( 1 ) शीर्षक - जाएंगें वहां..
सुनों,
एक बार तो भटकेंगें जरूर
इन घने जंगलों में ,
कि नहीं होगा जहां शहरी कोलाहल
..न ही सीमाएं जीवन की !!
सुनों ,
एक बार तो उड़ना है बनकर पतंग
पहुंचना है सुदूर अंतरिक्ष में ,
ले आएंगें थोड़ी सी "उड़ान"
कल्पनाओं के लिए !!
सुनों ,
एक बार तो वही "शब्द" बनें हम
अन्यत्र कहीं लिखा ही नहीं ,
बिना कहे सुन लेना तुम
और समझ लूंगी मैं
एहसास से ही !!
सुनों ,
एक बार तो जाएंगे वहां
जहां गये ही नहीं ,
जीवन है ही कितना
कि अब इंतजार होता नहीं !!
Namita Gupta"मनसी"
( 2 ) शीर्षक - सीमित / असीमित
इस मोबाइल युग की
संकुचित होती संवेदनाओं में
छोटे होते हुए संवादों में
और..
सिकुड़ते हुए शब्दों में ,
शायद, जो बचा हुआ है न
थोड़ा सा स्पेस
वहां पर भी हो जाएंगी एडजस्ट
ये मेरी
छोटी-छोटी सी कविताएं ,
क्योंकि
अभ्यस्त हैं ये
सीमित से शब्दों में
असीमित सा कहने को !!
Namita Gupta"मनसी"
( 3 ) शीर्षक - .. फिर से सोच लेना चाहती हूं मैं !!
..फिर से सोच लेना चाहती हूं मैं
जीवंत हैं किताबें अभी
ओत-प्रोत हैं भावनाओं से ,
कि सिकुड़ते हुए शब्दों में
बची हैं कुछ सांसे अभी !!
.. फिर से सोच लेना चाहती हूं मैं
जिंदगी की व्यस्त सड़कों पर
कुछ तो गलियां हैं ऐसी
कि होते हैं जहां
वार्तालाप मन के !!
.. फिर से सोच लेना चाहती हूं मैं
कोई तो रोप रहा है पौध
आत्मीयता की ,
बंजर नहीं होगी धरती अब
कहीं भी.. किसी भी कोने में !!
.. फिर से सोच लेना चाहती हूं मैं
कि अकेले नहीं हैं हम,
कोई तो है..हां, कोई है
सोच रहा है जो तुमको
और कर रहा है इंतजार !!
Namita Gupta"मनसी"
( 4 ) उस अंत के बाद..
उस अंत के बाद भी
हम यहीं रहेंगें
ऐसे ही ,
एक-दूसरे को खोजते हुए से !!
तुम बिखरा देना "शब्द"
मैं फिर चुन लूंगी
ऐसे ही ,
कविताओं में गूंथते हुए से !!
समय फिर से आएगा
हम गाएंगें
ऐसे ही ,
समय की सीमाएं लांघते हुए से !!
अंत फिर लौट आएगा
दोहराएगा
ऐसे ही ,
हम लौट आएंगें हर अंत के बाद !!
Namita Gupta"मनसी"
( 5 ) शीर्षक - धूप की बारिश..
धूप तो नियमित है
आती ही है
आने को,
पर, क्या भीगे हो कभी
धूप की बारिश में !!
..वो थमीं हुई किताब
हथेलियों में ,
उसके पीले से पन्नें
अस्त-व्यस्त से ,
..सहसा होनें लगे जीवंत
स्पर्श से बारिश के !!
देखो, भीगने लगी शुष्कता
हरी हो गई किताब
और..
स्फुटित होंनें लगे शब्द
नई-नई कविताओं में !!
( 6 ) शीर्षक - इंसानों का क्या ..
जहां भी देखें,सवाल ही करे..आंखों का क्या,
कुछ भी कहें, किधर का भी..बातों का क्या,
जब तक जिए, किस्सों में रहे.. सांसों का क्या,
कभी बंधते हैं या बांध लेते हैं..वादों का क्या,
टूटें भी, कभी जोड़ें ये मन..ख्वाबों का क्या,
संभाले रखते हैं रिश्तों को..जज्बातों का क्या,
दहलातें हैं पल में ही मन..वारदातों का क्या,
खोज लेतें हैं रिश्तें जन्मों के..इंसानों का क्या!!
Namita Gupta"मनसी"
No comments:
Post a Comment