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Tuesday, October 20, 2020

कब्र की मिट्टी (कहानी )

सर्दी और बढ़ गई थी। मैने लिहाफ़ खींच खुद को उसमे लपेट लिया कि आज देर तक सोऊंगी । वैसे भी रविवार है। मगर तभी फ़ोन की घंटी बजी और मुझे उठ के बैठ जाना पड़ा। सारी सर्दी अचानक गायब हो गई। मुझे जैकेट पहनने का भी ध्यान न रहा। सिर्फ शॉल लपेट निकल गई।
मुहिब के घर के बाहर मीडिया वालों की भीड़ जमा थी। मैं किसी तरह भीड़ को चीड़ते हुए घर मे घुसी तो सामने का दृश्य देख कर एक क्षण को सुन्न रह गई। मुहिब का पार्थिव शरीर फर्श पर पड़ा था। पुलिस आस पास छानबीन कर रही थी। कुछ क्षण बाद जब मैंने कमरे में नज़र दौड़ाई तो पूरा कमरा बिखरा पड़ा था। मुहिब के शरीर पर भी कई ज़ख्म के निशान थे। मैन उसके इकलौते नौकर रहमान( जो कोने में खड़ा सुबक रहा था) से पूछा कि ये सब कैसे हुआ। उसने बस इतना ही बताया कि वो सुबह की नमाज़ को उठा जब उसने साहब के कमरे की बत्ती जलती देखी और जब इधर आया तो ये सब... । क्या हुआ कैसे हुआ कुछ नही मालूम।
मुहिब की मृत्यु के चार दिन हो गए थे। मगर कुछ पता न चला था कि वह इसके मौत के पीछे क्या रहस्य है। मैंने भी चार दिन से अपना सारा काम छोड़ा हुआ था। आज दफ्तर से कॉल आया कि कोई महत्वपूर्ण ईमेल आया है तो कंप्यूटर खोला। इनबॉक्स में मेल न पाकर मैने स्पैम खोला। दफ्तर का मेल देखते समय मेरी दृष्टि मुहिब के मेल पर पड़ी जो उसकी मौत की रात की थी। मैने जल्दी से मेल खोला और उसके साथ ही सारे राज़ खुल गए। सामने मुहिब का लंबा से पत्र था।
" ज़िन्दगी ने बड़े अच्छे से मेरा हिसाब किया"
"कि अपनी हया ढकने को मुझे बेनकाब किया"
वो अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई है 4 सालों बाद। मगर मैं आगे बढ़ कर उसे गले भी नहीं लगा सका। वो ही दौड़ कर मुझसे लिपट गई और भीगे लहज़े में कहा- कहाँ खो गए थे मुहिब? क्या मुहब्बत जिस्मों के हिसार की मोहताज होती है? मैं तो सारी जिंदगी तुम्हारे शानों पर सर रख के गुज़ार दूँ। मुझे उन चीज़ों की तलब नही तुम साथ रहो यही काफी है। और उसने अपना सर मेरे कंधों पर रख दिया। लेकिन मैं उसे अपने आगोश में न समेट सका। कुछ था जो मुझे रोक रहा था। 4 साल पहले भी तो उस रात वो मेरे इतने ही क़रीब थी। कतरा कतरा मुझमे उतरने को तैयार। मगर मैं सिर्फ उसकी पेशानी को बोशा दे कर रह गया। उसके होंठो तक पहुंचने की हिम्मत न हो सकी थी। उसके नाज़ुक होंठो ने मेरे लबों को छुआ मगर मैं झटके में से उसे खुद से दूर कर के कमरे से बाहर निकल गया था। वो हमारी सगाई की रात थी। मुझे कमरे से निकलते हुए उसकी भाभी ने देख लिया और उनके मुखबिर मन ने हमदोनों के बीच की बातें भी सुन ली। जब मैं ज़ेबा से साफ़ लफ़्ज़ों में कह रहा था कि ये सब मुझसे न हो पायेगा। भाभी ने ये बात उसके तीनों भाइयों को बता दी और अगले दिन हमारी सगाई टूट गई। ज़ेबा तो हर हाल में मेरा साथ देना चाहती थी । कहती थी उसने तो मुहब्बत न करने की ठानी थी । आज तक कोई उसके दिल को छू भी नही पाया था मगर मुझसे उसे इश्क़ हो गया है। मेंरी खामोश पर्सनालिटी उसे भा गई थी। मग़र मुझे भी ये