शोध की उपाधि को नौकरी से जोड़ना आधुनिक भारत की एक दुर्घटना है. आज का हमारा समय सांस्थानिक अनुसंधान के चरम पतन का दौर है. इस दौर की शुरुआत 1 जनवरी 1986 से हुई जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए नए वेतनमान की घोषणा की और उसी के साथ पी-एच.डी. उपाधिधारी शिक्षकों को तीन अतिरिक्त वेतनवृद्धि की अनुशंसा की. इस तरह पी-एच.डी की उपाधि को पहले वेतनवृद्धि से और बाद में नौकरियों तथा शिक्षकों की पदोन्नति से जोड़कर यूजीसी ने शोधकार्य को महत्व देने का प्रयास तो किया किन्तु उसकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए समुचित दिशा-निर्देश नहीं दिया जिसके दुष्परिणाम कुछ दिनो बाद ही दिखायी देने लगे.
शोधार्थी को आज किसी भी तरह पी-एच.डी. की उपाधि चाहिए क्योंकि बिना उसके नौकरी मिलनी कठिन है और शोध-निर्देशक को भी अपने प्रमोशन में अधिक से अधिक शोध-प्रबंधों के निर्देशन का अनुभव चाहिए. इस तरह शोधार्थी और शोध-निर्देशक दोनो का लक्ष्य जल्दी से जल्दी शोध की उपाधि प्राप्त करना है. शोध की गुणवत्ता उनकी प्राथमिकता नहीं है. इसीलिए आज दोनों ने ही श्रम से पल्ला झाड़ लिया है. दोनों में जैसे गुप्त समझौता हो. कौन सिर खपाने जाय, उद्देश्य तो डिग्री हासिल करना है और उसके लिए श्रम की जरूरत कम, व्यवहार- कुशलता की जरूरत अधिक होती है. किन्तु शोध के पतन की पराकाष्ठा का दौर तो अभी आने वाला है.
यू.जी.सी. के रेगुलेशन 2018, भाग-3, खण्ड-4 के संख्या 3.10 के अनुसार 1 जुलाई 2021 से देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनने के लिए निर्धारित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (NET) की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और पी-एच.डी. की उपाधि मात्र ही पर्याप्त योग्यता मान ली जाएगी. (“The Ph.D. Degree shall be mandatory qualification for direct recruitment to the post of Assistant Professor in Universities with effect from 01.07.2021.”) आज जहां विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के चयन के लिए यूपीएससी जैसे संगठन की जरूरत है वहां ‘नेट’ को भी निष्प्रभावी बना देना प्रमाणित करता है कि शीर्ष पर नीति निर्धारण के लिए किस तरह के लोग विराजमान हैं. मैं यह नहीं कहता कि ‘नेट’ की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले सभी में आदर्श शिक्षक की पात्रता होती है, किन्तु जिन्होंने किसी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है उनकी तुलना में ‘नेट’ उत्तीर्ण करने वालों से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की ही जानी चाहिए.
सच तो यह है कि सभ्यता के विकास में अबतक जो कुछ भी हमने अर्जित किया है वह सब अनुसंधान की देन है और जिज्ञासु मनुष्य, साधनों के अभाव में भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण अनुसंधान से जुड़ा रहता है. जेम्सवाट ने किसी प्रयोगशाला में पता नहीं लगाया था कि भाप में शक्ति होती है और न तो धरती में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का पता लगाने के लिए न्यूटन को किसी प्रयोगशाला में जाना पड़ा था. उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने अभावों में भी उन्हें इतने बड़े सत्य के उद्घाटन के लिए विवश कर दिया.
हिन्दी में अनुसंधान की नींव भी एक विदेशी जिज्ञासु ने अपने व्यक्तिगत प्रयास से सामाजिक दायित्व निभाने के लिए रखी थी, वे थे ‘गार्सां द तासी’. 1839 ई. में फ्रेंच में “ इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐंदुस्तानी” नामक उनकी कृति प्रकाशित हुई थी तथा इसके आठ वर्ष बाद इसका दूसरा भाग प्रकाशित हुआ था. इसकी उपलब्धियां तथा गुणवत्ता विवादास्पद हो सकती हैं किन्तु इसमें हिन्दी- उर्दू के कवियों का परिचय, नवीन तथ्य एवं सूचनाएं अनुसंधापरक दृष्टि की परिचायक है. यह एक व्यक्ति का उपाधिनिरपेक्ष निजी प्रयास है. हिन्दी अनुसंधान के विकास में यह एक महत्वपूर्ण विन्दु है. उन्यासी वर्ष बाद एक दूसरे विदेशी विद्वान ने लंदन विश्वविद्यालय से उपाधि सापेक्ष अनुसंधानकार्य किया. वे थे जे.एन. कारपेन्टर और उनका विषय था ‘थियोलॉजी आफ तुलसीदास’. इस शोधकार्य पर उन्हें 1918 ई. में शोध उपाधि प्राप्त हुई.
