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Sunday, July 5, 2020

स्वतन्त्रता संग्राम में महिलाओं का योगदान

आंदोलन किसी बदलाव के लिए उठाया गया एक ऐसा कदम है , जिसमें स्त्री – पुरुष का विभेद कर के अगर एक भी वर्ग हाथ पर हाथ धर कर बैठजाये तो वह आंदोलन सफल नहीं होता । और, बात जब स्वतंत्रता जैसे महती यज्ञ के लिए हो तो हम कैसे सोच सकते हैं कि बिन महिला सहयोग के यह यज्ञ सम्पन्न हुआ होगा । स्वतन्त्रता हमारे आत्म सम्मान को बरकरार रखते हुए आत्म – उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त करता है । क्रान्ति की ज्वाला केवल पुरुषों को ही नहीं उद्वेलित करती , बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी तीव्रता से आकृष्ट करती हैं । भारत में नारी यदि श्रद्धा की देवी मानी जाती हैं तो समय पड़ने पर वही देवी रणचंडी बन जातीं हैं । स्त्रियोंकी दुनिया घर – गृहस्थी की देख – रेख तो है ही , पर सत्ता और युद्ध में भी जब – जब ज़रूरत हुई स्त्रियाँ कमर कस कर बाहर निकल पड़ीं । 


क्रांति की  लड़ाई से लेकर आज़ादी पाने तक वीरांगनाओं ने अपनी मेहनत से अंग्रेजों के चने चबवा दिये । इस लड़ाई में उन वीरांगनाओं का भी उतना ही योगदान है जिन्होंने बिन शमशीर अपनी वाणी के बल पर , या साहित्य के माध्यम से लोगों में जोश जगाने का काम किया । सरोजिनी नायडू ऐसी ही देश भक्त थीं । रानी लक्ष्मीबाई और रानी चेनम्मा जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों से लोहा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।1824 में कित्तूर की रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों को मार भगाने के लिए फिरंगियों भारत छोड़ो की ध्वनि गुंजित की और रणचंडी बन कर अपने अदम्य साहस से अंग्रेजों के छक्के छूटा दिये थे । दुर्गा बाई देशमुख ने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और आज़ादी के बाद भी एक समाज सेविका और एक सक्रिय राजनेता की सक्रिय भूमिका निभाती रहीं । उन्होने महिलाओं के उत्थान के लिए पुनर्वास , शिक्षा की योजना और पोषण से जुड़ी कई योजनाएँ बनायीं । स्वतन्त्रता सेनानी उषा मेहता ने खुफ़िया काँग्रेस रेडियो चला कर क्रान्ति – युद्ध के समय भारतीय सेनानियों की खूब मदद की थी , अंत में जब उन्हे पकड़ा गया तो पुणे की जेल में भी रहना पड़ा था ।


मातादीन ने बैरकपुर में मंगल पांडे को चर्बी वाले कारतूसों की जानकारी दी थी , मातादीन को भी यह राज उसकी पत्नी लाजो ने ही बताया था । लाजो को यह जानकारी उसी अंग्रेज़ ऑफिसर के घर मिली थी , जिसके यहाँ वह काम करती थी ।  स्त्रियों ने जहां ज़रूरत हुई अपने मर्दों को कभी उलाहना भी दे कर तो कभी प्रेम से उनमें जोश भरी । लखनऊ में 1867 की क्रांति का नेतृत्व हज़रत महल ने किया । आलमबाग की लड़ाई के दौरान अपने जाँबाज सिपाहियों की उसने भरपूर हौसला आफजाई की और हाथी पर सवार होकर अंग्रेजों का मुक़ाबला भी करती रही। लखनऊ में पराजय के बाद वह अवध के देहातों मे जाकर वहीं से क्रांति की चिंगारी सुलगाने का प्रयास करती रहीं ।


