(1)कविता...
नदी का सवाल..
नदी पूछ रही है
कि जिस तेजी से मैं सूख रही हूं
तुम कहां जाओगे
जब तुम्हें करना होगा
अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार!
नदी पूछ रही है कैसे होगा
तुम्हारे पूर्वजों का तर्पण
जब गया के घाट सूख जाएंगे!
तब कैसे चुकाओगे अपने
पूर्वजों का ऋण भार!
नदी पूछ रही है कैसे होगी
गंगा की आरती
मणिकर्णिका घाट पर
जब मैं सूख जाऊंगी ?
कि कैसे जलेंगें
मेरे तट पर लाखों दिए
जब मैं सूख जाऊंगी!
कि नदी पूछ रही है
कि जब मैं सूख जाउंगी तो
तो कैसे दोगे चैती और कार्तिक
छठ पर्व में अर्घ्य !
नदी पूछ रही है
फिर कहां विसर्जन करोगे
अपनी पूजा की मूर्तियां !
सोच लो, अभी भी वक्त है!!
(2) कविता...
जब जंगल नहीं बचेंगें.....
हम कैसा विकास कर रहें हैं?
जहां अब हवा भी साफ नहीं है!
जहां नदियों की छातियां सूख गई हैं !
कि जहां पहाड़ हो रहें हैं खोखले!
और काटे जा रहे हैं लाखों
लाख पेंड!
नदियां व्यथित है !
मानव - मलमूत्र और
कारखानों के कचरे को
ढोकर !
दामोदर की वनस्पतियों
और जडीबूडियों में
समा गई हैं जहरीली बारूदी
गंध !
कारखानों से निकलने वाले
बारुदी कचरे से
मछलियाँ त्याग रहीं है जीवण!
आखिर कैसा भविष्य गढ रहें हम
जहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं
कि जहाँ नहीं बचने वाले पोखर
और तालाब!
कि जहाँ शहर बसाने
के लिए गाँव तबाह
किए जा रहें हैं!
सोचो हम किस तेजी से
कंक्रीट के जंगलो की
ओर बढ़ रहें हैं !
जहाँ न कल खेत बचेंगें ,
न चौपाल, न नदी ना तालाब
न ही होंगें झरनें!
फिर कहां करेंगे वनभोज,
कहां गाने जाएंगे चैता और कजरी
कहां होगी फागुन के गीतों की बयार!
फिर, चित्रकारों के चित्रों
में ही रह सिमट कर रह जाएंगे
गांव, पहाड़, नदियाँ और झरनें और
तालाब!!
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(3)कविता..
भूख कि जाति क्या है...
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पूछो सवाल उनसे जो हमें
आपस में लडवाते हैं !
पूछो सवाल उनसे कि भूख की जाति
क्या है?
और पसीने की जाति क्या है ?
और, क्या होती है खूशबू की जाति?
क्या होती है बारिश के बूंदों की जाति ?
और, दर्द की जाति क्या होती है ?
फिर, दुख की जाति क्या है ?
और क्या है होती है प्रेम की जाति ?
(4) कविता...
प्रेम-1
स्त्री से करने के
लिए प्रेम को एकांत
चाहिए होता है!
समर्पण ही होती है
प्रेम की
पहली और आखिरी शर्त!
खंडहरों और किलाओं में भी
सृजित होता है प्रेम!
प्रेम में इंतजार का भी
एक अलग ही
होता है सुख !
प्रेम होने के बाद
जीवण से बुहरने लगते हैं दुख !
जब झड़
जाते हैं
जीवण रुपी
पतझड़ में
पेडों की शाखों से पते!
और, जीवण लगने लगता है
कुंभलाने !
तब,
प्रेम होने का मतलब होता है
जीवन में वसंत का आना !
(5) कविता..
प्रेम-2..
प्रेम चाहिए होता है
गाय से लेकर कुत्ते तक
को !
एक रोटी रोज खाकर दौडने
लगता है!
हमारे पीछे-पीछे कुत्ता!
एक रोटी रोज देने से
गैया भी हक जताकर
ठेलने लगती है
हमारे घर के दरवाजा!
आखिर, कौन होता है
इन सबके पीछे!
जो दिलाने लगता है
उनको ये अधिकार!
कि कैसे रोज कबूतर दाना
डालने वाले को देखकर
गूटर-गूं, गूटर-गूं करने
लगता है!
कि तोते अपने मालिक
को देखकर मीठु- मीठु
चिल्लाने लगता है!
केवल खाने के लिए नहीं !
क्योंकि प्रेम के अदृश्य धागे से
बंध जाते हैं वो हम- सब!
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कविता..
स्त्री और नदी....
स्त्री बाल्यकाल में
नदी की तरह होती है
चंचल !
थोडा़ आगे बढने पर
स्त्री पकडती है
नदी की तरह गति !
किशोर वय तक आते
ही नदी में उठने
लगते हैं तूफान!
युवा होते- होते
नदी में उठने
लगता है उफान
नदी और स्त्री दोनों
अब अल्हड हो जाती हैं !
नदी की तरह
स्त्री के भाव भी
गहरे होते हैं!
स्त्री अपने दुःखों को
औरों से छुपाती है
नहीं कहती सबसे
अपने मन की बात!
एक लोक कथा के
अनुसार, स्त्री के
आंसुओ
से ही बनी थी नदी..!
महेश कुमार केशरी
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