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Thursday, May 7, 2020

परंपरागत गोदना प्रथा _अतीतसे आज तक

परंपरागत गोदना प्रथा _अतीतसे आज तक


(श्रीमती आशा रानी पटनायक)


प्राचीन संस्कृति केविद्वानों का मानना है कि गोदने की प्रथा अत्यंत प्राचीन है।भारत के संपूर्ण आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्र में गोदना शारीरिकअलंकरण के रूप में विद्यमान हैं।छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्र में बसने वाली कृषक एवं दस्तकार जातियों में भी गोदने का प्रचलन व्यापक रूप से प्रचलित था। व्यवहारिक तौर पर आजकल गोदने की प्रथा बंद सी हो गई है। जिसका स्थान टैटू ने ले लिया है।   ग्रामीण तथा शहरी जनताअब इस पुरानी पद्धति को उतना अधिक पसंद नहीं करती हैं यद्यपि टैटू यानी गोदना करवाने की आधुनिक तकनीकी से अस्थाई रूप से गोदना करवाने कीकी विधि आने से आज फैशन के तौर पर युवा वर्ग इसका उपयोग कर रहा है।“भारतीय लोक संस्कृति में तिल औरगुदनायह दोनों ही सौंदर्य के प्रमुख उपादान माने गए हैं। इनसे सुंदरता में पर्याप्त अभिवृद्धि होती है तथा यह ही खूबसूरती के सागर में ऐसा अनोखा तूफान लाते हैं जिससे सौंदर्य प्रेमियों के सरस मानस में कभी आसानी से बेचैनी उत्पन्न हो जाती है तो कभी सलोनी रमणियत|से ईठलाने लगती है”|1


छत्तीसगढ़ राज्य जनजाति बाहुल्य राज्य है सरगुजा और बस्तर अंचल की जनजातियों में गोदना अधिक देखने को मिलता है। हिंदू धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदना प्रथा आदि काल से प्रचलित है। यह प्रथा धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तथ्यों से जुड़ी हुई है।गोदना शब्द का शाब्दिक अर्थ चुभानाहै।शरीर में सुर चुप कर उसमें काले या नीले रंग का लेप लगाकर गोदना कलाकृति बनाई जाती है। इसे अंग्रेजी में टैटू कहते हैं। कहीं-कहीं इसे गुदना नाम से भी जाना जाता है।


“एक ऐसी अलंकरण प्रणाली का नाम गोदना है, जिसका संबंध सीधे लोक संस्कृति से जुड़ता है। जहां त्वचा चित्रांकन का नाम गोदना है वही त्वचा चित्र को भी गोदना ही कहते हैं। गोदना शब्द के कई अर्थ होते हैं। चुभाना या गढ़ानाकिसी कार्य के लिए बार-बार जोर देना, चुभतीयालगती हुई बात कहना, ताना मारना, नीलिया कोयले के पानी में सुई को डुबोकर शरीर को विविध प्रकार से चिन्हित करना और गोदने से बनी आकृति।मुहावरे की भांति प्रयुक्त होने वाले इस क्रियार्थकसंज्ञा शब्द का महत्व ना केवल भारत मे अपितु संसार के विभिन्न मानव कुटुंब में भी प्राचीन काल से लेकर आज तक निरंतर प्रतिपादित होता आ रहा है। शिक्षित अशिक्षित ग्रामीण शहरी समस्त परिजनों के शरीर को गोदना अलंकृत करता आ रहा है।“2


