ISSN : 2349-7521, IMPACT FACTOR - 8.0, DOI 10.5281/zenodo.14599030 (Peer Reviewed, Refereed, Indexed, Multidisciplinary, Bilingual, High Impact Factor, ISSN, RNI, MSME), Email - aksharwartajournal@gmail.com, Whatsapp/calling: +91 8989547427, Editor - Dr. Mohan Bairagi, Chief Editor - Dr. Shailendrakumar Sharma
Thursday, July 30, 2020
नई शिक्षा नीति क्या है ? MHRD का बदला नाम, जानिए पूरी डिटेल
Tuesday, July 28, 2020
व्यंग्य-2021 की सुहानी सुबह
चांद (हाइकु)
कब्र की मिट्टी
सर्दी और बढ़ गई थी। मैने लिहाफ़ खींच खुद को उसमे लपेट लिया कि आज देर तक सोऊंगी । वैसे भी रविवार है। मगर तभी फ़ोन की घंटी बजी और मुझे उठ के बैठ जाना पड़ा। सारी सर्दी अचानक गायब हो गई। मुझे जैकेट पहनने का भी ध्यान न रहा। सिर्फ शॉल लपेट निकल गई।
मुहिब के घर के बाहर मीडिया वालों की भीड़ जमा थी। मैं किसी तरह भीड़ को चीड़ते हुए घर मे घुसी तो सामने का दृश्य देख कर एक क्षण को सुन्न रह गई। मुहिब का पार्थिव शरीर फर्श पर पड़ा था। पुलिस आस पास छानबीन कर रही थी। कुछ क्षण बाद जब मैंने कमरे में नज़र दौड़ाई तो पूरा कमरा बिखरा पड़ा था। मुहिब के शरीर पर भी कई ज़ख्म के निशान थे। मैन उसके इकलौते नौकर रहमान( जो कोने में खड़ा सुबक रहा था) से पूछा कि ये सब कैसे हुआ। उसने बस इतना ही बताया कि वो सुबह की नमाज़ को उठा जब उसने साहब के कमरे की बत्ती जलती देखी और जब इधर आया तो ये सब... । क्या हुआ कैसे हुआ कुछ नही मालूम।
मुहिब की मृत्यु के चार दिन हो गए थे। मगर कुछ पता न चला था कि वह इसके मौत के पीछे क्या रहस्य है। मैंने भी चार दिन से अपना सारा काम छोड़ा हुआ था। आज दफ्तर से कॉल आया कि कोई महत्वपूर्ण ईमेल आया है तो कंप्यूटर खोला। इनबॉक्स में मेल न पाकर मैने स्पैम खोला। दफ्तर का मेल देखते समय मेरी दृष्टि मुहिब के मेल पर पड़ी जो उसकी मौत की रात की थी। मैने जल्दी से मेल खोला और उसके साथ ही सारे राज़ खुल गए। सामने मुहिब का लंबा से पत्र था।
" ज़िन्दगी ने बड़े अच्छे से मेरा हिसाब किया"
"कि अपनी हया ढकने को मुझे बेनकाब किया"
वो अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई है 4 सालों बाद। मगर मैं आगे बढ़ कर उसे गले भी नहीं लगा सका। वो ही दौड़ कर मुझसे लिपट गई और भीगे लहज़े में कहा- कहाँ खो गए थे मुहिब? क्या मुहब्बत जिस्मों के हिसार की मोहताज होती है? मैं तो सारी जिंदगी तुम्हारे शानों पर सर रख के गुज़ार दूँ। मुझे उन चीज़ों की तलब नही तुम साथ रहो यही काफी है। और उसने अपना सर मेरे कंधों पर रख दिया। लेकिन मैं उसे अपने आगोश में न समेट सका। कुछ था जो मुझे रोक रहा था। 4 साल पहले भी तो उस रात वो मेरे इतने ही क़रीब थी। कतरा कतरा मुझमे उतरने को तैयार। मगर मैं सिर्फ उसकी पेशानी को बोशा दे कर रह गया। उसके होंठो तक पहुंचने की हिम्मत न हो सकी थी। उसके नाज़ुक होंठो ने मेरे लबों को छुआ मगर मैं झटके में से उसे खुद से दूर कर के कमरे से बाहर निकल गया था। वो हमारी सगाई की रात थी। मुझे कमरे से निकलते हुए उसकी भाभी ने देख लिया और उनके मुखबिर मन ने हमदोनों के बीच की बातें भी सुन ली। जब मैं ज़ेबा से साफ़ लफ़्ज़ों में कह रहा था कि ये सब मुझसे न हो पायेगा। भाभी ने ये बात उसके तीनों भाइयों को बता दी और अगले दिन हमारी सगाई टूट गई। ज़ेबा तो हर हाल में मेरा साथ देना चाहती थी । कहती थी उसने तो मुहब्बत न करने की ठानी थी । आज तक कोई उसके दिल को छू भी नही पाया था मगर मुझसे उसे इश्क़ हो गया है। मेंरी खामोश पर्सनालिटी उसे भा गई थी। मग़र मुझे भी ये रिश्ता उसके ऊपर ज़्यादती लग रही थी। इसलिए उसे बिना बताया मैंने शहर छोड़ दिया। अब कलकत्ता मेरा नया ठिकाना था। ज़ेबा कि याद यहाँ भी मेरा साथ नही छोड़ रही थी इसलिए मैंने ख़ुद को उसके लायक बनाने को सोचा। फिर मेरी रातें कलकत्ते की बदनाम गली के लाल कोठी में गुज़रने लगी। और नतीजा ये हुआ बिना लाल कोठी पर जाय अब मुझे नींद नही आती थी। वो दवा जो मैंने इलाज के लिए लेनी शुरू कि थी मेरी लत बन गई। अब जब के मैं ज़ेबा के पास जाने लायक बन गया था मेरे कदम जाने क्यों उसकी ओर जाने को नही उठ रहे थे। एक बेवफाई का एहसास अंदर ही अंदर मुझे मार रही थी । फिर लाल कोठी की लत ने मुझे अपना गुलाम बना लिया था। क्या इस लत के साथ मैं ज़ेबा की ज़िन्दगी में शामिल हो सकता था? मेरे ज़मीर ने इजाज़त नही दी और मैन खुद को रोक लिया। मगर मेरी मोहब्बत एक तरफ़ा नही थी। ज़ेबा ने मुझे ढूंढ ही लिया। मैं लहरो में उसका अक्स देख रहा था जब वो हक़ीक़त बन कर सामने आ गई।
पिछले 7 दिनों से वो मुझसे मिलने की लगातार कोशीश कर रही है । मगर अब मुझमे उससे नज़रे मिलने की हिम्मत कहाँ। अगर वो मुझे भूल गई होती तो मैं अपनी गलती के साथ जी लेता मगर उसकी पाकीज़ा मुहब्बत ने मुझे और गुनाहगार बना दिया है। मगर अपने इस सड़े गले वजूद को उसके मुहब्बत के पशमिने में ढकना नही चाहता।मेरी वजूद को तो कीड़े लग गए हैं। जो उसकी मुहब्बत की ताब से अंदर से बाहर निकल आये हैं। हर वक़्त ये मेरे जिस्म से चिपके रहते हैं। मेरे पूरे जिस्म पर रेंग रहे हैं। रोज़ इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। हर सिम्त कीड़े ही कीड़े हैं। अब तो समझ नही आता कि मैं इंसान हूँ या महज़ नाली का कीड़ा। मैं इन कीड़ों के साथ नही जी सकता। मैं इन गंदे कीड़ों को उसके खूबसूरत दामन में नही डाल सकता। इसलिए मेरा जाना ही बेहतर है। हाँ मेरा जाना ही बेहतर है।
उसने अपना खत खत्म किया और नीचे एक निवेदन की कि ज़ेबा को उसके घिनोने शक्ल के बारे में कुछ न बताऊँ। बस उस तक इतना पैग़ाम पहुँचा दूँ कि " मैं इतना मजबूर हूँ के चाह कर भी उसका नही हो सकता। वो मुझसे बेपनाह मुहब्बत करती है मेरी मज़बूरी ज़रूर समझ जायगी।"
मुहिब की मृत्यु के पाँचवे दिन। सुबह के समय एक औरत मुझसे मिलने आई। सफेद दुपट्टे में वो ओस की बूंद सी उज्जवल लग रही थी। मगर मुख पर उदासी की मलिन छाया थी। मलिन मुस्कान के साथ उसने जो बात कही उससे मेरा पूरा शरीर कांप गया। हाथों में थमी चाय की प्याली झलक गई।
" मुहिब काल शाम मिले थें मुझसे। कहा आपके पास उनकी ग़ज़लों की एक डायरी है जो उन्होंने मेरे लिए लिखी थी आपसे ले लूं।"
