"सावन की घटा"
सावन की छाई है घटा घनघोर,जाने कहाँ पर बरसे!
अ बदरी! तू बरसे वहां, जहाँ पिया मिलन को तरसे!!
तन मन उसका झुलस रहा है,तप्त हवा के झोकों से!
शीतल समीर तलाश रहा,वो आसपास के झरोखों से!!
प्रेमी मन तो होता बावरा, चित कहीं भी ना लग पाए!
हरी भरी हरियाली भी, उनके मन को ना कत्तई सुहाए!!
सावन की रिमझिम फुहारें, छूने लगी मेरे अंतर्मन को!
जाके बरस उस आंगन में, भिगो देना तू उसके तन को!!
दिल मे तो मची उथल पुथल, जुबां फिर भी है खामोश!
भीड़ इर्द-गिर्द खड़ी है, पर खाली है उसका आगोश!!
भिगो उसके तन मन को, लौट आना तू मेरे आंगन में!
अधरों की प्यास मिटा देना, उसकी बरसते सावन में!!
चन्द लम्हे ये जुदाई के, लगे जैसे हो गए हों कई अरसे!
चौक गलियारे लगे सूने, निकल गए जब हम घर से!
सावन की छाई है घटा घनघोर,जाने कहाँ पर बरसे!
अ बदरी! तू बरसे वहाँ, जहां पिया मिलन को तरसे!!
सुषमा मलिक "अदब"
रोहतक (हरियाणा)
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