गोदना प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्री कृष्ण गोदनेवाले का रूप धारण करके राधा को गोदना गोदने गए थे। यह बताना कठिन है कि इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई होगी। ऐसा मालूम पड़ता है कि इस प्रथा की शुरुआत अपने कुनबे की पहचान के लिए हुई होगी। यही कारण है कि हिंदू धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदना प्रथा का प्रचलन है। अपने हाथों में नाम लिखवाना या कोई धार्मिक शब्द लिखवाना इस प्रथा को बल देता है।कहीं जगह उल्लेख मिलते हैं कि ईसासे1300 साल पहले मिस्र में गोदना गोदा ने की प्रथा प्रचलित थी।1300इसवी पूर्व ही साइबेरिया में भी गोदना का प्रचार था।54 ईसा पूर्व रोमन सम्राटजूलियस सीजर ने जब जब ब्रिटेन पर आक्रमण किया था तब उसने लिखा था कि ब्रिटेन वासी गोदना गोदवा ते हैं।अनेक विश्वविख्यात लोगों ने अपने शरीरों पर गोदना गोदवाऐ  थे|अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने दी अपनी शरीर को गोदना से सजाया था और डेनमार्ककि राजा ने अपने शरीर पर 500 गोदने गोदवाऐहै।अमेरिका के न्यू जर्सी के नॉर्थ प्लेन फील्ड नगर के निवासी वाल्टरस्टिगलिटजनामक एक व्यक्ति ने तो गोदने के प्रति ऐसी रुचि दिखाई कि उसके शरीर पर सन 1979 में 5458गोदनेखुदवायेथे|


“आर्यन चिराग के अनुसारटैटू दुनिया भर में मानव इतिहास में बहुत पहले से जाना जाता था।जापान में टैटू अन्य देशों की तुलना में काफी बाद मेंआया।जापान में इसका चलन 1603 से 1868 केबीचमिलता है। यहां निम्न दर्जे के लोग ही टैटू बनाया करते थे ताकि सामाजिक पहचान कायम रह सके फिर 1720 से 1870के मध्य कुछ जापानी अपराधियों में भी कानून टैटू बनाए जाने लगे ताकि उनकी पहचान हो सके।“3


अपराधियों के पहचान के लिए उनकी कलाइयों पर रिंग बनाकर सजा खत्म होने की निशानी थी अगर वह व्यक्ति दोबारा फिर से अपराध करता था तो उसके कलाइयों पर फिर से रिंग बना दिया जाता था।फिलीपींस में तो टैटू रंग और उपलब्धियों के चिन्हथे और वहां के लोगों का मानना था कि उनके पास जादूई गुण है।भारत देश की बात की जाए तो गोदना सिंधु घाटी सभ्यता के बाद आर्य लोगों के आगमन के बाद माना जाता हैइसके पीछेगलतियां प्रचलित है जब आर्य लोग भारत में आक्रमण किए यहां के मूल निवासियों पर अत्याचार किए साथ ही साथ यहां के मूल निवासियों के महिलाओं के साथ में दुराचार भी करते थे और दूसरी ज्यादा सुंदरस्त्री होती थी उसे अपनी पटरानी बनाने के लिए ले जाते थे इससे परेशान होकर यहां के मूल निवासी अपने स्त्रीयों को कुरूपदिखानेकेलिए इसलिए उनके शरीर में वहगोदनागुदानाशुरू कर दिए ताकि किसी महिला को आर्य लोग अपने साथ नले जाएं | धीरे-धीरे सभी वर्गों और जाति के सांस्कृतिक धार्मिक और सामाजिक पक्ष में जुड़ गया|