काल शाम!! कहाँ है वो?? मैन आश्चर्य से पूछा
यही तो मैं आपसे पूछना चाहती हूँ। आप उनकी क़रीबी दोस्त हैं गर आपको कुछ इल्म हो तो बताइए। उनके घर का पता तो दीजिये।पिछले चार दिनों से रोज़ मुझसे मिल रहे हैं मगर अपने घर नही ले जाते। जब भी पूछती हैं उठ कर चले जाते हैं। मैं उन्हें फिर से खोना नही चाहती।
झनाक। मेरे हाथों से चाय की प्याली छूट के गिर पड़ी । उसके क़ब्र पर मिट्टी मैन भी तो डाली थी।
लघुकथा - दुरुपयोग
पंडित हरि किशन जी घर-घर पूजा-पाठ कर अपने और अपने परिवार का लालन-पालन बड़ी मुश्किलों से कर पाते थे।कभी-कभी किसी-किसी घर से अच्छी दक्षिणा मिलने पर घर पर अच्छा खाना भी बन जाता था।लेकिन कोरोना बीमारी की इन खतरनाक परिस्थितियों में धीरे-धीरे उनके काम में बहुत ही कमी आ गई।आजकल कोई भी अपने घर मे किसी व्यक्ति का आना पसंद नही कर रहा था तो पूजापाठ ही कौन कराएगा।अचानक एक दिन उनके किसी जानने वाले ने किसी पुलिसकर्मी को उनके पास भेजा।पुलिस वाले व्यक्ति का नाम जगदीश्वर था।उसने पंडित जी बोला पंडित जी कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे इस कोरोना काल मे हमारा परिवार इस बीमारी से दूर रहें।पंडित जी मेरा कुछ काम ही ऐसा है कि हम लोग इस दौर में भी घर मे नही बैठ सकते।हमेशा डर लगा रहता है कि कोरोना ना हो जाये।
बुरे हालात से गुजर रहे पंडित जी ने फौरन पुलिस वाले भैया को हामी भर दी।उन्होंने बताया कि उन्हें कुछ मंत्रों का जाप करना होगा।जिससे उनके घर से इस बीमारी को दूर भगा दिया जाएगा।जिसके लिए उन्हें पंडित जी को ₹25000 देने होंगे।जगदीश्वर जी उनकी बात सुनकर सहमत हो गए और उन्होंने मंत्र उच्चारण के लिए पंडित जी को ₹25000 देकर हामी भर दी।पता नहीं इसे पंडित जी की घर की परिस्थिति कहेंगे या उनके पंडिताई का दुरुपयोग,लेकिन उन्होंने कोरोना काल में अपने परिवार का लालन-पालन करने के लिए जैसे तैसे पैसा कमा ही लिए।जगदीश्वर जी को पूजा करा कर काफी खुशी थी।सुबह तैयार होकर वो अपनी नौकरी के लिए निकल पड़े।
अब जगदीश्वर जी ₹25000 दिए हैं तो किसी ना किसी से तो उन्हें भी ये निकालने ही थे।उन्होंने आज अपना कार्य स्थल शहर के सबसे व्यस्थ चौराहे को बनाया।चौराहे पर खड़े होकर उन्होंने कुछ गाड़ी वालों को और मोटरसाइकिल वालों को रोक-रोक कर और उन्हें चालान काटने का डर दिखा कर लगभग कुछ ही घंटों में अपने घाटे की पूर्ति कर ली और शायद कुछ ज्यादा ही पैसा लोगो से ले ही लिया।हालांकि इसमें काफी हद तक लोगो का ट्रैफिक के नियमो का ना मानने का हाथ भी था।जगदीश्वर जी ने अपने पद का प्रयोग करते हुए अपने पैसे की पूर्ति कर ही ली।पंडित जी और जगदीश्वर जी दोनों ने अपने पदों का उपयोग करते हुए अपने लिए पैसों की व्यवस्था कर ही ली।
खैर चालान की चोट खाये हुए व्यक्तियों में यादव जी भी थे।जिन्हें कार के पेपर ना रखने के कारण और चलती गाड़ी में शराब का सेवन करने के कारण ₹5000 का जुर्माना देना पड़ा।वो बहुत ही परेशान थे।लेकिन कोरोना काल मे 5000 रुपये का घाटा उन्हें अपने व्यवसाय से पूरा करना ही था।यादव जी एक हलवाई है।अपने नुकसान से परेशान होकर यादव जी ने मिठाई बनाने में कुछ ज्यादा ही मिलावट कर दी।आज पंडित हरि किशन जी ने पुलिस वाले भैया से पैसे कमाकर सोचा कि चलो आज बच्चो के लिए मिठाई ले लूँ।उन्होंने यादव जी की दुकान से मिठाई ली और घर जाते हुए कुछ मिठाई प्रसाद के रूप में जगदीश्वर जी को दे दी और बाकी मिठाई अपने बच्चों को खाने के लिए दे दी।मिठाई खाने के बाद यादव जी के बच्चे बीमार हो गए और साथ-साथ जगदीश्वर जी का परिवार भी बीमार हो गया।गुस्से से भरे हुए जगदीश्वर जी ने यादव हलवाई को गिरफ्तार कर लिया।हालांकि बाद में वो रिश्वत देकर छूट भी गए।
*यहाँ शीख देने वाली बात यही है कि यहाँ सभी व्यक्तियों ने अपने-अपने कार्यो में किसी ना किसी तरीके से दूसरे व्यक्ति को दुख देकर अपने लिए पैसों की व्यवस्था की लेकिन अंत मे गलत तरीके से कमाए हुए रुपये को अपने आप को बचाने के लिए गवाना भी पड़ गया।अगर सभी ने अपने कामो को सही तरह से किया होता तो किसी को भी परेशान नही होना पड़ता।*
नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).
Saturday, July 25, 2020
मैं किसान हूँ, चैन से कहाँ सोता हूँ... देश में किसानों की वर्तमान परिस्थिति का विश्लेषण
मैं किसान हूँ, चैन से कहाँ सोता हूँ...
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
हम अनाज तो हर दिन पकाकर खाते हैं। क्या कभी मुट्ठी भर अनाज सूँघने का प्रयास किया है? फुर्सत मिले तो एक बार ही सही उसकी गंध सूँघने का प्रयास अवश्य करें। किसान के अनाज में दशाब्दियों से छल-कपट का शिकार हो रहे उनके पसीने की गंध आएगी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे पिछड़ेपन की गंध बस्साएगी। पोषक तत्त्वों की गिनती करते समय कड़ी धूप में कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसान की एकबारगी की याद दिल दहला देगी। असंख्य लीटर पसीना बहाकर खेतों की सिंचाई करने वाले भोले-भाले किसान की चमड़ी धूप में जलकर काली पड़ जाती है। विज्ञान की पुस्तकों में लिखा होता है कि ओजोन की परत पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं, किंतु वहीं ये पुस्तकें पाठ्यक्रम-दर-पाठ्यक्रम नदारद हो रहे कृषि संबंधी यह बात बताना भूल जाती हैं कि किसानों की झुर्राई-मुरझाई काली चमड़ी से ढकी इस दुनिया को भूखों मरने से बचाती है।
