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Saturday, August 22, 2020

ओझल स्त्री गाथाओं का चारित्रिक संघर्ष : विसात पर जुगनू

एक अफ़वाह जो उस समय फैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन् 1757 प्लासी के युद्ध से प्रारंभ हुआ था और सन् 1857 में सौ वर्षों बाद समाप्त हो जाएगा। चपातियाँ और कमल के फूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्षण थे। 1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। हालांकि इसका आरंभ सैनिकों के विद्रोह द्वारा हुआ था लेकिन यह कंपनी के प्रशासन से असंतुष्ट और विदेशी शासन को नापसंद करने वालों की शिकायतों व समस्याओं की सम्मिलित अभिव्यक्ति थी। देखा जाए तो विद्रोह की प्रकृति के मूल में सामंतवादी लक्षण थे। एक तरफ अवध, रुहेलखंड, तथा उत्तर भारत के सामंतों ने विद्रोह का नेतृत्व किया तो दूसरी ओर पटियाला, जिंद, ग्वालियर तथा हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह के दमन में भरपूर सहयोग दिया। रियासतों के  साथ- साथ आम जनता भी कंपनी बहादुर के शासन से त्रस्त हो चुके थी। जनता में असंतोष का कारण राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक मामलों में उथल- पुथल था। इन सभी कारणों ने मिलकर एक पृष्ठभूमि तैयार की जो विद्रोह का कारण बना, हालांकि बिना किसी भावी योजना और असंगठित नेतृत्व के कारण विद्रोह असफल रहा। कंपनी की सैन्य शक्ति मजबूत थी जो जगह- जगह पर उठे विद्रोह का दमन करती गई। चाँदपुर भी एक छोटी- सी रियासत थी जिसे कंपनी बहादुर अपने अधीन करना चाहते थे। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भी 1857 के डेढ़ दशक पहले शुरू हुई। उपन्यास की कथावस्तु रियासत में विद्रोह कि सुगबुगाहट से शुरू होकर 1910 तक की समयावधि तक चलती है। इस समयावधि में चाँदपुर रियासत, पटना, कलकत्ता शहर के साथ- साथ चीन के केंटन शहर तक की कहानी है। इस अवधि में विद्रोह की बनती परिस्थितियाँ, विद्रोह से उपजा असंतोष, संबंधों के बनते- बिगड़ते मायने आदि का लेखिका ने बखूबी वर्णन किया है।

            'बिसात पर जुगनू' लेखिका का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में तीन वंश वृक्षों की कथा साथ चलती है। जिसमें चाँदपुर गाँव की रियासत, समय के मलबे में दबी पटना के चित्र- शैली के कलाकार और चीनी औरत यू- यान और उसके वंश की कथा है। उपन्यास का अधिकांश भाग इस कहानी के पात्र फतेह अली ख़ान के रोज़नामचे के रूप में प्रस्तुत है। इसके साथ- साथ अख़बार, ब्रिटिश सरकार के गैजेट्स, लोक मान्यताओं, हरबोलों आदि सब मिलकर कहानी को विस्तार देते हैं। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है, परंतु ऐतिहासिकता के साथ- साथ आधुनिकता भी इस कदर पैठी है कि कई बार कालखंड से परे सब आधुनिक ही हो जाता है। यह उपन्यास सामंतवाद के ढहने और पूंजीवाद के स्थापित होने के बीच की समयावधि का है। इस उपन्यास में 1857 स्वतंत्रता संग्राम की त्रासदी है तो साथ ही पहले और दूसरे अफीम युद्ध के बाद के चीनी जन- जीवन का कठिन संघर्ष भी।

            एक तरफ़ है चाँदपुर रियासत के राजा दिग्गविजय सिंह और उनका बेटा सुमेर सिंह। सुमेर सिंह एक नाज़ुक मिज़ाज राजा हैं। उन्हें स्त्रियाँ बहुत पसंद हैं। उन्हें एक ऐसी स्त्री की तलाश रहती है, जिसकी खुशबू के नशे में डूबे- उतराते रहें। बड़े राजा चाहते थे कि सुमेर सिंह माँ के आंचल से निकलकर शिकार पर जाएं, राजकाज के छोटे- मोटे कामों में हिस्सा लें। परंतु सुमेर सिंह को तो खून देखकर ही मितली आने लगती थी। इन सबके बावजूद सुमेर सिंह का रियाया से एक रिश्ता था और रियाया का सुमेर सिंह से।