हिन्दी अनुसंधान के विकास में राष्ट्रीय और बौद्धिक जागरण का महत्वपूर्ण योगदान है जिसके कारण भारत के बौद्धिक समुदाय में अपनी अस्मिता के प्रति जागरुकता का संचार हुआ. संचार व्यवस्था, रेल संपर्क, छापाखाने आदि भी इसी दौर में विकसित हुए. इससे साहित्य तथा ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में नई चेतना का संचार हुआ. इन घटनाओं से बंगाल का समाज सबसे ज्यादा और सबसे पहले प्रभावित हुआ जिसे हम बंगला नवजागरण के रूप में जानते हैं.
भारतेन्दु और उनके मंडल के लेखक निरंतर बंगाल के संपर्क में रहे. इन सबके परिणामस्वरूप हिन्दी भाषी क्षेत्रों के बुद्धिजीवी भी हिन्दी साहित्य की समृद्ध परंपरा के अनुसंधान की ओर प्रवृत्त हुए. इस अनुसंधान कार्य में विदेशियों ने भी पर्याप्त भूमिका निभाई. ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ तथा ‘माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ नार्दर्न हिन्दुस्तान’ जैसे शोध कार्यों को अंजाम देने वाले सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन किसी विश्वविद्यालय में शिक्षक नहीं, आई.सी.एस. अधिकारी थे.
अनुसंधानपरक आलोचना का व्यवस्थित रूप द्विवेदी युग में सामने आया. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी कृत ‘नैषधचरित चर्चा’ में अनुसंधानपरक समीक्षा का उन्नत स्वरूप ढलता हुआ दिखायी देता है. 1913 ई. में भारत के विभिन्न स्थानों में विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव पारित हुआ और देश के प्रमुख शहरों जैसे लखनऊ, आगरा, नागपुर आदि में विश्वविद्यालय खुलने लगे. कलकत्ता विश्वविद्यालय तो सबसे पहले अर्थात् 1857 में ही खुल चुका था और हिन्दी में एम.ए. की पढ़ाई भी होने लगी थी किन्तु अनुसंधान कार्य बहुत बाद में आरंभ हुआ. अनुसंधानपरक आलोचना में अनुपलब्ध तथ्यों का अन्वेषण और उपलब्ध तथ्यों का नवीन आख्यान होता है. इसलिए यह कार्य कोई भी व्यक्ति किसी संस्था से जुड़कर आसानी से कर सकता है. किसी संस्था से जुड़े बिना अनुसंधान कार्य करना कठिन होता है. इसीलिए विश्वविद्यालयों के खुलने के बाद आरंभिक दिनों में अनुसंधापरक आलोचना के क्षेत्र में तेजी से विकास हुआ.
प्रतिष्ठानिक आधार पर भारत में हुए अनुसंधान-कार्य की परंपरा के विकास में 1931 ई. महत्वपूर्ण है. इसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से बाबूराम सक्सेना को उनके ‘अवधी का विकास’ अनुसंधान कार्य पर डी.लिट्. की उपाधि मिली. 1934 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल को ‘दि निर्गुण स्कूल आफ हिन्दी पोयट्री’ पर डी.लिट्. की उपाधि मिली. भारत में हिन्दी भाषा पर भाषावैज्ञानिक अनुसंधान कार्य से भाषानुसंधान परंपरा का आरंभ हुआ और कुछ वर्ष के भीतर ही साहित्य के विभिन्न पक्षों पर अनुसंधान कार्य सामने आने लगे और इस तरह अनुसंधान के विषयों में तेजी से विस्तार होने लगा. इसी अवधि में स्वैच्छिक साहित्यिक संस्थाओं की प्रकाशन योजना में, उनकी सहायता से वैयक्तिक स्तर पर हो रहे अनुसंधान-कार्य भी सामने आने लगे. इस तरह हिन्दी में अनुसंधान- कार्य का अतीत बहुत ही उज्वल दिखाई देता है किन्तु जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है जबसे शोध की उपाधि को नौकरी और पदोन्नति से जोड़ा गया, शोध का अवमूल्यन शुरू हो गया.