गाँवों में दूर-दूर तक फैली हरियाली की चादर के रेशे छिद्रान्वेषित होने लगे हैं। दिन-रात मेहनत करने वाले किसान के परिवार में नाच रही दरिद्रता भारत भाग्य विधाता से मुँह बाए प्रश्न करने पर मजबूर है। बार-बार पूछती है कि क्या अनाज पैदा करने वाला हमेशा दो जून की रोटी, कपड़ों के लिए तरसते रहेंगे? क्या उनके अनाज को खरीदने और बेचने वाले बिचौलिए तथा व्यापरी किसान को छल कपट से धोखा देते रहेंगे? खेतों की मिट्टी से सने हाथों को देखकर स्वयं किसानों को घिन्न आने लगी है। हल, खुरपी, हँसिए उसे चिढ़ाने लगे हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी जिंदगी कभी पूरी न हो सकी। त्यौहारों-उत्सवों, शोक के दिनों में भी अपने खेतों को न भूलने वाले किसान जिसकी चिंता में डूबे रहते हैं वही एक दिन उन्हें खा जाती है। इनकी दशा ऐसी है कि आँखों में आँसू हैं पर गिर नहीं रहे हैं। बादल घेरे हुए हैं लेकिन बरस नहीं रहे हैं। उन्होंने लोगों और सरकारों को कोसना तो कब का छोड़ दिया है। अब ये अपनी फूटी किस्मत पर माथा पीट रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब खेती के दिन लद जायेंगे और कहते फिरेंगे कि कभी हाड़-मांस के किसान खेती भी किया करते थे। खेती तो खेती होती है। यह अगर कोई इमारत होती तो कब की यूनेस्को की धरोहर सूची में शामिल हो जाती। शुक्र है कि यह कला है। उससे भी जरूरी भूख मिटाने का एक मात्र उपाय। इनसे इनकी पहचान मत छीनिए।
नब्बे के दशक में वैश्वीकरण के दौर के बाद किसानों को राजनीतिक एजेंडे में तो फंसाकर रखा गया, लेकिन विकास के एजेंडे से उन्हें बाहर कर दिया गया। बार-बार कृषकों के हितों की दुहाई दी गईं। उनके नाम पर समितियों का गठन हुआ। उन्हें सब्सिडी दी गईं। उनके कर्ज़ माफ़ किए गए, लेकिन किसान की आय कैसे बढ़ाई जाए, यह सुनिश्चित नहीं किया गया! बल्कि शासन-प्रशासन ने अन्नदाताओं की इकलौती निधि ‘आत्मसम्मान’ को रौंद कर उन्हें जान देने के लिए मजबूर कर दिया। ये आत्महत्याएँ नहीं बल्कि संस्थागत हत्याएँ हैं। इनके लिए राज्य और उसके विभिन्न निकाय जिम्मेदार हैं। एक कहावत हैं – “उत्तम करे कृषि, मध्यम करे व्यापार और सबसे छोटे करे नौकरी” ऐसा इसलिए कहा गया है क्योकि कृषि करने वाले लोग प्रकृति के सबसे करीब होते हैं और जो प्रकृति के करीब हो वह तो ईश्वर के करीब होता है। किंतु अब यह कथन उलटता जा रहा है। समय की दरकार है कि हम किसान को आश्वस्त करें। उन्हें भरोसा दिलाए कि अभी भी भारत गाँवों का देश है। स्मार्ट सिटी जब बनेंगे तब बनेंगे पहले यह देश सबका पेट भरने वाले को यह बताए कि सूखा, ऋण, बाढ़ के समय में उनके साथ खड़ा है। बैंकों में चक्कर लगाने पर भी लोन न मिलने की स्थिति में जिन साहूकारों से कर्ज लेते हैं, उनके चंगुल से बचाने की जिम्मेदारी हमारी है। उन्हें यह भरोसा दिलाना होगा कि फसल बीमा केवल चुनिंदा लोगों को नहीं मिलता, बल्कि सभी लोगों को मिलता है। उन्हें यह जताना होगा कि आज भी यह देश नाम के नहीं काम के किसान के साथ खड़ा है। नीतियों के बांझपन से मिट्टी की उर्वरा समाप्त करने की साजिशों को मुंहतोड़ जवाब देना होगा। यह देश पहले भी सोना-चाँदी पैदा करता था, पैदा करता है और पैदा करता रहेगा। किसान की हथेलियों ने हल, खुरपी, हँसिए पकड़कर अपनी रेखाएँ गंवाई अवश्य हैं, किंतु देश की हथेली की रेखाओं को कभी मिटने नहीं दिया। यही वह जज्बा है जिसके आगे देश नतमस्तक रहता है। किसान बेसहारा, मजबूर, बेबस, गरीब, लाचार का सूचक नहीं हमारे देश की शान है। इस शान के लिए जिस तरह सेना के जवानों के साथ हम व्यवहार करते हैं, ठीक उसी तरह से उनके साथ व्यवहार करने की आवश्यकता है। यह जिस दिन होगा उसी दिन जय जवान जय किसान का नारा सफल होगा।
श्री कैलाशचन्द्र पन्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर रचित पुस्तक का लोकार्पण
भोपाल । मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक एवं प्रखर हिंदी सेवी श्री कैलाशचन्द्र पन्त के 85 वें जन्म दिवस के अवसर पर डॉ. अर्चना निगम द्वारा रचित पुस्तक का ई-संस्करण "संघर्ष से विजयपथ की ओर" का लोकार्पण सीडी के रूप में उनके निवास पर किया गया। श्री पंत के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखी गई इस पुस्तक की भूमिका रबिन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एवं प्रसिद्ध रचनाधर्मी श्री संतोष चौबे ने लिखी है। इस पुस्तक में श्री पन्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है| श्री पन्त द्वारा पत्रकारिता, समाजसेवा, भाषा उत्थान के क्षेत्र में हासिल उप्लाब्धियों को इस पुस्तक में विशेष रूप से रेखांकित किया गया है|
इस अवसर पर वरिष्ठ लेखक तथा पत्रकार श्री युगेश शर्मा तथा हिंदी भवन के निदेशक डॉ. जवाहर कर्नावट ने श्री पंत को शाल भेंटकर तथा प्रतीक चिन्ह भेंट कर अभिनंदन किया। इस मौके पर श्रीमती किरण पन्त भी विशेष रूप से उपस्थित रही| लॉकडाउन की परिस्थितियों में इस पुस्तक को तैयार करने में श्रीमती कांता राय की विशेष भूमिका रही।
(कान्ता रॉय)
प्रशासनिक अधिकारी
हिन्दी भवन, भोपाल
दिहाड़ी मज़दूर का राशन
दिहाड़ी मज़दूर का राशन
श्मशान घर के पास
और उन तमाम जगहों पर
जो खाली थीं
विवादित ज़मीनें
या बंद हो गए
सरकारी दफ्तर
पुलों के नीचे
वे बैठे रहे लगभग
छिपकर
कि खदेड़ न दे
उन्हें फिर
सत्ता की पुलिस
वे बैठे रहे भूखे
एक के बाद दूसरे दिन चुपचाप
आखिर, उनके लिए
राशन लेकर
क्यों नहीं आयी
विपक्ष की एक भी पार्टी?
यह सम्पूर्ण ट्विटर पर
सरकार की लगातार
हेकड़ी बजाने से
बेहतर काम होता
क्या उन्हें बदलनी नहीं चाहिए
अपनी कैंपेन स्ट्रेटेजी?
कल के लिए
बिना घोषित किये ही
तुम्हें यतीम
उन्होंने सच बना दिया है
यतीम तुम्हें
तुम उन्हें मानना बंद कर दो
माई बाप अपना
छोड़ दिया है
तुमने पुकारना उन्हें
साहेब और हुज़ूर
और तुम्हें पूरा हक़ है
एक व्यवस्था की अपेक्षा का
लेकिन अनुपस्थिति में उसकी
और यों भी
खुद को तैयार करो
अचानक की एक ऐसी
दुनिया के लिए
जो सच कल्पनाओं से परे है
और हो सकती है
प्रकट कभी भी
जिसमें नहीं होंगे रोज़गार के कोई साधन
युद्ध बंदी होगी
एक ऐसी महामारी
जिसका इलाज केवल पैसों से
नहीं हो सकेगा
यह दुनिया भर के नेताओं की
साजिशों की दुनिया है
मज़दूरों
उन्हें बनानी थीं कुछ
नीतियां, पर्यावरण सम्बन्धी
लेकिन, यह उनके अभिवादन
आलिंगन, हैंडशेक और नमस्कार के बाद
अस्त्र प्रदर्शन की दुनिया है
और तुम बिल्कुल अपने भरोसे
जो भी करो
आज के लिए नहीं
अपने कल के लिए करो!
कल के लिए दाना पानी
कल तुम्हारे बच्चे का दिन
कल की तुम्हारी उम्मीदों की दुनिया
और कुछ योजनाएं
बिल्कुल तुम्हारी अपनी!
ये तुम्हें ही करना है
मज़दूरों!
तुम अगर इतनी बड़ी
अट्टालिकाएं बना सकते हो
तो ज़रूर बना सकते हो
अपना आज ही नहीं
कल भी!
------------ पंखुरी सिन्हा
काश !
काश !
