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Sunday, July 19, 2020

गीता का धर्म  राष्ट्रधर्म      

           गीता हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र ग्रन्थ माना जाता है । धर्म का सामान्य अर्थ जातीय सम्प्रदाय से अथवा वर्ण व्यवस्था से लिया जाता है परन्तु यदि हम गीता का विशद अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि गीता में किसी धर्म विशेष की व्याख्या नहीं की गई न कोई धार्मिक विश्लेषण किया गया है । गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक है –


        धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।


        मामकाः पाण्डवाश्चैव किम कुर्वत संजय ।। अध्याय 1 श्लोक 1


                   तथा


अठारहवें अध्याय का अंतिम श्लोक है -


        यत्र योगेश्वरः कृष्णो तत्र पार्थो धनुर्धरः ।


        तत्र श्री र्विजयो भूर्तिध्रुवा नीतिर्ममतिर मम । । अध्याय 18 श्लोक 78


 अर्थात गीता का पहला शब्द धर्म और अंतिम शब्द मम है ।


सम्पूर्ण गीता में मम धर्म की व्याख्या की गई है अर्थात मेरा धर्म क्या है  ? इस प्रकार सम्पूर्ण गीता का प्रतिपाद्य विषय मेरा धर्म क्या है ?


   हिन्दू धर्म में धर्म को एक व्यापक स्वरूप में लिया गया है जिसका तुल्य शब्द अन्य भाषा में नहीं । धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के धृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना । अतः धर्म शब्द का अर्थ है - धारणाद् धर्म मित्याहु । धर्मेण विधृता प्रजाः । अर्थात जिसके द्वारा कोई वस्तु पूर्ण रूप में धारण की हुई रहती है ।


         इस प्रकार धर्म का तात्पर्य यह है कि वह जो किसी वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है । जैसे सूर्य का धर्म प्रकाश है अग्नि का धर्म उष्णता है । धर्म का अर्थ केवल साधुता या नैतिकता नहीं है वरन अपने सच्चे स्वरूप को पहचान उसी के अनुरूप कार्य करना है ।इस प्रकार मनुष्य का धर्म मानवता है ।


        इसी धर्म की व्याख्या गीता के अठारह अध्यायों में विभिन्न रूपों में की गई है । गीता का सारांश है - मेरा धर्म क्या है ? गीता का ज्ञान सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में युद्ध के मैदान में युद्ध से होने वाले दुश्परिणामों के विषय में सोचकर मोहग्रस्त अर्जुन को अपने राष्ट्र को बचाने के लिए निराशा से मुक्ति दिलाने के लिए श्रीकृष्ण द्वारा  दिया गया ज्ञान है । अर्जुन कहता है -


                   कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।


                   धर्मे नष्टे कुलं कृतस्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।। अध्याय 1 श्लोक 40


      अर्जुन का तर्क है कि कुल के नष्ट हो जाने से सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं । धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाते हैं  ।श्री कृष्ण का उपदेश इसी संदर्भ में है कि राष्ट्र की संस्कृति ,उसकी रक्षा ,उसकी सेवा अच्छे नागरिक का कर्तव्य पूरा करके की जा सकती है पलायन करके नहीं । व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है । व्यक्ति के उत्थान से समाज का और समाज के उत्थान से राष्ट्र का उत्थान होता है ।


       व्यक्ति के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वह नैतिक और भौतिक दोनों पक्षों को समान रूप से विकसित करने का प्रयास करे । येन केन प्रकारेण से  अर्जित किए धन से भौतिक साधन तो प्राप्त किए जा सकते हैं परन्तु नैतिकता के गुणों का विकास न होने से सुख शान्ति का सर्वथा अभाव रहता है । इन्हीं नैतिक गुणों का विकास कैसे हो , सही जीवन जीने की कला का ज्ञान गीता में दिया गया है ।


