मैं किसान हूँ, चैन से कहाँ सोता हूँ...
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
हम अनाज तो हर दिन पकाकर खाते हैं। क्या कभी मुट्ठी भर अनाज सूँघने का प्रयास किया है? फुर्सत मिले तो एक बार ही सही उसकी गंध सूँघने का प्रयास अवश्य करें। किसान के अनाज में दशाब्दियों से छल-कपट का शिकार हो रहे उनके पसीने की गंध आएगी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे पिछड़ेपन की गंध बस्साएगी। पोषक तत्त्वों की गिनती करते समय कड़ी धूप में कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसान की एकबारगी की याद दिल दहला देगी। असंख्य लीटर पसीना बहाकर खेतों की सिंचाई करने वाले भोले-भाले किसान की चमड़ी धूप में जलकर काली पड़ जाती है। विज्ञान की पुस्तकों में लिखा होता है कि ओजोन की परत पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं, किंतु वहीं ये पुस्तकें पाठ्यक्रम-दर-पाठ्यक्रम नदारद हो रहे कृषि संबंधी यह बात बताना भूल जाती हैं कि किसानों की झुर्राई-मुरझाई काली चमड़ी से ढकी इस दुनिया को भूखों मरने से बचाती है।
गाँवों में दूर-दूर तक फैली हरियाली की चादर के रेशे छिद्रान्वेषित होने लगे हैं। दिन-रात मेहनत करने वाले किसान के परिवार में नाच रही दरिद्रता भारत भाग्य विधाता से मुँह बाए प्रश्न करने पर मजबूर है। बार-बार पूछती है कि क्या अनाज पैदा करने वाला हमेशा दो जून की रोटी, कपड़ों के लिए तरसते रहेंगे? क्या उनके अनाज को खरीदने और बेचने वाले बिचौलिए तथा व्यापरी किसान को छल कपट से धोखा देते रहेंगे? खेतों की मिट्टी से सने हाथों को देखकर स्वयं किसानों को घिन्न आने लगी है। हल, खुरपी, हँसिए उसे चिढ़ाने लगे हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी जिंदगी कभी पूरी न हो सकी। त्यौहारों-उत्सवों, शोक के दिनों में भी अपने खेतों को न भूलने वाले किसान जिसकी चिंता में डूबे रहते हैं वही एक दिन उन्हें खा जाती है। इनकी दशा ऐसी है कि आँखों में आँसू हैं पर गिर नहीं रहे हैं। बादल घेरे हुए हैं लेकिन बरस नहीं रहे हैं। उन्होंने लोगों और सरकारों को कोसना तो कब का छोड़ दिया है। अब ये अपनी फूटी किस्मत पर माथा पीट रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब खेती के दिन लद जायेंगे और कहते फिरेंगे कि कभी हाड़-मांस के किसान खेती भी किया करते थे। खेती तो खेती होती है। यह अगर कोई इमारत होती तो कब की यूनेस्को की धरोहर सूची में शामिल हो जाती। शुक्र है कि यह कला है। उससे भी जरूरी भूख मिटाने का एक मात्र उपाय। इनसे इनकी पहचान मत छीनिए।
नब्बे के दशक में वैश्वीकरण के दौर के बाद किसानों को राजनीतिक एजेंडे में तो फंसाकर रखा गया, लेकिन विकास के एजेंडे से उन्हें बाहर कर दिया गया। बार-बार कृषकों के हितों की दुहाई दी गईं। उनके नाम पर समितियों का गठन हुआ। उन्हें सब्सिडी दी गईं। उनके कर्ज़ माफ़ किए गए, लेकिन किसान की आय कैसे बढ़ाई जाए, यह सुनिश्चित नहीं किया गया! बल्कि शासन-प्रशासन ने अन्नदाताओं की इकलौती निधि ‘आत्मसम्मान’ को रौंद कर उन्हें जान देने के लिए मजबूर कर दिया। ये आत्महत्याएँ नहीं बल्कि संस्थागत हत्याएँ हैं। इनके लिए राज्य और उसके विभिन्न निकाय जिम्मेदार हैं। एक कहावत हैं – “उत्तम करे कृषि, मध्यम करे व्यापार और सबसे छोटे करे नौकरी” ऐसा इसलिए कहा गया है क्योकि कृषि करने वाले लोग प्रकृति के सबसे करीब होते हैं और जो प्रकृति के करीब हो वह तो ईश्वर के करीब होता है। किंतु अब यह कथन उलटता जा रहा है। समय की दरकार है कि हम किसान को आश्वस्त करें। उन्हें भरोसा दिलाए कि अभी भी भारत गाँवों का देश है। स्मार्ट सिटी जब बनेंगे तब बनेंगे पहले यह देश सबका पेट भरने वाले को यह बताए कि सूखा, ऋण, बाढ़ के समय में उनके साथ खड़ा है। बैंकों में चक्कर लगाने पर भी लोन न मिलने की स्थिति में जिन साहूकारों से कर्ज लेते हैं, उनके चंगुल से बचाने की जिम्मेदारी हमारी है। उन्हें यह भरोसा दिलाना होगा कि फसल बीमा केवल चुनिंदा लोगों को नहीं मिलता, बल्कि सभी लोगों को मिलता है। उन्हें यह जताना होगा कि आज भी यह देश नाम के नहीं काम के किसान के साथ खड़ा है। नीतियों के बांझपन से मिट्टी की उर्वरा समाप्त करने की साजिशों को मुंहतोड़ जवाब देना होगा। यह देश पहले भी सोना-चाँदी पैदा करता था, पैदा करता है और पैदा करता रहेगा। किसान की हथेलियों ने हल, खुरपी, हँसिए पकड़कर अपनी रेखाएँ गंवाई अवश्य हैं, किंतु देश की हथेली की रेखाओं को कभी मिटने नहीं दिया। यही वह जज्बा है जिसके आगे देश नतमस्तक रहता है। किसान बेसहारा, मजबूर, बेबस, गरीब, लाचार का सूचक नहीं हमारे देश की शान है। इस शान के लिए जिस तरह सेना के जवानों के साथ हम व्यवहार करते हैं, ठीक उसी तरह से उनके साथ व्यवहार करने की आवश्यकता है। यह जिस दिन होगा उसी दिन जय जवान जय किसान का नारा सफल होगा।
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