रिश्ता उसके ऊपर ज़्यादती लग रही थी। इसलिए उसे बिना बताया मैंने शहर छोड़ दिया। अब कलकत्ता मेरा नया ठिकाना था। ज़ेबा कि याद यहाँ भी मेरा साथ नही छोड़ रही थी इसलिए मैंने ख़ुद को उसके लायक बनाने को सोचा। फिर मेरी रातें कलकत्ते की बदनाम गली के लाल कोठी में गुज़रने लगी। और नतीजा ये हुआ बिना लाल कोठी पर जाय अब मुझे नींद नही आती थी। वो दवा जो मैंने इलाज के लिए लेनी शुरू कि थी मेरी लत बन गई। अब जब के मैं ज़ेबा के पास जाने लायक बन गया था मेरे कदम जाने क्यों उसकी ओर जाने को नही उठ रहे थे। एक बेवफाई का एहसास अंदर ही अंदर मुझे मार रही थी । फिर लाल कोठी की लत ने मुझे अपना गुलाम बना लिया था। क्या इस लत के साथ मैं ज़ेबा की ज़िन्दगी में शामिल हो सकता था? मेरे ज़मीर ने इजाज़त नही दी और मैन खुद को रोक लिया। मगर मेरी मोहब्बत एक तरफ़ा नही थी। ज़ेबा ने मुझे ढूंढ ही लिया। मैं लहरो में उसका अक्स देख रहा था जब वो हक़ीक़त बन कर सामने आ गई।
पिछले 7 दिनों से वो मुझसे मिलने की लगातार कोशीश कर रही है । मगर अब मुझमे उससे नज़रे मिलने की हिम्मत कहाँ। अगर वो मुझे भूल गई होती तो मैं अपनी गलती के साथ जी लेता मगर उसकी पाकीज़ा मुहब्बत ने मुझे और गुनाहगार बना दिया है। मगर अपने इस सड़े गले वजूद को उसके मुहब्बत के पशमिने में ढकना नही चाहता।मेरी वजूद को तो कीड़े लग गए हैं। जो उसकी मुहब्बत की ताब से अंदर से बाहर निकल आये हैं। हर वक़्त ये मेरे जिस्म से चिपके रहते हैं। मेरे पूरे जिस्म पर रेंग रहे हैं। रोज़ इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। हर सिम्त कीड़े ही कीड़े हैं। अब तो समझ नही आता कि मैं इंसान हूँ या महज़ नाली का कीड़ा। मैं इन कीड़ों के साथ नही जी सकता। मैं इन गंदे कीड़ों को उसके खूबसूरत दामन में नही डाल सकता। इसलिए मेरा जाना ही बेहतर है। हाँ मेरा जाना ही बेहतर है।
उसने अपना खत खत्म किया और नीचे एक निवेदन की कि ज़ेबा को उसके घिनोने शक्ल के बारे में कुछ न बताऊँ। बस उस तक इतना पैग़ाम पहुँचा दूँ कि " मैं इतना मजबूर हूँ के चाह कर भी उसका नही हो सकता। वो मुझसे बेपनाह मुहब्बत करती है मेरी मज़बूरी ज़रूर समझ जायगी।"
मुहिब की मृत्यु के पाँचवे दिन। सुबह के समय एक औरत मुझसे मिलने आई। सफेद दुपट्टे में वो ओस की बूंद सी उज्जवल लग रही थी। मगर मुख पर उदासी की मलिन छाया थी। मलिन मुस्कान के साथ उसने जो बात कही उससे मेरा पूरा शरीर कांप गया। हाथों में थमी चाय की प्याली झलक गई।
" मुहिब काल शाम मिले थें मुझसे। कहा आपके पास उनकी ग़ज़लों की एक डायरी है जो उन्होंने मेरे लिए लिखी थी आपसे ले लूं।"
काल शाम!! कहाँ है वो?? मैन आश्चर्य से पूछा
यही तो मैं आपसे पूछना चाहती हूँ। आप उनकी क़रीबी दोस्त हैं गर आपको कुछ इल्म हो तो बताइए। उनके घर का पता तो दीजिये।पिछले चार दिनों से रोज़ मुझसे मिल रहे हैं मगर अपने घर नही ले जाते। जब भी पूछती हैं उठ कर चले जाते हैं। मैं उन्हें फिर से खोना नही चाहती।
झनाक। मेरे हाथों से चाय की प्याली छूट के गिर पड़ी । उसके क़ब्र पर मिट्टी मैन भी तो डाली थी। 


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