तपती,झुलसाती तीखी धूप,
और सामने अंधेरा घुप।
बौराये आम, गर्मी में मन भी बौराया।
घर जाने को सड़क नापना,
मेरे हिस्से आया।
दो जून की रोटी पाने, विस्थापन था!
भूखे पेट अंतड़िया सुनती
पास जो मेरे ज्ञापन था।
मिलों पार खड़ा मेरा घर
आवाजे देता मुझको,
वादा करके आया था मैं,
चोखट,दरवाजों, छप्पर,
बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों से।
पापी पेट की भूख मिटाने
भेजता रहूंगा, पैसे, जैसे-तैसे
लेकिन अब नही काम बनता
क्या लिखा तूने ओ नियंता?
पसीने की बूंदे बेचकर...
कमा लेता था कुछ रुपया
क्या यह समय की त्रासदी,
अब पसीने का मोल नहीं..!
पसीना तो अब भी बह रहा है...
मिलों सड़क नाप कर घर जाने में।
क्यों, इतना मजबूर हूँ..?
क्योकि शायद..
मैं मजदूर हूँ।
©डॉ. मोहन बैरागी
ISSN : 2349-7521, IMPACT FACTOR - 8.0, DOI 10.5281/zenodo.14599030 (Peer Reviewed, Refereed, Indexed, Multidisciplinary, Bilingual, High Impact Factor, ISSN, RNI, MSME), Email - aksharwartajournal@gmail.com, Whatsapp/calling: +91 8989547427, Editor - Dr. Mohan Bairagi, Chief Editor - Dr. Shailendrakumar Sharma
Friday, May 22, 2020
मैं मजदूर हूँ।
Aksharwarta's PDF
-
मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | पुस्तक समीक्षा: डॉ श्वेता पंड्या | मालवी भाषा एवं साहित्य के इतिहास की नई भूमिका : लोक ...
-
सारांश - भारत मेे हजारों वर्षो से जंगलो और पहाड़ी इलाको रहने वाले आदिवासियों की अपनी संस्कृति रीति-रिवाज रहन-सहन के कारण अपनी अलग ही पहचान ...
-
हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र भारतेंदु हरिश्चंद्र “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल” अर्थात अपनी भाषा की प्रगति ही हर...
No comments:
Post a Comment