आदिकाल से प्रेम साहित्य का विषय रहा है।समय व साहित्य के बदलने के साथ- साथ प्रेम की अवधारणा भी बदलती रही है। स्वयं साहित्यकारों ने समय -समय पर प्रेम को नए ढंग से परिभाषित किया है। प्रेम अमूर्त मनोभाव है जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति कठिन है।सभ्यता के विकास के साथ ही प्रेम और युद्ध साहित्य व कला के महत्वपूर्ण विषय रहे हैं। प्रेमकथाओं के प्रति लोगों का सहज आकर्षण रहा है । यही कारण है कि दुनिया की तमाम भाषाओं की लोककथाओं में प्रेम के किस्से ,कहानियाँ प्रचुर मात्र मेंमिलते हैं जैसे लैला- मजनूं, शीरीं-फरहाद, हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट आदि । हिन्दी साहित्य में बीसलदेव रासो, परमाल रासो, पृथ्वीराज रासो, पद्मावती, सूरसागर प्रेमकथाओं के प्रमाण हैI
प्रेम की प्रक्रिया जटिल है इसी जटिलता को समझने और व्याख्यायित करने का प्रयास समाज व शिक्षा के अनेक अनुशासन करते रहे हैं I प्रेम की गति व नियति बड़ी विचित्र है I प्रेम तत्व से ही सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है Iप्रेमके महत्त्व का प्रतिपादन करना कठिन नहीं है । एक आलोचक का मत प्रस्तुत है -‘प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया वह मैं देखता हूँ कि अकारत नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम,युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं से दिलचस्पी –ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अंदर पैदा हुई ....तो ,अगर उपर्युक्त तमाम सूत्रों के साथ इंसान से जुड़ता हूँ तो मेरे लिए फिलहाल इतना काफी है’।[1] वास्तव में प्रेम मनुष्यता को जिलाने में है किन्तु समाज ने प्रेम के शुद्ध, सात्विक, व्यापक रूप को दुरूह बना दिया है I समाज की जीर्ण शीर्ण मान्यताओं,सोच ने मनुष्य के भीतर प्रेम तत्व को समाप्त कर उसे असहज और अस्वाभाविक व्यवहार करने के लिए मजबूर कर दिया है।
हिन्दी उपन्यास मे प्रेम के अनेक रूप चित्रित हुआ है । भारतीय समाज मे प्रेम एक कठिन ‘व्योपार’ रहा है। रचनाकारों ने इस ‘व्योपार’का चित्रण अपने अपने तरह से किया है। प्रेम में होने वाली समस्याओं का चित्रण अनेक रचनाकारों ने अपने उपन्यासों में किया है जिसमें चित्रलेखा ( भगवतीचरण वर्मा),गुनाहों के देवता ( धर्मवीर भारती), नदी के द्वीप( अज्ञेय) कसप( मनोहरश्याम जोशी ) शामिल हैं। इनमें कसप ऐसा उपन्यास है जो लीक से हटकर है वह समस्त साहित्यिक व साहित्येतर प्रतिमानों को ध्वस्त करता हुआ प्रतीत होता है और बदलते समय के साथ मुठभेड़ करता हुआ आगे बढ़ता है।
एक आलोचक का मत है कि‘मनोहरश्याम जोशी उन दुर्लभ वादकों की तरह हैं, जिन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कोई एक साथ इतने तारों पर कैसे नियंत्रण रख सकता है । कसप उपन्यास वाचक की पसंद के मुताबिक ही उस प्रकार के साहित्य में शामिल नहीं है जो मात्र यही या वही करने की कसम खाये हुए है । यह उन सभी सीमाओं को तोड़ता हुआ प्रतीत होता है जो समाज द्वारा बनाई गई हैं।‘[2]