काश! मेरी जुबान की
कड़वाहट के पीछे
तुम मेरे हृदय की मिठास को
समझ पाते ।
काश! मेरे मुस्काते
चेहरे के पीछे
तुम मेरे हृदय में दहकती
पीड़ा को समझ पाते।
काश ! मेरे बहते हुए
अश्कों के पीछे
तुम मेरे हृदय में बसी
मेरी कोमल भावनाओं को
समझ पाते।
काश! मेरे खिलखिलाते
चेहरे के पीछे
तुम मेरे अंतर्मन की
चीखती चिल्लाहट को
समझ पाते।
राजीव डोगरा 'विमल'
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश (युवा कवि लेखक)
(भाषा अध्यापक)
गवर्नमेंट हाई स्कूल,ठाकुरद्वारा।
Monday, July 20, 2020
हिंदी में वेबिनार की क्या दरकार विभिन्न विद्वानों के विचार।
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी - वरिष्ठ भाषाविद, सदस्य - केंद्रीय हिंदी समिति - कुछ लोग वेब-संगोष्ठी की वकालत कर रहे हैं। लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि वेब भी एलेक्ट्रोनिक के अंतर्गत आता है। हमें अंशी को अपनाना चाहिए न कि अंश को, ताकि भविष्य में कोई कठिनाई या उलझन न आ पाए। इस प्रकार आज के तकनीकी युग में इलेक्ट्रोनिक और कंप्यूटर का बहुत बड़ा योगदान है। इसी के परिप्रेक्ष्य में भविष्य में और भी कई तकनीकी उपकरणों का विकास होगा। 'इलेक्ट्रोनिक' के लिए कुछ लोगों ने हिन्दी में 'वैद्योतिकी' शब्द रखा है, जो जटिल और कठिन होने के कारण अभी तक प्रचलित नहीं हो पाया। वास्तव में तकनीकी शब्दों के निर्माण में सरलता, सहजता, सुगमता, स्वाभाविकता और संक्षिप्तता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है। इस लिए "ई-संगोष्ठी" शब्द वेबिनार के लिए उचित और उपयुक्त लगता है। इसके उच्चारण में सरलता और सहजता है तथा प्रयोग में संक्षिप्तता एवं सुगमता है। 'ई-संगोष्ठी' शब्द का प्रचलन पहले था, किंतु बहुत कम था। इस करोना वायरस के
कारण तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा वेबिनार शब्द का प्रयोग होने लगा और हिन्दी के विद्वानों ने भी इसे अपना लिया। पता नहीं हिन्दी विशेषज्ञों ने इस शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया। वस्तुत: शब्दों का प्रचलन उनके प्रयोग से ही होता है। इस लिए मेरे विचार में 'ई-संगोष्ठी' शब्द का प्रयोग करना असमीचीन नहीं होगा।
श्रीमती लीना मेहंदले सेवानिवृत्त भा.प्र.से. अधिकारी, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त, गोवा तथा सक्रिय भारतीय भाषा सेवी - ई-संगोष्ठी सहमत ।
प्रो. रंजना अरगडे , पूर्व निदेशक, स्कुल ऑफ लैंग्वेजिज़ तथा पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, गुजरात विद्यापीठ - ई संगोष्ठी से पूर्णत: सहमत
डॉ. एस.पी. दुबे, पूर्व अध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी तथा पूर्व अध्यक्ष मुंबई विश्वविद्यालय, बोर्ड ऑफ स्टडीज - आजकल वर्चुअल संगोष्ठियों का आयोजन बहुत जोर पर है,जिसे वेबिनार का नाम दिया जा रहा है। यह नाम प्रचलन में बड़ी तेजी से उभरा और इसकी स्वीकार्यता भी उतनी ही तीव्र गति से हुई। लेकिन अंग्रेजी के दो शब्दों से मिल कर बने इस शब्द के बजाय हिंदी में इसे 'ई संगोष्ठी' कहा जाना अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत लगता है। मेरे विचार से इलेक्ट्रानिक और आभासी साधनों से आयोजित संगोष्ठियों के लिए हिंदी में 'ई संगोष्ठी 'का प्रचलन ही उचित है।
प्रो. अमरनाथ, वरिष्ठ भारतीय भाषा सेवी तथा पूर्व विभागाध्यक्ष, कोलकाता विश्ववि्यालय - 'ई-संगोष्ठी' सही शब्द है। अवश्य चलेगा।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, आचार्य एवं अध्यक्ष , हिंदी विभाग , विक्रम विश्वविद्यालय,उज्जैन - 'वेबिनार' शब्द 'वेब' और 'सेमिनार' का मिश्रण है। वस्तुतः वेबिनार इंटरनेट पर आयोजित एक कार्यक्रम है, जहाँ विशेष रूप से ऑनलाइन दर्शकों द्वारा भाग लिया जाता है। यह इसे एक वेबकास्ट से अलग करता है, जिसमें भौतिक दर्शकों की उपस्थिति भी शामिल है। अंग्रेजी में वेबिनार के विकल्प के रूप में उपयोग किए जाने वाले अन्य शब्द वेब इवेंट, ऑनलाइन सेमिनार, वेब लेक्चर और वर्चुअल इवेंट हैं। हिंदी में वेबिनार के पर्याय के रूप में वेब संगोष्ठी, ऑनलाइन संगोष्ठी, वेब व्याख्यान आदि प्रचलित हैं। अतः मेरा निष्कर्ष है कि वेबिनार को वेब संगोष्ठी कहना उचित है।
प्रो.मंगला रानी,प्रोफेसर, हिंदी विभाग, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना- वेबिनार के लिये ई-संगोष्ठी उत्तम विकल्प है। वर्चुअल क्लास को गूगल आभासी वर्ग कहता है किंतु वह आभासी कतई नहीं है, बिल्कुल समक्ष है। मुझे इसे गृह - कक्षा अथवा घरेलू - वर्ग कहना ज्यादा उचित लगता है। ई-मैगजिन को ई-पत्रिका कहना सुविधाजनक एवं स्पष्ट है।
प्रोफेसर विष्णु सरवदे, केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद - वेबिनार की जगह ई-संगोष्ठी यह शब्द उपयुक्त है। यह शब्द ठीक लगता है। यह हिन्दी का अपना शब्द होगा। इस शब्द का प्रयोग हम कर रहै हैं।
अनिल गोरे, गणित शिक्षक एवं विख्यात मराठी-सेवी- ई उधार का भी क्यों लेना ? वी-संगोष्ठी संबोधन से क्या आपत्ति है ? उधार ज्यादा हो या थोडा ! उधार तो उधार होता है !
प्रो. सतीश पांडेय, डॉ सतीश पांडेय, पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, के. जे. सोमैया कला व वाणिज्य स्वायत्त महाविद्यालय मुंबई।संपादक समीचीन - 'वेबिनार' के हिन्दी विकल्प के संदर्भ में विगत कई दिनों से चल रही चर्चा और विमर्श मैं बड़े गौर से देख रहा था। मुझे लगता है कि हिंदी में पहले ही हमने 'ईमेल' शब्द को स्वीकार कर लिया है। थोड़ा आसान लगने वाले विकल्प जल्दी प्रचलन में आ जाते हैं। यह सर्व विदित है कि वे ही शब्द आगे स्वीकृत होते हैं जो लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाते हैं अन्यथा वे मात्र शब्दकोशों तक सीमित रह जाते हैं। इस दृष्टि से ई-मेल की तर्ज पर ई-संगोष्ठी अधिक व्यापकता लिए हुए उचित विकल्प लगता है जो ग्राह्य हो सकता है।
विनोद संदलेश, संयुक्त निदेशक, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार - बात कहने और सुनने की नहीं है। जब आवश्यकता होने पर आगत यानि उधार के शब्द एक भाषिक समाज में किसी विशेष कार्यसिद्धि के लिए प्रवेश करते हैं तो प्रयोक्ता उनके कई रूप प्रयोग में लाने का प्रयास करते हैं। यह उस भाषिक समाज अथवा प्रयोक्ता वर्ग की आवश्यकता भी है। अस्तु वेबिनार भी चलेगा, ई संगोष्ठी भी चलेगा और ऑनलाइन भी प्रयोग में आएगा। अब प्रश्न है कोई शब्द कितनी देर तक चलेगा और कोई शब्द उस भाषा में कब पक्का स्थान बनाएगा। मेरे अनुभव कहता है जिस एक विचार से उस भाषा में एक ही प्रकार के शब्द युग्म बनेगें या ऐसे शब्द युग्म बनने की उर्वरता होगी वही शब्द स्थायित्व ग्रहण कर लेगा जैसे ई गोष्ठी, ई संगोष्ठी, ई सरल वाक्यकोश, ई महाशब्द कोश, ई शिक्षण, ई प्रशिक्षण आदि आदि।।। अस्तु ई संगोष्ठी शब्द को निरंतर प्रयोग में लाये जाने की आवश्यकता है।।। सभी इस प्रयास में लगे रहीं बाकी भाषिक समाज पर छोड़ दें । यदि दम होगा तो स्थायी हो जाएगा।
रुद्रनाथ मिश्र, उप महाप्रबंधक (राजभाषा) - एनएमडीसी लिमिटेड - महोदय, मैं समझता हूं कि अभी उपयुक्त समय है जब वेबिनार का हिंदी पर्याय प्रचलित कर दिया जाए वरना "प्रचलित श्ब्द अपनाओ “ का चोला ओढकर वास्तव में अंग्रेजी शब्द अपनाओ का कार्य करने वाले तथाकथित सरलतावादी वेबिनार को इतना प्रचलित कर देंगे कि इसका हिंदी समतुल्य ढूंढने का उपक्रम कोई नहीं करेगा। चूंकि संगोष्ठी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से की जा जाती है अत: इसे ई-संगोष्ठी जैसा सटीक शब्द दिया जाना उचित रहेगा।
प्रदीप शर्मा, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा,चेन्नई - हम दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा,चेन्नई भी 'ई-संगोष्ठी' शब्द के लिए पूरी तरह सहमत हैं और भविष्य में इसी शब्द का ही प्रयोग करेंगे|
डॉ. आर.वी. सिंह, उप महाप्रबंधक राजभाषा, सिडबी - आपका प्रयास स्तुत्य है। अ कॉम्प्रीहेन्सिव इङ्गलिश-हिन्दी डिक्शनरी में डॉ. रघुवीर ने कितने नये-नये शब्द सुझाए। भूमिका में उन शब्दों का औचित्य भी प्रतिपादित किया। नियोजित भाषा-विकास की प्रक्रिया में नये शब्द बनाकर प्रस्तुत तो किए जा सकते हैं, किन्तु उन्हें चलाने न चलाने का काम प्रयोक्ता करेंगे। ई-संगोष्ठी शब्द बड़ा टकसाली है। इसे चलना चाहिए। हमारे भोजपुरी-अवधी क्षेत्रों में तो ई-संगोष्ठी (या इसंगोष्ठी) को बिलकुल धड़ल्ले से चलना चाहिए। आप इसे बार-बार लोगों के सामने लाइए। इतनी बार कि यह लोगों की जबान पर चढ़ जाए। भाषा तो चलती का नाम गाड़ी है। एक बार चल जाए तो कोई नहीं पूछता कि यह शब्द आया कहाँ से। व्युत्पत्ति तो शोध की विषयवस्तु बन जाती है।
इसंगोष्ठी बड़ा और उच्चारण में कठिन लगे तो इगोष्ठी कहिए। प्रयोग करने से डरना नहीं चाहिए। कोई क्या कहेगा, यह सोचने की भी ज़रूरत नहीं। आपको जो कहना है कहिए। शायद उसी में आपकी महारत हो। हम तो अपना काम करेंगे। आज अंग्रेजी पूरी दुनिया पर छा गयी है, तो उसका सबसे बड़ा कारण है उसमें अनुसंधान और विकास के लिए उत्कंठा और हर भाषित तत्व को सहज ही आत्मसात करने की उसकी ललक। हिन्दी में भी अनुसंधान व विकास निरन्तर चलते रहना चाहिए।
डॉ जवाहर कर्नावट, निदेशक, हिंदी भवन, भोपाल - ई-संगोष्ठी संकुचित अर्थ प्रदान करता है जब कि वेब संगोष्ठी व्यापकता लिए हुए है. ' ई ' इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया का सूचक है. हम ई-रिक्शा, ई-पुस्तक, ई-पास आदि का प्र्योग करते रहे है किंतु इनमेें कहीं भी ऑनलाइन प्रक्रिया नहीं है, अत: मुझे वेब संगोष्ठी अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है.।
डॉ राजेश कुमार वर्मा, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास इंदौर संभाग प्रमुख - सादर नमस्कार, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास इंदौर महानगर इकाई ने यह तय किया है कि अब हमारी जितनी भी ऑनलाइन संगोष्ठियाँ या कार्यशाला हो रही हैं, उनमें हम केवल ई- संगोष्ठी या ई-कार्यशाला शब्द का ही प्रयोग कर रहे हैं और मैं चाहूँगा कि पूरे देश में यह अभियान आगे बढ़े और इस अभियान के तहत हर व्यक्ति, हर संस्था, हर संगठन, जो इस तरह के कार्य में लगा हुआ है, वह अपने हर कार्य को ई- संगोष्ठी को ई-कार्यशाला, ई-राष्ट्रीय संगोष्ठी, ई - अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी इन नामों से ही जाने एवं अपने प्रपत्र पर अथवा सूचना पत्र पर इन नामों का ही उल्लेख करें। इस प्रकार बहुत जल्दी हम विभिन्न शब्दों से बाहर निकल चुके होंगे और ई- संगोष्ठी, ई-कार्यशाला, ई-व्याख्यान इन चीजों पर ध्यान केंद्रित होगा। इस अभियान के प्रति हमारी शुभकामनाएँ!
