का अनादर या तिरस्कार करने से उन शक्तियोें का अनादर होता है और वैसा होने पर व्यवस्थापक को और संसार को हानि पहुँचती है।
चम्पारन में रहकर गाँधी जी ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह आंदोलन किया था, जो सफल रहा। गाँधी जी ने लिखा-
‘चम्पारन में मैंने ईश्वर का, अहिंसा का, और सत्य का साक्षात्कार किया। जब मैं इस साक्षात्कार के अपने अधिकार की जाँच करता हूँ तो मुझे लोगों के प्रति प्रेम के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इस प्रेम का अर्थ है, प्रेम अथवा अहिंसा के प्रति मेरी अविचल श्रद्धा।‘
अहिंसा व्यापक वस्तु है । हम हिंसा की होली के बीच घिरे हुए पामर प्राणी हैं। अहिंसा की तह में ही अद्वैत भावना निहित है। प्राणि मात्र में जो भेद है, तो एक के पाप का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है, इस कारण भी मनुष्य हिंसा से बिलकुल अछूता नहीं रह सकता। समाज में रहने वाला मनुष्य समाज की हिंसा में, अनिच्छा से ही क्यों न हो, साझेदार बनता है। दो राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ने पर अहिंसा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति का धर्म है कि वह युद्ध को रोके। आज सम्पूर्ण विश्व ऐसे युद्ध के ढेर पर बैठा है जिसमें एक चिंगारी सम्पूर्ण विनाश करने के लिए काफी है। आज अपनी बात मनवाने के लिए जरा-जरा सी बात में हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। हड़ताल करना, तोड़-फोड़ करना, आगजनी करना, इन सब से नुकसान तो जनता का ही होता है। फिर जनता कोई और तो नहीं । चीजें भी किसी और की नहीं। यह सब हमारी ही चीजें हैं, हमारे ही पैसे से, इन्कम टैक्स, सेल टैक्स, रोड़ टैक्स से ही तो सरकार बनवाती है। ऐसी हिंसा से जनता की गाढी कमाई का ही अहित होता है। हर व्यक्ति यदि शांत भाव से सोचे तो समस्याएं स्वतः हल हो जाएंगी।
यदि राष्ट्रों के बीच अहिंसा का भाव जन्म ले तो युद्ध की संभावना ही नहीं होगी। महाविनाश स्वतः टल जाएगा।
सत्य-
अभयम् सत्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानम्,दमः,च,यज्ञः,च,स्वाध्यायः,तपः,आर्जवम् अ०16,श्लोक 1
भय का सवर्था अभाव, अंतकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान, योग में निरन्तर दृढस्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरूजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेदशास्त्रों का पठन पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिए कष्ठ सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।
जहाँ सत्य की ही साधना और उपासना होती है वहाँ भले परिणाम हमारी धारणा के अनुसार न निकले, फिर भी जो अनपेक्षित परिणाम होता है, वह अकल्यााणकारी नहीं होता और कई बार अपेक्षा से अधिक अच्छा होता है।‘
लोकसेवा के माध्यम से सत्य की आराधना की जा सकती है । सत्य एक विशाल वृक्ष है ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है त्यों-त्यों उस पर नए-नए फल आते हैं जिनका कोई अन्त नहीं । सत्य एक ऐसी खान के समान है जिसमें जितना गहरा पैठा जाए उतने ही रत्न गहराई मंे दिखाई देते हैं जिनके आलोक मंे सेवा के नए-नए मार्ग सूझ जाते हैं।
मानवीय मूल्यांे पर पूर्ण आस्था-मन को यदि वश में कर लिया जाए तो दुःखों का स्वतः नाश हो जाएगा
यो न हृष्यति ने द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः।।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता ह,ै न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझको प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदः खेषु समः सग्ङविवर्जितः
जो शत्रु-मित्र मेें और मान अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखदि द्वन्द्वों मंे सम है और आसक्ति से रहित है।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।
जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरूष मुझको प्रिय है।
गाँधी जी ने मित्र और शत्रु दोनों का भेद मिटा दिया। उनका कहना था- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। सम्पूर्ण जीवन त्याग और बलिदान का उदाहरण रहा। गाँधी जी के समय मेे हमारे देश मे अत्याधिक निर्धनता थी, लोगों के पास पहनने को कपड़े तक नहीं थे। चम्पारन में रहकर उन्होंने गरीबी की पराकाष्ठा देख उन्होंने यह व्रत लिया कि जब तक सम्पूर्ण देशवासियों के पास तन ढंकने के लिए वस्त्र नहीं हो जाएगंे वे सिर्फ एक धोती में ही तन को ढकूंगा। देश की आज़ादी के बाद भी उन्होंने कोई पद नहीं लिया। हिन्दु-मुस्लिम एकता, अछतुोद्धार पर जीवन भर निःस्वार्थ भाव से लगे रहे।
उनके मन में किसी प्रकार की कामना नहीं थी, वह प्राणियों के दुःखों का निवारण चाहते थे।
न त्वम् कामये राज्यम् स्वर्गम् न पुर्नभवम्।
कामये दुःख तत्वानां प्राणी नामाशाय नाशनम्।।
गीता में कहा गया है-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मांन सृजाम्यहम्।।
जब जब धर्म की हानि और अर्धम की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
वह परत्रन्त्रा की बेडियों में जकडी मातृभूमि को आज़ाद कराने तथा लोगों के मन में वैचारिक क्रान्ति जगाने आए थे। महात्मा गाँधी के जीवन को यदि हम यूँ कहें कि उन्होंने गीता को चरितार्थ किया तो अतिश्योक्ति न होगी। उनका जीवन दर्शन गीता का दर्शन था।
स्नेह लता
लेखाधिकारी (उ०रे०)
1/309,विकास नगर,लखनऊ
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