व्यंग्य रचना,
‘गड्ढ़ा’,
मेरे घर के सामने वाली सड़क, जिसके उस पार एक निजी-प्रतिष्ठान है, पर घर से जाते वक्त नहीं, बल्कि घर के लिए लौटते समय, सड़क के बीच से थोड़ा दाहिनी ओर हटकर कुछ समय पहले एक गड्ढ़ा सा बन गया।
उस गड्ढ़े के बगल ही औसत ऊंॅचाई का, महकते फूलों से आच्छादित गुलाचीन का एक पेड़ सड़क किनारे लगा हुआ है। पेड़ से ठीक सटकर ही गड़े बिजली के खम्भे पर एक बड़ी सी हैलोजन-लाइट भी लगी है, जो रात-भर जलती रहती है। वैसे कभी-कभी ये लाइट, नगर प्रकाश विभाग के कर्मियों की लापरवाहीवश पूरे दिन भी जलती देखी जा सकती है। परन्तु यहांॅ मुद्दा ये हैलोजन-लाइट या गुलाचीन का पेड़ नहीं है। मुद्दा है, सड़क के बीच से थोड़ा दाहिनी ओर हटकर बना वो गड्ढ़ा।
एक शाम मेरी पत्नी सब्जी खरीदकर घर लौटते, मोबाॅयल पर किसी से बतियाते हुए खरामां-खरामां चली आ रही थीं। बतियाने की धुन में, वाबजूद हैलोजन-लाइट जलते रहने के, उन्होंने सड़क किनारे के इस गड्ढ़े को, जो गुलाचीन के पेड़ की छाया सड़क पर पड़ने के कारण उन्हें नहीं दिखा, पैर अचानक गड्ढ़े में पड़ जाने के कारण वो लड़खड़ा गयीं, जिससे सब्जियों का थैला हाथ से छूट जाने की वजह से सारी सब्जियांॅ सड़क पर बिखर गयीं। जब तक संभलने का प्रयास करतीं, उन्हें पता चला कि उनके एक पैर में मोच भी आ गयी है। वो तो गनीमत कि सड़क उस पार स्थित निजी-प्रतिष्ठान के सामने तैनात कुछ सुरक्षा-कर्मियों ने जल्दी-जल्दी सड़क पर फैली सब्जियांॅ बटोरने में उनकी मदद की।
लड़खड़ाते कदमों घर आकर, सब्जियों से भरा थैला एक किनारे पटकते, सबसे पहले उन्होंने अपना गुस्सा बच्चों पर, फिर मुझ पर ये ऐलान करते उतारना चाहा कि...‘‘आप दफ्तर से लौटते वक्त सब्जियांॅ खरीदने का एक छोटा सा काम भी नहीं कर सकते? देखिये! हफ्ते-भर के लिए एक साथ ही इतनी सारी सब्जियांॅ खरीदकर लाते वक्त मेरा पैर अंॅधेरे में सड़क किनारे उस गड्ढ़े में पड़ गया, जिससे मेरे एक पैर में मोच आने से भयंकर दर्द हो रहा है। लिहाजा आज और आगे दो-तीन दिन तक, खाना आप ही बनायेंगे। बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उन्हें आप ही तैयार करायेंगे। कल से दो-तीन दिन झाड़ू-बुहारू और पोंछा आदि का काम भी आपके ही जिम्मे रहेगा। मुझे अब दो-चार दिन आराम ही करना होगा, नही ंतो परेशानी बढ़ भी सकती है। समझे कि नहीं समझे?’’ गाहे-बगाहे पत्नी के ऐसे तेवर देखने को अभ्यस्त...अब भला कौन पति होगा जो इन बातों के गूढ़ार्थ न समझ सके? फिर उनकी कही इतनी सी बातें मेरे समझ में क्यों नहीं आती? जाहिर है...एक आदर्श और आज्ञाकारी पति के मानिन्द, मैं उनकी मंशा और उनकी बातें भली-भांॅति समझ गया।
मैं बस्स थोड़ी देर पहले ही दफ्तर से घर आकर, हाथ-मुंॅह धोने, कपड़े बदलने के बाद चाय की चुस्कियांॅ लेते, अखबार में ‘‘आज का आपका राशिफल’’ काॅलम में अपना राशिफल...‘जीवन-साथी का सहयोग मिलेगा। खानपान में रूचि बढ़ सकती है। दिन-भर अच्छी खबरें मिलेंगीे। क्षणे तुष्टा, क्षणे रूष्टा का मनोभाव बना रहेगा।’...पढ़ते मन-ही-मन खुश हो रहा था कि पत्नी के श्रीमुख से ये खबरें, मय हिदायतों के सुनने को मिलीं। हालांकि वो ये बात छुपा ले गयीं थीं कि सब्जियांॅ खरीदकर लौटते वक्त मोबाॅयल पर बतियाने की धुन में उनका ध्यान सड़क पर नीचे की ओर था ही नहीं। ये बात मुझे बाद में...किन्ही खुशनुमा पलों में, उन्हीं से पता चली थी।