गोदना सौंदर्य वृद्धि का तो एक विशिष्ट साधन माना ही गया है लेकिन इसके साथ कई पुरातन मान्यताएं , लोक विश्वास काकुल देवी देवता प्रतीक आज भी संबंध रखते हैं।कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि गोदना का प्रचलन अनुसूचित जातियों में ही है पर ऐसी बात नहीं है।विदेशों में भी इस अलंकरण की उपेक्षा नहीं कर सका। कई स्थानों पर तो विधवा स्त्रियों के कपाल पर भी घोषणा कर दिया जाता था ताकि यह पहचान में आ सके कि यह स्त्रीविधवा है।गोदना अलंकरण से लोग जीवन के निर्धारण में जुड़ी हुई है।इसे ऐसा अलंकरणमाना जाता है जो शरीर के साथ ही जाता है।सोना चांदी पीतल तांबा तथा अन्य रत्ना आभूषण मनुष्य के साथ नहीं जाते हैं बल्कि यही गोदना इनके साथ जाता है फिर गोदने को ना कोई चुरा सकता है ना कोई ले जा सकता है ना उतार सकता है ना कोई अपना हिस्सा मांग सकता है। इतने सस्ते में इतना स्थाई आभूषण गोदना के सिवाय संसार में और कोई दूसरा अलंकरण हो ही नहीं सकता।लोक मान्यता के अनुसार टोने टोटके और भूत प्रेत आदि से बचाव के लिए गोदना को जनजातीय समाज में रक्षा कवच की तरह अनिवार्य माना जाता है।लोग मान्यता के अनुसार गोदना नहीं गोदनेपर मरने के बाद यमदूत ऊपर पूर्व में सब्बल के साथ गोदते हैं| जनजातियों मेंयह कथा प्रचलित है कि गोदने जिंदगी में अच्छा साथी दिला कर धरती पर स्वर्ग लाते हैं और मरने पर यमराज की आत्मा से बचाते हैं।


“बस्तर अंचलमेयहपरंपराहैकिसमस्त जनजातियों में विवाह से पूर्व ही लड़कियों को गोदना गोदा देने का रिवाज है। 5 वर्ष की आयु से लेकर 12 वर्ष की आयु तक गोदना गोदा ले ना अति आवश्यक होता है क्योंकि इन जनजातियों में प्राया 12 वर्ष के बाद लड़कियों को विवाह बंधन में बांध दिया जाता है।यदि 12 वर्ष की आयु तकलड़कियों का गोदना नहींगुदाया जाता है तो लड़की के माता पिताको इसका प्रायश्चित करना पड़ता है।इस प्रायश्चित के रूप में उन्हें जातीय भोज खिलाने का दंड देना पड़ता है। कभी-कभी कन्या के ससुराल वाले ही गोदना गोदा कर अपने सगे संबंधियों को खिलाने की प्रथा पूरी कर लेते हैं।जातीय पंचायतइस प्रथा को गंभीरता से लेती है।किंतु अब ऐसा ही मान्यता है धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं क्योंकिलोकांचल की मानसिकता युवा चेतना से अधिक प्रभावित हुई है जबकि संसार केअन्य देशों मेंगोदने का मशीनीकरण हो चुका है|गोदने ले के लिए प्रत्येक वर्ष शरद काल मेंगोदना गोदने का काम अक्सर कंजर ,बंजाराऔर देवार जातियों की स्त्रियां इस काम को करती हैं।इस काम को करती है।कभी-कभी गांव की कोई गांव की कुछ स्त्रियां भी स्त्रियां भी गोदना गोदने की कला में निपुण होकरआवश्यकता अनुसार समय-समय पर गोधनी का काम करती है। बस्तरिया जनजाति में एक विचित्र बात यह है कि बस्तर के राजा मोरियाभतराऔरहलवाजनजातिकी महिलाओं में प्रारंभ से ही गोदना के प्रति कोई खासरुचि दिखाई नहीं पड़ती है|बस्तरकी हरिजन व पिछड़ी जातियों में भीगोदनाके प्रति उतना रुझान नहीं देखा गया है।,जनजाति परिवार में उन्हीं के बीच के निपुण स्त्री पुरुष भी गोदनेका काम करते आ रहे हैं।गोदना गोदने वाली स्त्रियों को गांव में बड़े आदर के साथ में निमंत्रण देकर उन्हें बुलाया जाता है और उनसे गोदना गोदवा ते हैं काम हो जाने के बाद महिला को मुंह मांगा पारिश्रमिक और अन्न वस्त्र मुर्गा देकर प्रेम से विदा करते हैं|”4