प्रोफेसर डॉ (मा) अरविन्द कुमार गुप्ता, भाषा संकाय, कृपनिधि ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस, बैंगलोर - मेरे विचार में भी ई-गोष्ठी होना चाहिए क्योंकि हम आमतौर पर सामूहिक परिचर्चा के लिए गोष्ठी शब्द का ही प्रयोग करते हैं और ई का प्रयोग उपसर्ग के रूप में हम एक लंबे समय से तकनीक के प्रयोग के लिए करते आ रहे हैं जैसे डिजिटल पुस्तक के लिए ई- पुस्तक, डिजिटल लाइब्रेरी के लिए ई- ग्रन्थालय शब्दों का प्रयोग होता रहा है, थोड़ा और संशोधन चाहें तो ई - संगोष्ठी प्रयोग किया जा सकता है।
मधुसूदन नायडू, सहायक निदेशक, हिशियो ( सेवानिवृत्त) नागपुर - वेबिनार केवल सेमिनार के लिए नहीं होता इसके अलावा मार्केटिंग के काम में आता है. उसके लिए ई संगोष्ठि से काम नहीं चलेगा।
राहुल खटे, प्रबंधक राजभाषा, भारतीय स्टेट बैंक,नाशिक - "ई-संगोष्ठी" ही योग्य शब्द है। क्योंकि यह न केवल वर्तमान के लिए बल्कि भविष्य में भी चलने योग्य है। 'ई-ऑफिस', 'ई-कार्यशाला', 'ई-संगोष्ठी', 'ई-बैठक', 'ई-गोष्ठी' से ई-संगोष्ठी समीचीन लगता है।
मोहन के गौतम - E भी तो अंग्रेज़ी का ही शब्द है। शब्दों को अपनाने से भाषा की उन्नति हाई होती है। हमारी हिंदी में भारतीय भाषाओं के साथ पुर्तगाली, फ़्रांसीसी , डच, फ़ारसी, तुर्की , अरबी से भी बहुत से शब्द अपना लिए हैं। आप इन शब्दों को निकाल कर बोलें तो आपका सम्प्रेषण नहीं होगा। इन संकुचित विचारों से शायद आप तो ख़ुश होंगे पर अन्य लोग नहीं। यदि भारत से कोई नाम निकल होता तो अन्य देशों में वह भी अपनाया जाता।
मोहनलाल मीणा - हिंदी के भाषाविदों ने इसके लिए "वेबसंगोष्टी" शब्द सुझाया है जो अंगरेजी के Webinar का सर्वमान्य और शाब्दिक एवं भावार्थ के अनुरूप है। मेरे विचार से इस पर ज्यादा सोच-विचार की कोई गुंजाइश नहीं है। यह काफी समय से प्रचलन में भी है। वाई.सी पांडेय - अंतर्जाल-संगोष्ठी या अंतर्संगोष्ठी ।
कमलकांत त्रिपाठी - ई संगोष्ठी से जी सहमत हूं। वैसे ई का पुछल्ला इसमें भी लगा ही हुआ है। हम वेबीनार को हिंदी का एक नया शब्द भी तो मान सकते हैं। संज्ञाएं संपर्क में आनेवाली भाषाओं में उछल कूद मचाती रहती हैं और एक दूसरी से संज्ञाएं ग्रहण करती रहती हैं। हिंदी में हजारों शब्द अरबी, फारसी, तुर्की से लेकर आत्मसात कर लिए गए हैं। इसलिए जो चल पड़ा सो चल पड़ा। लोगों पर जबरन कोई चीज न थोपी जा सकती है, न निषेध लागू किया जा सकता है।
प्रमोद दुबे - भाई शब्द ऐसा हो कि सभी समझ सके। इसलिए ई-संगोष्ठी ज्यादा उचित प्रतीत होता है।
राहुल मिश्र - हमने विगत २२ जून को अंतरराष्ट्रीय अंतर्जालिक परिसंवाद का संयोजन किया था।
अंजनि कुमार ओझा - सही है सर जी। हम यही ( ई-संगोष्ठी) कहते है।
रामराज्य शर्मा - सही कहा । यही ( ई-संगोष्ठी) होना चाहिए ।आज से हम आप इसी शब्द का प्रयोग शुरू कर दें ।
मृणालिका ओझा - हम ई संगोष्ठी के पक्षधर हैं।
अनुश्री प्रिया - ई संगोष्ठी उचित रहेगा।
तुषार कांति - जो प्रचलित है, अपनाने से भाषा समृद्ध ही होगी। घोंघा बसंत हो कर तुलसी भी राम चरित मानस न रच पाते।
शकुंतला चौहान - सही कहा आपने। ई संगोष्ठी ही कहना चाहिए।
अंजना चौधरी - मेरे विचार से ई संगोष्ठी एक सटीक शब्द है।
सोशल मीडिया के विभिन्न समूहों पर सैंकड़ों हिंदी व भारतीय भाषा प्रमियों, साहित्यकारों व भाषा-प्रेमियों ने अपनी सहमति जताई है और निम्नलिखित विद्वानों ने भी ई-संगोष्ठी शब्द पर अपनी सहमति प्रेषित की है।
श्रीमती संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच, हैदराबाद, सुश्री अंजना चौधरी, प्रसाद कोचरेकर, डॉ जगदीशचंद्र, पी.के. अग्रवाल प्रदीप्त, अनिल आर्य, डॉ. सतविर सिंह, इरा गुप्ता, बालमुकुंद पुरोहित, शेख वहाब, शरद यादव, डॉ. सतवीर सिंह, जगजीत कुमार गुप्ता, मनोज शुक्ला, सतपाल कौर आदि।
संयोजक मंतव्य
अगर केवल अनुवाद के माध्यम से तत्काल वेबिनार के लिए शब्द बनाना है तो सेमिनार के पर्याय के रूप में वेब में संगोष्ठी जोड़ते हुए शब्द बना लेना एक आसान काम है। मुझे भी पहले यही सूझा था पर और अधिक विचार किया तो लगा कि व्यापकता का शब्द लेना उचित होगा। हमें भविष्य को ध्यान में रखते हुए और विभिन्न वर्तमान और भावी विभिन्न माध्यमों और अन्य संबंधित शब्दों को ध्यान में रखते हुए यदि सोचना है तो वेब शब्द के बजाए ई संगोष्ठी शब्द को अपनाना बेहतर लगता है। इससे भविष्य में भी आवश्यकतानुसार 'ई' उपसर्ग के साथ अन्य शब्दों के साथ जोड़ कर नए शब्द बनाए जा सकेंगे। वेब का प्रयोग सब जगह नहीं किया जा सकता। हो सकता है भविष्य में ऐसे माध्यम भी आएँ जो वेब आधारित न हों। वर्तमान में भी विभिन्न अर्थछायाओं के साथ वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे वेब, वर्च्युअल, वीडियो, तथा ऑनलाइन आदि से बनने वाले ऐसे सभी शब्दों को 'ई' उपसर्ग के साथ हिंदी शब्द जोड़कर प्रयोग किया जा सकता है।
वेबिनार का पर्याय ई-संगोष्ठी होने के साथ-साथ, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग - ई-बैठक , ऑनलाइन मीटिंग - ई-बैठक, वर्चुअल क्लास - ई कक्षा, व्हाट्सएप पर होने वाली चर्चा- ई चर्चा, फेसबुक आदि पर प्रस्तुत ऑनलाइन संगोष्ठी - ई-संगोष्ठी, ई-चर्चा आदि। इसी प्रकार ई-कार्यशाला, ई-व्याख्यान, ई-कवि-सम्मेलन, ई-काव्य गोष्ठी, ई-परिचर्चा, ई-संवाद आदि अनेक शब्द बन सकेंगे। वर्तमान के विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए उपसर्ग के रूप में 'ई' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और भविष्य में भी किया जा सकेगा इसलिए मुझे लगता है कि 'ई' संगोष्ठी' को स्वीकार करना इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के विभिन्न मंचों और इससे संबंधित बनने वाले विभिन्न शब्दों आदि के लिए प्रयुक्त करना सरल, सहज और स्पष्ट होगा। ध्यान रहे कि सूचना-प्रौद्योगिकि नए-नए माध्यमों और प्रौद्योगिकी के साथ बहुत तेजी से बदल रही है। साल-दो साल बाद क्या नया आएगा और क्या दुनिया पर छाएगा, कोई नहीं जानता। ध्यान रहे 'ई' में 'वेब' है, 'वेब' में 'ई' नहीं। यदि हम सीमित से जुड़ गए तो हमें हर बार अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्दों का अनुवाद करते हुए अलग-अलग शब्द बनाने पड़ेंगे। आखिरकार, चलेगा तो वही जो जन-जन को होगा स्वीकार, हम भी उसे ही करेंगे स्वीकार। नमस्कार।
