हिंदी प्रगीत का समाजशास्त्र
काव्य में विचार की अपेक्षा भाव की प्रमुखता होती है।यह विधा अनुभूति प्रधान है ;इसलिए काव्य साहित्य के समाजशास्त्र के लिए एक चुनौती है। काव्य के समाजशास्त्र पर लुकाच,गोल्डमान, लियो लावेंथल ,रेमंड विलियम्स विचार करते हैं।
समाजशास्त्र और साहित्य परस्पर परिपूरक हैं। साहित्य समाज के मूल्यों,मानों,परिवर्तनों और उपलब्धियों को स्वर देता है और समाजशास्त्र उनकी व्याख्या के साथ मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करता है। "समाज व्यक्तियों का समूह न हो कर मनुष्य के बीच होने वाली अंतर्क्रियाओं और इनके प्रतिमानों का प्रतिरूप है।"1
समाजशास्त्र सामाजिक अंत्क्रियाओं और प्रतिमानों की व्याख्या करता है।"प्रतीकों की सुविधा और सूखता,उनकी उत्पत्ति संबंधी वैधता से अधिक महत्वपूर्ण है समाज के लिए जिसकी सार्थकता का विवेचन समाजशास्त्र करता है।"2 समाजशास्त्रसाहित्य में व्यक्त समाज,सामाजिक संबंधों, सामाजिक अंतर्क्रियाओं,और परिवर्तनों का अध्ययन करता है।"वह साहित्य में व्यक्त समाज का समग्र रूप में व्यवस्थित वर्णन और व्याख्या करता है।"3 दुर्खीम सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान मानते हैं समाजशास्त्र को।" यह उन मानसिक संबंधों का अध्ययन है जो व्यक्तियों को परस्पर बांधते हैं।" 4
समाजशास्त्र साहित्य की विविध विधाओं में व्यक्त जीवन-यथार्थ और मूल्यों का विश्लेषण -मूल्यांकन करता है।
काव्य में भाषाई संरचना उपन्यास और नाटक से अधिक महत्वपूर्ण होती है।सेंट जान पर्सी काव्य की अनुभूति और भाषाई संरचना का विश्लेषण करते हैं। कवि की संवेदना गौण है।
काव्य में भी यथार्थवाद का अंकन होता है,लेकिन वर्णनात्मक और कथात्मक काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति अधिक होती है। प्रगीतात्मक काव्य में यथार्थ गौण और अनुभूति प्रधान होती है। प्रगीत के आत्मपरक, रोमांटिक, बिंबाश्रित और प्रतीकात्मक होने पर यथार्थ गौण होता है। नागार्जुन के प्रगीत कथात्मक हैं, इसलिए अनुभूति कम, विचार अधिक हैं। नागार्जुन की 'अब तो बंद करो देवी इस चुनाव का प्रहसन' या 'तुम रह जाते दस साल औ'र या' सत्य को लकवा मार गया है'जैसी कविताओं का सामाजिक अर्थ और अभिप्राय यथार्थ से युक्त है।लेकिन ' कालिदास सच सच बतलाना 'या 'श्याम घटा हित बिजुरी रेह','सुजान नयन मनि','मेघ बजे 'आदि कविताओं की कला यथार्थ की सीमा से बाहर पड़ती है। कविता में व्यंजना की पद्धति प्रायः प्रतीकात्मक अधिक होती है।
काव्य में यथार्थ और अनुभव की सीधी अभिव्यक्ति नहीं होती। उसमें पुनर्रचित यथार्थ और अनुभव की अभिव्यक्ति होती है;इसलिए काव्य का यथार्थ जीवन के यथार्थ से भिन्न होता है। कविता में कभी-कभी मानवीय वास्तविकता से जीवनाकांक्षा की व्यंजना अधिक होती है, लेकिन काव्य की नितांत निजी अनुभूति में भी समाज की आकांक्षा निहित होती है। काव्य के सौन्दर्य का एक रूप भाषिक सृजनशीलता के सौन्दर्य में होता है। पाब्लो नेरूदा काव्य को यथार्थ-विरोधी मानते हैं। समाजशास्त्र जीवन के सामाजिक यथार्थ और मूल्यों से संबद्ध है ।यह संबंधों और व्यवहारों पर निर्भर है। वह समाज की वास्तविकता के अमूर्तन का सैद्धांतिक सार है। उसमें समाज से स्वतंत्र व्यक्तियों की सत्ता का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। अडोर्नो का कहना है कि काव्य समाज का विरोधी और व्यक्ति का पक्षधर होता है। वह भौतिक जीवन के दमनकारी प्रभावों और उपयोगितावादी दबावों से बचाने का माध्यम है ।वह मानवता और मूल्य ,मानवीय अस्मिता और स्वाधीनता का पक्षधर है।यही इसकी मानवीयता और सामाजिकता है।
ओडोर्नो का कहना है कि "प्रगीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है।"5
मुक्तिबोध 'कामायनी' की समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं लेकिन सौंदर्य -बोध रहित।
समाजशास्त्र की वस्तुपरकता और प्रगीत की आत्मपरकता में समन्वय का अभाव होता है, लेकिन प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रगीत में वस्तु से चेतना का और समाज से व्यक्ति का ऐतिहासिक संबंध व्यक्त होना अपेक्षित है। प्रगीत में यह संबंध जितना प्रच्छन्न होगा प्रगीत उतना ही अर्थपूर्ण होगा। इसमें समकालीन जीवन की संवेदना होती है। काव्य और प्रगीत में आत्मीयता और संश्लेषणात्मकता होती है। प्रतीक,बिंब फैंटेसी आदि काव्य की संप्रेषणीयता के साधन होते हैं। लय,प्रवाह और संगीत काव्य के वैशिष्ट्य हैं। इसमें भाषा की भूमिका निर्णायक और महत्वपूर्ण होती है।इसकी भाषाई संवेदनशीलता में सामाजिक संवेदनशीलता निहित होती है।अडोर्नो का कहना है कि "उदात्त प्रगीत वे होते हैं जिनमें कवि अपनी भाषा में खुद को इस तरह विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति का आभास नहीं होता और भाषा का अपना स्वर काव्य में गूंजने लगता है। इसी प्रक्रिया में जब भाषा के स्तर पर काव्य समाज से जुड़ता है तब उसकी भाषा केवल कवि -मानसिकता को ही व्यक्त नहीं करती ,वह अपने समय और समाज की मानसिकता को भी व्यक्त करती है।"6 ऐसी स्थिति में कवि की भाषा-चेतना उसके जीवन -बोध का पर्याय बन जाती है। कवि त्रिलोचन का कहना है-
भाषा की लहरों में जीवन का हलचल है
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।
कवि दिनकर, प्रसाद,निराला और नागार्जुन के अनेक प्रगीत सामाजिक जीवन -बोध और सौंदर्य -बोध से युक्त हैं ।ये सामाजिक -राजनीतिक यथार्थ के साथ मानवता और मानवीय अस्मिता-स्वाधीनता को व्यक्त करते हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची-।
1 Sociology ,Lapier R.T.P 37
2Principal of Sociology-Harbert Spencer,Prefece
3 समाजशास्त्र-जी के अग्रवाल,एस बी पी डी पब्लिकेशन्स,आगरा ,पृष्ठ 3
4 वही पृष्ठ 7
5 साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका -डाॅक्टर मैनेजर पाण्डेय हरियाणा ग्रंथ अकादमी पृष्ठ 334.
वही पृष्ठ 335.
सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह ,हिंदी विभाग,
बी एन मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा
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