अपनी शौर्य – गाथा से जन – जन के मानस पटल में अपना विशेष स्थान बनाने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने 1855 में अपने पति की मृत्यु के बाद झांसी की सत्ता संभाली और ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी । घुड़सवारी और शस्त्र – कौशल में पारंगत रानी को 1857 की क्रांति की सूत्रधार भी कहा जाता है । उनकी मौत पर जनरल हयूग्रोज ने कहा था , “यहाँ वह औरत सोई है , जिसे विद्रोहियों में एकमात्र मर्द होने का दर्जा प्राप्त है ।”  मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र की बेगम ज़ीनत महल ने भी सेनानियों के संगठन के लिए अथक प्रयास किया । बहादुर शाह को हिंदुस्तान के लिए काम करने के लिए वह उनकी प्रेरणा बनी रहीं । यहाँ गौर – ए – तलब है कि बेगम हज़रत और रानी लक्ष्मी बाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलाएं शामिल थीं । हज़रत महल द्वारा गठित दल की कमान रहीमी के हाथों थी जिसने फौजी वेश में महिलाओं को तोप व बंदूक चलाना सिखाया । हैदरीबाई एक तवायफ़ थीं जिसके लखनऊ के कोठे पर अनेक अंग्रेज़ अफसर आते थे और क्रांतिकारियों केखिलाफ़ योजनाओं पर बात – विमर्श करते थे । हैदरीबाई इन सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुंचा दिया करती और उनकी मदद करती। ऐसी ही एक देशभक्त ऊदा देवी थी जिसने अपने पति की मृत्यु के बाद अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए जान दे दी । इतिहास में ऊदा देवी का नाम अमर हो गया जब उसने लखनऊ के सिकंदराबाद चौराहा पर ब्रिटिश सैनिकों के साथ युद्ध करते हुए छत्तीस अंग्रेजों को मार गिराया और खुद भी शहीद हो गईं । साहित्यकार अमृतलाल नगर ने भी अपनी कृति ‘गदर के फूल’ मे ऊदा देवी का जिक्र किया है । कहा जाता है कि उसने पीपल के एक घने पेड़ पर छिपकर जब 36 सैनिकों को मार गिराया तब कैप्टन वेल्स की नज़र पेड़ पर होती हलचल पर पड़ी , उसने उसी दिशा में गोली चला दी तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी ।नीचे गिरने पर उसकी जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया , जिससे पता चला कि वह एक महिला है ।


 आशा देवी , शोभा देवी , वाल्मीकि महावीरी देवी ,नामकौर ,भगवानी देवी आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अङ्ग्रेज़ी सेना के खिलाफ लड़ाई की । अवध की वीरांगना राजेश्वरी देवी और बेगम आलिया भी महिला सेना को शस्त्र कला का प्रशिक्षण दिया करतीं तथा गुप्त भेदों के माध्यम से कई बार अवध से ब्रिटिश सैनिकों को निकाल भगाने में सफ़ल रहीं ।


झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने महिलाओं की एक अलग टुकड़ी दुर्गादल के नाम से बनायी थी । इसका नेतृत्व धनुर्विद्या में पारंगत झलकारी बाई के हाथों था । झलकारीबाई ने कसम खाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगा वह शृंगार नहीं करेगी । अंग्रेजों ने जब किला को घेरा तब झलकारी बाई ने बहदुरी के साथ उनका सामना किया और रानी को महल के पिछवाड़े से निकल जाने तकस्वयं अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गई । कानपुर 1857 की क्रांति का मुख्य अड्डा रहा था । वहाँ की एक तवायफ़ अजीजन बाई ने क्रांतिकारियों के साथ मिल कर क्रांति की लौ जलायी । इसने चार सौ वेश्याओं की एक टोली बनाई जो मर्दाना वेश में रहतीं थीं । ये अपने हुस्न के दम पर अंग्रेजों से राज उगलवातीं थीं और उपयुक्त ठिकाने पर उन सूचनाओं को भेजा करतीं । बिठुर के युद्ध में पराजित होने पर नाना साहब और तांत्या टोपे तो बच निकले पर अजीजन पकड़ी गई और अंततः मार दी गई । अप्रतिम सौंदर्य की मलिका मस्तानी बाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे खुफिया जानकारी इकट्ठा कर पेशवा को देतीं थीं । नाना साहब की मुंहबोली बेटी मैनावती भी देशभक्ति से भरपूर थी । जब नाना साहब बिठुर से पलायन कर गए तब अंग्रेजों के लाख पूछने पर भी वह उनका पता नहीं बताती है , जिससे अंग्रेजों ने उसे आग में ज़िंदा ही झोंक दिया ।


