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Monday, August 10, 2020

कविताएं सिर्फ शब्द नहीं हैं..

"कविताएं" सिर्फ शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं हैं..


हैं भावुक क्षणों की हस्ताक्षर ,

तुम्हारे इर्द-गिर्द ही

तुम में..तुम सी..तुम जैसी ही !!

 

खेलती हैं

तुम्हारे बचपने संग,

महसूस करती हैं

तुम्हारे ही द्वंद ,

करती हैं साझा तुम्हारा ही तुम से ,

कहीं भी..

कभी भी, तुमसे अलग ये नहीं !!

 

सुनों..

लिखती हूं जो कुछ

सिर्फ शब्दों से ही पूरा नहीं करती ,

समझ लो..

ये फिंगरप्रिंट हैं मेरी !!

 

शीर्षक -   कैसा है ये प्रेम..

 


एक दिन..

प्रतीक्षारत धरा ने

आखिर कह ही दिया आकाश से..

सुनों, वो दिन कभी तो आयेगा

मैं लता सी

करूंगीं अंगीकृत

तुम वृक्ष से

मुझे संभाल तो लोगे न !!

 

आकाश निशब्द ही रहा..

कहता भी क्या

अभी उत्तरदायित्वों को संभालना जरूरी था ,

उसकी अधीर निशब्दता

कब तक संभालती मौन ,

सहसा घुमडने लगी बनकर बादल !!

 

उस दिन..

हां, उस दिन..वो बरसा..

बेहद..बेशुमार..

और, लता भीगती ही रही..

अनवरत

आंसुओं में उसके !!

 

पता नहीं..

कैसा है ये आत्मिक-प्रेम

..आंसू झर रहे थे पत्तों से

टप्-टप् !!

 

 

शीर्षक -  वो किताब..


 

किताबें चुप-चुप सी हैं ,

गुमसुम ..

उदास भी ,

किससे कहें..

क्या ..कहें

क्योंकि महीनों गजरते हैं अब

इनसे बिना मिले ।

 

एक आदत थी

साथ रहने की ,

साथ सुनने की ,

साथ कहने की..

फिर क्यों भावनाओं पर

अब आधुनिकता भारी है,

..ये "वक्त" की

या हमारी ही लाचारी है ।

 

..ये धूल जो जमी

परत-दर-परत

..परिवर्तन की ,

क्या जरूरी था इसका आना !

भले ही खोज लिये हों चन्द्रयान..

या कि चिर महान ,

फिर भूलने क्यों लगे उसे

हां ,वही किताब..!

 

"वो किताब"..

बेबस भी है

कि उंगलियां चलती हैं अब

..कम्प्यूटर पर

क्लिक पर.. ,

कैसे सहेजे वो

..रिश्तें पन्ने पलटने के ,

औऱ वो..

जो संजोए रखते थे

.."फूल"

तेरे-मेरे "एहसास"के.. !!!!

 

शीर्षक -  थोड़ा सा आदमी..

 


कहते हैं कि दूब कभी मरती नहीं

तलाश रही हूं सुबह से

कहां-कहां नहीं देखा ,

गली .. सड़क..पार्क..

..कहीं तो नहीं मिला

एक तिनका भी !!

 

लौट रही थी हताश..

चारो ओर उगी हुई थी सिर्फ

..ये कंक्रीट-कल्चर ,

लोग जश्न मना रहे थे

पेड़ों की उदासियों पर ,

और हार रहा था "आदमी"

.. आदमी से ही !!

 

सहसा कदम रुके..

सड़क किनारे..कचरे के पास

इतरा रही थी दूब घास ,

थोड़ी राहत मिली..

बचा हुआ है कहीं तो

दूब की तरह .. थोड़ा सा आदमी ,

और..

थोड़े से आदमी की तरह

..ये दूब घास !!


 

नमिता गुप्ता "मनसी"






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