    गीता में प्रमुख रूप से राष्ट्रधर्म की ही शिक्षा दी गई है । इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति का राष्ट्र  के प्रति क्या धर्म होना चाहिए कौन से गुण होने चाहिए जिससे वह राष्ट्र का सुयोग्य नागरिक बन सके । राष्ट्रधर्म के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति में  राष्ट्रवादिता , पराक्रमशीलता, पारदर्शिता , दूरदर्शिता , मानवतावाद , अध्यात्मवाद , विनयशीलता जैसे गुण हों । गीता में इन्हीं तत्वों को विकसित करने का  ज्ञान दिया गया है ।


राष्ट्रवादिता - राष्ट्र की संस्कृति की इकाई कुल की अर्थात परिवार की संस्कृति होती है युद्ध से सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो जाएगी । इस प्रकार अर्जुन के माध्यम से यह बताया गया है कि व्यक्ति के हृदय में धर्म और तत्वज्ञान की मांग तभी होगी जब उसमें  राष्ट्र के प्रति अनुराग होगा और अपने वह उसके प्रति  कर्तव्य का अनुभव करेगा । इस प्रकार प्रथम अध्याय से ही राष्ट्र के प्रति समपर्ण गीता में दर्शाया गया है ।


कर्तव्यपराणयता- गीता वास्तव में कर्म योग का ग्रंथ है। कर्मयोग का अर्थ है कर्म करते हुए लक्ष्य की ओर अग्रसर होना। हर व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई संघर्ष चलता रहता है । इनसे विचलित हुए बिना निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए -  


                    हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम् जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम् ।


                तस्मात्  उत्तिष्ठ  कौन्तेय  यु़द्धाय कृतनिश्चयः।।  अध्याय   2,श्लोक 37


‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे! अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।‘  


                     कर्मण्येवाधिकारस्ते   मा  फलेषु     कदाचनः।


                     मा कर्मफल हेतुःमा भूःते अकर्मणि संग मा अस्तु।। अध्याय 2,श्लोक 47


‘तेरा कर्म करने में अधिकार है उसके फल मेें कभी नहीं।  इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति न हो।‘कर्मनिष्ठ बनकर ही राष्ट्र की सेवा की जा सकती है ।


कोई कार्य छोटा-बड़ा या  अच्छा बुरा नहीं होता -


  बिना प्रयास के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता कोई कार्य छोटा-बड़ा अच्छा बुरा नहीं होता। हर काम में कुछ न कुछ अच्छाई है तो कुछ न कुछ बुराई भी होगी।


             सहजं कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।


             सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेन अग्निःइव आवृताः ।। अ० 18,श्लोक 48


        दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। कार्य छोटा है बड़ा ,  अच्छा है या बुरा जब यह भाव मन में नहीं आता तो कार्य की गुणवत्ता स्वतः बढ़ जाती है । यदि हर व्यक्ति अपने नियत कार्य को सम्पूर्ण लगन से करे तो राष्ट्र की उन्नति अवश्य होगी ।


स्वाभिमान के साथ जीवन -


कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें सारी अच्छाई हो तथा कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें केवल बुराइयाँ हों।


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।


                 स्वधर्मे निधनं   श्रेयः परधर्मो    भयावहः ।। अ०3,श्लोक 35


‘अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इसलिए-


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।


               स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। अ०18,श्लोक 47


‘अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।‘


यहाँ धर्म से तात्पर्य हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई से नहीं है जैसा कि दूसरे श्लोक में स्पष्ट किया गया है । यहाँ धर्म से तात्पर्य है - मनुष्य का धर्म मानवता से है उसके अपने कार्यों से है । जैसे रेल चलाने वाला एक व्यक्ति हवाई जहाज चलाने का प्रयास करे तो दुर्घटना होना निश्चित है । परिणाम भयावह ही होगा । अतः अच्छी तरह से आत्मसात अपनी  कार्यक्षमता के अनुरूप ही कार्य करके राष्ट्रधर्म का पालन किया जा सकता है ।