यद्यपि उन्होंने चन्द दिनों के लिए हमारे घरेलू कार्यों की जिम्मेदारियों में परिवर्तन का फरमान जारी करते वक्त ये हिदायत भी दिया था कि...‘‘आप भी, जो सड़क पर चलते वक्त इधर-उधर ताकते-झांॅकते चलते हैं, आगे नहीं देखते, अब भी वक्त है, सुधर जाइये। घर आते वक्त सामने सड़क पर ध्यान से देखते चलिएगा, नहीं ंतो आप भी किसी दिन लड़खड़ा कर उस गड्ढ़े में गिर पड़ेंगे। जिससे खामखाह ही लेने-के-देने पड़ सकते हैं। आप तो वैसे भी कामकाज से जी चुराने वाले, बावन को बानवे काम बताने वाले ठहरे। चोट-चपेट से तो आपको काम न करने का अच्छा-खासा बहाना भी मिल जायेगा। पता नहीं...ये लिखने-पढ़ने का कुटेव कहांॅ से लग गया आपको? ऊबते भी नहीं?’
बताता चलंूॅ...कुछ वर्ष पहले तक, दफ्तर से लौटते वक्त मैं फल और सब्जियांॅ आदि खरीदते हुए ही घर लौटता था, परन्तु मेरे खरीदे सामानों में पत्नी द्वारा बीसियों मीन-मेख निकालने के कारण इधर कुछ वर्षों से मैंने फल और सब्जियांॅ आदि खरीदना छोड़ ही रखा है। खामखाह में महाभारत...वो भी फल और सब्जियों के कारण, अच्छा नहीं लगता। शादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी पति-पत्नी के बीच म्यूच्युअल-अण्डरस्टैंिण्डंग में ऐसी घनघोर समस्याएं तो कई गुरू-गम्भीर सवाल भी खड़े कर देते हैं। किसी से कहिये तो...वो भी क्या कहेगा? हंॅंसेगा ही न? ऐसे मसलों में तो सम्बन्धों में मधुरता लाने वाले तथाकथित उपाय भी किताबी व निरूपाय से सिद्ध होते हैं।
खैर...प्रकृतिस्थ होने, और गुस्सा थोड़ा ठण्डा होने के बाद मामले को सुलटाने की गरजवश मैंने ही पत्नी से उस दुर्घटना की शुरूआत के बाबत, शुरू से जानना चाहा, तो मालूम हुआ कि सब्जियांॅ खरीदकर लौटते वक्त, उस दिन वो अपनी किसी पक्की सहेली से बतियाती हुई आ रही थीं। ये अलग बात है कि इन पक्की सहेलियों की बातों में एक-दूसरे के ससुराल वालों की निन्दा के अलावा और कोई प्रमुख मुद्दा नहीं होता। फिर निन्दा-रस में रस ले-लेकर बतियाते हुए किसे मजा नहीं आयेगा? जाहिर है, ऐसी बातें करते वक्त सुध-बुध खो बैठना स्वाभाविक है। ऐसे में दुर्घटना होना ही था।
‘‘आश्चर्य! कि जहांॅ एक तरफ सड़क पर बिखरी सब्जियांॅ बटोरने-समेटने में सड़क उस पार के निजी-प्रतिष्ठान के सामने खड़े सुरक्षा-कर्मियों ने मेरी मदद की, वहीं दूसरी तरफ उसी समय बगल से गुजर रही अपनी कामवाली रन्नो बाई, फोन पर बतियाते हुए सड़क पर चलते समय आगे-पीछे देखकर चलने को लेकर, मुझे अच्छा-खासा लेक्चर झाडते, अपने कर्तव्यों की इतिश्री मानते आगे बढ़ गयी थी।’’ घटना से जुड़े ये कुछ सूक्ष्म ब्यौरे जो उस समय बताने से रह गये थे, पत्नी ने आगे बताया था।