           परगासो चाँदपुर रियासत के दुसाधन टोले की लड़की थी। एक ऐसा टोला जहाँ सवर्ण लोग कभी नहीं जाते थे। यहाँ तक कि वे मानते थे कि उनके देखने मात्र से यह काले पड़ जाएंगे। उसी टोले की थी परगासो। जिसके देह से फूलों की खुशबू आती है। उसकी माँ ने उसे चमेली का तेल सूंघकर जना था। पैदा होने पर चमेली के जिन फूलों पर उसे लिटाया गया था वे बड़े राजा के बाग के ही फूल थे। शायद यही वजह रही हो जो परगासो उन फूलों की खुशबू से प्रभावित हो गढ़ी तक आ गई थी। परगासो एकदम उजली और चमकदार है। खाने को बहुत कम मिलता है, पहनने- ओढने को गढ़ी की उतरन। वह भगत की बेटी थी। सारे दुसाधों की बेटी। स्त्री होने के बावजूद एक साहसी और वीर योद्धा थी। बगीचे में फूलों की देख- रेख करते एक दिन अनजाने में ही परगासो ने अपनी खुशबू से सुमेर सिंह को सराबोर कर दिया। उस दिन सुमेर सिंह को लगा जिसे सारी ज़िंदगी ढूंढते रहे वह खुशबू तो यही है जो परगासो के देह से निकलती है। उस दिन से वे दोनों प्रेम के बंधन में बंध गए। उन्होंने जाति- धर्म, ऊँच- नीच और समाज के बंधनों को एक झटके में तोड़ दिया। परगासो तेज़ है चालू नहीं, वह धोखा नहीं देती। वह सुमेर सिंह को अपने जाल में फंसाती नहीं है। सुमेर सिंह उसे मछलियों की तरह प्यार करता है, जो लहरों में फंसने नहीं आती और परगासो भी सुमेर सिंह से हवाओं की तरह प्रेम करती है जो उसके सीने को दबाने नहीं आती। इस रिश्ते से महारानी खुश रहती हैं। उन्हें नहीं लगता कि परगासो दुसाध है। वह तो बस अपने बेटे को खुश देखना चाहती हैं और वह खुशी परगासो से मिल रही है। शायद माँ ऐसी ही होती हैं। सारी दुनिया की माँ एक जैसी ही होती हैं। उन्हें सिर्फ़ अपने बच्चे की खुशी चाहिए चाहे वह जिन शर्तों पर मिले।