विषय वासनाओं का त्याग -


                   ध्यायतः, विषयान् पुसः, सग्ङ, तेषु, उपजायते, ।


            सग्ङात्,सञजायते,कामः,कामात्,क्रोधः,अभिजायते ।। अ० 2 श्लोक 62


   ‘विषयों का चिन्तन करने वाले पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।


                        क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।


                     स्म्तिभ्रंशाद  बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। अ० 2 श्लोक


            क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़भाव से स्म्ति में भ्रम हो जाता है , स्म्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरूष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।


चोरी ,डकैती ,लूट ,रिश्वतखोरी और हर प्रकार के भ्रष्टाचार का कारण विषयों का चिन्तन अर्थात भौतिक चीजों को प्राप्त करने की अन्धानुकरण प्रवृति है । भौतिक सुखों के पीछे व्यक्ति दौड़ रहा है वही उसके दुखों का कारण है ।  आज राष्ट्र की सम्पूर्ण समस्यायों की जड़ यही विषयों का चिन्तन है ।


ईश्वर में अटूट आस्था-  सच्चे राष्ट्रभक्त में ईश्वर के प्रति  आस्था होती है वह राष्ट्रसेवा को ईश सेवा की तरह ही लेता है -      अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते


                   तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। अ० 9,श्लोक 22


जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरूषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।


                     मन्मनाः भव मदभक्तः मद्या जी माम् नमस्कुरू ।


                 मामेवैष्यसि सत्यम् ते प्रतिजाने प्रियोऽअसि मे ।। अध्याय 18 श्लोक 65


मुझमें मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा । यह मैं तुझसे सत्यप्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।


समस्त कर्मों को ईश्वर में समर्पित करने से काम बिगड़ने का भय और कर्तापन का अभिमान नहीं रहता । सहज,सरल ,सकारात्मक व्यक्ति ही ऊर्जावान होता है । ऐसे लोग ही राष्ट्र के निर्माण में सहायक होते हैं


बाहय आडम्बर का अभाव- जैसे ईश्वर की आराधना के लिए किसी भी आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती, -                  पत्रं पुष्प फलं तोयं यो मे भक्त्था प्रयच्छति


                      तत् अहम् भक्त्युपहृतम् अश्नानि प्रश्तात्ममः


‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्रं, पुष्प, फल, जल, आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादि मैं सगुन रूप से प्रकट होकर प्रीति पूर्वक खाता हूँ।‘


वैसे ही देश सेवा के लिए भी किसी प्रकार के आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती,। अच्छा इंसान बनना ही सबसे बड़ा राष्ट्र सेवक बनना है ।


विनम्रता का भाव - व्यक्ति में विनम्रता का भाव उसे सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है


                विद्या विनयसम्पन्ने, ब्राह्यमणे,गवि, हस्तिानि ।


                शुनि,च रस,श्वपाके,च पण्डिताःसमदर्शिनः ।।अ०5,श्लोक 18


‘ज्ञानी विद्या और विनययुक्त ब्राहमण मे तथा गौ, हाथी, कुत्ते, और चाण्डाल में भी समदर्शी होते हैं।‘सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही ईश्वर के दर्शन करता है ।


सर्वभूत सर्वात्मा-


          सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि च आत्मनि ।


          ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्र, समदर्शनः ।। अ०6,श्लोक 29


‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप  योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।‘ऊँच -नीच , अमीर गरीब ,देश जाति ,सम्प्रदाय से ऊपर उठकर वसुधैव कुटुम्बकम की परिकल्पना राष्ट्र के लिए ही नहीं वरन विश्व के लिए भी आवश्यक है ।


आत्मा की अमरता में विश्वास-


गीता, आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध जोड़ने वाली एक कड़ी है। गीता में कहा गया है कि


           वासंसि जीर्णानि यथा विहाय


            नवानि गृहयाति नरः अपराणि


            तथा शरीराय विहाय जीर्णानि


            अन्यानि, संयाति, नवानि देही अ०2,श्लोक 22


‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। आत्मा का विकास करने का अर्थ है, चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना, आत्मज्ञान प्राप्त करना।‘


