*र* विवार की सुबह श्रुति बिना पुर्व सुचना के घर आ धमकी। प्रवीण घर पर ही थे। सुबह से पुराना ट्रांजिस्टर लेकर बैठे थे। आधुनिक युग के सभी संसाधन घर में उपस्थित थे लेकिन नहीं, इन्हें तो उसी ट्रांजिस्टर पर गीत सुनने थे। ट्रांजिस्टर था कि कुछ बोल ही नहीं रहा था। प्रवीण बहुत परिश्रमी व्यक्ति थे। कुछ भी कर उन्हें रेडियों सुधारना था। अपने साथ उन्होंने दस वर्षीय बेटे विशाल को भी संलग्न कर रखा था इस मैकेनिकल वर्कशॉप में। विशाल भी अपने पापा के साथ उस बिगड़े रेडियों के नखरे उठाने को सहर्ष तैयार दिखाई दे रहा था। छोटी बेटी अराध्या ज्यादा समय तक शांत नहीं रही सकी। उसे संभालने के लिए मुझे रसोई छोड़कर आना पड़ा। प्रवीण पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। उनसे यह भी न हुआ कि घर में मेरी सहेली आई हुई है सो जरा कुछ देर अपना काम छोड़कर अराध्या को संभाल लेवे। मगर नहीं। उनके शर्मीले स्वभाव से मुझे अब खिन्न छूटने लगी थी। कितनी ही बार उनके शर्मीले स्वभाव ने मुझे परेशान किया था। श्रुति मेरी झुंझलाहट नोट कर रही थी। मैंने बार-बार बैठक हाॅल के एक कोने में बैठकर रेडियों सुधार रहे बाप-बेटे को इशारों ही इशारों में कहना चाहा कि आकर अराध्या को संभाले। तब तक मैं रसोई का काम निपटा लूं। महिनों के बाद हम दोनों सहेलियों ने शापिंग पर जाने की योजना बनाई थी। लेकिन वे दोनों रेडियों में इस कदर उलझ चूके थे कि उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। मेरी झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी।
"विशाल! विशाल! इधर आओ! जल्दी!" मेरा ध्येर्य जवाब दे चूका था। विशाल को ललकार मैंने अपना क्रोध प्रवीण को दिखाने का प्रयास किया था। विशाल दौड़कर मेरे पास आया।
"जी मम्मी!" विशाल ने कहा।
"मम्मी के बच्चे! देख नहीं रहा, अराध्या कब से रोई जा रही है? मैं कब खाना बनाऊगीं, कपड़े पड़े है धोने को। झाडू, बर्तन सब कुछ करना है। तु भी उस भंगार रेडियों के पीछे पड़ा है।" मेरा क्रोध देखकर विशाल कूछ डर गया था।
मेरी नाराज़गी से प्रवीण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे अपनी परंपरागत गति से उस कार्य में व्यस्त थे। श्रुति ने मेरी मनोदशा भांप कर विशाल को बाहर खेलने जाने का निर्देश दे दिया। श्रुति मेरी आंखों में कुछ पढ़ चूकी थी।
"कल्पना! बता क्या बात है? इतनी व्याकुल क्यों है?" श्रुति ने बेडरूम का द्वार बंद कर मुझसे एकांत में पुछा।
कल्पना जानती थी कि अपनी प्रिय सहेली श्रुति से वह झुठ नहीं बोल पायेगी। कल्पना की बातों में श्रुति को एक अधुरे पन की झलक साफ दिखाई दे रही थी। यह कहीं उसके वैवाहिक जीवन की असंतुष्टी का प्रतिफल तो नहीं था? अराध्या तीन वर्ष की हो चूकी थी। और विशाल दस वर्ष का। उस पर कल्पना के पति प्रवीण का शर्मीला स्वभाव उसे चिड़चिड़ा बना रहा था। प्रवीण पहल करने से सदैव कतराते थे। जबकी कल्पना उनकी धर्म पत्नी थी। यदाकदा अब तक कल्पना ही पहला प्रयास करती आई दी। लेकिन कल्पना थी तो एक भारतीय नारी। उसकी अतिशय पहल की बारम्बारता प्रवीण को विपरीत दिशा में सोचने पर विवश कर सकती थी। यही सोचकर कल्पना असंतोष को ही अपना भाग्य समझकर भोगने पर विवश थी। दोनों बच्चों के साथ बेड का बंटवारा हो चुका था। अराध्या कल्पना के साथ सोया करती और विशाल अपने पिता प्रवीण के साथ दुसरे बेड पर सोया करता था। मन की झुंझलाहट और प्रवीण से अप्रसन्नता कल्पना अपने बच्चों और घर कि निर्जीव वस्तुओं पर निकाल रही थी। कल्पना का प्रतिशोध अब भोजन पर बरस रहा था। भोजन में कभी नमक की अधिकता तो कभी अस्वादिष्ट व्यंजन का निर्माण करना कल्पना के आचरण में आ गया था। अराध्या और विशाल की देखभाल में भी कल्पना कुछ लापरवाह सी हो गई थी। प्रवीण कल्पना के दुर्व्यवहार का उत्तर मुस्कुराकर देता। वह जानता था कि कल्पना के प्रति रोष दिखाने से यह कल्पना की जीत होगी जो प्रवीण कभी नहीं चाहता था।