धन्यवाद ज्ञापन:
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की इस संगोष्ठी में विभिन्न विद्वानों ने गहनता से विचार-मंथन किया और अधिकांश लोग एक बात पर सहमत हैं कि हमें वेबिनार के लिए हिंदी व भारतीय भाषाओं में अपना कोई शब्द प्रयोग करना चाहिए। यह भविष्य के लिए भी अच्छा संकेत है कि जब कोई नई अवधारणा आए हम इसी प्रकार विचार-विमर्श कर किसी एक शब्द को अपनाएँ। वैचारिक भिन्नताएँ तो होंगी ही। यह भी क्यों सोचा जाए कि जो मैंने कह दिया पत्थर की लकीर हो गया। विचार-मंथन या जनस्वीकृति के अनुसार उसमें परिवर्तन भी हो सकता है। इसमें न किसी का लाभ है न हानि। यदि एक शब्द पर सर्वसम्मति न भी हो तो भी अंग्रेजी के शब्द को ज्यों का त्यों लेने के बजाए आवश्यकतानुसार एक से अधिक शब्द भी चलें तो भी विशेष कठिनाई नहीं। चर्चा में भाग लेने वाले तथा सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों के माध्यम से अपनी सहमति- असहमति, अपने विचार तथा सुझाव देने वाले सभी विद्वानों और भारतीय-भाषा प्रमियों का सादर, सप्रेम आभार व धन्यवाद।
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
बाढ़ का प्रकोप
बाढ़ का प्रकोप
बादल को फटते देखा है
बाढ़ में बर्बादी की रेखा है
डूब गई घरबार
चौपट हो गई फसलें
पानी की तेज़ रफ़्तार
अपने साथ सब कुछ
बहा ले जाने को है बेताब
चाहें पेड़ हो, बिजली की खंभे
या मकान जो भी रास्ते में
आता वह पानी की भेंट
चढ़ जाता
रास्तों के किनारे आश्रय
ढूंढते लोग
दाना- पानी को तरसते लोग
बदलते रहे साल पर साल
क्यों है लोगों का वहीं हाल?
राज कुमार साव
बादशाही रोड माठ पारा बर्धमान
पूर्व बर्धमान
पश्चिम बंगाल
अंक जीवन में सब-के-सब और अंत नहीं हैं। (गहन-चिन्तन-मनन करना चाहिए कि क्या ये अंक बच्चों की प्रतिभा की निशानी मान लिए जाये)
पिछले दस दिनों से बहुत हैरान हूँ मैं, एक अंधी दौड़ देख रहा हूँ, दसवीं और बारहवीं कक्षा के नतीजे क्या घोषित हुए, मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा की हर बच्चे के 95 प्रतिशत से ज्यादा मार्क्स बड़े-बड़े फोटो और फिर बधाइयों की बौछार, एक प्रतियोगिता और शुरू, क्या ये संभव है कि इतने-इतने मार्क्स वो भी बोर्ड कि परीक्षाओं में, मुझे तो पूरी शिक्षा प्रणाली पर ही संदेह हो गया है और व्यवस्था पर सवाल कुलबुलाने लगे है कि आखिर क्यों हमारी शिक्षा प्रणाली वास्तविक ज्ञान को परखने कि बजाय एक पोस्टर के लिए दौड़ रही है.
इसी बीच सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक पोस्ट का शब्द-शब्द मुझे पूर्ण सत्य लगता है. 499 वाली एक बिटिया परेशान है कि उसका 1 नंबर इस कम रह गया क्यूँकी वो सोशल मीडिया पर अपना समय देती थी। उसे पूरी तरह से एंटीसोशल ना बन पाने का दुःख है। मुझे उससे सहानुभूति है। उसके रिश्तेदारों को उसे तुरंत एक चॉकलेट देनी चाहिए और सर पर हाथ फेरते हुए कहना चाहिए, “बेटा सब ठीक हो जायेगा”। आज सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि स्कूली परीक्षाओं से मेरिट लिस्ट निकाली जाए या नहीं।
कोरोना वायरस महामारी द्वारा बनाई गई असाधारण परिस्थितियों के कारण सीबीएसई और सीआईएससीई बोर्ड के साथ-साथ लगभग हर राज्य बोर्ड ने ने इस साल कक्षा 10 और कक्षा 12 के परिणाम घोषित किए। इस कदम को कुछ लोगों द्वारा प्रगतिशील के रूप में देखा जाता है और कुछ अन्य द्वारा प्रतिगामी, इसलिए, यह आकलन करना आवश्यक हो जाता है कि मेरिट सूची को स्कूल की परीक्षाओं से हटा दिया जाना चाहिए या नहीं।
जिस बोर्ड के अंतर्गत पढ़ रहे बच्चे 500 में से 499 अंक ले आएं उस बोर्ड के मेम्बरान को सोचना चाहिए। जिस पेपर में बच्चों के 100 में से 100 अंक आएँ, उसकी पेपर सेटर समिति के हर सदस्य को गहन-चिन्तन-मनन करना चाहिए। क्या ये अंक बच्चों की प्रतिभा की निशानी मान लिए जाये? मेरे विचार से ये एक पूरी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते है। और साथ ही कॉपी जांचने वाले शिक्षकों को भी सोचन होगा कि क्या वे अपना काम सही तरीके से कर रहें है ? आखिर ज्यादातर छात्र इतने अंक कैसे ले पा रहे हैं ?
पर दोष इन मासूमों का नहीं है, दोष कमबुद्धि अध्यापकों, रट्टोत्पादी आंकलन व्यवस्था का है. इस आंकलन व्यवस्था से निकले रट्टू कोचिंगो की लिफ्ट से रातों-रात गली मोहल्ले में छा जायेंगे और मेरिट लिस्ट से छात्रों को यह काल्पनिक अहसास करवा देंगे कि उपलब्धि का मतलब क्या है और उनकी बाहरी मान्यता क्या है। यह छात्रों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है। मुझे ये सूची, जो छात्रों को उनके परीक्षा के अंकों के आधार पर रैंक करती है, निरर्थक लगती है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमें एहसास होता है कि ये योग्यता सूची कितनी बेमानी है,सामाजिक रुतबे के लिए भी परीक्षा के अंक हो सकते है क्या? सोचना होगा। लेकिन कभी भी कुल मिलाकर सफलता इससे निर्धारित नहीं की जा सकती है कि छात्र ने कितने अंक प्राप्त किए हैं।
इस तरह की सूचियों ने वर्षों से छात्रों पर अनावश्यक दबाव डाला है और हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में चूहे की दौड़ को तेज किया है। कम अंकों से जुड़ा कलंक, योग्यता सूचियों को दिया गया अनुचित महत्व वास्तव में इस बात का लक्षण है कि भारत में छात्रों को परीक्षाओं केअच्छे ग्रेड कैसे प्रभावित करते है, और किस तरह यहाँ निम्न स्कोर वाले छात्रों को कलंक से जोड़कर देखा जाता है, जिसके चलते देश भर में हज़ारों छात्र परीक्षा परिणाम के दिनों में आत्म हत्या कर लेते हैं.