            परगासो ने धीरे- धीरे सब कुछ संभाल लिया। सुमेर सिंह को, अपने लोगों को, महाराज को, गढ़ी को। वह ऐसी योद्धा है जो अपनी धरती, अपने लोगों और उनके अधिकारों के लिए किसी से भी लड़ने को तैयार है चाहे वो फिरंगी ही क्यों ना हों। वह सुमेर सिंह के आगे नेतृत्व करती चलती है और सुमेर सिंह उसके पीछे- पीछे उसका साथ देते हैं। ऐसा करने में सुमेर सिंह को कोई आपत्ति नहीं होती। शायद वे क्षमता से पूर्ण स्त्री को उसके उचित स्थान पर देखकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। परगासो ने भी कभी किसी को निराश नहीं होने दिया। राज- काज के सभी कामों में समान भागीदारी निभाती रही। झोपड़ी से महल का उसका सफर कोई छल- प्रपंच नहीं था। यह उसकी योग्यता थी, जो उसे उस स्थान तक ले गई।  परगासो बचने नहीं बचाने आई है। अपने लोगों को बचाने आई है। ज़िल्लत से, कमज़रफी से,  हकीक़त जिंदगी से,..... उठाकर ताज पहनाने आई है। जिस समय पूरे देश में विद्रोह की आग भड़क उठी, उस समय सभी राजाओं और नवाबों ने अपने स्तर पर विद्रोह को जारी रखा। उस समय कुछ औरतें भी थी जो इस विद्रोह को हवा दे रही थी। लक्ष्मी बाई और लखनऊ की बेगम हजरत महल ने भी इस विद्रोह में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इधर चाँदपुर में परगासो महाराजा दिग्गविजय सिंह और महाराजा कुंवर साहब के नेतृत्व में इस विद्रोह को अंजाम दिया गया। जिस समय समाज में स्त्रियों को पढ़ने- लिखने की आज़ादी नहीं होती थी, उन्हें पर्दे में रखा जाता था। ऐसे समय में परगासो जैसी स्त्री जिसका कोई ऊँचा कुल- वंश गाँव नहीं था। ढंग से खाने- पहनने को नहीं था उसने उस समय के सबसे बड़े विद्रोह में भाग लिया। यह एक नए बदलाव की ओर इशारा करता है। उसने कभी भी अपने मन से आज़ादी का सपना मरने नहीं दिया। परिस्थिति विपरीत होने पर भी अंत तक आजादी का ख़्वाब देखती रही और अपने स्तर पर प्रयत्न करती रही।

            दूसरी ओर है मोहल्ला लोधी पटना के चित्र-शैली के कलाकार शंकरलाल। शंकरलाल एक मुसव्विरखाना चलाते हैं, जहाँ उनके शागिर्द कला की बारीकियाँ सीखते हैं। यह मुसव्विरखाना हर समय खुला रहता था किसी के आने जाने पर कोई रोक नहीं थी। एक दिन शंकरलाल की नज़र एक ऐसे चित्र पर पड़ी जो एकदम वास्तविक और प्रकृति के करीब लग रही थी। उन्होंने चौकीदार से बनाने वाले का नाम जानना चाहा लेकिन चौकीदार बताने में असमर्थ रहा। बस इतना बता पाया कि कोई एक शागिर्द रोज़ सब के चले जाने पर आता है लगभग छ: महीने से लेकिन चेहरे पर नकाब होने से वह पहचान नहीं सकता। शंकरलाल बेचैन हो गंगा तट पर पहुँचे जहाँ वे देखते हैं कि वही चित्र कोई बना रहा है। उसके चेहरे पर भी नकाब है लेकिन अचानक नक़ाब हटने से वे स्तंभित रह जाते हैं। क्या कोई औरत भी कलाकार हो सकती है?...  ख़दीजा बेग़म यही तो नाम था उस कलाकार का। शंकरलाल को गंगा मान व श्रद्धा से ज़्यादा एक ऐश्वर्य से भरी- पूरी औरत लगती थीं, जिसकी हर एक लहर में कई कहानियाँ थीं। शंकरलाल ऐसी ही कहानियों को अपने कलम से कागज़ों पर उकेरना चाहते थे। शंकरलाल इस इलाक़े का दुनिया के दूसरे दूर- दराज के इलाकों से मेल करवाना चाहते थे। वे कला को ऊँचाइयों पर ले जाना चाहते थे। कला और जीवन जब तहज़ीबों से घुलना- मिलना सीखेगी तभी वह दुनिया को नई राह पर लिए चलेंगी। इन सब में साथ देने एक दिन ख़दीजा बेग़म शंकरलाल की जिंदगी में दस्तक देती हैं। वरना इससे पहले तो वे वैरागी ही थे, अपने कला के प्रति समर्पित। 