चंूॅकि इन बातों में मुझसे सीधे हस्तक्षेप की दरकार नहीं थी, और न कोई गुंजायश ही थी, सो उत्तर टालने की गरजवश मैं मात्र मुस्कियाते...‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे-कुंडे नवपयः’ जपते, उनकी ओजपूर्ण वाणी को विराम देने के प्रयोजनार्थ कोई खूबसूरत बहाना ढ़ंॅूढ़ने, ध्यान बांॅटने के प्रयास में, सोशल-मीडिया पर ताजा-ताजा आये संदेश, जिसमें उनके बीस साल उम्र वाली फोटो पर धड़ाधड़ ‘लाइक्स’ के बौछार हो रहे थे, को उन्हें दिखाने में मशगूल हो गया। जाहिर है, वो स्वभावतः उन तस्वीरों के मेस्मेरिज्म में खो गयीं, और मैं उनमें।
इस घटना या कह लीजिए दुर्धटना, के लगभग पन्दंह-बीस दिन बाद एक दिन शाम को टहलने जाते वक्त पत्नी ने मुझे सड़क स्थित उस गड्ढ़े को दिखाया भी था।...‘‘वाकई! काफी बड़ा गड्ढ़ा है?’’ उसे देखते हठात् मेरे मुंॅह से निकला। उस गड्ढ़े के देश-काल-स्थिति-परिस्थिति पर चतुर्दिक नजर डालते, सूक्ष्मता से गहन पड़ताल करते मैं इस महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंॅचा कि यद्यपि सड़क किनारे लगे बिजली के खम्भे पर जो हैलोजन-लाइट लगी है, उससे सड़क पर पर्याप्त रोशनी तो हो रही है, लेकिन उसके ठीक नीचे स्थित गुलाचीन के पेड़ की परछाईं, सड़क पर बने उस गड्ढ़े पर कुछ ऐसे कोण से पड़ रही थी कि उसे रात में देख पाना किसी के लिए भी अत्यन्त कठिन था। हांॅ, यदि किसी का ध्यान दिन के समय उस गड्ढ़े पर गया हो, और रात के प्रहर में इधर से गुजरते हुए उसे इस गड्ढ़े की याद आ जाये, तो उसे अवश्य इस गड्ढ़े का ध्यान रहेगा, और वो समय रहते संभल जायेगा।
मुझे तो लगता है कि जिम्मेदार लोगों को लगातार देखते रहना चाहिए कि शहर की गली-कूचों और काॅलोनियों आदि की सड़कों पर समय के साथ अवांछित या दुर्घटना को आमंत्रित करता कोई छोटा या बड़ा गड्ढ़ा तो नहीं बन गया है? जिससे समय पर उनकी मरम्मत होने से पैदल या वाहन सवारों को आने-जाने में कोई खतरा उत्पन्न न हो सके।
कुछ दिन बाद तो मैंने ये भी देखा कि तेज बरसात के कारण सड़क पर जगह-जगह बने गड्ढ़ों में लबालब पानी भर गया है। सड़क किनारे उस गड्ढ़े में भी पानी भर गया था, जिसकी बात यहांॅ चल रही है। लेकिन, मुझे उस समय उस गड्ढ़े में दो कुत्ते भी बैठे दिखाई दिए थे। यानि कि शनैः शनैः अब वो गड्ढ़ा, अच्छा-खासा इतना बड़ा और गहरा हो गया था कि उसमें दो कुत्ते आराम से बैठ सकते थे। अर्थात् वो गड्ढ़ा अब इस गति को प्राप्त हो चुका था कि उसकी मरम्मत के लिए हल्के-फुल्के फैन्सी उपायों के बजाय गम्भीर प्रयास की दरकार थी। देखा जाय तो यदि हम राह में मिलते ऐसे गड्ढ़ों की अनदेखी करते रहते हैं या समय रहते इन्हें ठीक नहीं कराते हैं, तो ये समय के साथ ही बढ़ते-बढ़ते एक दिन विकराल रूप धारण कर लेते हैं, और किसी दिन बड़ी दुर्घटना का बायस भी बन सकते हैं।
मुझे याद है, एक दिन तो सुबह-सुबह टहलने जाते वक्त मैंने देखा कि दो लगभग ग्यारह-बारह साल के छोटे बच्चे, जो शायद साइकिल चलाना सीख रहे थे, कैंची स्टाॅयल में साइकिल पर सवार थे, इस गड्ढ़े में अचानक उनकी साइकिल का अगला पहिया पड़ने से फिसलते हुए लड़खड़ा कर गिर गये। लेकिन कमाल देखिये! अगले ही पल उठते, अपनी-अपनी पैण्टों की धूल झाड़ते, साइकिल सीधी करते, खिलखिलाते हुए वे दोनों बच्चे साइकिल पर उचक कर चढ़ गये और ये जा-वो जा की भांॅति वहांॅ से चलते बने। बच्चे भी न! कितने अजीब होते हैं?
