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Wednesday, September 9, 2020

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र


भारतेंदु हरिश्चंद्र


“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल” अर्थात अपनी भाषा की प्रगति ही हर तरह की प्रगति का मूलाधार है. इस सत्य का साक्षात्कार भारतेन्दु हरिश्चंद्र ( 9.9.1850-6.1.1885) ने आज से डेढ़ सौ साल पहले ही कर लिया था. इसीलिए हम भारतेन्दु को ‘आधुनिक हिन्दी का अग्रदूत’ कहते है. मात्र 34 वर्ष 4 माह की अल्पायु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. इस छोटी सी आयु में साहित्य के विविध क्षेत्रों में उन्होंने जो काम किया है वह अविश्वसनीय लगता है. उन्होंने ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’, ‘कविवचनसुधा’, ‘बालाबोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, अनेक नाटक लिखे, नाटकों के अनुवाद किए और उसमें अभिनए किए, कविताएं, निबंध, व्यंग्य और आलोचनाएं लिखीं. भारतेन्दु मंडल के माध्यम से काशी के साहित्यकारों को एकजुट करके उनका नेतृत्व किया. साहित्यिक संस्कार उन्हें अपने पिता गोपालचंद्र से मिले थे जो ‘गिरिधरदास’ के नाम से कविताएं करते थे.


भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी आलोचना के भी अग्रदूत कहे जा सकते हैं. हिन्दी गद्य के विकास और रूप निर्धारण में उनकी पत्रिका ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ का विशेष योगदान है. इस पत्रिका ने उस युग के आधुनिक दृष्टि सम्पन्न लेखकों को अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर दिया.  नाटक, भारतेन्दु की की सर्वाधिक प्रिय विधा रही. ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेरनगरी’, ‘नीलदेवी’ जैसे कई मौलिक नाटकों के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला के नाटकों का अनुवाद भी किया. अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने ‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी. इस कृति से नाटक के विषय में उनकी आधुनिक दृष्टि का पता चलता है.


नाट्य रचना के अंतर्गत यथार्थवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता को महसूस करते हुए भारतेन्दु लिखते हैं कि, “ अब नाटकादि दृश्य काव्य में अस्वाभाविक सामग्री –परिपोषक काव्य, सहृदय सभ्यमंडली को नितान्त अरुचिकर है, इसलिए स्वाभाविक रचना ही इस काल के सभ्यगण की हृदयग्राहिणी है, इससे अब अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना उचित नहीं है.” (उद्धृत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएं, रामविलास शर्मा, पृष्ठ-148)


भारतेन्दु के समय हिन्दी नाटकों पर बंगला और अग्रेजी के साथ पारसी शैली के नाटकों का भी  प्रभाव पड़ रहा था किन्तु भारतेन्दु को पारसी नाटकों की अभिनय शैली पसंद नहीं थी. उन्होंने पारसी नाटकों की प्रस्तुति और शैली पर व्यंग्य करते हुए लिखा है, “ काशी में पारसी नाटक वालों ने नाचघर में जब शकुन्तला नाटक खेला और उसमें धीरोदात्त नायक दुष्यंत खेमटेवालियों की तरह कमर पर हाथ रखकर मटक- मटक कर नाचने और पतली कमर बल खाय यह गाने लगा तो डाक्टर थिबो, बाबू प्रमदादास मित्र प्रभृति विद्वान यह कहकर उठ आए कि अब देखा नहीं जाता.“ ( वही, पृष्ठ- 21)


भारतेन्दु ने आलोचना के क्षेत्र में दो मूलभूत की स्थापनाएं की हैं.  प्रथम तो यह कि शास्त्रीय सिद्धात परिवर्तनशील हैं. उनका युगानुकूल पुनराख्यान होना चाहिए.  दूसरा यह कि काव्य का मूल्यांकन सामाजिक चेतना को भी दृष्टि में रखकर करना चाहिए.  शास्त्रीय मर्यादा से युक्त होते हुए काव्य कृति तभी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है जब उसमें समाज संस्कार की चेतना और देश भक्ति की भावना हो. भारतेन्दु के इस दृष्टिकोण का ही प्रभाव था कि आगे चलकर पं. बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और प्रतापनारायण मिश्र जैसे आलोचकों ने साहित्य को जीवन के साथ संपृक्त करके देखा और साहित्य में संयम, मर्यादा और शुद्धाचरण की प्रतिष्ठा पर अधिक बल दिया.  बाद में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया.


डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने नाटक-केन्द्रित भारतेन्दु की आलोचना दृष्टि का विश्लेषण करते हुए लिखा है, “भारतेन्दु ने नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिक जनरुचि एवं प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता पर विचार किया है. उन्होंने बदली हुई जनरुचि के अनुसार नाट्यरचना में परिवर्तन करने पर विशेष बल दिया है. भारतेन्दु के नाटक विषयक लेख में आलोचना के गुण मिल जाते हैं. ऐसी दशा में उन्हें आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रथम आलोचक कहना अनुचित न होगा.” (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ-19)


कविता के संबंध में भारतेन्दु के विचार हमें उनके निबंध ‘जातीय संगीत’ में मिलते है.  इसमें उन्होंने लिखा है, “ यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्राम- गीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता. इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है.”( भारतेन्दु ग्रंथावली, (सं.) ओमप्रकाश सिंह, खंड-6, पृष्ठ-102 )


     हिन्दी के महत्व और उसकी प्रगति के लिए भारतेन्दु का चिन्तन बहुत महत्वपूर्ण है. भारतेन्दु का बलिया वाला मशहूर भाषण ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ का अन्तिम वाक्य है, “परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो. अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो.“ 


 हिन्दी की उन्नति को आधार बनाकर भारतेन्दु ने 98 दोहों का एक संकलन तैयार किया है. इसी का एक प्रसिद्ध दोहा है,


“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल.”


 भाषा के संबंध में भारतेन्दु की यही मूल स्थापना है. उनका विश्वास है कि कोई भी जाति सिर्फ अपनी भाषा के माध्यम से ही प्रगति कर सकती है. पराई भाषा के माध्यम से पढ़ाई करने वाला व्यक्ति सिर्फ नकलची बन सकता है. उसके भीतर स्वाभिमान नहीं जग सकता. अपनी भाषा के बिना मनुष्य अपनी हीनता से मुक्त नहीं हो सकता. भारतेन्दु हमारा ध्यान अंग्रेजों की ओर आकर्षित करते हैं और कहते हैं कि अंग्रेजों ने कैसे प्रगति की ? उन्होंने अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की. यह बात हमें उनसे सीखनी चाहिए. ( दोहा संख्या-35)  अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि इनकी भाषा बहुत अटपटी है. लिखा कुछ जाता है, पढ़ा कुछ जाता है. लेकिन इस अटपटेपन के होते हुए भी अंग्रेजों ने अपनी भाषा नहीं छोड़ी. ( दोहा- 36) अंग्रेजी में जो ज्ञान- विज्ञान है उसे सीखकर हिन्दी में ले आना चाहिए. ( दोहा-38-39)


भारतेन्दु का प्रस्ताव है कि हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा सबके लिए सुलभ होनी चाहिए. सारी उन्नति की जड़ है- भाषा की उन्नति. इसके लिए सब लोगों को मिलकर प्रयास करनी चाहिए.


“तासों सब मिलि छाँड़ि के दूजे और उपाय / उन्नति भाषा की करौ अहौ भ्रातगण आय.”


उनका आग्रह है कि राज- काज और दरबार में सब जगह अपनी भाषा का व्यवहार करो


“प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि यत्न / राज- काज दरबार में फैलाओ यह रत्न.”


हिन्दू –मुस्लिम एकता का महत्व भारतेन्दु भली- भाँति समझते हैं. वे हिन्दुओं और मुसलमानों- दोनो से अपने- अपने सुधार की बात करते हैं.  मुसलमानों से वे कहते हैं, “ मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वे लोग हिन्दुओं को नीचा समझना छोड़ दें. ठीक भाइयों की भाँति हिन्दुओं से व्यवहार करें.  ऐसी बात जो हिन्दुओं के जी दुखाने वाली हों न करें. घर में आग लगे तब जिठानी द्यौरानी को आपस का डाह छोड़कर एक साथ वह आग बुझानी चाहिए.  जो बात हिन्दुओं को नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है. उनमें जाति नहीं, खाने –पीने में चौका- चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक –टोक नहीं, फिर भी बड़े सोच की बात है, मुसलमानों ने भी अब तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी.“ ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ- 901)


भारतेन्दु हिन्दी और उर्दू को बुनियादी रूप से एक ही भाषा मानते हैं. वह केवल अरबी- फारसी से लदी हुई भाषा का विरोध करते हैं और चाहते हैं कि बोलचाल की भाषा में जो गद्य लिखा जाय उसकी लिपि देवनागरी हो. ‘अगरवालों की उत्पत्ति’ शीर्षक अपने लेख की भूमिका में वे कहते हैं, “इन अगरवालों का संक्षिप्त इतिहास इस स्थान पर लिखा जाता है. इनका मुख्य देश पश्चिमोत्तर प्रान्त है और बोली स्त्री और पुरुष सबकी खड़ी बोली अर्थात उर्दू है. “(उद्धृत, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग-2, पृष्ठ 397). उन्होंने अन्यत्र लिखा है, “मुझे शिक्षा से सदा दिलचस्पी रही है. मैं संस्कृत, हिन्दी और उर्दू का कवि हूँ तथा गद्य और पद्य में मैने बहुत सी चीजें लिखी हैं.” ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ -1054) वे उर्दू में भी ‘रसा’ उपनाम से कविताएं लिखते थे. उनकी सपष्ट मान्यता है कि, “इस खड़ी बोली में जब फारसी शब्दों की बहुतायत होती है और वह फारसी लिपि में लिखी जाती है तब उसे उर्दू कहा जाता है, जब इस तरह की विदेशी मिलावट नहीं होती और वह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, तब उसे हिन्दी कहा जाता है. इस तरह हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि उर्दू और हिन्दी में कोई वास्तविक भेद नहीं है.“ ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ- 1056)