गोदनेके लिए स्याही खुद बनाकर लाती हैंसुईभीरखती है जिससे छेद करने के बाद से ही लगा देती हैंगोदने में थोड़ा दर्द होता है पर बाद में ठीक हो जाता है।गोदना गोदने की प्रथा की दर पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही है।बोलना जिस उपकरण से बनाया जाता है उसे सुई या सुआ कहा जाता है।तीन या चार सुईकोविशेष ढंग से सरसों के तेल में चिकनेकिए जाते हैं|जिसेचिमटी कहा जाता है।काजल बनाने की विधि को काजल बिठाना कहते हैं।काजल बनने के बाद किसे पानी में खोल दिया जाता है फिरगोदना बनाने की शुरुआत की जाती है। स्त्रियां दोनों पांव में अंगूठे से लेकर छोटी उंगली तक तीन स्थानों मेंतीन-तीन दिन में लग जाती हैं। एड़ी के ऊपर चारों ओर तीन-तीन दिन में लगाए जाते हैं दोनों हाथों में हथेली के पीछे तीन बिंदु वाले निशान व अंगूठे के नीचे बिच्छू का निशान बनवाया जाता है। कलाई के चारों और कोहनी के नीचे बाजू में थोड़ी थोड़ी दूर पर त्रिभुज आकार में निशान लगाए जाते हैं। बाजू के ऊपर एक  आकृति बनाई जाती है उससे ऊपर ठीक कंधों के नीचे भुजा में फिर त्रिभुजाकार के किए जाते हैं। स्त्रियां बाजार में आती हैं और पति का नाम तथा सीताराम आदिलिखवाति हैं|”कालाहांडी निवासी पानो नामक महिला से साक्षात्कार करने पर ज्ञात हुआ किदुनिया में सब कुछधरा का धरा रह जाता है सिर्फ एक गोदना उनके तन के साथ परलोकजाताहै|गोदेने के लिए आजकल मशीनों का प्रयोग आरंभ हो गया है ,पर गांव में अभी भीतोरई के पत्ते का रस या धतूरे का दूध तथा काजल अंग पर लगाकर सुई द्वारा निरंतर गोदने से उस स्थान पर चिन्ह बन जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार के पत्तों का रस भी काम में लाया जाता है। अंग पर वही वस्तुएं प्राया अंकित की जाती हैं जिनका जीवन से सीधा संपर्क होता है,लोग विश्वास के संबंध में यह धारणा प्रचलित है कि जो बालक चलने आदि में कमजोर होता है उसकी जांघ या उसके आसपास गोदने से वह चलने दौड़ने में पूर्ण सक्षम हो जाता है। यद्यपि यह सौंदर्य वर्धक अवश्य है फिर भी आदिवासी समुदाय के ऊपर अश्व तथा अन्य चिन्हों को गुदवाते हैं और इस प्रकारअपने कुल देव घोड़ा देव के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं। कुछ जनजातियां देवताओं के प्रति आस्था अभिव्यक्त करती रहती हैं। हलवा बनवासी पुत्री के विवाह के पूर्व उनके शरीर को गोदवाना अनिवार्य समझते हैं।“5


बस्तर में लोक जीवन से जुड़े गोदनेके अंतर्गत बिंदिया और खड़ी बड़ी रेखाएं ही अलग-अलग नामों वाली अलग-अलग आकृतियां तैयार करने के काम आती है। यह गोदने संपूर्ण नारी  के विभिन्न अंगों पर अंकित मिलते हैं आदिम प्रजातियों में विशेष रूप से चेहरे पर गोदने अधिक दिखाई देते हैं।“लाला जगदलपुरीनेबस्तर इतिहास एवं संस्कृति में लिखा है कि बस्तर के घोटूल मोरिया समाज की मोटियारिनऔरबेलोसायह बातों में पहले इस अलंकरण प्राणी का प्रचलन अधिक था। कपाल पर बीचटीका| टीके के दोनों ओर सात_सात. खड़ी रेखाएं। नाक पर भी खड़ी रेखाएं और तीनतीनचारचारबिंदिया|बाहों में तथा कलाइयों और हथेलियों के ऊपरी भाग पर भी आजू-बाजू दोदोऔर ऊपर ऊपर एकएकबिंदिया|बस्तर अंचल की अन्य जनजातियों की कतिपय स्त्रियों में भी गोदने के लगभग ऐसे ही निशान पाए जाते हैं”|6