स्कूलों और हमारे अन्य शिक्षण संस्थानों को ये बात ध्यान में रखनी होगी कि आज के इस ओद्योगिक और प्रतियोगी युग में नियोक्ता प्रतिभाओं की तलाश करते हैं, टॉपर्स की नहीं. नियोक्ताओं की भर्ती के मापदंड किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं जिसमें प्रतिभा, दृढ़ संकल्प, दूसरों के साथ काम करने की क्षमता, कौशल का सही सेट और एक हार्ड-वर्कर हो। ये कौशल दुर्भाग्य से हमारे शिक्षा प्रणाली के छात्रों में नहीं हैं। इतिहास के अध्यायों या रसायन विज्ञान के फॉर्मूले याद करने और अंकों पर अधिक ध्यान देने के बजाय, छात्रों को कौशल और ज्ञान प्राप्त करने का ज्यादा से ज्यादा प्रयास करना चाहिए।
आज इस चूहा दौड़ की प्रक्रिया में, स्कूल पाठ्यक्रम छात्रों को महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक जीवन कौशल से वंचित करता है। इस माह परिणाम घोषित होने के ठीक बाद, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कई लोगों ने इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए अपने पुराने बोर्ड परीक्षा के अंक साझा किए कि अंक जीवन में सब-के-सब और अंत नहीं हैं। आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने ट्विटर पर लिखा कि वह 12 वीं कक्षा में अपनी रसायन विज्ञान की परीक्षा देने में मुश्किल से कामयाब रहे, लेकिन इससे उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। हालांकि, कुछ शिक्षाविदों और रैंक धारकों ने मेरिट सूची के महत्व पर जोर दिया:
एक बार मेरिट सूची में आ जाने के बाद, छात्र बोर्ड परीक्षा को गंभीरता से नहीं लेते। मेरिट लिस्ट में जगह बनाने की सोच छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा करती है। योग्यता सूची में एक रैंक हासिल करने के बाद प्राप्त प्रशंसा के टोकन से उन्हें थोड़े समय की संतुष्टि मिलती है। यद्यपि मेरिट सूची छात्रों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करती है, लेकिन हमे प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। योग्यता आधारित प्रणाली की कमियों को दूर करने के लिए बेहतर शिक्षा परिणामों के लिए नवीन विचारों को पाठ्यक्रमों में लागू करना चाहिए।
परियोजना टीमों में एक साथ काम करना और प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा निर्देशित करना, छात्र समूहों में सहयोग, भावनाओं को प्रबंधित करने और संघर्षों को हल करने के कौशल सीखना अंकों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। छात्र शक्ति और कमजोरियों की एक विस्तृत, निरंतर प्रोफ़ाइल के लिए मूल्यांकन को सरल परीक्षण स्कोर से परे विस्तारित किया जाना चाहिए। शिक्षक, माता-पिता और व्यक्तिगत छात्र अकादमिक प्रगति की बारीकी से निगरानी का तरीका ढूंढना चाहिए हैं और उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनमें सुधार की आवश्यकता है।
इसलिए मेरिट लिस्ट को स्क्रैप करना एक प्रगतिशील दृष्टिकोण है क्योंकि यह छात्रों के दिमाग से अच्छा प्रदर्शन करने के अनावश्यक बोझ को कम करता है। लेकिन साथ ही कुछ अन्य विधियां तैयार की जानी चाहिए ताकि प्रत्येक छात्र का समग्र एवं सर्वांगीण विकास हो सके. जब एप्पल का कोफाउंडर ये कह देता है कि ‘भारत के छात्रों में रचनात्मकता नहीं है’ तो हमें थोड़ा दिन अवश्य देना चाहिए और जहां हमारी शिक्षा व्यस्था कमजोर दिखे वहां उसे दुरुस्त करने की जिम्मेवारी उठानी चाहिए ताकि देश का भविष्य सही हाथों में सुरक्षित रह सके और तभी होगा जब शिक्षा ठीक होगी.
Sunday, July 19, 2020
गीता का धर्म राष्ट्रधर्म
गीता हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र ग्रन्थ माना जाता है । धर्म का सामान्य अर्थ जातीय सम्प्रदाय से अथवा वर्ण व्यवस्था से लिया जाता है परन्तु यदि हम गीता का विशद अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि गीता में किसी धर्म विशेष की व्याख्या नहीं की गई न कोई धार्मिक विश्लेषण किया गया है । गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक है –
धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किम कुर्वत संजय ।। अध्याय 1 श्लोक 1
तथा
अठारहवें अध्याय का अंतिम श्लोक है -
यत्र योगेश्वरः कृष्णो तत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्री र्विजयो भूर्तिध्रुवा नीतिर्ममतिर मम । । अध्याय 18 श्लोक 78
अर्थात गीता का पहला शब्द धर्म और अंतिम शब्द मम है ।
सम्पूर्ण गीता में मम धर्म की व्याख्या की गई है अर्थात मेरा धर्म क्या है ? इस प्रकार सम्पूर्ण गीता का प्रतिपाद्य विषय मेरा धर्म क्या है ?
हिन्दू धर्म में धर्म को एक व्यापक स्वरूप में लिया गया है जिसका तुल्य शब्द अन्य भाषा में नहीं । धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के धृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना । अतः धर्म शब्द का अर्थ है - धारणाद् धर्म मित्याहु । धर्मेण विधृता प्रजाः । अर्थात जिसके द्वारा कोई वस्तु पूर्ण रूप में धारण की हुई रहती है ।
इस प्रकार धर्म का तात्पर्य यह है कि वह जो किसी वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है । जैसे सूर्य का धर्म प्रकाश है अग्नि का धर्म उष्णता है । धर्म का अर्थ केवल साधुता या नैतिकता नहीं है वरन अपने सच्चे स्वरूप को पहचान उसी के अनुरूप कार्य करना है ।इस प्रकार मनुष्य का धर्म मानवता है ।
इसी धर्म की व्याख्या गीता के अठारह अध्यायों में विभिन्न रूपों में की गई है । गीता का सारांश है - मेरा धर्म क्या है ? गीता का ज्ञान सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में युद्ध के मैदान में युद्ध से होने वाले दुश्परिणामों के विषय में सोचकर मोहग्रस्त अर्जुन को अपने राष्ट्र को बचाने के लिए निराशा से मुक्ति दिलाने के लिए श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया ज्ञान है । अर्जुन कहता है -
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृतस्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।। अध्याय 1 श्लोक 40
अर्जुन का तर्क है कि कुल के नष्ट हो जाने से सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं । धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाते हैं ।श्री कृष्ण का उपदेश इसी संदर्भ में है कि राष्ट्र की संस्कृति ,उसकी रक्षा ,उसकी सेवा अच्छे नागरिक का कर्तव्य पूरा करके की जा सकती है पलायन करके नहीं । व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है । व्यक्ति के उत्थान से समाज का और समाज के उत्थान से राष्ट्र का उत्थान होता है ।
व्यक्ति के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वह नैतिक और भौतिक दोनों पक्षों को समान रूप से विकसित करने का प्रयास करे । येन केन प्रकारेण से अर्जित किए धन से भौतिक साधन तो प्राप्त किए जा सकते हैं परन्तु नैतिकता के गुणों का विकास न होने से सुख शान्ति का सर्वथा अभाव रहता है । इन्हीं नैतिक गुणों का विकास कैसे हो , सही जीवन जीने की कला का ज्ञान गीता में दिया गया है ।
गीता में प्रमुख रूप से राष्ट्रधर्म की ही शिक्षा दी गई है । इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति का राष्ट्र के प्रति क्या धर्म होना चाहिए कौन से गुण होने चाहिए जिससे वह राष्ट्र का सुयोग्य नागरिक बन सके । राष्ट्रधर्म के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति में राष्ट्रवादिता , पराक्रमशीलता, पारदर्शिता , दूरदर्शिता , मानवतावाद , अध्यात्मवाद , विनयशीलता जैसे गुण हों । गीता में इन्हीं तत्वों को विकसित करने का ज्ञान दिया गया है ।
राष्ट्रवादिता - राष्ट्र की संस्कृति की इकाई कुल की अर्थात परिवार की संस्कृति होती है युद्ध से सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो जाएगी । इस प्रकार अर्जुन के माध्यम से यह बताया गया है कि व्यक्ति के हृदय में धर्म और तत्वज्ञान की मांग तभी होगी जब उसमें राष्ट्र के प्रति अनुराग होगा और अपने वह उसके प्रति कर्तव्य का अनुभव करेगा । इस प्रकार प्रथम अध्याय से ही राष्ट्र के प्रति समपर्ण गीता में दर्शाया गया है ।
कर्तव्यपराणयता- गीता वास्तव में कर्म योग का ग्रंथ है। कर्मयोग का अर्थ है कर्म करते हुए लक्ष्य की ओर अग्रसर होना। हर व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई संघर्ष चलता रहता है । इनसे विचलित हुए बिना निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए -
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम् जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय यु़द्धाय कृतनिश्चयः।। अध्याय 2,श्लोक 37
‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे! अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।‘
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः।
मा कर्मफल हेतुःमा भूःते अकर्मणि संग मा अस्तु।। अध्याय 2,श्लोक 47
‘तेरा कर्म करने में अधिकार है उसके फल मेें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति न हो।‘कर्मनिष्ठ बनकर ही राष्ट्र की सेवा की जा सकती है ।
कोई कार्य छोटा-बड़ा या अच्छा बुरा नहीं होता -