1857 की क्रांति के बाद भी सतत चले आंदोलनों में महिलाओं ने बढ़ – चढ़ कर हिस्सा लिया । 1905 के बंग – भंग आंदोलन में पहली बार महिलाओं ने खुल कर सार्वजनिक रूप से हिस्सा लिया । स्वामी श्रद्धानंद की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती ने महिलाओं को संगठित कर विदेशी कपड़ों को जला डाला । 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान अरुणा आसफ अली  ने अकेले 1600 महिलाओं की गिरफ़्तारी दी तथा गांधी – इरविन समझौता के बाद उनपर बहुत दवाब बनाया गया । 1912- 14 में बिहार में जतरा भगत ने जनजातियों को लेकर टाना आंदोलन चलाया जिसे बाद में उसी गाँव की महिला देवमनियाँ उराऊँ ने संभाली । बिरसा मुंडा के सेनापति गया मुंडा की पत्नी माकी ने भी आंदोलन में खुल कर हिस्सा लिया ।


चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर ‘ द फिलोसफी ऑफ बम ’ दस्तावेज़ तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी वोहरा ने भगत सिंह को लाहोर जेल से छुड़ाने का प्रयास किया । लाला लाजपत रॉय की मौत का बदला लेने के लिए भी दुर्गा भाभी लगी रहीं ।हसरत मोहानी भी स्वतन्त्रता की लड़ाई में मरदाने वेश में कूद पड़ीं । उन्होने बाल गंगाधर तिलक के गरम दल का भी नेतृत्व किया । 1925 में काँग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रही  भारत कोकिला के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू को काँग्रेस का प्रथम महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ । इन्होने अपनी कविताओं के माध्यम से युवा हृदय में आज़ादी की अलख जगा दी।


परोक्ष रूप से भी महिलाएं अपना योगदान देती रहीं । सरदार बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि बारदोली सत्याग्रह के दौरान वहाँ की महिलाओं ने ही दिया । कस्तूरबा गांधी का भी सहयोग इस लड़ाई में उल्लेखनीय है । उनकी नियमित सेवा और अनुशासन के कारण ही गांधीजी पूरे मनोयोग से स्वतन्त्रता आंदोलन में जुड़े रहे ।


सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज में महिला विभाग की मंत्री तथा रानी झांसी रेजीमेंट की कमांडिंग कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने आज़ादी में प्रमुख भूमिका निभाई । डाक्टरी पेशा छोड़कर  कैप्टन सहगल के साथ मिल कर आज़ादी की गतिविधियों में भाग लेती रहीं ।


भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन की गूंज भारत के बाहर भी सुनाई दी थी । विदेशों में रह रही अनेक भारतीयों ने भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो कर भारत और अन्य देशों में स्वतन्त्रता की अलख जगाई । लंदन में जन्मी ऐनी बेसेंट ने 1916 में भारतीय स्वराज लीग की स्थापना की जिसका उद्देश्य स्वशासन स्थापित करना था । ऐनी बेसेंट ने ही 1898 में बनारस में सेंट्रल हिन्दू कॉलेज की नींव रखी जिसे 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया । भारतीय मूल की फ्रांसिसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा ने लंडन ,जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर के भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में माहौल बनाया । उन्होने अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट काँग्रेस में प्रस्ताव भी रखा था कि भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम का कलंक है । उन्होने वंदे मातरम का ध्वज फहरा कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती भी दी थी । स्वामी विवेकानंद की शिष्य मारग्रेट नोबुल उर्फ़ भगिनी निवेदिता ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह मे लॉर्ड कर्जन द्वारा भारतियों का अपमान करने पर निर्भीकता से प्रतीकार किया था । मीरा बहन के नाम से मशहूर मैडेलीन ने भारत छोड़ो आंदोलन के समय महात्मा गांधी को भरपूर सहयोग दिया और स्वतन्त्रता के पक्ष में माहौल भी बनाया । उन्हें इसके लिए गिरफ्तार भी कर लिया गया था ।


स्वतन्त्रता की लड़ाई में महिलाओं का योगदान इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ता है । इन वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्र प्रेम , अदम्य साहस और अटूट प्रतिबद्धता के बदौलत ही आज़ादी का संघर्ष सफल हुआ । पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का प्रण ही संघर्ष पथ को सुगम बना सका । अनेक महिला सेनानियों का गौरवमयी बलिदान आज भी इतिहास की एक जीवंत दासता है । कहीं वे लोक चेतना में जीवित हैं तो कहीं राष्ट्रीय चेतना की संवाहक बन कर भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुईं हैं ।


 



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