व्यंग्य लेख
व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के टीका-टिप्पणीकार
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार
बकरियों की मैं-मैं मजबूरन होती है और इंसान का अहंकार से सराबोर। बकरियों को इसके सिवाय आता नहीं और इंसानों से है कि यह जाता नहीं। सब अपनी-अपनी जगह मैं-मैं का राग अलाप रहे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एक दिन फलाँ जी को लगा क्यों न मैं साहित्य का न्याय निर्णेता बन जाऊँ। उन्होंने यह जिम्मेदारी न केवल अपने कंधों पर बल्कि शरीर के सभी अंगों पर ले रखी थी। उनके सुनने, बोलने, देखने, हाथों के संकेत, बदन की अकड़न सबने अगल पहचान बना रखी थी। मजाल कोई उनकी टीका-टिप्पणी पर उंगली उठा पाता। वह जो कह देते वही अंतिम होता। इसके लिए वे किसी प्रकार की पारिश्रामिक भी नहीं लेते। इतने महान, उदार गुणों के धनी साहित्यकार को पाकर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी अपने आपको धन्य मानता है।
फलाँ जी बचपन से ही साहित्यकार बनने की चाह रखते थे। अब चाह का क्या है, यह तो हनुमान जी की पूँछ की तरह है, जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। सो यह चाह भी किस्मत के धनी तो कुछ कुछ प्रतिभा के धनी अंगदों के पैर के नीचे दबकर रह गयी। बाद में उन्हें ख्याल आया कि अगर वे साहित्यकार बन जाते हैं तो लोग उनकी टीका-टिप्पणी करेंगे। इस प्रकार की छींटाकशी उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। इससे तो अच्छा है कि वे ही टीका-टिप्पणी क्यों न करें। न इसमें साहित्य सृजन की आवश्यकता पड़ेगी, और न समय की बर्बादी। हीन लगे न फिटकरी रंग चोखा।
फलाँ जी की माने तो टीका-टिप्पणी करना साहित्य सृजन की तुलना में कठिन कार्य है। इसे ऐरा-गैरा नत्थू खैरा थोड़ी न कर सकता है। यह तो एक कला है। उनकी राय में टीका-टिप्पणी ऐसा करें मानो कि सामने वाले को लगे कोई पहुँचा हुआ साहित्यकार है। भले ही वह साहित्य का क ख ग भी न जानता हो। उनकी दृष्टि में टीका-टिप्पणी तो वह हथियार है जिससे नवआगंतुकों से लेकर पहुँचे हुए साहित्यकारों को धराशायी किया जा सकता है। केवल इसके लिए चौकन्ना रहना पड़ता है। यह देखना होता है कि रचना किसकी है, नवआंगतुक की है या परिचित कि या पहुँचे हुए साहित्यकार की। नवआंगतुक की है तो फट से अपनी टीका-टिप्पणी का सुदर्शन चक्र छोड़ देते हैं। परिचित हैं तो दाँत निपोरकर हँसी वाला अथवा ताली वाला या फिर तर्जनी अंगुली से अंगूठा दबाया हुआ इमोजी चिपका देते हैं। पहुँचे हुए साहित्यकार हैं तो उन पर टीका-टिप्पणी करेंगे, किंतु बड़ी सावधानी से। आरंभिक शब्दों में बढ़िया, बहुत अच्छा, उत्कृष्ट न जाने कैसे-कैसे अलंकारिक शब्द लगायेंगे लेकिन साथ ही यदि, अगर, मगर शब्दों के टिड्डी दल की सहायता से कुछ न कुछ सुझाव वाला तुक्का छोड़ ही देंगे। इससे सामनेवाले को लगेगा कि फलाँ जी तो बहुत पहुँची हुई हस्ती हैं। साहित्य के मर्मज्ञ और ज्ञाता हैं।
फलाँ जी की टीका-टिप्पणी में उनकी भौंहे प्रमुख स्थान रखती हैं। यदि भौंहे तान दी मान लें कि रचना अच्छी है, यदि नीची कर ली तो समझें कुछ संदेहास्पद है। यदि भौहों में किसी प्रकार की गतिशीलता नहीं है तो समझें रचना किसी काम की नहीं। यानी कचरा है। टिप्पणी करते समय व्हाट्सएप ग्रुप का बड़ा ध्यान रखते हैं। अधिकतर समय इमोजी का इतना बढ़िया उपयोग करते हैं कि उनके आगे शब्द भी फीके पड़ जाते हैं। वे तो उठा अंगूठा, नीचा अंगूठा, आभारी हाथ, ताली बजाते हाथ, फूल पत्ती इन सबका गोल-गोल चेहरे वाले नवरसों के इमोजी के साथ मणि-कंचन उपयोग करते हैं। मानो ऐसा प्रतीत होता है कि वे इसी क्षेत्र में डी.लिट् करके बैठे हैं।
यदि कोई रचनाकार अपनी रचना प्रेषित करता है और उससे फलाँ जी सहमत नहीं हैं तो समझो उसकी खैर नहीं। तर्क दिए बिना उसे गैर-साहित्यिक रचना घोषित कर उसका उपहास उड़ाते हैं। फलाँ जी से रचनाकार यह प्रश्न बिल्कुल नहीं कर सकता कि उन्हें साहित्य का कितना ज्ञान है। यदि वह फलाँ जी को कोई उद्धरण, साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करता है तो उसे अमान्य घोषित कर देते हैं। फिर चाहे वे संदर्भ कितने ही बड़े साहित्यकार का क्यों न हो, उनकी दृष्टि में सभी साहित्यकार व्यर्थ प्रतीत होते है। हाँ यदि फलाँ जी किसी को साहित्यकार कह देते हैं, जो कि जल्दी करते नहीं हैं, उसका बड़ा सम्मान होने लगता है। एक तरह से कह लीजिए कि व्यर्थ नवआगंतुकों से लेकर साहित्यकार होने का भ्रम रखने वालों की भ्रूणहत्या का बीड़ा इन्होंने ही उठा रखा है। अच्छा जो साहित्यकार बनने की इच्छा रखता है वह फलाँ जी की प्रशंसा में कोई कमी न रखे और इस सूत्र का पालन करे-
फलाँजी नियरे राखिये, व्हाट्सएप ग्रुप समाए।
बिन बोलै बिन पूछै, कमेंट्स करे धड़धड़ाए।।
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