क्रिस्टोफर कॉडवेल का मानना है- ‘प्रेम सामाजिक सम्बन्धों में निहित उस भावनात्मक तत्व का नाम है जिसे कोमलता कहते हैं’[3]। यही कोमल भाव मनुष्य को जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है । ‘कसप’उपन्यास की कथा संरचना के निर्माण मेंयही प्रेम तत्व निहित है।इस उपन्यास मेंनायक डी.डी. शादी में शामिल होने अल्मोड़ा आया हुआ है और नायिका बेबी को देख कर चौंक जाता है । यही नायक का नायिका से मारगांठ को लेकर नोंक झोंक के बीच परिचय होता है । दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं और प्रेम कर बैठते हैं। लेखक के शब्दों में- “चौंका होना प्रेम की लाक्षणिक स्थिति जो है। जिंदगी की घास खोदने में जुड़े हुए हम जब कभी चोंककर घास, घाम, खुरपा, तीनों भुला देते हैं तभी प्यार का जन्म होता है। या इसे यो कहना चाहिए कि प्यार वही है जिसका पीछे से आकर हमारी आँखें गदोलियों से ढक देना हमें बाध्य करता है कि घड़ी दो घड़ी घास, घाम, खुरपा भूल जाये”[4]।
लेखक का ध्यान सम्पूर्ण उपन्यास में प्रेम की उदात्ता को चित्रित करने वाली परंपरागत स्थितियों की अपेक्षा अशिष्ट और अनैतिक सी लगने वाली सहज व यथार्थ स्थितियों पर केन्द्रित दिखाई देता है।लेखक ने परंपरागत सुंदर पक्ष की अपेक्षा भदेस पक्ष के आधार पर ही घटनाओं का परिचय देकर कथा को आगे बढ़ाया है । लेखक ने ऐसे स्थलों का प्रयोग चौंकाने के लिए नहीं अपितु मर्यादा, नैतिकता के कृत्रिम आवरण के बिना मानवीय वृत्तियों का सहज प्रस्तुतीकरण किया है। नायक और नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण आप भी देखिए – “ अब नायक नायिका के प्रथम साक्षात्कार का वर्णन करना है मुझे। और किंचित संकोच में पड़ गया हूँ । भदेस से सुधी समीक्षकों को बहुत विरक्ति है । मुझे भी है थोड़ी बहुत। यद्यपि मैं ऐसा भी देखता हूँ कि भदेस से परहेज हमें भीरु बना देता है और अंतत: हम जीवन के सर्वाधिक भदेस तथ्य मृत्यु से आँखें चुराना चाहते हैं । जो हो, यही सत्य का आग्रह दुर्निवार है। यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथा नायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती नाव पर बिठा नहीं सकता”[5]। नायक- नायिका का पहला साक्षात्कार अस्थायी टट्टी में करवाने के माध्यम से लेखक यह दर्शाता है कि प्रेम के लिए सुरम्य स्थल ही आवश्यक नहीं है। इस प्रकार प्रेम की स्थिति में कुरुचि व सुरुचि की परिभाषाएँ लुप्त हो जाती है।
मानवीय जीवन जटिल है। वह निरंतर गतिशील है तो साहित्य में भाव और विचार कैसे स्थिर रह सकते हैं ? अत: मनोहरश्याम जोशी ने समय की बदलती हुई नब्ज़ को पकड़कर उसे एक नए तरीके,टेकनीक द्वारा अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया। भाषा,शिल्प व संरचना के विशिष्टपन के कारण मानवीय बुद्धि को इन्हें समझने में थोड़ा अधिक परिश्रम करना पड़ता है किन्तु जब बात समझ में आती है तो लगता है कि जिस बात को लेखक ने जिस ढंग से कहा है उसे उसी ढंग से कहा व समझाया जा सकता था । आधुनिक समाज में प्रेम अपना नैसर्गिक गुण खो चुका है अत: व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार हो गया है। इस बीमारी के कारण वह प्रेम का संबंध मात्र शरीर से जोड़ता हैं।
कसप की एक पात्र गुलनार के शब्दों में – “ प्यार लिप्सा और वर्जना के खाने पर जमाने भर के भावनात्मक मोहरों से खेले जाने वाली शतरंज है । अंतरंगता खेल नहीं है उसमें कोई जीत हार नहीं है, आरंभ और अंत नहीं है । प्यार एक प्रक्रिया है अंतरंगता एक अवस्था”।[6]