वैश्वीकरण के बाद अनुसंधान के क्षेत्र में और भी तेजी से गिरावट आई है. अब तो हमारे देश की पहली श्रेणी की प्रतिभाएं मोटी रकम कमाने के चक्कर में मैनेजर, डॉक्टर और इंजीनियर बनना चाहती हैं और जल्दी से जल्दी विदेश उड़ जाना चाहती हैं. किसी ट्रेडिशनल विषय में पोस्टग्रेजुएट करके शोध करना उन्हें नहीं भाता. जो डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाते वे ही अब मजबूरी में शोध का क्षेत्र चुन रहे हैं. वैश्वीकरण और बाजारवाद ने नयी प्रतिभाओं का चरित्र ही बदल दिया है. अब “सादा जीवन उच्च विचार” का आदर्श बेवकूफी का सूचक है. ऐसे कठिन समय में त्यागपूर्ण जीवन का आदर्श चुनना आसान नहीं है. उत्कृष्ट शोध में यह आदर्श अनिवार्य है.
यद्यपि देश भर के विश्वविद्यालयों और निष्ठावान शोध- निर्देशकों में इस विषय़ को लेकर भयंकर असंतोष है, पर प्रतिक्रियाएं बहुत कम देखने को मिलती हैं. देश भर की शिक्षण संस्थाओं और शोध-केन्द्रों में साहित्य की विभिन्न विधाओं पर प्राय: सेमीनार-संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं, किन्तु शोध जैसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण विषय की समस्याओं पर केन्द्रित किसी संगोष्ठी के आयोजन की सूचना कभी- कभी ही मिलती है.
हिन्दी जगत की दशा तो यह है कि शोध के नाम पर जमा किए जाने वाले ज्यादातर प्रबंध या तो दस बीस पुस्तकों से उतारे गए उद्धरणों के असंबद्ध समूह होते हैं या निजी स्वार्थ की सिद्धि के लिए ऊंचे पदों पर आसीन आचार्यों या साहित्यकारों के गुणगान. गुणवत्ता की कसौटी पर खरा उतरने वाले प्रबंध यदा- कदा ही देखने को मिलते हैं. आखिर क्या कारण है कि शोध के लिए आधुनिक साहित्य ही आजकल शोधार्थियों और निर्देशको को अधिक आकर्षित कर रहा है ? और उसमें भी जीवित और रचनाकर्म में रत रचनाकारों पर धड़ल्ले से शोध कार्य सम्पन्न हो रहे हैं. जबकि राजस्थान के जैन मन्दिरों तथा प्राच्य विद्या संस्थान की शाखाओं, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, नेशनल लाइब्रेरी कोलकाता, एशियाटिक सोसाइटी कोलकाता आदि में हस्तलिखित ग्रंथों का अम्बार लगा हुआ है जो अनुसंधुत्सुओं की प्रतीक्षा कर रहा है. बहुभाषा भाषी इस विशाल देश की विभिन्न भाषा- भाषी जनता के बीच सांस्कृतिक व भावात्मक संबंध जोड़ने के लिए तुलनात्मक साहित्य में शोध की असीम संभावनाएं व अपेक्षाएं हैं. लोक साहित्य, भाषा विज्ञान, साहित्येतिहास आदि के क्षेत्र में शोध की महती आवश्यकता है. किन्तु आज तीन चौथाई से अधिक शोध- छात्र आधुनिक काल और उसमें भी कथा -साहित्य पर ही शोध-रत हैं.
मेरे कहने का यह तात्पर्य हर्गिज नहीं है कि हमारे आज के साहित्य पर शोधकार्य नहीं होना चाहिए. आज के साहित्य, समाज और राजनीति को समझे बगैर हम अपने अतीत के साहित्य, समाज, राजनीति और इतिहास का वस्तुनिष्ठ मूल्याँकन कर ही नहीं सकते. किन्तु आज के साहित्य पर शोध करने और कराने वालों के इरादे तो नेक होने ही चाहिए.
शोध के गिरते स्तर का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आज अधिकाँश प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में बहुतेरे शोध छात्र ऐसे लेखकों पर शोधरत हैं जिनके लेखन में अभी असीम संभावनाएं हैं. किसी भी बड़े लेखक की विचारधारा में लगातार परिवर्तन होता रहता है. लेखक जड़ नहीं होता और अध्ययन- चिन्तन- मनन के क्रम में उसकी अवधारणाओं के बदलते रहने की प्रचुर संभावनाएं होती है. इसलिए शोध जैसा गंभीर कार्य उसी साहित्यकार पर होना चाहिए जिसका लेखन या तो पूरा हो चुका हो या पूरा होने के कगार पर हो. तात्पर्य यह कि उसमें अब किसी परिवर्तन की या नया जुड़ने की संभावना न हो क्योंकि किसी साहित्यकार पर शोध करने का अर्थ है उसके ऊपर एक थीसिस या सिद्धांत दे देना और उसपर शोध उपाधि प्राप्त कर लेना. ऐसी दशा में यदि किसी शोधार्थी ने किसी जीवित और सृजनरत रचनाकार पर शोध कार्य पूरा करके उसपर एक थीसिस दे दिया और बाद में वह लेखक अपनी किसी नयी कृति में एक नई और पहले से भिन्न विचारधारा प्रस्तुत कर दी तो पहले के किए हुए शोध- कार्य का क्या होगा ? क्योंकि अब तो उस व्यक्ति की विचारधारा पहले वाली नहीं रही.