          विद्रोह के बाद मुसव्विरख़ाना की हालत भी ख़राब हो जाती है। कला को ऐसे मरते देख शंकरलाल चीन जाकर अपनी चित्रकला को बेचकर कुछ पैसे कमाने और उन पैसों से मुसव्विरख़ाना को गुलजार करना चाहते हैं। वे ख़दीजा बेगम को मुसव्विरख़ाना सौंपकर चले जाते हैं। वही ख़दीजा बेगम जिनसे शंकरलाल का मोहब्बत का रिश्ता बन गया था। ख़दीजा बेगम अपने समय में सारी बेड़ियों को तोड़कर, घर की चारदीवारी से बाहर निकल, बेपर्दा मुसव्विरख़ाने तक का सफ़र तय करती हैं। ऐसी जगह जहाँ कभी किसी पुरुष ने सोचा भी नहीं होगा कि एक औरत शागिर्द बन कला कि चौखट तक आएगी वरन् कला को नई ऊँचाइयों पर ले जाएगी। ख़दीजा बेगम ने सारी ज़िंदगी अपने शौहर शंकरलाल का इंतजार किया। जहाज़ पर जाने वाले का धरती पर रह कर इंतज़ार करना एक अकेली औरत के लिए साहस और स्वाभिमान का काम था, वरना कौन करता है किसी का इंतज़ार। पहले और आज के समय में भी किसी औरत का अकेले रहना समाज और आस-पास के लोगों की आँखों में कांटे की तरह खटकता है। लेकिन खदीजा बेगम ने वह कर दिखाया। उनका बेटा, उनका पोता किसी ने उनका साथ नहीं दिया। अपनी ज़िंदगी की लड़ाई वे स्वयं लड़ती हैं। उनका इंतज़ार ख़तम नहीं होता और एक दिन वे ज़िल्लत की दुनिया को छोड़कर रुख़्सत हो जाती हैं। अंत में पता चलता है कि शंकरलाल कोलकाता की जेल में ग़ुमनाम क़ैदी का जीवन व्यतीत करते इस देश से अलविदा हो गए। कला की सारी प्रॉपर्टी उन्होंने ख़दीजा बेग़म के नाम किया था, लेकिन उनके ना होने से वह सब उनके पोते सज्जन लाल को मिल जाता है। जो चित्रों को कबाड़ में फेंक देता है। ख़दीजा बेगम और शंकरलाल जैसे कलाकार इतिहास के पन्नों में दबकर रह जाते हैं। समाज यह नहीं समझ पाता की चित्र भी तो जिंदगी है। आपके लिए। मेरे लिए। हम सब के लिए। खदीजा बेगम ने उस समाज को कला की बानगियाँ सिखाती हैं, जो समाज औरतों के कला सीखने की प्यास को अंदर ही मार देते हैं। ऐसी थी ख़दीजा बेगम।

             परगासो और खदीजा बेगम से दूर सागर की गहराइयों के पार उसी समय में एक और औरत है जो अपने समय और समाज से संघर्ष करती हुई जीवन जीना सिखाती है। तमाम अवरोधों और विपन्नताओं के बाद भी वह हार नहीं मानती। ऐसा लगता है जैसे परिस्थितियाँ और वक़्त मिलकर उसे और साहस दे जाते हैं। यह औरत ताइपिंग विद्रोह की भुला दी गई नायिका यू- यान है। यू- यान जुड़वा बहने हैं इनकी बहन है मो- चाओ। यू-यान अपने प्रेमी के साथ जंगलों में चली जाती हैं जहाँ युद्ध में उसके पति की मृत्यु हो जाती है। यू- यान को एक बेटा है- ' चिन'। यू- यान मछलियाँ बेचकर अपना और अपने बेटे का पेट पालती है। किसी ने कहा था उसके बेटे को कि यह कुछ अच्छा करेगा यह एक ' रोगहर' है। 

             चीन के केंटन शहर में फ़तेह अली ख़ान यू- यान से मिलता है। फ़तेह अली ख़ां  जिनके रोज़नामचे के बग़ैर कहानी लिखी नहीं जा सकती थी। फ़तेह अली ख़ां राजा दिग्विजय सिंह के नौकर हैं जो उनके जहाज़ 'सूर्य दरबार' पर रहते हैं। यह जहाज़ कोलकाता बंदरगाह से चीन के केंटन शहर तक जाता है। फ़तेह अली ख़ां एक ईमानदार और अपने कार्य के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने गढ़ी से रिश्ता नहीं तोड़ा। आजीवन उसकी सेवा करते रहे। संयोग से यह कहानी 1910 पर आकर इसलिए खत्म हो जाती है, क्योंकि उसके बाद फ़तेह अली ख़ान के रोज़नामचे नहीं मिलते। उनका इंतकाल हो जाता है। चीन में अंग्रेजी सत्ता का प्रभाव बढ़ता देख यू - यान अपने बेटे चिन को फ़तेह अली ख़ान को सौंप देती है और उसे यहाँ उनके देश में सुरक्षित रखने को कहती है। फ़तेह अली ख़ां चिन को सुमेर सिंह और परगासो को दे देते हैं। आगे चलकर चिन डॉ चिन कान्हा सिंह बनता है।