‘मानवीय सम्बन्धों का आधार प्रेम है’[7]। मनोहरश्याम जोशी प्रेम शब्द का अर्थ केवल स्त्री पुरुष के सम्बन्धों के संदर्भ में ही नहीं करते । वे सम्बन्धों की जटिलता को समझना व समझाना चाहते हैं। स्त्री पुरुष संबंध सहज,सामान्य व स्वाभाविक होते हैं किन्तु समाज व परिस्थितियों ने इन्हें इतना असहज और अस्वाभाविक बना दिया है कि आधुनिक मनुष्य बीमार हो गया है। इसी बीमारी को जानने, समझने और दूर करने के लिए मनोहरश्याम जोशी मानवीय सम्बन्धों की प्रकृति को उघाड़ते हैं। जिससे समाज व साधारण मनुष्य में सहजता आ सके।
समाज मे प्रेम और उसके वास्तविक चरित्र पर गुलनार के विचार आप से साझा कर रही हूँ। शायद आप भी इस मत की अतिवादिता से परिचित होंगे “ कमीने होते हैं सब मूलत: कमीने ! नरभक्षी। खाने को तैयार बैठे हैं तुम्हें वे हमेशा । जिन्हें वे भावनाएँ कहते हैं, और कुछ नहीं, तुम्हारा शोषण करने की सुविधाएँ होती हैं। मैं जानती हूँ कि इस नुस्खे का मर्द किस तरह उपयोग करते आए हैं औरत के शोषण के लिए , और औरतें भी कैसे इसी को अपने संरक्षण –संवर्धन का हथियार बनाने को बाध्य हुई है । क्या तुम समझते हो कि वह मेरा सौतेला पिता,रंगमंच का जीनियस कभी मेरी मदद करता आगे बढ्ने में? वह तो मुझे वात्सल्य भाव से भोगता रहता और चाहता कि मैं प्यारी-प्यारी बच्ची बनीरहूँ,उसके बिस्तरकी शोभा बढ़ाती रहूँ”।[8]
प्रेम एक स्वच्छंद हृदयगत भाव है लेकिन आधुनिक होते मनुष्यने इसे बोझिल बना दिया है । “प्रेम वह भार है जिसमें मानस-पोत जीवन सागर में संतुलित गर्वोन्नत तिर पाता है”।[9]प्रेम में लेन देन का भाव नहीं होता । उसमें समर्पण है। जब प्रेम में लेन देन का भाव आ जाता है तो वह प्रेम भावगत न होकर स्वार्थपूर्ति मात्र हो जाता है । उत्तर आधुनिक, भूमंडलीकरण ,बाजारवाद के युग में यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि प्रेम जैसा सहज, निश्छल भाव भी इसकी चपेट मे आ गया है । हर रिश्ता फायदे व नुकसान की दृष्टि से देखा जाने लगा है जिससे संबंधों की गरमाहट,विश्वास का स्थान कृत्रिमताने ले लिया है। लेखक के शब्दों में –“ नायिका पूछती है कि क्या तू इतना योग्य बन गया है कि मैं तेरे योग्य ही नहीं ठहरी। फिर अचानक अपने शरीर के सारे वस्त्र नायिका द्वारा उतार कर यह कहना – आ ! वह कह रही है जो तू मेरा मर्द है तो आ भोग लगा ले मेरा ! जाकर कह दे इजा बाबू से शादी तो हो गई थी गणानाथ में ,चतुर्थी कर्म भी हो गया यहाँ”[10]। और डीडी नायिका पर चादर डाल कर चला जाता है।
आधुनिक मनुष्य की विडम्बना है कि उसके पास अनेक विकल्प है इन विकल्पों के द्वंद्व में फँसे होने के कारण वह सही निर्णय लेने में अक्षम है। उपन्यास में नायक डीडी भी ऐसा ही पात्र है जो प्रेम करना चाहता है, प्रेम पाना चाहता है किन्तु अमेरिका के प्रति आकर्षण उसे इस प्रेम तत्व को छोड़ देने के लिए बाध्य कर देता है। अंत में उसकी परिणति उदास और आहत के रूप में होती है जहाँ वह प्रेम को दुबारा पाना चाहता है दुबारा प्रेम में जीना चाहता है।इसी उदासी को छिपाने के लिए वह अंत मे फिर से अल्मोड़ा आता है जहाँ उसे अपनी जीन सिम्मंस नायिका के दर्शन हुए थे । वह समझ जाता है कि प्रेम पाने में नहीं जीने में है–“ वह उदास ही नहीं आहत भी था। उदास और आहत होना उसे कुल मिलाकर प्रेम को परिभाषित करना जान पड़ा”[11]।