इतना ही नहीं, आज हिन्दी में शोध- कार्य की दशा यह है कि बिना जे.आऱ.एफ. (जूनियर रिसर्च फेलोशिप) किए शोध में पंजीकरण बहुत कठिन है. शोध के स्तर को बनाये रखने के लिये यूजीसी समय- समय पर नियमों में तरह- तरह के संशोधन करता रहता है. उन्ही में से एक यह भी है कि अब एक आचार्य स्तर का शोध- निर्देशक भी एक साथ आठ से अधिक शोधार्थियों को शोध नहीं करा सकता. इतना ही नहीं, विश्वविद्यालयों को शोध के लिए खाली हुई रिक्तियों के लिय़े परीक्षाएं लेनी पड़ती हैं. इन सबका प्रभाव यह हुआ है कि शोध के लिए जगहें बहुत कम हो गई हैं और जे.आर.एफ. पाने वालों के भी पंजीकरण अब मुश्किल से हो रहें हैं. अब हिन्दी में फल -फूल रहे इस गोरख-धंधे पर विचार कीजिए कि एक जे.आर.एफ. पाने वाला शोधार्थी पाँच वर्ष तक के लिए पंजीकृत होता है और इस अवधि में उसे लगभग 18-20 लाख रूपए शोध- वृत्ति के रूप में मिलते हैं और उसका शोध -निर्देशक उससे अपने किसी प्रिय या आदरणीय लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध के नाम पर अभिनंदन ग्रंथ लिखवाता है और पी-एच. डी. की डिग्री भी दिलवाता है, ताकि उससे भी वह अपने बारे में प्रशस्ति या पुरस्कार आदि का जुगाड़ कर सके.
इधर जब से शोध को उपाधि से जोड़ा गया और उपाधि को नौकरी से, तब से ऐसी शोध- पत्रिकाएं भी बड़ी संख्या में निकलने लगी हैं जहाँ शोध-पत्र, गुणवत्ता के आधार पर कम, ‘अर्थ’ के बल पर अधिक प्रकाशित होते हैं.
शोध में तटस्थता अनिवार्य है. क्या किसी जीवित और समर्थ रचनाकार पर शोध करने वाला व्यक्ति उसकी कमियों को रेखांकित करने का साहस कर सकेगा ? शोध- वृत्ति के रूप में जो 18-20 लाख रूपए शोधार्थी को मिलते हैं वह जनता की गाढ़े की कमाई का ही हिस्सा है जो सरकार के खजाने में जाता है और जिसे शोध-वृत्ति के रूप में सरकारें प्रदान करती हैं. मेरे संज्ञान में ऐसे अनेक पंजीकृत शोधार्थी हैं जो इस तरह से सरकार से धन लेकर अपने शोध- निर्देशकों के मित्रों अथवा शुभचिन्तकों का जीवनवृत्त रच रहे हैं.
आम तौर पर सुनने को मिलता है कि अब विश्वविद्यालय विद्वानों से खाली होते जा रहे हैं. पहले जैसी स्थिति नहीं रही. मुझे भी लगता है कि विश्वविद्यालयों में नियुक्ति के लिए शोध उपाधि जब जरूरी नहीं थी तबके नियुक्त शिक्षकों नें उच्च कोटि के शोध-कार्य भी किए और अध्यापन भी. हमारे कलकत्ता विश्वविद्यालय की पहचान जिन अध्यापकों के नाते है उनमें से प्रमुख दो- प्रो. कल्याणमल लोढ़ा तथा प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री, पी-एच.डी. नहीं थे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम.ए. हिन्दी का पाठ्यक्रम बनाने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल बी.ए. पास भी नहीं थे.
आज की दशा यह है कि औसत दर्जे के लेखक भी अपना परिचय लिखते समय यह उल्लेख करना नहीं भूलते कि उनकी रचनाओं पर किन -किन विश्वविद्यालयों में शोध हो चुके हैं या हो रहे हैं. अब यह भी उनकी योग्यता का एक पैमाना मान लिया गया है. किन्तु चरम पतन का दौर तो अब आने वाला है, 1 जुलाई 2021 से. जब बिना ‘नेट’ पास किए ही अपने बाहुबल अथवा दूसरे संसाधनों के बल पर पी-एच.डी की उपाधि हासिल करके औसत दर्जे से नीचे के लोग भी विश्वविद्यालयों में शोध और प्रोफेसरी करेंगे.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)
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