मेरा वश चलता तो मैं वहीं एक ठो बोर्ड लगवा देता...‘सावधान, आगे सड़क में गड्ढ़ा है। कृपया संभल कर चलें।’
वैसे ये गड्ढ़ा एक दिन में बना हो, ऐसा भी नहीं है। दिन में देखेंगे तो साफ-साफ समझ में आ जायेगा कि इसे बनने में महीनों लगे होंगे। अब तक जाने कितने वाहन इस पर से गुजरे होंगे। कई-एक छोटी-मोटी दुर्घटनाएं भी हुई होंगी? पर आश्चर्य कि अब तक इस पर किसी जिम्मेदार की निगाह क्यों नहीं पड़ी? इसे तत्काल सुधारने की सुध क्यों नहीं ली गयी?
अपनी इन बेशुमार चिन्ताओं को कालोनी के कुछ संभा्रन्त लोगों संग साझा करने पर जीवन-दर्शन से परिपूर्ण कुछ अद्भुत जानकारियांॅ भी हुईं। ये बानगी जेरेनजर है...,
‘‘देखिये! अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। आपकी चिन्ता ऊल-जलूल व आधारहीन है। सकारात्मक रहिये। धैर्य रखिये। हर काम का समय निश्चित है। हो सकता है, इस गड्ढ़े का नम्बर अभी आया ही न हो। वैसे भी प्राथमिकताएं आम नहीं खासजन और कहीं-कहीं तो बाजारी शक्तियांॅ तय करती हैं, और वो आपके नहीं, अपने हिसाब से चलते हैं। ऐसी गूढ़ बातों को जितनी जल्दी समझ लेंगे, जिन्दगी उतनी ही आसान हो जायेगी। मस्त रहेंगे, अन्यथा अस्त-व्यस्त, चिन्ता-ग्रस्त रहेंगे। फिर जिन्दगी की डगर सीधी-सपाट है भी कहांॅ? राह में सिर्फ चिकनी, साफ-सुथरी सड़कें ही नहीं, ऊबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े, पथरीले, रपटीले, कंटकाकीर्ण पगडण्डियांॅ भी मिलती हैं। यू-टर्न लेना पड़ता है। एल-मोड, तो रोड-डिवाॅइडर्स, स्पीड-बे्रकर्स भी मिलते हैं। जीवन है ही परेशानियों, कठिनाइयों, प्रसन्नताओं, चुनौतियों, सुअवसरों आदि का समुच्चय। वीतरागी बनिये। हर हाल में खुश रहने का प्रयास कीजिए। ऐसी बातों को सखा-भाव लीजिए।’’ उन संभ्रान्तजन की ऐसी रस-सिक्त बातें सुन, जाहिरन तौर अब बगले झांॅकने की बारी मेरी थी। फिलहाल तो...मेरी जानकारी में काॅलोनी के ज्यादातर लोग अब उस गड्ढ़े के बारे में भली-भांॅति वाकिफ हो गये हैं, सो उधर से निकलते वक्त, वो इसका ध्यान रखने के लिए अभ्यस्त भी हो गये हैं।
कभी-कभी सोचता हंूॅ...अगर ये गड्ढ़ा सड़क के किनारे होता, या ऐसी जगह पर जहांॅ सामान्यजन की आवाजाही कम या एकदम नहीं होती, तो भी क्या लोगों की निगाह बरबस इस पर जाती? लोग इससे ऐसे ही बच-बचाकर निकलते? जाहिर है नहीं। क्योंकि जगह ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। इन्सानी दुनिया के मामले में भी हमारा अनुभव...शायद कुछ ऐसा ही है। आप किस बड़े या छोटे पद पर हैं, महत्वपूर्ण ये नहीं। आप किस जगह पदस्थापित हैं, महत्वपूर्ण ये होता है। थोड़ा विषयान्तर हो गया था, पर कुछेक कोण से प्रसंगानुकूल लगा, सो बताना उचित समझा...ताकि सनद रहे।
