1 शहीद की चिता
ये शहीद की चिता
आज क्यों है बुझ रही
न बयार न तूफान
जाने किससे लड रही
ये शहीद की चिता
आज क्यों है बुझ रही
राज, सुख, भगत समेत
बोस, लाल,बाल, पाल
मिट गये कथा से क्यों
जो कर गये हमें आज़ाद
खंड को अखंड रख
अहिंसा की सीख दी
मातृभूमि के लिए
अपने सर्वस्व की भी भीख दी।
कहाँ गए शीश को
कटाने वाले वो जवां
शहीद हो समझते जो
देश को अपनी माँ।
अलख जगी थी ज्ञान की
प्रेम की , सद्भाव की
उस अलख को चिंगारी
देती थी ये चिता।
आज द्वार-द्वार पर
जा भारती पुकारती
ये शहीद की चिता
आज क्यों है बुझ रही।
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2- सृजन
सृजन हो रहा है
पर धीरे-धीरे
रेत , ईंटों से बनते घर की तरह्।
सृजन हो रहा है
सूक्ष्म रूप से
ओस की बूंदों को
फूल, पत्तों और तृणों से एकत्र करने की तरह्।
इस समाज की
आंखों से रोशनी जा रही है
पर आत्मा प्रकाशित हो रही है
पूनम के शशि की तरह्।
वक़्त गुजर रहा है
भेद-भाव, अलगाव सिमट रहा है।
पक्षियों के कोलाहल में
हर एक मन में सृजन हो रहा है
3- कल के खेल
कभी ह्म खेला करते थे
खिलौनों से, मिट्टी, पत्तें डालों से
खुले मैदानों में
बाबा बताते हैं
वो भी ऐसे ही खेला करते थे,
पर आज मेरा बाबू( बच्चा)
खेलता है
विद्युत उपकरणों से
घर के अंदर
कम्प्युटर और मोबाईलों से।
कल इनके बाबू
किससे खेलेंगे
उपकरणों से, खिलौनों से
या.....?
शायद अतीत की कहानी
उन्हें तब याद आयेगी
जब समय की नाव
सागर पार कर जायेगी।
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- यक़ीन
मेहनत की तू डोर पकड़, मंज़िल ओर तू चलता जा
खुद पर कर यक़ीन, बाधाओं से तू लड़ता जा
वीर नहीं जो हाथों में खंज़र लेकर चलते हैं
वीर नहीं जो निर्धन, निर्बल को छलते हैं
निर्धन का तू धन बन जा
निर्बल का तू बल बन जा
छोड़ निराशा को,
तू जन-जन की आशा बन जा
स्वयं शक्ति का ह्रास न कर,
लोगो का परिहास न कर
मेहनत की तू युक्ति लगा
किश्मत की तू आश न कर।
हाथ लकीरों की चाल न देख
बीता कैसे पिछला साल न देख
करके कर्म संग समय के चलता जा
ले विराट रूप अजेय अमर कर्म का
जिसके आगे छोटा हो जाता कद भी धर्म का
कुदरत ने तो बांटे है सबको समय बराबर से
हर पल बढ़ रही कीमत गुजरते समय की
समेट कर पल मुट्ठी में
तू वक़्त से आगे चलता जा
खुद पर कर यकीन
बाधाओं से तू लड़ता जा...।।।
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