भारतेन्दु ने 1883-84 में ‘हिन्दी भाषा’ नाम से एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित की थी. इसमें शुद्ध हिन्दी के रूप में उन्होंने निम्नलिखित उद्धरण प्रस्तुत किया है,


“पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आए. क्या उस देश में बरसात नहीं होती ? या किसी सौत के फन्द में पड़ गए कि घर की सुध ही भूल गए. कहां (तो ) वह प्यार की बातें, कहां एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी भी न भिजवाना. हाय मैं कहां जाऊं, कैसी करूं, मेरी तो ऐसी कोई मुँहबोली सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊं, कुछ इधर- उधर की बातों ही से जी बहलाऊं.”


भारतेन्दु ने अपने नाटकों में इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया है. एक ओर तो इसमें तद्भव और देशज शब्दों एवं मुहावरों का प्राधान्य है और दूसरी ओर जनजीवन में घुले हुए विदेशी शब्दों से भी कोई खास परहेज नहीं है. रामविलास शर्मा के अनुसार भारतेन्दु न तो घोर उर्दू विरोधी थे, न संस्कृतनिष्ठता के कायल. बोलियों का प्रयोग ही भारतेन्दु की ताकत है. उसमें जनपदीय शब्दों का धड़ल्ले से व्यवहार होता है. यह सही है कि गद्य भारतेन्दु ने खड़ी बोली में लिखा किन्तु कविता के लिए वे ब्रजभाषा का ही इस्तेमाल करते रहे. ब्रजभाषा की मिठास के आकर्षण से वे अंत तक मुक्त नहीं हो सके.  


  भारतेन्दु के समसामयिक अधिकाँश लेखकों ने इसी शैली को अपनाया, परन्तु खेद है कि आगे चलकर बांग्ला के अनुवादों तथा आर्य समाज की एकान्त संस्कृनिष्ठता के कारण भाषा का यह रूप अधिक मान्य न हो सका.   


भारतेन्दु ने 1882 ई. में शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा था, “ सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है. यही ऐसा देश है जहां न तो अदालती भाषा, शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की....... हिन्दी का प्रयोग होने से जमींदार, साहूकार और ब्यापारी सभी को सुविधा होगी क्योंकि सभी जगह हिन्दी का ही प्रयोग है.”


निसंदेह, भारतेन्दु के भाषा संबंधी चिन्तन का तत्कालीन हिन्दी- समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा. खासतौर पर भारतेन्दु -मण्डल के लेखकों ने भाषा के इस रूप को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाई.


भारतेन्दु द्वारा संपादित ‘कविवचन सुधा’ (1868 ई.) और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ (1873 ई.) में समीक्षा के स्तंभ भी रहते थे. हाँ, यह सही है कि 1880 ई. के पूर्व पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली आलोचनाएं परिचयात्मक और साधारण कोटि की होती थीं.


भारतेन्दु के भीतर की इस आधुनिकता के मूल में बंगाल के नवजागरण की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने बंगाल की एकाधिक यात्राएं की थीं. बंगाल के नवजागरण के प्रमुख नायक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से उनकी गहरी मैत्री थी. विद्यासागर की माँ भगवती देवी के काशीवास करने पर भारतेन्दु ही उनकी देखरेख कर रहे थे. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने जिस ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का संपादन किया था उसकी अलग- अलग तीन प्रतियां भारतेन्दु ने अपने निजी पुस्तकालय से उन्हें भेंट की थी. अपनी पुस्तक की भूमिका में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने इस बात का बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है. भारतेन्दु ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रशंसा में एक लावनी भी लिखी है,


“सुंदरबानी कहि समुझावै, विधवागन सौं नेह बढ़ावै;


दयानिधान परमगुन सागर, सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.” 


भारतेन्दु ने यात्राएं भी खूब कीं. वे बैलगाड़ी से यात्राएं करते थे. बस्ती ( उत्तर प्रदेश का एक जिला मुख्यालय ) से गुजरने पर उन्होंने टिप्पणी की थी, “बस्ती को बस्ती कहौं तो काको कहौं उजाड़?” और बालूशाही मिठाई का स्वाद चखकर कहा था, “बालूशाही तो सचमुच बालू सा ही.”


 निश्चित रूप से भारतेन्दु असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति थे. राधाकृष्ण दास ने भारतेन्दु द्वारा विभिन्न भाषाओं और विषयों पर रचित, अनूदित और संपादित दो सौ अड़तालीस ग्रंथों का उल्लेख किया है. चौंतीस वर्ष चार महीने की अल्पायु में दिवंगत होने वाले व्यक्ति के लिए यह एक चमत्कार जैसा है.


जन्मदिन के अवसर पर हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र की असाधारण देन का हम स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.


                  प्रो. अमरनाथ शर्मा   


              (लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)


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