बस्तर संभाग के अंतर्गत कांकेर जिला की आता है। कांकेर जिला का संबंध छत्तीसगढ़ी संस्कृति से जुड़ा हुआ है इसलिए वहां का गोदना वहां की तरह चलता है। मच्छी अर्थात(मक्खी) पयंड़ी (पायल) खाड़ू, बांहचेला, सूता,हम सूली आदि नामों के गोद में कांकेर जिले के लोग जीवन में प्रचलित हैं। कोहनी पर मक्खी अंगूठे के पास बिच्छू पंजे पर खारु उसके ऊपर पैरी बांहों पर वह आटा और छाती पर सुताके गोदने वो दे जाते हैं। यह सारे गोदने रेखाओं और विधियों के माध्यम से ही चिन्हित किए जाते हैं।


“गोदना को अंग्रेजी में टैटू कहते हैं। कहते हैं कि अंग्रेजी का यह टैटू शब्द चाहती शब्द से बना हुआ है क्योंकि प्रशांत महासागर में स्थित चाहती थी उसके निवासियों में इस अलंकरण शैली का अत्यधिक प्रचलन है वहां के लोग मानव आकृतियां और दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं की आकृतियां अपने पैरों पर बड़े चाव से बोलते हैं परंतु भारत में गोधा शब्द स्वयं अपने आप में सार्थक है।“7


छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासी मुख्यतः जिन जड़ी बूटियों का उपयोग करते हैं उनमें , बांस पिहारी, वन अदरक कामा तेलिया कंद, वन प्याज ,सिंघाड़ा  ,काली हल्दी ,तिखूर,बैचांदी, आदि प्रमुख हैं। इन्हीं जड़ी बूटियों के सहारे बैगा युवक अपने शरीर की सुंदरता के लिए गुदना गुदवा ते हैं। बैगा युवतियां गुदना गुदवा ने के लिए वीजा वृक्ष के रस, राम तिला के कागज में 10_12 के समूह को डुबोकर शरीर की चमड़ी में चुभोकरकीजाती है। खून बहने पर रमतिला का तेल लगाते हैं इनकी ऐसी धारणा है कि गुदना गुदवा ने से गठिया बातया चर्म रोग नहीं होते।गोदने की सुई को सबसे पहले गर्म पानी से धोया जाता है और उसे कीटाणु रहित किया जाता हैकहीं-कहीं कीटाणु रहित करने के लिए गोबर का भी उपयोग किया जाता है। उसके पश्चात सैमी रंग और कोयले के रंग का उपयोग भी किया जाता है।“हल्दी भरतरी और छत्तीसगढ़ी में प्रथम बार केसुई संचालन को‘मूंडी'कहां जाता है। दूसरी बार के सुईचालन को'दूसड़ा' कहा जाता हैतीसरी बार के संचालन को छड़िया कहा जाता है|मुंडी दूसरा और छड़िया ना निश्चित ही मुसल और ढेकी द्वारा धान कूटने की प्रक्रिया से आए हैं।“8 गोदना गोद लेने के पश्चात गोदने वाली महिला अरंडी के तेल के साथ पिसी हल्दी का लेप या सरसों तेल के साथ पिसी हल्दी का लेप गोदना चिन्हों पर लगाकर रहने कापरामर्श दिया जाता है।जिससे घाव शीघ्र हीभारजाते हैं और नारी अपने गोदना से हुई को भूल जाती है। गोदना केआकर्षक चिन्ह नारी ह्रदय  को प्रसन्नता से भर देते हैं।गोदना जितना आकर्षक और खूबसूरत है इतना ही नुकसानदायक भी है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शरीर विज्ञान विभाग द्वारा किए गए शोध अध्ययन से यह पता चला है कि गोधना के कारण त्वचा और हड्डी के कैंसर की संभावना बढ़ती है। इससे कई चर्म रोग पैदा होते हैं। फिलहाल गोदना से होने वाली कैंसर पर शोध कार्य अभी जारी है।सुई द्वारा शरीर पर किया जाने वाला गोदना कुष्ठ रोग के फैलने का प्रमुख कारण हो सकता है।कुष्ठ रोग कीव्यापक प्रभाव वाले राज्यों में शामिल छत्तीसगढ़ को आधार मिल रहा है कि शरीर की त्वचा पर सुई चुभा कर उसके सहारे रंगों के प्रवेश के स्थाई निशान बनाने की कला गोदना कुष्ठ रोग के जीवाणु के संवहन का प्रमुख कारण हो सकती है लेकिन सच तो यह है कि गोदना मिटाने की कोई भी थी अभी विकसित नहीं हुई है और वांछित उपचार के बाद भी इस के निशान जीवन भर बने रहते हैं। विधि अभी विकसित नहीं हुई है। शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि जो लोग गोदना गोदवा रहे हैं या शरीर खिलवा रहे हैं उन्हें हेपेटाइटिस और एचआईवी का खतरा हो सकता है |आदिवासी जनजातियों मेंनशा करनेको बुरा नहीं माना जाता है।शराब पीकर गोदना नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे रक्त का प्रभाव तेज रहता है और रक्त स्त्राव जैसी समस्या बन सकती है।“वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गोदना को एक्यूपंचर का रूप मान सकते हैं। चीन में शरीर में सुई चुभा कर अनेक बीमारियों को ठीक किया जाता है।भारत में एक्यूपंचर पद्धति 1959 में आई इस पद्धति से शरीर के अपने न्यूरोहॉरमोनल सिस्टम को क्रियाशील कर देते हैं। सूर्य से अगर अच्छी तरह त्वचा को छुआ जाए तो शरीर का स्वस्थ होना संभव है। चाहे वह सुई गोदना की ही क्यों ना हो। सरगुजा अंचल के लोग इस तथ्य को मानते हुए स्वीकार करते हैं कि गोदना से सुंदरता के साथ-साथ बात रोग चोट का दर्द या फिर अन्य किसी प्रकार के दर्द से राहत मिलती है। है वर्तमान में इसका उदाहरणबस्तर जिले के जगदलपुर शहर में  ब्राह्मण पारा स्थित डॉ बीएल सोनी केदवाखाना में रंग रहित गोदना का उदाहरण देखा जा सकता है जिसे एक्यूपंचर कहा जाता है।“9


बस्तर अंचल में अबूझमाड़िया, डंडामिमाड़िया, घोटूल मोरिया , ध्रुवा और गदवा जनजातियों की स्त्रियों में गोदना गोदा ने की प्रथा सबसे अधिक प्रचलित थी |  यहां तक कि शरीर विकृत हो जाया करते थे। और शरीर विकृति को भी बेअलंकरण  ही समझते थे | परंतु इधर पुरुषों में गोदना का चलन नहीं के बराबर है। किसी किसी  पुरुष के सिर्फ माथे पर टीके की तरहका चिन्ह अंकित मिलता है।आदिवासी समाज में अपने टोटम चिन्हगुदवानेकी परंपरासूर्य ,चंद्र, गृह ,जीव जंतु आदि केशौकीनलोगअपने नाम और सरनेम और प्रेमी-प्रेमिका आदि नाम अपने हाथों में बनाते हैं|