बहरहाल...उस दिन के बाद से मैं जब कभी भी पैदल या दुपहिया से घर लौटता हंूॅ, तो उस गड्ढ़े के समीप पहुंॅचते, अनायास ही मुझे उसकी याद हो आती है, और मैं सड़क पर अपनी पटरी बदल लेता हंूॅ। अब तो पत्नी भी जब कभी बाजार से सब्जी या सौदा-सुलुफ लेकर लौटती हैं, तो भले ही वो मोबाॅयल पर किसी से बतियाती चलें, उस गड्ढ़े के समीप पहुंॅचते ही स्वचालित रूप से उनके भी कदम, सड़क का किनारा बदल लेते हैं। इस प्रकार देखा जाय तो...एक तरह से वो गड्ढ़ा अब हमारे अवचेतन में रच-बस गया है।
अब तो हम अपने घर आने वाले लोगों, मेहमानों आदि को भी लौटते वक्त उन्हें ये बताना नहीं भूलते कि...‘‘उस निजी-प्रतिष्ठान के सामने वाले गुलाचीन के पेड़ के नीचे सड़क पर दाहिनी तरफ एक ठो गड्ढ़ा है। अंधेरे में ठीक से नहीं दिखता। कृपया संभलकर जाइयेगा। भरसक बांयीं तरफ ही रहियेगा, नहीं तो चूकने पर गड्ढ़े में गिरने से चोट-चपेट भी आ सकती है।’’...हालांकि, ज्यादातर लोग हमारे इस सुझाव को बचकाना ही मानते हैं। कारण कि वो या तो दुपहिया पर आये होते हैं या चार पहिया पर। भला बताइये! ऐसे में सड़क पर दाहिनी तरफ बने गड्ढ़े की याद दिलाने का क्या औचित्य? जबकि लौटते वक्त हम सड़क पर अपनी बांयीं ओर से चलते हैं। पर कुछ भी हो, हम उन्हें भविष्य के लिए ताकीद करना, अपना फर्ज समझते हैं।
मुझे अक्सरहां लगता है कि जब कभी म्यूनिसिपैलिटी वालों की नजर सड़क स्थित उस गड्ढ़े पर पड़ेगी, तो वो उसे अवश्य ठीक करा देंगे। वाबजूद इसके, उस गड्ढ़े से जुड़ी एकाधिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के कारण किंवदन्ति बन चुका वो गड्ढ़ा अब हमारे जेहन में तो जिन्दा रहेगा ही, और उधर से गुजरते, आते-जाते, उस गड्ढ़े के मरम्मत होने के बाद भी हम ये ध्यान रखेंगे कि कभी यहांॅ एक गड्ढ़ा होता था।
सोचता हंूॅ...सड़क स्थित इस गड्ढ़े के और बड़े या गहरे होने से पहले ही यदि जिम्मेदार लोगों द्वारा इस काॅलोनी के लोगों को राहत देने वास्ते इसे भर दिया जाय, या इसकी मरम्मत कर दी जाय तो लोगों के दिलोदिमाग में आशा का तो संचार होगा, परन्तु क्या इस कवायद को गड्ढ़े के दिन का बहुरना कहेंगे? या कालान्तर में लोगों के जेहन से यह गड्ढ़ा हमेशा-हमेशा के लिए बिसर जायेगा? प्रश्न गूढ़ है, परन्तु विचारणीय है।
फिर सोचता हंूॅ...कहीं फिल्मी स्टाॅयल में गड्ढ़ा ये न कहता फिरे...‘एक गड्ढ़े की कीमत आप क्या जानो बाबू साहेब...?’
राम नगीना मौर्य,
5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर
लखनऊ - 226010, उत्तर प्रदेश,
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