कविता....
पीठ पर बेटियां...
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
काकी अक्सर कहा करतीं
कि बाप के पीठ पर बेटे ही
होते हैं और बेटे ही
बनते हैं बाप का सहारा!!
बेटियां बाप के पीठ पर नहीं
होतीं!! और, ना ही वो बाद
में बनतीं हैं बाप का सहारा!!
कि, बहू मुझे अबकी बेटा ही
चाहिए!! इसलिए भी कि वंश
आगे चल सके !!
और, थके- हारे, जले - भूने
मर-मर के खेतों में काम
करने वाले बाप का सहारा
आखिर बेटे ही तो बनेंगें !!
बेटियां , फूल सी कोमल और
सुकुमारी होतीं हैं, कहां - कहां
बाप के साथ खेतों में जलेंगीं !!
फिर, बेटियां पराया धन
भी तो होती हैं!!
वो, बाप के पीठ पर नहीं होतीं!!
बाप की सीने में कील की तरह
होतीं हैं..!!!
कई देवी-थानों में परसादी
से लेकर, मुर्गा- मुर्गी, खस्सी-
पठरु गछती थीं काकी
छुटकु के लिए!!
कुछ, सालों बाद छुटकु आया!!
काकी, नाचतीं- झूमतीं इतरातीं!!
मां की बलैंयां लेतीं,
मां को अशीषतीं
दूधो नहाओ पूतो -फलों!!
यहां भी पूत ही फल रहें थें!!
और, बेटियां हो रहीं थीं होम!!
बहुत सालों बाद जब, छुटकु
चला गया, परदेश, पढनें
और, दादी पडीं खूब बीमार!!
इतना बीमार, कि अपने से उठ
भी ना पातीं थीं !!
और अस्पताल था गांव से कोसों
दूर !!
तब, मैनें, अपनी पीठ पर
टांग कर पहुंचाया था
उनको अस्पताल!!
जब, काकी ठीक हो गईं
तो, काकी मुझे अशीषतीं!!
आंखों से झरते आंसूं
पोछतीं जातीं.. !!
पश्चाताप के आंसू आंखों से
मोतियों की तरह झरते जाते!!
इस, बात का अफसोस
काकी को आजीवन रहा!!
कभी- कभी आत्मग्लानि से
भरकर मेरे बालों में हाथ
फेरतीं!!
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
महेश कुमार केशरी
No comments:
Post a Comment