मनोहर श्याम जोशी उन सभी खाँचों को एक –एक करके तोड़ते हैं जो मनुष्य के वैयक्तिक व सामाजिक कार्य-व्यापार को सुचारु रूप से चलने से रोकते हैं । इस पैटर्न को साँचों को तोड़ने के लिए वे खिलंदड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। कुमाऊंनी किस्सागोई की परंपरा और फिल्मी अंदाज में एक के बाद एक प्रस्तुत होते दृश्य इसे और बल प्रदान करते हैं। बेबी के शब्दों में - मुख से न बोलने की मुनादी क्या आँखों पर भी लागू होती है ? इन लाउड-स्पीकर आँखों पर”[12]
‘कसप’[i]में नायक नायिका का औसत सत्य से कोई वास्ता नहीं हैं । स्वयं विधाता के बारे में जब यह निश्चित नहीं है किवह अपनी ही रचना के समस्त क्रियाकलाप से वाकिफ है तो यदि नायक नायिका की यह विलक्षण प्रेम कथा अलग धरातल पर घट रही है तो स्वाभाविक ही माना जाएगा। क्योंकि हम नायक– नायिका के प्रेम के प्रेम के बारे में औसत सत्य निकाल सकते हैं किन्तु पूर्ण सत्य के बारे में कसप जैसा उत्तर ही मिलेगा। “विधाता के बारे में मुझे लगता है कि एक विशिष्ट ढंग से उसने फेंक दिया है हमें कि मंडराओ और टकराओ आपस में । समग्र पैटर्न तो वह जानता ही है एक एक कण की नियति नहीं जानता । कसमिया तौर पर वह खुद नहीं कि इस समय और कौन सा कण कहाँ,किस गति से क्या करने वाला है? अत: यहाँ जोशी जी प्रेम संबंधी आधुनिक औसत सत्य को नकारते हैं जिसमें यह मान्यता है कि – “नर के लिए प्यार का उन्माद वही तक होता है जहां तक वह स्वीकार न हो जाये । उसके बाद उतार ही उतार है । उधर मादा के लिए उसकी उठान ही स्वीकार से आरंभ होती है”।[13]
प्रेम की कहानी सदा-सर्वदा अकथ रही है। कसप उपन्यास को पढ़कर भी पाठक यह समझ नहीं पाता कि क्या प्रेम यही है? नायक –नायिका भी प्रेम करते हुए अंत तक यह समझ नहीं पाते कि वे एक दूसरे से प्रेम करते हैं । लेखक भी कथा लिखने के बाद निर्धारित नहीं कर पाता कि प्रेम क्या है । प्रेम को किसी विशेष विचारधारा या सत्य के ढाँचे में नहीं बिठाया जा सकता, यह अपना रास्ता खुद तय करता है। मनोहर श्याम जोशी ने इसी अपरिभाषित प्रेम को रचने की कोशिश की है।जिसका उत्तर ढूँढने पर एक ही उत्तर मिलता है- कसप।
संदर्भ ग्रंथ सूची
आधार ग्रंथ
- मनोहर श्याम जोशी – कसप, राजकमल पपेरबैक्स,तीसरा संस्करण 2007
सहायक ग्रंथ
- कुसुमलता मलिक( सं) गप्प का गुलमोहर मनोहरश्याम जोशी, स्वराज प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2012
- मनोहरश्याम जोशी –आज का समाज ,वाणी प्रकाशन, 2006
- कमलेश- मनोहरश्याम जोशी के कथा प्रयोग ,नया साहित्य केंद्र, संस्करण 2010
- मधुरेश –हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान, स्वराज प्रकाशन ,संस्करण2002
- (सं) रामेश्वर राय– संचयिता: निर्मला जैन, वाणी प्रकाशन ,2013
- गोपालराय- हिन्दी उपन्यास का इतिहास ,राजकमल प्रकाशन,द्वितीय
आवृत्ति,2010
- रमेश उपाध्याय (सं)- आज के समय में प्रेम ,शब्दसंधान, संस्करण 2008
- अपूर्वानंद- सुंदर का स्वप्न, वाणी प्रकाशन ,2001
पत्रिकाएँ
- आजकल ,जून 2006
- नया ज्ञानोदय, नवंबर ,2011
[1]अपूर्वानंद -सुंदर का स्वप्न ,पृष्ठ 182
[2]कुसुमलता मालिक(सं) गप्प का गुलमोहर मनोहर श्याम जोशी
[3]रमेश उपाध्याय (सं) आज के समय में प्रेम ,पृष्ठ 28
[4]कसप ,पृष्ठ 9
[5]वही, पृष्ठ 15
[6]वही ,पृष्ठ 172
[7]रमेश उपाध्याय – आज के समय में प्रेम ,पृष्ठ 34
[8]कसप ,पृष्ठ 159
[9]वही , पृष्ठ 144
[10]कसप ,पृष्ठ 218
[11]वही, पृष्ठ 220
[12]वही, पृष्ठ 132
[13]कसप, पृष्ठ 173
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