श्रुति ने कल्पना को ढांढस बंधाया। उसने प्रवीण को पृथक ले जाकर विस्तार से समझाया। एक जरा- सी बात को दोनों ने महत्व का मुद्दा बनाकर अपने शादी-शुदा जीवन में खालीपन उत्पन्न कर दिया था। प्रवीण के विचार कल्पना के विषय में जानकर श्रुति ने उन्हें कल्पना उनके विषय में क्या सोचती है? यह बताया। तत्पश्चात उसने प्रवीण को विवाहित पुरूष के कर्तव्य स्मरण कराये। स्त्री के गर्भधारण का श्रीगणेश करना ही पुरूष का उत्तरदायित्व नहीं होता। स्त्री की मनोवृत्ति को समझना और उसकी आवश्यकता की पहचान कर उसे पुर्ण करना भी पुरूष का कर्तव्य है। बच्चों के साथ-साथ पत्नी की भी देखभाल करना बहुत जरूरी है। सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी में प्रवीण कुशल था। शर्मीलें स्वभाव और संकोच वश कल्पना की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व प्रवीण कुशलता से नहीं निभा पा रहा था।
श्रुति ने कल्पना और प्रवीण की संयुक्त काउंसिल करना भी जरूरी समझा। दोनों को सामने बैठाकर एक-दूसरे के मतभेद दूर करने का उसने सार्थक प्रयास किया। परस्पर बात करने से समस्या का पता चलता है और बात करने से ही समस्या का हल भी निकलता है। दोनों पति-पत्नी अपने-अपने झूठे अभियान में एक दुसरे को संतृप्त नहीं कर विरह की आग में बिना उचित कारण ही झुलश रहे थे। प्रवीण को समझाने में श्रुति को ज्यादा समय नहीं लगा। उसने प्रवीण को समझाया कि कल्पना कोई ग़ैर महिला नहीं थी। बल्कि उसकी विवाहिता पत्नी थी। कल्पना के तन-मन पर प्रवीण का एकाधिकार है। वो स्वेच्छा से कल्पना के प्रति जब चाहे तब अपनी प्रीति सिध्द कर सकता था। अपने शर्मीले स्वभाव के कारण प्रवीण भी प्रसन्न नहीं था। कल्पना से असीम प्रेम होने के बाद भी वह कल्पना के अधिक नजदीक जाने से कतराता था। जिस प्रकार से भोजन क्षुधा को शांत कर कार्य करने की ऊर्जा प्रदान करता है उसी प्रकार विवाहित जीवन की संतुष्टि मन मस्तिष्क में नवीन विचार और नई उमंग जागृत करती है। विवाहित जीवन के आरंभ में पति-पत्नी के रिश्तों मे जो मधुरता रहती है, उसे ठीक उसी प्रकार आगे निरंतर बनाये रखने की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से दोनों की होती है। संतान उत्पन्न करने मात्र से रिश्तों में दुरीयां पनपनी नहीं चाहिये। संयमित और मर्यादित विवाहोत्तर संबंध किसी लक्ष्य प्राप्ति की भांति धीरे-धीरे प्राप्त करते रहे तो विवाहित जीवन सुखमय बना रहता है। आपस में चर्चा करना कभी बंद न करे। समाज की हर अच्छी या बुरी घटित घटना पर पति और पत्नी दोनों अपने-अपने विचार सांझा करे। साप्ताहिक न हो सके तो माह में कुछ घण्टों के लिए ही दोनों बाहर घुमने अवश्य जाये। एक-दूसरे के प्रति सकारात्मक रहे। कहीं कुछ अटपटा प्रतित हो तब तुरंत बात करे। याद रखे बात करने से ही बात बनती है।
कल्पना और प्रवीण ने अपनी-अपनी गल़ती स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं दोनों के संबंधों में जो मधुरता गूम हो गई थी उसे पुनः पुनर्जीवित करने के संयुक्त सांझा प्रयास दोनों ने कर्त्तव्यनिष्ठा से किये। और उसमें आशानुरूप सफलता भी प्राप्त की।
समाप्त
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
सहायक अध्यापक शा प्रा वि सुरतिपुरा चोरल महू इन्दौर मध्यप्रदेश
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