गोदना रूपी कहना शरीर में हमेशा साथ रहता है। इसलिए इसे अमर श्रृंगारी कहना या स्वर्ग अलंकरण भी कहते हैं।एक समय था जब गोदना प्रथा का प्रचलन अधिक था अब धीरे-धीरे यह प्रथा दम तोड़ती जा रही है। नए पीढ़ी के लोग इस प्रथा को स्वीकार नहीं करते हैं। कई लोगों से चर्चा करने पर ज्ञात हुआ कि इस प्रथा को हमारे पूर्वज अधिक मानते थे। संपूर्ण शरीर में गोदना गोदवा से शरीर की सुंदरता बिगड़ जाती है। इस प्रथा को निभाने के लिए 12 बिंदी बुधवा ने की बात स्वीकार करती हैं।गोदारा के बारे मेंचाहे जैसी भी धारणा होलेकिन एक बार है किआदिवासी भले ही रूढ़ीवादी हूं चाहे जाने अनजाने में अपनी पुरानी संस्कृति और परंपरा को आज भी बचाए हुए हैं।लुप्त होती गोदना प्रथा को जीवित रखने से ही जनजाति संस्कृति को भी संरक्षित किया जा सकता है।इस बोलना 8 को बचाने के लिए सरगुजा जिले के लखनपुर और उदयपुर क्षेत्र में कपड़ों पर गोदना 8 की जाती है जो पहले संपूर्ण शरीर में चित्रकारी किया जाता था। इससे गोदना कला के बचाव के साथ सहायता महत्वपूर्ण साधन भी साबित हो रहा है और महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत हो रही हैं। छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा समय-समय पर गोदना आर्ट का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिससे प्रशिक्षक को ना हो जा रुपए अर्थ विद्यार्थी को 15 सो रुपए प्रतिमा दिया जाता है। गोदना आर्ट की चित्रकारी में फैब्रिक कलर के साथ फूल और आग को पानी में गर्मकर मिलाया जाता है प्राकृतिक रंगों को मिलाने से और अधिक पक्का रंग बन जाता है|


निष्कर्षतःइतना ही गोदना के विषय में कहा जा सकता है कि गोदना एक अमर श्रृंगारी गहना यादगार प्रतीक चिन्ह रोगों से मुक्ति और दर्द निवारक का सार्थक उपाय है। गोदना प्रथा को जीवित रखने से ही हमारी पुरानी संस्कृति बची रहेगी।


संदर्भ ग्रंथ सूची



  1. चौमासाअंक 25 आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल फरवरी से जून 1991 पृष्ठ 55

  2. लाला जगदलपुरबस्तर इतिहास एवं संस्कृति मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी भोपाल चतुर्थ संस्करण 2016 पृष्ठ 256

  3. चिराग आर्यनहलबा समाज डॉट कॉम 2019

  4. शोधार्थी द्वाराशोध कार्यके अवलोकन से प्राप्त जानकारी के अनुसार

  5. साक्षात्कारपानोगॉडभवानीपटना कालाहांडी ओडिशा निवासी उम्र 50 वर्ष 25 12 19

  6. लाला जगदलपुर बस्तर इतिहास एवं संस्कृति मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी भोपाल चतुर्थ संस्करण 2016 पृष्ठ 259

  7. वही पृष्ठ 257

  8. वही पृष्ठ 259

  9. शोधार्थी द्वारा शोध कार्य के अवलोकन से प्राप्त जानकारी के अनुसार


पता_ श्रीमती आशा रानी पटनायकव्याख्याता


स्टेट बैंक कॉलोनीमकान नंबर 13लालबाग जगदलपुर


जिला बस्तर छत्तीसगढ़ 


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Aksharwarta International Research Journal, January - 2025 Issue