बिना प्रयास के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता कोई कार्य छोटा-बड़ा अच्छा बुरा नहीं होता। हर काम में कुछ न कुछ अच्छाई है तो कुछ न कुछ बुराई भी होगी।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेन अग्निःइव आवृताः ।। अ० 18,श्लोक 48
दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। कार्य छोटा है बड़ा , अच्छा है या बुरा जब यह भाव मन में नहीं आता तो कार्य की गुणवत्ता स्वतः बढ़ जाती है । यदि हर व्यक्ति अपने नियत कार्य को सम्पूर्ण लगन से करे तो राष्ट्र की उन्नति अवश्य होगी ।
स्वाभिमान के साथ जीवन -
कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें सारी अच्छाई हो तथा कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें केवल बुराइयाँ हों।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। अ०3,श्लोक 35
‘अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इसलिए-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। अ०18,श्लोक 47
‘अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।‘
यहाँ धर्म से तात्पर्य हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई से नहीं है जैसा कि दूसरे श्लोक में स्पष्ट किया गया है । यहाँ धर्म से तात्पर्य है - मनुष्य का धर्म मानवता से है उसके अपने कार्यों से है । जैसे रेल चलाने वाला एक व्यक्ति हवाई जहाज चलाने का प्रयास करे तो दुर्घटना होना निश्चित है । परिणाम भयावह ही होगा । अतः अच्छी तरह से आत्मसात अपनी कार्यक्षमता के अनुरूप ही कार्य करके राष्ट्रधर्म का पालन किया जा सकता है ।
विषय वासनाओं का त्याग -
ध्यायतः, विषयान् पुसः, सग्ङ, तेषु, उपजायते, ।
सग्ङात्,सञजायते,कामः,कामात्,क्रोधः,अभिजायते ।। अ० 2 श्लोक 62
‘विषयों का चिन्तन करने वाले पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्म्तिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। अ० 2 श्लोक
क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़भाव से स्म्ति में भ्रम हो जाता है , स्म्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरूष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।
चोरी ,डकैती ,लूट ,रिश्वतखोरी और हर प्रकार के भ्रष्टाचार का कारण विषयों का चिन्तन अर्थात भौतिक चीजों को प्राप्त करने की अन्धानुकरण प्रवृति है । भौतिक सुखों के पीछे व्यक्ति दौड़ रहा है वही उसके दुखों का कारण है । आज राष्ट्र की सम्पूर्ण समस्यायों की जड़ यही विषयों का चिन्तन है ।
ईश्वर में अटूट आस्था- सच्चे राष्ट्रभक्त में ईश्वर के प्रति आस्था होती है वह राष्ट्रसेवा को ईश सेवा की तरह ही लेता है - अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। अ० 9,श्लोक 22
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरूषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
मन्मनाः भव मदभक्तः मद्या जी माम् नमस्कुरू ।
मामेवैष्यसि सत्यम् ते प्रतिजाने प्रियोऽअसि मे ।। अध्याय 18 श्लोक 65
मुझमें मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा । यह मैं तुझसे सत्यप्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
समस्त कर्मों को ईश्वर में समर्पित करने से काम बिगड़ने का भय और कर्तापन का अभिमान नहीं रहता । सहज,सरल ,सकारात्मक व्यक्ति ही ऊर्जावान होता है । ऐसे लोग ही राष्ट्र के निर्माण में सहायक होते हैं
बाहय आडम्बर का अभाव- जैसे ईश्वर की आराधना के लिए किसी भी आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती, - पत्रं पुष्प फलं तोयं यो मे भक्त्था प्रयच्छति
तत् अहम् भक्त्युपहृतम् अश्नानि प्रश्तात्ममः
‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्रं, पुष्प, फल, जल, आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादि मैं सगुन रूप से प्रकट होकर प्रीति पूर्वक खाता हूँ।‘
वैसे ही देश सेवा के लिए भी किसी प्रकार के आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती,। अच्छा इंसान बनना ही सबसे बड़ा राष्ट्र सेवक बनना है ।
विनम्रता का भाव - व्यक्ति में विनम्रता का भाव उसे सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है
विद्या विनयसम्पन्ने, ब्राह्यमणे,गवि, हस्तिानि ।
शुनि,च रस,श्वपाके,च पण्डिताःसमदर्शिनः ।।अ०5,श्लोक 18
‘ज्ञानी विद्या और विनययुक्त ब्राहमण मे तथा गौ, हाथी, कुत्ते, और चाण्डाल में भी समदर्शी होते हैं।‘सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही ईश्वर के दर्शन करता है ।
सर्वभूत सर्वात्मा-
सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्र, समदर्शनः ।। अ०6,श्लोक 29
‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।‘ऊँच -नीच , अमीर गरीब ,देश जाति ,सम्प्रदाय से ऊपर उठकर वसुधैव कुटुम्बकम की परिकल्पना राष्ट्र के लिए ही नहीं वरन विश्व के लिए भी आवश्यक है ।
आत्मा की अमरता में विश्वास-
गीता, आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध जोड़ने वाली एक कड़ी है। गीता में कहा गया है कि
वासंसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृहयाति नरः अपराणि
तथा शरीराय विहाय जीर्णानि
अन्यानि, संयाति, नवानि देही अ०2,श्लोक 22
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। आत्मा का विकास करने का अर्थ है, चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना, आत्मज्ञान प्राप्त करना।‘
आत्मा अज़र अमर और शाश्वत है यही विश्वास हमारे सैनिकों का मनोबल ऊँचा करता है जो हंसते हंसते राष्ट्र की बलिवेदी पर निःसार हो जाते हैं ।
नेताओं को श्रेष्ठ आचरण करना चाहिए-
यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः।
अःयत् प्रमाणम् कुरूते लोकः अनुवर्तते ।। अ०3,श्लोक 21
‘श्रेष्ठ पुरूष जो जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगता है।‘ मनुष्य का स्वभाव होता है कि जिसे वह श्रेष्ठ समझता है उसका अनुकरण करने का प्रयास करता है। उच्च, ख्याति प्राप्त लोगों को श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। लोकसेवा करने वालों को कभी कोई बहुमूल्य वस्तु भेंट स्वरूप नहीं स्वीकार करनी चाहिए।यदि यह बात आज के नेताओं को समझ आ जाए तो भ्रष्टाचार की समस्या स्वतः हल हो जाए ।
त्याग की भावना-
आसक्ति अनभिष्वअः पुत्रदार गृहादिषु ।
नित्यम् च समचित्वम् इष्टा निष्टोंपपत्तिपु ।। अ०13,श्लोक 1
‘पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना।‘
विषया विनिवर्तन्ते निराहरस्य देहिनः
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवां निवर्तते अ०2,श्लोक 59
‘इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरूष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरूष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।‘ अयम् निजः अयम् परोवेति ,गणना लघुचेतसाम् ।
उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
मुझे क्या और मेरा क्या इस प्रवृति से ऊपर उठकर जीवन जीने वाला ही राष्ट्र का सच्चा नागरिक बन सकता है ।
अहिंसा-
अहिंसा,सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिपैशुनम् ।
दया, भूतेष्वलोलुप्त्वं्, मार्दवं, हृीरचापलम् ।। अ०16,श्लोक 2
मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार किसी को भी कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना उपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्माें में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दा न करना, सब भूत प्राणियांे में हेतुरहित दया इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।
भय का सवर्था अभाव
अभयम् सत्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानम्,दमः,च,यज्ञः,च,स्वाध्यायः,तपः,आर्जवम् अ०16,श्लोक 1
भय का सवर्था अभाव, अंतकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान, योग में निरन्तर दृढस्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरूजनों की पूजा आदि ।
शुद्ध ,निर्मल अंतःकरणः वाले व्यक्ति के हृदय में परमात्मा का वास होता है । राष्ट्र की सेवा के लिए ऐसा व्यक्ति सदैव तत्पर रहता है ।
मानवीय मूल्यांे पर पूर्ण आस्था-मन को यदि वश में कर लिया जाए तो दुःखों का स्वतः नाश हो जाएगा
यो न हृष्यति ने द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः।। अध्याय 18 श्लोक 78
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझको प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सग्ङविवर्जितः ।। अध्याय 18 श्लोक 78
जो शत्रु-मित्र में और मान अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखदि द्वन्द्वों मे सम है और आसक्ति से रहित है।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।। अध्याय 18 श्लोक 78
जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरूष मुझको प्रिय है।
जो उपरोक्त गुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर ले वह निश्चय ही मानव से महामानव बन जाएगा । ऐसे नागरिकों से विभूषित राष्ट्रनिश्चय ही विश्व गुरू बन जाएगा । इस प्रकार गीता में धर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में ही प्रतिपादित किया गया है । राष्ट्रधर्म के प्रति आवाहन करना ही गीता का धर्म है ।
स्नेह लता
विकास नगर , लखनऊ
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