            सन् 2001 में ली- ना नाम की एक लड़की भारत शोध के लिए आती है। जो जुड़वा बहन मो- चाओ और .... ‌ कुल की बेटी है। वह अपने देश से अपने वंश और पटना चित्र- शैली से जुड़ी कड़ी को ढूंढने आती है। उसके निदेशक बनते हैं शंकर लाल की पीढ़ी के समर्थलाल और उनकी पत्नी संगीता। समर्थलाल लीना को बीते समय की बातें बताते हैं। पटना आर्ट कॉलेज में लीना को चिन की वही तस्वीर मिलती है, जिसे फ़तेह अली ख़ां ने केंटन शहर में बनाया था और उसकी दूसरी कॉपी चिन की माँ यू- यान के पास थी। 

              लेखिका का यह उपन्यास अपने पाठकों को इत्मीनान दिलाता चलता है कि कहानी कहीं की भी हो मानवीय संबंध अनिवार्य रूप से मानवीय होते हैं। कुछ विरासतें साझी होती हैं, जो देश- काल के साथ- साथ हज़ारों मील फैले सागर को भी परे रखकर केवल मानवता को सबसे ऊँचाई पर रखती हैं। मानवीय संवेदना को किसी भी जाति, धर्म, देश और समुद्र की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। यह उपन्यास इतिहास के साथ- साथ वर्तमान समाज को भी मानवता का पाठ पढ़ाता है। मानवीय संबंधों को बचाए रखने में इतिहास से लेकर वर्तमान तक स्त्रियों की महती भूमिका रही है। इसका उदाहरण इस उपन्यास की औरतें परगासो, खदीजा बेग़म, यू- यान के साथ- साथ लीना बख़ूबी प्रस्तुत करती है। यह लड़ाई भी महाभारत की तरह उनके धर्म की लड़ाई थी। जो जाति- धर्म, ऊँच-नीच, हिंदू- मुसलमान और वर्ग- भेद की सीमाओं से ऊपर उठकर लड़ी गई और उसमें अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। समय से बड़ा अन्यायी कोई नहीं होता। जो हमसे सब कुछ छीन लेता है, परंतु साहसी व्यक्ति कभी हारता नहीं। इन औरतों से प्रभावित हो फ़तेह अली ख़ां कहते हैं-  "मैं कैसे बदल दूं इबारतें? कैसे बताऊँ दुनिया को कि मुल्क में एक परगासो बीवी होती हैं और चीन में एक यू- यान बीवी। दोनों की जमीन कितनी अलहदा लेकिन फितरत कितनी एक- सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गई हैं लेकिन फिर भी मुल्क़ की बेहतरी चिंता करती हैं।..... और इन बहादुर औरतों के आगे मेरा सर झुका है। मोहब्बत करने वाले बुरे दिनों में भी मोहब्बत करते हैं... अपने लोगों से, अपने धरती से, अपने मुल्क से... और इस तरह मोहब्बत कभी नहीं मरती। 

 

     एक ही सफ में खड़े हैं महमूदो अयाज़

     न कोई बंदा है, न कोई बंदा नवाज़! 

                                     -  (इसी उपन्यास से)

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लेखक - वंदना राग

विधा - उपन्यास

वर्ष - 2020

पृष्ठ - 295

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन

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परिचय...

प्रतिभा सिंह

शोधार्थी, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर।

शिवना साहित्यिकी, छत्तीसगढ़ मित्र और रचना उत्सव में प्रकाशित लेख एवं कविताएं!

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