 आत्मा अज़र अमर और शाश्वत है यही विश्वास हमारे सैनिकों का मनोबल ऊँचा करता है जो हंसते हंसते राष्ट्र की बलिवेदी पर निःसार हो जाते हैं ।


नेताओं को श्रेष्ठ आचरण करना चाहिए-


                 यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः।


                 अःयत्     प्रमाणम्  कुरूते   लोकः  अनुवर्तते ।।  अ०3,श्लोक 21


‘श्रेष्ठ पुरूष जो जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगता है।‘ मनुष्य का स्वभाव होता है कि जिसे वह श्रेष्ठ समझता है उसका अनुकरण करने का प्रयास करता है। उच्च, ख्याति प्राप्त लोगों को श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। लोकसेवा करने वालों को कभी कोई बहुमूल्य वस्तु भेंट स्वरूप नहीं स्वीकार करनी चाहिए।यदि यह बात आज के नेताओं को समझ आ जाए तो भ्रष्टाचार की समस्या स्वतः हल हो जाए ।


त्याग की भावना-


                आसक्ति अनभिष्वअः पुत्रदार गृहादिषु ।


               नित्यम् च समचित्वम् इष्टा निष्टोंपपत्तिपु ।। अ०13,श्लोक 1


‘पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना।‘


                विषया विनिवर्तन्ते निराहरस्य देहिनः


               रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवां निवर्तते अ०2,श्लोक 59


‘इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरूष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरूष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।‘   अयम् निजः अयम् परोवेति ,गणना लघुचेतसाम् ।


                        उदार चरितानाम  वसुधैव कुटुम्बकम् ।।


मुझे क्या और मेरा क्या इस प्रवृति से ऊपर उठकर जीवन जीने वाला ही राष्ट्र का सच्चा नागरिक बन सकता है ।


अहिंसा-


               अहिंसा,सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिपैशुनम् ।


                   दया,    भूतेष्वलोलुप्त्वं्, मार्दवं,    हृीरचापलम् ।। अ०16,श्लोक 2


मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार किसी को भी कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना उपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्माें में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दा न करना, सब भूत प्राणियांे में हेतुरहित दया इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।


 भय का सवर्था अभाव


              अभयम् सत्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः


              दानम्,दमः,च,यज्ञः,च,स्वाध्यायः,तपः,आर्जवम् अ०16,श्लोक 1


         भय का सवर्था अभाव, अंतकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान, योग में निरन्तर दृढस्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरूजनों की पूजा आदि ।


शुद्ध ,निर्मल अंतःकरणः वाले व्यक्ति के हृदय में परमात्मा का वास होता है । राष्ट्र की सेवा के लिए ऐसा व्यक्ति सदैव तत्पर रहता है ।


 मानवीय मूल्यांे पर पूर्ण आस्था-मन को यदि वश में कर लिया जाए तो दुःखों का स्वतः नाश हो जाएगा


                            यो न हृष्यति ने द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।


                            शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः।। अध्याय 18 श्लोक 78


जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझको प्रिय है।


                           समः शत्रौ च मित्रे तथा मानापमानयोः।


                          शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सग्ङविवर्जितः ।। अध्याय 18 श्लोक 78


जो शत्रु-मित्र में और मान अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखदि द्वन्द्वों मे सम है और आसक्ति से रहित है।        


                      तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।


                          अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।। अध्याय 18 श्लोक 78


जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरूष मुझको प्रिय है।


जो उपरोक्त गुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर ले वह निश्चय ही मानव से महामानव बन जाएगा । ऐसे नागरिकों से विभूषित राष्ट्रनिश्चय ही विश्व गुरू बन जाएगा । इस प्रकार गीता में धर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में ही प्रतिपादित किया गया है । राष्ट्रधर्म के प्रति आवाहन करना ही गीता का धर्म है ।


                 स्नेह लता 


विकास नगर , लखनऊ


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